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चतुर्थ अध्याय
1. सार्थक हिंसा और 2. निरर्थक हिंसा
सार्थक हिंसा से तात्पर्य है - प्रयोजनमूलक आवश्यक हिंसा, जिसके बिना हम जी नहीं सकते। जैसे, पौधों या वृक्षों से भोजन-सामग्री लेना
आदि। दूसरी, अनर्थक अथवा निरर्थक हिंसा का तात्पर्य है - निष्प्रयोजन हिंसा। जैसे, हमारे जीवन में ऐसी भी अनेक प्रकार की ऐसी हिंसाएँ होती हैं, जिनको छोड़ने से हमारी कोई हानि नहीं होती। व्यर्थ की हिंसा से हमारा जीवन भरा पड़ा है; अत: यदि गृहस्थ पूर्ण हिंसा का त्यागी नहीं हो सकता तो हिंसा छोड़ने का प्रारम्भ तो अनावश्यक हिंसा को छोड़कर किया ही जा सकता है। जो-जो आवश्यक नहीं, उसे छोड़ते चले जाएँ, इसके बाद जो अति आवश्यक बचेगा, वही जीवन का यथार्थ होगा, सार्थक हिंसा होगी।
खाने के लिए वृक्ष से पके हुए फल तोड़ना अपराध नहीं है, किन्तु उसके लिए पूरी डाल तोड़ लेना या पूरा वृक्ष काट डालना, अपराध है। यही सार्थक हिंसा और निर्थक हिंसा में भेद है।
हिंसा के दुष्परिणाम -
आज हिंसा के भयङ्कर दुष्परिणाम सभी के सामने हैं। परमाणु बमों के प्रयोग से हिरोशिमा और नागासाकी की जो हालत हुई, वह किसी से छिपी नहीं है। आज भी उस युद्ध के परिणाम की तस्वीरें देख लें तो दिल दहल उठता है। प्रश्न उठता है अस्तित्व की कीमत पर इतनी हिंसा क्यों? जब मनुष्य ही नहीं रहेगा तो किसका राज्य रहेगा और किसकी सत्ता रहेगी? अपने अहं और अनियन्त्रित आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य अपनी शक्तियों का दुरुपयोग इस कदर कर रहा है कि उसकी हिंसा से न परिवार सुरक्षित है, न समाज, न राष्ट्र और न ही विश्व।
आतंकवाद, साम्प्रदायिक दंगे, व्यक्तिगत और अन्यान्य सम्पत्ति के लिए होने वाले संघर्ष और राज्य, भाषा एवं धर्म को लेकर होने वाली तथा विविध राजनैतिक हिंसाएँ क्या मानव-जीवन के हित में हैं ? उत्तर होगा - नहीं; तो फिर यह सब व्यर्थ में क्यों और किसलिए की जाती हैं?