Book Title: Ahimsa Darshan Ek Anuchintan
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Lal Bahaddur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapitham

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Page 144
________________ 142 अहिंसा दर्शन जीवन जीने के लिए कुछ अनैतिक धारणाएं उपक्रम के रूप में अपनानी ही होती हैं। यदि वास्तविकता देखी जाए तो ये युग और परिस्थिति का बहाना दुर्बल मनोवृत्ति का सूचक है। मानव मन की दुर्बलता अच्छी से अच्छी परिस्थिति में भी व्यक्ति को कर्तव्यों से स्खलित कर देती है और यदि उसका मन प्रबल हो तो वह किसी भी स्थिति से निपटने का साहस जुटा लेता है। विश्व में विविध प्रकार की वनस्पतियाँ मनुष्य के उपयोग के लिए ही तो हैं फिर भी यदि हम उनके स्थान पर दूसरे प्राणियों को आहार बनाते हैं तो प्रकृति के संतुलन और पर्यावरण के साथ खिलवाड़ ही करते हैं। अस्तित्व में जीवनधारी और प्रकृति की अस्मिता को स्वीकारना हमारा विवेक धर्म है। वस्तुतः बात दरअसल यह है कि आज हम इतिहास के एक ऐसे संवेदनशील मोड़ पर आ खड़े हुए हैं जहाँ अच्छे-बुरे, खरे-खोटे के बारे में सोचना लगभग ठप्प पड़ा है। यदि हम वास्तव में चाहते हैं कि स्वस्थ जीवन रहे, नैतिक जीवन रहे, और प्राकृतिक संतुलन रहे तो शाकाहार के समर्थन में हमें स्वस्थ जनमत तैयार करना होगा। इस बात से नकारा नहीं जा सकता कि शाकाहार भारतीय संस्कृति का मुख्य अंग रहा है। वेदों से लेकर महावीर बुद्ध के समय को पार करते हुए महात्मा गांधी के जीवन और वाणी में हमें इसकी गूंज सदा मिलती है। हमें भारतीय संस्कृति और विश्व की प्रगतिशील संस्कृति को देखते हुए परिवार के छोटे-बड़ों को समझाना चाहिए कि शाकाहारी होना सभ्यप्रगति और सुरक्षित शुद्ध प्रकृति की ओर कदम बढ़ाना है। ताकि हिंसा के बढ़ते हुए कदम रुकें प्रकृति सुरक्षित रहे और अमन चैन, सुकून, शांति और हमारा अस्तित्व बच सके। किसी कवि ने बहुत मर्मवेदनापूर्वक कहा हैभूख मिटाने के लिए काफी हैं चंद रोटियाँ, फिर मनुज क्यों खाता है पशुओं की बोटियाँ ?

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