Book Title: Ahimsa Darshan Ek Anuchintan
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Lal Bahaddur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapitham

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Page 137
________________ दशम अध्याय 135 प्रवृत्ति एवं हिंसा का मूल कारण है- आहार के प्रति शुद्धता एवं अविवेक । यह सभी जानते हैं कि आहार का प्रभाव केवल शरीर पर ही नहीं बल्कि मन और मस्तिष्क भी उससे पूर्णतः प्रभावित होते हैं। शुद्ध पर्यावरण के लिए मानव मन शुद्ध रहे यह अति आवश्यक है। व्यक्ति जैसा खाता है वैसा ही उसका मन, चिन्तन, वचन और व्यवहार बनता जाता है। अतः प्राकृतिक संतुलन तथा सात्विक आचार-विचार और व्यवहार के लिए सात्विक आहार के रूप में शाकाहार ही आवश्यक है न कि मांसाहार । क्योंकि हम देख रहे हैं कि वर्तमान में मांसाहार का अत्यधिक प्रचलन भी दूषित मनोवृत्तियों एवं व्यवहार में अभिवृद्धि का मुख्य कारण है । जब साधन दूषित होंगे तो साध्य दूषित होना भी स्वाभाविक हैं । पर्यावरण और जीवन रक्षा बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जहरीले पदार्थों के व्यापक प्रयोग से, मांसाहार की बढ़ती प्रवृत्ति से तथा प्रकृति के निर्मम दोहन से जीवों की अनेक प्रजातियों की विलुप्तीकरण की दर तेजी से बढ़ी है। पिछले 2000 वर्षों में जो प्रजातियाँ विलुस हुई इस बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में अकेले आधी से अधिक प्रजातियाँ विलुप्त हुई हैं। जैविकविदों की मान्यता है कि पिछले 350 वर्षों में बीसवीं सदी के मध्य तक प्रति दस वर्ष में प्राणियों की एक जाति उपजाति नष्ट हुई है। प्रकृति व प्राकृतिक साधनों के अन्तर्राष्ट्रीय रक्षा संगठन ने अनुमान लगाया है कि अब औसतन हर वर्ष एक न एक जाति या उपजाति लुप्त हो जाती है। इस समय पक्षियों और जानवरों की लगभग 1000 जातियों के लुप्त होने का खतरा है। पशुधन की स्थिति एक समय था कि आस्ट्रेलिया में सबसे अधिक पशुधन था, किन्तु अब वहाँ एक हजार व्यक्ति के पीछे यह आँकड़ा 1450 का ही रह गया है। अर्जेन्टीना में एक हजार के पीछे यह आंकड़ा 2089 है जो विश्व में सम्भवतः सबसे अधिक है। भारत में यह आंकड़ा केवल 279 है। कोलम्बिया और

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