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सप्तम अध्याय
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भारतीय फिर भी उनकी सेवा करते थे, अतः विवेकानन्द का यह चिन्तन प्रसङ्ग तथा परिस्थितियों के अनुकूल माना गया, वे आक्रमण सहने के पक्ष में नहीं थे।
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अहिंसा की कसौटी को लेकर वे कहते थे कि अहिंसा की कसौटी है - ईर्ष्या का अभाव । कोई व्यक्ति भले ही क्षणिक आवेश में आकर अथवा किसी अन्धविश्वास से प्रेरित हो या पुरोहितों के छक्के पज्जे में पड़कर कोई भला काम कर डाले अथवा बड़ा दान दे डाले, पर मानवजाति का सच्चा प्रेमी तो वह है, जो किसी के प्रति ईर्ष्याभाव नहीं रखता। बहुधा देखा जाता है कि संसार में जो बड़े मनुष्य कहे जाते हैं, वे अक्सर एक-दूसरे के प्रति थोड़े से नाम, कीर्ति या चाँदी के चन्द टुकड़ों के लिए ईर्ष्या करने लगते हैं। जब तक यह ईर्ष्याभाव मन में रहता है, तब तक अहिंसाभाव में प्रतिष्ठित होना बहुत दूर की बात है।"
वे अहिंसा के लिए आत्मज्ञान को आवश्यक मानते थे। उनका विचार था कि 'आत्मा के ज्ञान बिना जो कुछ भौतिकज्ञान अर्जित किया जाता है, वह सब आग में घी डालने के समान है। उससे दूसरों के लिए प्राण उत्सर्ग कर देने की बात तो दूर ही रही, इससे स्वार्थी लोगों को दूसरों की चीजें हर लेने के लिए दूसरों के रक्त पर फलने-फूलने के लिए एक और यन्त्र, एक और सुविधा मिल जाती है। 2
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विवेकानन्द की अहिंसा और महर्षि अरविन्द की अहिंसा काफी कुछ साम्य रखती है। यह अहिंसा स्थूल तथा व्यावहारिक अहिंसा है। राजनीति, समाज तथा जीवन- व्यवहार की दृष्टि से परिस्थितिवशात् ऐसी अहिंसा की अवधारणाएँ बहुत अधिक रोचक तथा तर्कपूर्ण प्रतीत होती हैं। इस अहिंसा
हम भौतिक अध्यात्मवाद कह सकते हैं। आत्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा और धर्मरक्षा के लिए हिंसा को उचित कहने वालों की परम्परा भी नयी नहीं हैं। प्राचीन काल से इस प्रकार की अवधारणाएँ चली आ रही हैं।
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विवेकानन्द साहित्य, IV / 41
विवेकानन्द साहित्य, II / 16