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मध्य प्रवेश में काकागंज" का जैन पुरातत्त्व
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सुक्ल (शक्ल) पक्षे (चिन्ह) पारस १२ बुधवासरे तादिन इस लेख से ज्ञात होता है कि इस मन्दिर मे दिर मेंपतिष्टकं (प्रतिष्ठापितं) श्री
मान दोनो वेदियों पर क्रमश प्रादिनाथ एव चन्द्रप्रभ प्रति. (२) सवाई सिधै चिमनलाल जू वैक वनीनहा माएं सिंघई चिमनलाल के द्वारा एक ही समय प्रतिष्ठित श्रीमून सधे बलात्कारगणे सर (सु) तीगक्षे च्छे) कराई गयी थी । मति लेखों से मन्दिर के द्वार पर अकित कुदकुद प्राचार्य
लेख की तिथि चतुर्दशी न होकर द्वादशी ही ज्ञात होती है (३) प्राम्नाय मुकाम सागर काकावंगंज । क्योकि दिन दोनो का एक है। दिवसोल्लेख से यह कथन गंज A mina, (2) A Trea 'sury A (3) :
ठीक प्रतीत होता है। हो सकता है बीघ्रता में मने हो A Cow-house, (4) A mart a place where १२ को को १४ अंक पढ लिया हो।
प्रतिसय :- गभीरिया निवासी श्री दुलीचन्द्र जी grain is stored for sale. श्री प्राप्टे जी; सस्कृत अंग्रेजी शब्द कोष १६५५ ।
नाहर बी० ए० सागर से ऐसा ज्ञात हमा है कि इस मदिर ई० पृ० १७८ ।
की व्यवस्था को देखते हुए जैन श्रावको ने प्रादिनाथ
प्रतिमा को यहाँ से स्थानान्तरित करना चाहा था किन्तु मूर्तिलेख क्रमांक २-पार्श्वनाथ प्रतिमा सप्त फणावली से युक्त लगभग ११' ऊंची सफेद सम- उक्त प्रतिमा को जैसे ही उठाने का प्रयास किया जाता
प्रतिमा से पसीने के कण निकलने लगते थे। उक्त प्रतिमर्मर पाषाण से निर्मित यह प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विरामान है। यह प्रतिमा लोकधन मूलधन नामा च. शय के कारण तत्पश्चात् प्रतिमा को स्थानाrafia ी रिया वश के श्रावकों द्वारा प्रतिष्ठित कराई गई थी। किया गया। प्रतिमा के पासन पर मूल लेख निम्न प्रकार कित
शक्ति सम्भावनायें-उक्त मन्दिर की व्यवस्था को देखते
हुए, सुन्यवस्थित व्यवस्था हेतु मेरे निम्न विचार है, जिन (१) संवत् १९११ के फाल्गुन मासे सु. (a) भे पर प्राशा है सागर समाज विचार नरगी। nana
(चिन्द) सु (श) क्ल पक्षे वारस १२ बुधवा- मन्दिर के निकटवर्ती स्थान को व्यवस्थित बना सरे ता दिन
जाय। उसमें २-३ कमरे निकाल दियं जावं। माना (२) प्रतिष्ठाक लोक धन स्री मूलधन चदरिया श्री
व्यवस्था हा। इसी स्थान पर उदासीन प्राश्रम कवतियों मूलसघे बलात्कारगणे सरस (स्व) ती से रहने के लिए निवेदन किया जाये। उनके रहने से (३) गक्ष (च्छे) कुदकुदाम्नाय.......
पूजनादि व्यवस्था सुन्दर बन जावेगी। एक-दो कमरे यदि मूर्ति लेख क्रमांक ३-चन्द्रप्रभ प्रतिमा
यात्रियो के लिए रहें तो बाहरी लोग यही पाकर ठहरन द्वितीय वेदी पर सफेद संगमर्मर पाषाण से सिमित से मन्दिर को भी कुछ लाभ मिलता रहेगा। इस गांति पद्मासन मुद्रा में लगभग १३ फुट ऊंचाई में चन्द्र चिन्ह से मन्दिर को जीर्ण स्थिति सुधरने में देर न लगेगी। युक्त शान्त मुद्रा मे यह प्रतिमा स्थित है। प्रतिमा के अभी यहाँ एक घर ही केवल जैन श्रावक का है।
आसन पर तीन पंक्तियो का संस्कृत भाषा मे नागरी लिपि यदि बतियो का यहाँ निवास हो जावेगा तो थावकों का में निम्न लेख उपलब्ध है :
पावागमन भी बढ़ जावेगा । सुधार के लिए खर्च प्रवक्ष्य (१) संवत् १९११ के फागुन मासे (चिन्ह) सु (२) है जिसके लिए श्रीमान दानवीरों से मेरा नम्र निवेदन है भे सु (पु) क्ल पक्षे १२ बुधवासरे
कि वे इस मन्दिर के जीर्णोद्धार हेतु दान देकर पुण्यार्जन (२) तादिन पतिकं ? सागर काकको (चिन्ह) गंज
करे। प्राशा है मन्दिर की समुचित व्यवस्था हेतु सागर सिंध चिमनलाल...............।
समाज तो अवश्य ही विचार करेगी। परन्तु अन्य जैन (३)...श्री मूलसंधे बलात्कारगणे सरस (सु) ती दानवीर भी यथाशमित मार्थिक सहयोग देकर अपनी जन गछे (गच्छे )...............।
संस्कृति की सुरक्षा कर कृतार्थ करेंगे।