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अहिंसा दर्शन
हिंसा का निवारण
हिंसा और अहिंसा दोनों के बीज, मनुष्य के भीतर ही हैं। ऐसी स्थिति में वातावरण पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। क्योंकि वही सबसे पहले हमारे सामने आता है। भगवान महावीर ने कहा - निमित्त और उपादान, परिस्थिति और अन्तर्जगत्, दोनों को तोड़कर मत देखो। कुछ लोग सारा भार परिस्थिति पर ही डाल देते हैं। परिस्थिति नहीं बदलेगी तो समस्या का समाधान नहीं होगा। दूसरी ओर अध्यात्मवादियों का मत है कि जब तक अन्तर्जगत् में सुधार नहीं होगा, उपादान नहीं बदलेगा तो समस्या का समाधान नहीं होगा। ये दोनों ही एकाङ्गी दृष्टिकोण हैं। निमित्त और उपादान - दोनों जुड़े हुए हैं। जो घटित होता है, इन दोनों की उपस्थिति में ही घटित होता है। समग्र परिवर्तन के लिए दोनों पर ध्यान देना अपेक्षित है। अन्तरङ्ग विशुद्धि के साथ-साथ सामाजिक, पारिवारिक या राष्ट्रीय विशुद्धि भी आवश्यक है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। अहिंसा प्रशिक्षण
वैयक्तिक और सामाजिक स्तर पर इस प्रकार के प्रयोग होते हैं किन्तु जब तक राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्तरूप से इस तरह की कोई गतिविधि नहीं होगी, तब तक हम लक्ष्य से दूर रहेंगे। गाँधीजी, अहिंसा प्रशिक्षण के माध्यम से एक शान्ति सेना की कल्पना करते थे। इसके लिए उन्होंने पृष्ठभूमि भी तैयार कर ली थी किन्तु जब तक वे इस योजना को वृहद्प दे पाते, उनका निधन हो गया। 'गाँधी स्मृति एवं दर्शन समिति' के निदेशक एन. राधाकृष्णन ने इस सम्बन्ध में प्रयास किए हैं। उन्होंने 'गाँधी की अहिंसा : प्रशिक्षक निदर्शिका' नामक पुस्तक भी इस उद्देश्य से लिखी
अहिंसा प्रशिक्षण की एक सुव्यवस्थित कल्पना अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तक आचार्य तुलसी तथा उन्हीं के शिष्य आचार्य महाप्रज्ञजी ने भी की है। इन्होंने अत्यन्त श्रमपूर्वक अहिंसा की मूल भावना और मनुष्यता की मूल