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अहिंसा दर्शन
1. मैंने जो हिंसा की, उसमें मैं निमित्तमात्र बना; वस्तुतः मैं उसका कर्ता नहीं हूँ।
2. मुझसे हिंसा हो गई, किन्तु मेरी भावना शुद्ध थी; अत: दोष नहीं लगना चाहिए।
3. जब प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतन्त्र व निश्चित है तो मेरे द्वारा यह हिंसा होना भी निश्चित ही है; अत: मेरा क्या दोष?
4. आत्मा कभी नहीं मरती; अतः मेरे द्वारा हत्या कैसे हुई? अतः यह दोष मिथ्या है।
5. हमने तो अच्छा काम किया है क्योंकि शरीर से बँधी आत्मा को मुक्त कर दिया है।
इस तरह के अनेक कुतर्कों का सहारा लेकर कई लोग अध्यात्म के मूल रहस्य को न समझते हुए हिंसा को तर्क-सम्मत तथा धर्म-सम्मत ठहराने की कोशिश करते हैं, ताकि उनकी हिंसा की प्रवृत्ति भी बनी रहे और वे निर्दोष भी कहलाएँ, इसे ही अध्यात्म को पढ़कर स्वच्छन्द होना कहते हैं।
यहाँ उक्त समस्या के समाधान के लिए इस बात का स्पष्टीकरण जरूरी है - कि इतना उत्कृष्ट अध्यात्म किस स्थिति में होता है? - सामान्य गृहस्थ व्यक्ति, व्रतों का पूर्ण पालन करने में असमर्थ है, अतः उसके लिए हिंसा के अल्पीकरण की बात कही गयी है। संयमी महाव्रती मुनि के लिए पूर्ण अहिंसा महाव्रत की बात कही है। किसी भी जीव के प्राणों का वियोग, असीम वेदना का कारण होता है; अत: व्यवहार से यही हिंसा है और इस हिंसा में जो जीव निमित्त बनता है, उसके भावों के अनुसार उसे भाव और द्रव्य, दोनों तरह का बन्ध होता है। इस बन्ध का परिणाम भी उसे आगे जाकर स्वयं भुगतना पड़ता है। यह भी द्रव्य का स्वतः और स्वतन्त्र परिणमन ही है; अत: इन कुतर्कों से हिंसा को करणीय मानना या स्वयं को निर्दोष मानना, स्वच्छन्दता है, जिसका बुरा परिणाम स्वच्छन्दी जीव स्वयं भुगतता है।