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सप्तम अध्याय
प्रमुख भारतीय चिन्तक और अहिंसा
हमने अहिंसा की प्राचीन अवधारणा को देखा है, पढ़ा है। इस अवधारणा का संबंध हमारे धर्म से है। जो युगों-युगों से अविरल रूप से हमारे सामने आज भी जीवत है। भारत में आधुनिक युग में भी ऐसे अनेक महापुरुष हुये हैं जिन्होंने चिन्तन में तथा जीवन के प्रयोगों में अहिंसा को जिया है। उनमें कतिपय चिन्तक और सन्तों के विचार बिन्दु निष्कर्ष के रूप में यहाँ प्रस्तुत हैं।
आचार्य शान्तिसागर एवं अहिंसा
आचार्य शान्तिसागरजी मुनिराज दिगम्बर जैन परम्परा के एक महान् तपस्वी आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं। आप अहिंसा महाव्रत के जीवन्त प्रतीक थे। आपका जन्म बुधवार, 25 जुलाई 1872 को भोजग्राम, दक्षिण भारत में हुआ था। बाल्यकाल से ही आप धार्मिक प्रवृत्ति के थे। घर में रहकर भी जीवन को धर्म की साधना में लगाते थे। आप भगवान महावीर की परम वीतरागी नग्न दिगम्बर दशा की उत्कृष्ट साधना को अपने जीवन में उतारना चाहते थे। आत्मकल्याण के उद्देश्य से आपने गृहस्थावस्था का त्याग कर दिया और 25 जून 1915 को क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। 15 जनवरी 1919 को ऐलक दीक्षा ग्रहण की और 2 मार्च 1920 को आप मुनि दीक्षा ग्रहण कर नग्न दिगम्बर हो गये। बुधवार, 08 अक्टूबर 1924 को आप आचार्य बने।
आपकी चारित्रिक तपस्या की उत्कृष्टता को देखकर चतुःसंघ ने आपको चारित्र चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित किया। जीवन भर आपने गाँव-गाँव पैदल ही भ्रमण किया, सभी जीवों को अहिंसा का उपदेश दिया। उनके जीवन की कई घटनाएँ अहिंसा धर्म की ज्वलन्त उदाहरण हैं। आपने सभी प्रमुख आगमों का स्वाध्याय किया तथा सभी को स्वाध्याय की प्रेरणा