Book Title: Anand Pravachan Part 07 Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain Publisher: Ratna Jain Pustakalaya View full book textPage 8
________________ प्रस्तावना मानव विश्व का शृगार है, उससे बढ़कर विश्व में कोई भी श्रेष्ठ व ज्येष्ठ प्राणी नहीं है । असीम सुखों में निमग्न रहने वाले देव भी मानव की स्पर्धा नहीं कर सकते । वह अनन्त शक्ति व तेज का पुञ्ज है । विश्व का भाग्यविधाता है, बेताज का बादशाह है। उसके तेजस्वी चमक-दमक से विश्व आलोकित है। उसने अपनी प्रत्यग्र प्रतिभा के बल पर जो संस्कृति, सभ्यता और विज्ञान का नव-निर्माण किया है वह अद्भुत है । उसकी परमार्थ की भावना भव्य है। मानव का उर्वर मस्तिष्क पशुओं की तरह नीचे झुका हुआ नहीं है किन्तु दीपक की लौ की तरह सदा ऊपर उठा हुआ है । वह इस बात का प्रतीक है कि अनन्त आकाश की तरह उसके विचार विराट हैं, सूर्य की तरह तेजस्वी हैं, चन्द्र की तरह सौम्य हैं, ग्रह नक्षत्रों की तरह सुखद हैं । वह चाहे तो इस भू-मण्डल पर अपने निर्मल विचार और पवित्र आचार से स्वर्ग उतार सकता है । आज का मानव विकास के नये मोड़ पर है। विज्ञान-रूपी दानव की असीम कृपा से उसने बाह्य प्रकृति पर विजय-बैजयन्ती फहरा दी है, पर स्वयं की प्रकृति पर विजय नहीं पा सका है । यातायात की सुविधा से जैसे संसार सिमटता चला जा रहा है वैसे ही उसका मन भी सिमटता चला जा रहा है, उसमें स्नेह, सहयोग एवं सद्भाव का अभाव होता जा रहा है। वह बाहर से तो खूब चुस्त और दुरुस्त है पर भीतर से दायित्व शून्य है, उसमें स्पन्दन नहीं, सम्वेदना नहीं। सूर्य के प्रकाश की तरह यह स्पष्ट है कि विज्ञान ने मानव की एकांगी प्रगति की है। वह जीवन के आध्यात्मिक पक्ष की उन्नति नहीं कर सका है । अध्यात्म पक्ष की उन्नति के अभाव में विज्ञान वरदान नहीं अपितु अभिशाप सिद्ध हो रहा है। आज का जन-जीवन विविध समस्याओं से आक्रान्त है। क्या परिवार, क्या समाज और क्या राष्ट्र सभी समस्याओं में उलझे हुए हैं, जिधर देखो उधर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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