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अहिंसा दर्शन जाती है, वह अहिंसा की श्रेणी में नहीं आती है। वस्तुतः अन्तरङ्ग में आंशिक साम्यता आए बिना अहिंसा की शुरुआत हो ही नहीं सकती।
कहा जाता है कि चारों तरफ हिंसा बढ़ रही है। सम्पूर्ण विश्व में रोजमर्रा की जिन्दगी में हिंसा प्रभावी हो रही है। इस सन्दर्भ में क्या कभी यह विचार किया कि वास्तव में हिंसा कितनी बढ़ रही है? क्या बाह्य हिंसा की मात्रा बाह्य अहिंसा से अधिक हो गई है? सामान्यतः मनुष्य चौबीस घण्टे किसी न किसी को सिर्फ मारने-मारने का काम नहीं कर सकता। यह घटना कभी-कभी ही होती है। अधिकांश समय मनुष्य शान्ति से किसी को कष्ट पहुँचाए बिना ही व्यतीत करता है। दंगे-फसाद भी कोई वर्षभर तो चलते नहीं हैं। कभी-कभी अचानक इस प्रकार की घटनाएँ होती हैं। ऐसी घटनाएँ ज्यादा भी हों तो भी उन दिनों की संख्या कहीं ज्यादा ही निकलेगी, जिन दिनों में ऐसी घटना या बातें नहीं होती हैं।
बात स्पष्ट है कि हिंसक प्रवृत्ति की प्रधानता वाला मनुष्य या समाज भी सतत हिंसा बर्दाश्त नहीं कर सकता क्योंकि हिंसा प्राणीमात्र का स्वभाव नहीं अपितु विभाव है। मनुष्य का मूलस्वभाव तो अहिंसा है। जिस प्रकार जल का स्वभाव शीतलता है किन्तु कभी अग्नि आदि के संयोग से वह गर्म हो जाता है। उष्णता, जल का स्वभाव नहीं है, इसलिए अग्नि का निमित्त हट जाने पर कुछ समय बाद वह पुनः स्वतः शीतलता की ओर बढ़ता है और वहाँ पहुँचकर सदा स्वतः वैसा ही बना रहता है।
यद्यपि तथाकथित कुछ मनोवैज्ञानिकों की मान्यता है कि हिंसा भी मनुष्य का स्वभाव है, परन्तु यह उनके सोचने का अपना तरीका है। उनके हिंसा-अहिंसा के कारणों को खोजने के मापदण्ड भिन्न हैं, तथापि धर्म की यह मान्यता है कि मनुष्य में सिर्फ शरीर और मन ही नहीं है बल्कि मनुष्य में एक आत्मा भी वास करती है और उस आत्मा का स्वभाव, अहिंसा, क्षमा, शान्ति, और करुणा है।