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अनेकान्त [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ उनके ऊपर वृत्तिरूपसे छह हजार श्लोक-प्रमाण भी, अपने 'श्रुतावतार' प्रकरण x के निम्न वाक्योंचूर्णिसूत्रोंकी रचना की। उन चूर्णिसूत्रोंको पढ़कर द्वारा भविष्य-कथनके रूप में इसी बातको पुष्ट उच्चारणाचार्यने उच्चारणसूत्र रचे, जिनकी किया है:संख्या १२हजार श्लोकप्रमाण हैं । संक्षेपतः गाथा
"ज्ञानप्रबादपूर्वस्य नामत्रयोदशमोसूत्रों, चूर्णिसूत्रों और उच्चारण सूत्रोंमें गुणधर, यतिवृषभ एवं उच्चारणाचार्योंके द्वारा 'कपाय- वस्तुकस्तदीयतृतीयप्राभृतवेत्तागुणधरनामगप्राभृत' उपसंहृत हुआ है। इस तरह दोनां सिद्वान्त- णी मुनिभिविष्यति । सोऽपि नागहस्तिमुनेः ग्रंथ द्रव्यभावरूपसे पुस्तकारूढ़ हुए गुरु-परिपाटीसे पातम्यांमत्राणामप्रितिपादयिष्यति । तयो कोंडकुन्दनगरमें 'पद्मनन्दी' मुनिको प्राप्त हुए और उनके द्वारा भले प्रकार जाने तथा समझ
गुणधरनागहस्तिनामभट्टोरकयोरुपकंठे पठिगये। पद्मनन्दीने जो कुन्दकुन्दका ही पहला त्वा तानि सूत्राणि यतिनायकाभिधो मुनिस्तेदीक्षानाम है- पट्खण्डागमके प्रथम तीन खण्डों- पां गाथासूत्राणां वृत्तिरूपेण पट्सहस्त्रपर 'परिकर्म' नामक एक ग्रंथकी रचना की, जिसका प्रमाण-'चूर्णिशास्त्रं करिष्यति तेपां चूर्णिपरिमाण १२ हजार श्लोक-जितना है।' इस कथन
शास्त्राणां समुद्धरणानामामुनि दशसहस्त्रप्रके पिछले तीन पद्य इस प्रकार हैं:
मितां तट्टीकारचयिष्यति निजनामालंकृतांइति गाथाचूण्र्युच्चारणासूत्ररुपसंहृतं कपायाख्य
सूरिपरंपग्या द्विविकसिद्धान्तोवजन् मुनीन्द्रप्राभतमेवं गुणधरयतिवृपभोच्चारणाचायः ॥
___ कुन्दकुन्दाचार्यसमीपे सिद्धान्तं ज्ञात्वा कुन्दएवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन् । कीर्तिनामा पटवंडानां मध्ये प्रथमत्रिखंडानां गरुपरिपाटया ज्ञातः सिद्धान्तः कोण्डकुन्दपुरे॥ द्वादशसहस्रप्रमितं परिकर्म' नामशास्त्रं श्रीपद्मनन्दिमुनिना सोऽपिद्वादशसहस्रपरिमाणः। करिष्यति ।" ग्रन्थपरिकर्मकर्ता पटवण्डा-ऽऽयत्रिखण्डस्य ।।*
इन्हीं सब बातोंके आधारपर बनी तथा पुष्ट -नं० १५९, १६०, १६१
हुई मान्यताके फलस्वरूप, सुहृद्वर पं० नाथूरामजी इन्द्रनन्दीके इस कथनके आधारपर अबतक प्रेमीने, 'त्रिलोकप्रद प्ति' का परिचय देते हुए, जब यह समझा और माना जाता रहा है कि कुन्द- उसमें प्रवचनसारकी 'पस सरासरमणुसिंदवंदियं' कुन्दाचार्य यतिवृपभाचार्य के बाद हुए हैं । विबुधश्रीधरने , दूसरी कुछ बातोंमें मत भेद रखते हुए
___ ~ यह प्रकरण 'पंचाधिकार' नामक शास्त्रका चौथा * देखो, 'माणिकचंदग्रंथमाला' में प्रकाशित परिच्छेद है और उक्त माणिकचन्द्रग्रंथमालाके २१ वे 'तत्त्वानुशासनादिसंग्रह' के अन्तर्गत 'श्रुतावतार' । ग्रंथसंग्रहमें प्रकाशित हुआ है।