Book Title: Anekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 6
________________ ध्यान (डा. कमल चन्द्र सोगारगो, प्राध्यापक दर्शन शास्त्र, राज ऋषि कालेज अलवर) भारतीय जीवन एवं दृष्टिकोण अध्यात्म प्रधान रहे है। साधारणतया यह समझा जाता है कि जैन दर्शन एक हैं। यद्यपि चार्वाक जैसे भौतिकवादी भारत में पनपे, प्राचार दर्शन है, आध्यात्मिकता को यहां विशेष महत्व किन्तु थे इसकी अध्यात्मप्रधान विचार शैली पर अपमा नहीं दिया गया है। किन्तु यह विचार त्रुटिपूर्ण है । जैन प्रभुत्व स्थापित न कर सके। अध्यात्म यहाँ के साहित्य, प्राचार आध्यात्मिक भूमिका पर अवस्थित है। जैन साहित्य कला और जीवन में अंकुरित हुश्रा, विकसित हश्रा और में सम्यग्दर्शन की महत्ता, गुणस्थानों द्वारा प्रात्मा का फला-फुला है। आध्यात्मिक मूल्यों की दृष्टि से वस्तुभों प्रतिपादन, द्वादश तपों में अंतरंग तपों का स्थान, भात्मा के को परखना भारतीय पद्धति है प्राध्यात्मिक प्रादर्शो का तीन रूपों पर विचार-ये सब बातें इस ओर संकेत करती हैं साक्षात्कार, उनकी गहरी अनुभूति व्यक्तित्व के सर्वागीण कि जैन दर्शन कोरी नैतिक अनुभूति को ही सर्वोपरि नहीं विकास के द्योतक हैं। ध्यान वही साधन है जो प्रादों को मानता, किन्तु प्राध्यामिक अनुभूति को प्राधार रूप में स्वीकोरे विचारों के क्षेत्र से उठाकर जीवन के क्षेत्र में ले प्राता कार करता है। इतना ही नहीं इसकी प्राप्ति का मार्ग भी है। जीवन में श्रादशों से तन्मयता ध्यान का ही प्रतिफल प्रस्तुत करता है। अणुव्रत, महावत, विभिन्न तप साध्य है । ध्यान की प्रक्रिया का उदय मनुष्य के जीवन में उस नहीं साधन हैं। ये सब एक उच्च तत्व, श्रास्मिक तत्व की समय हुमा होगा, जब मनुष्य को यह भान हुआ कि सत्य प्राप्ति की ओर संकेत करते है। अतः इस प्रास्मिक तत्त्व प्राप्ति का संबंध प्राकृतिक शक्तियों की ओर ताकने से नहीं की श्रद्धा, इसकी सतत चेतना, की सर्व प्रथम प्रावश्यकता किन्तु अपने भीतर के अन्धकार को छिन्न-भिन्न करने से है। है। यही सम्यदर्शन है कुन्दकुन्द ने कहा है कि सम्यदर्शन ध्यान मनुष्य के विकास की अवस्था का परिचायक है जब गणरूपी रत्नों में सर्वश्रेष्ठ है और मोक्ष का प्रथम सोपान बाह्य शक्तियों के आश्रित रहकर शान्ति और सन्तोष है। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि सम्यक्त्व के विना माप्त करने में असमर्थ रहा होगा, बाह्य भाडम्बरमय जीवन चारित्र नहीं हो सकता २ । यहां तक कहा गया है कि से वह थक गया होगा, और संकुचित सामाजिक जीवन सम्यक्त्व रहित मनुष्य उम्र तप करते हुए भी सहस्त्र करोड़ से वृहत् सामाजिक जीवन में पदार्पण कर रहा होगा। वर्ष तक बोधि को नहीं पा सकता३ । अतः जिस तरह Dr. Caird ने ठीक ही कहा है "Man looks नगर के लिये द्वार का का, मुह के लिये चक्षु का और outward before he looks, in ward, he वृक्ष के लिये मूल का महत्व है उसी तरह ज्ञान, दर्शन looks inward before he looks upward' वीर्य और तप के लिये सम्यक्स्व का महत्व है। । इस तरह मनुष्य सर्व प्रथम बहिर्मुखी होता है, तत्पश्चात् अन्तमुवी से प्राध्यात्मिक प्रगति जीवन का आदर्श है। इस प्राध्या और फिर सत्यमुखी ध्यान ही अन्तदर्शी मनुष्य को सत्य- त्मिक प्रगति, इस प्राध्सोरिम प्राप्ति के लिये ध्यान पर्वश्रेष्ठ दर्शी बनाता है। और मुख्य बात तो यह है कि ध्यान के साधन है। अन्य सब साधन ध्यान की भूमिका बनाने के माध्यम से सत्य मानव मात्र द्वारा प्राप्ति की वस्तु बन लिये है। ध्यान परम प्रा.मा की प्राप्ति के लिये द्वार है । जाता है । जातीयता ही नहीं राष्ट्रीयता के बन्धन भी दो जैन साहित्य में ध्यान की महत्ता को विभिन्न शब्दों में व्यक्त टूक हो जाते हैं। किया गया है। आराधना मार में कहा गया है कि खूब तप भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का एक विशिष्ट स्थान है, १भाव पा. १४५, २. उत्तरा०२८।२६ प्राध्यात्मिक अनुभूति को यहां सर्वोपरि महत्ता प्रदान की गई ३-दर्शन पा० ५, भ-भगवती प्रा०३६

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