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सप्तम अध्याय
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अहिंसा न तो किसी और को सताती है, न स्वयं को सताती है, अहिंसा सताती ही नहीं। हिंसा ही सताती है। हिंसा के गृहस्थ रूप हैं, सन्यस्त रूप हैं; हिंसा के अच्छे रूप हैं, बुरे रूप हैं और अगर दोनों से सजग हो जाएँ तो शायद अहिंसा की खोज हो सकती है।
सीमान्त गाँधी और अहिंसा
गाँधीजी के समय ही लगभग 1930 में भारत के उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त (अब पाकिस्तान) में पठान जाति के नेता खान अब्दुल गफ्फार खान बहुत प्रसिद्ध हुए; इन्होंने खासकर भारतीय उपमहाद्वीप की जनता के विभिन्न वर्गों में अहिंसा का सन्देश फैलाया। गाँधीजी की ओर आकर्षित होना, इनके जीवन की महत्वपूर्ण घटना है। श्री खान ने अपना सारा जीवन अपने अनुयायियों के हृदयों में गाँधीजी की अहिंसा की मशाल जलाने में लगा दिया। आपने 'लालकुर्ती आन्दोलन' चालू किया, जिसे 'खुदाई खिदमतगार' के नाम से जाना जाता है। इस आन्दोलन के माध्यम से उन्होंने गाँधीजी की अहिंसा को व्यवहार में और अधिक अर्थवान् बनाया। ये हजारों पठानों को संगठित करने में सक्षम हुए। उग्र पठानों को अहिंसा के पुजारियों में बदल देना, इनकी नेतृत्व क्षमता का ज्वलन्त उदाहरण है। महात्मा गांधी इन्हें 'बादशाह खान' के नाम से पुकारते थे। आपको सीमान्त गांधी के नाम से भी जाना जाता है।
गफ्फार खान लालकुर्ती के केन्द्र स्थापित करने के लिए गाँव-गाँव घूमे। छह माह के भीतर ही सारा प्रान्त लालकुर्तियों से भर गया। खुदाई खिदमतगारों की संख्या 500 से 80,000 तक पहुँच गई और उसने बाद में 1,00,000 की अहिंसक सेना का रूप ले लिया। इस सेना की नियमित परेड होती थी, उनके पास कोई हथियार नहीं होते थे, कोई अस्त्र-शस्त्र, छड़ी या लाठी तक भी नहीं होती थी। उन्होंने सैनिक तौर-तरीके के लम्बे-लम्बे मार्च आयोजित किए।