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अहिंसा दर्शन 5. मुझे अपनी आत्मा को राग-द्वेषादि विकारीभावों (हिंसा) से बचाना है; उससे बाह्य अहिंसा तो स्वतः ही जीवन में आ जाएगी।
एक ही सिद्धान्त को अलग-अलग सन्दर्भ में स्वीकार करने से दो तरह के परिणाम सामने आते हैं। अध्यात्माभासी अज्ञानी के विचार, पापकर्म के बन्धनरूप हैं और आध्यात्मिक ज्ञानी के विचार कर्मों की निर्जरा (समाप्ति) के कारण हैं। इनमे एक का विचार जीवन को हिंसारूपी महा दल-दल में फँसाता है तो दूसरे का विचार संसारचक्र से बाहर निकालने का कार्य करता
राग ही हिंसा है रागादीणमणुप्पाओ, अहिंसकत्तं त्ति देसियं समए।
तेसिं चे उप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहि णिहिवा।। जिनेश्वर ने कहा है- राग आदि की अनुत्पत्ति अहिंसा है और
उनकी उत्पत्ति हिंसा है। (समणसुत्तं, अहिंसासूत्र)