________________
48
अहिंसा दर्शन
नहीं बल्कि प्रयोगिक रूप में भी स्पष्ट दिखलाई देती है। मानसिक और वाचिक अहिंसा - अनेकान्त और स्याद्वाद
जैनधर्म ने सापेक्ष चिन्तन पर जोर दिया है। हम कभी किसी भी घटना या परिस्थिति को सिर्फ अपनी ही दृष्टि से न सोचें; दूसरों के सम्यक् दृष्टिकोण का भी ख्याल रखें, हो सकता है कि वह सही हो। इसे जैनधर्म का 'अनेकान्त-चिन्तन' कहते हैं। जैनदर्शन के अनुसार 'हिंसा' का मूलकारण 'एकान्त-चिन्तन' ही है। जैनदर्शन 'मेरा सो खरा' वाली नीति पर विश्वास नहीं करता। उसे तो 'खरा सो मेरा' वाली ही नीति ही पसन्द है और यही उसका अनैकान्तिक दृष्टिकोण है। सत्य अनेकान्त स्वरूप ही है। अपने अलावा दूसरों के सम्यक् विचारों का भी चिन्तन करना और वस्तु में गर्भित अनन्त और परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का विचार करना, यह चिन्तन में अनेकान्त है, इसे 'मानसिक अहिंसा' का नाम दिया गया है।
जैनदर्शन के अनुसार "जो वस्तु तत् (जैसी) है, वही अतत् (वैसी नहीं) है; जो एक है, वही अनेक है; जो सत् है, वही असत् है; जो नित्य है, वही अनित्य है; इस प्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व को उत्पन्न करने वाली परस्पर-विरुद्ध दो शक्तियों का एक साथ प्रकाशन होना, अनेकान्त है।''
वचनों का संसार भी अद्भुत है। हम वचनों को भी सापेक्ष बनाकर उन्हें शुद्ध कर सकते हैं। एकाङ्गी या मिथ्या वचनों का प्रयोग अशान्ति फैलाता है, इसीलिए वाणी की पवित्रता व सत्यता बहुत जरूरी है; अतः जैनधर्म वाणी में स्याद्वाद सिद्धान्त के प्रयोग की बात कहता है।
स्याद्वाद का अर्थ है कि सापेक्ष अर्थात् किसी अपेक्षा से कथन करना। जैसे, मैं कहूँ कि 'मैं पुत्र हूँ' तो यहाँ संशयपूर्ण वचन होगा, परन्तु यदि मैं कहूँ कि 'मैं माता-पिता की अपेक्षा पुत्र हूँ' तो यह वचन अधिक शुद्धवचन
1.
यदेव तत्तदेवातत् यदेवैकं तदेवानेकं यदेव सत्तदेवासत् यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुतत्त्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः ।
-आचार्य अमृतचन्द्र - समयसार टीका, स्याद्वादाधिकार