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परिशिष्ट
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बाद में सूफी कवियों ने भी अपनी रचनाओं में उन्हीं आध्यात्मिक चेतना को आवाज़ दी जो जैन परम्परा की अमूल्य मौलिक धरोहर रही है। एक उदाहरण प्रस्तुत है
ता न गरदद नफ्स ताबे रुहरा, कैद वा यावी दिले मजरूहरा। मुर्गे जाँ अज़ हत्से तन यावद रिहा, गर बतेग् लकुशी ईं अज़हदा।।
अर्थात् जब तक कि नफ्स (इन्द्रियाँ) आत्मा के वश में नहीं होती, तब तक हृदय का आताप-सन्ताप दूर नहीं हो सकता, शरीर सम्बन्ध से भी आत्मा मुक्त हो जाये, यदि इस अजदहे (नफ्स) को वैराग्य के खड्ग से मार डाला जाय।'
___ डॉ. विशम्भर लिखते हैं कि 'सालेह बिन अब्दुल कुद्दूस भी एक अहिंसावादी परिव्राजक मुनि था जिसे उसके क्रांतिकारी विचारों के कारण सन् 793 ई. में सूली पर चढ़ा दिया गया। अकुल अताहिया, जरीर, इब्न हज्म, हम्माद अजरद, यूनान बिन हारून अली बिन ख़लील और बरशार अपने समय के प्रसिद्ध अहिंसावादी निर्ग्रन्थी फकीर थे।'
वे आगे लिखते हैं कि नवमी और दशमी शताब्दियों में अब्बासी खलीफाओं के दरबार में भारतीय पंडितों और साधुओं को आदर के साथ निमंत्रित किया जाता था। इनमें बौद्ध और जैन साधु भी रहते थे। इब्न-अन नजीम लिखता है कि-'अरबों के शासनकाल में यहिया इब्न खालिद बरमकी ने खलीफ़ा के दरबार और भारत के साथ अत्यन्त गहरा सम्बन्ध स्थापित किया। उसने बड़े अध्यवसाय और आदर के साथ भारत से हिन्दू, बौद्ध और जैन विद्वानों को निमंत्रित किया।'
इसी प्रकार जैन धर्म-दर्शन ने जलालुद्दीन रूमी एवं अन्य अनेक ईरानी सूफियों के विचारों को प्रभावित किया।
सारांश के रूप में हम यह कह सकते हैं कि संसार की प्रत्येक धर्म, संस्कृति, सभ्यतायें और दर्शन सदा से एक दूसरे को प्रभावित करते रहे हैं।