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तृतीय अध्याय चलते-फिरते निष्प्रयोजन (Unnecessary) पेड़-पौधों अथवा फूलों को तोड़ना, टहनियाँ या पत्ते तोड़ना, चलते समय पैरों के नीचे छोटे-छोटे निर्दोष जीवों का ख्याल न करना, घास-फूस को कुचलना, उन पर मल-मूत्र त्यागना, बैठेबैठे हाथ-पाँव चलाना, नदी-तालाब किनारे बैठकर उसमें पत्थर या कूड़ाकरकट फेंकना इत्यादि अनेक उदाहरण हैं, जब हम अनायास अकारण और निष्प्रयोजन ही कायिक हिंसा करते हैं, जबकि मन में हिंसा की भावना नहीं रहती है। यहाँ प्रमाद, हिंसा का कारण बनता है। इससे पर्यावरण भी बिगड़ता है तथा इस पर हमारी आदतों से बुरा असर पड़ता है। मन-वचन-काय की अहिंसा का पालन करके हम पर्यावरण को भी सन्तुलित रख सकते हैं। मानसिक और वैचारिक प्रदूषण, शोर-शराबे का प्रदूषण और हमारी असंयमित क्रियाओं से अन्य सभी किस्म के प्रदूषण, हमारे वातावरण को दूषित बना देते हैं, जिससे शान्ति भङ्ग होती है, पर्यावरण असन्तुलित होता है। अहिंसा के द्वारा हम इसे सन्तुलित बना सकते हैं। जैनधर्म की अहिंसा का प्रभाव
जैनधर्म की सैद्धान्तिक और व्यवहारिक अहिंसा ने सबको प्रभावित किया। यज्ञों में पशुबलि आदि हिंसक वृत्तियों को दूर करके उन्हें पवित्र बनाने का श्रेय भगवान महावीर की अहिंसक वाणी को जाता है। सिर्फ भारत ही नहीं वरन् भगवान महावीर की दिव्य ज्योति का प्रभाव ईरान, मिश्र, फिलस्तीन, यूनान एवं चीन में भी जा पहुँचा। फिलस्तीन में इस्सेन नाम की जाति कट्टर अहिंसक के रूप में प्रसिद्ध है। ईरान का राजकुमार अदरक स्वयं भगवान् महावीर के उपदेश सुनने आया करता था। फिर अदरक, जरथुस्त एवं शाह दारा महान् ने ईरान में अहिंसा का प्रचार किया। इस विचारधारा को कलन्दर कहा जाता था जिसमें अनेक साधक हुये। एक साधक ने एक पद्य लिखा
आहिस्ता खेरम बल्कि मा खेरम। जेरे क़दम तो हज़ार जां अस्त।।
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परमपुरुषार्थ अहिंसा, 4/पृ. 39-40 प्रो. राजाराम जैन जी का लेख