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ऐसी स्थिति में मुनिश्री के ग्रन्थ में तीसरे और चौथे, पांचवें और छठे अध्यायों की सामग्री बहुत मूल्यवान् है। भारत में इन विषयों के गिने-चुने अधिकारी विद्वान् थे और वे अब नहीं रहे—पं० सुखलालजी, डा. गुणे राहुल सांकृत्यायन, प्रो० उपाध्ये, वासुदेवशरण अग्रवाल, डा. सुनीतिकुमार चटर्जी, प्रो० टी० पी० मोनाक्षीसुन्दरम् पिल्लै । जो जीवित विद्वान् हैं, वे किसी एक शाखा के विशेषज्ञ मात्र हैं। सर्वकार दृष्टि वाले, अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पालि-प्राकृत के विशिष्ट ज्ञाता सारे देश में एक दर्जन से ऊपर नहीं होंगे। मुनिश्री उनमें शीर्ष-स्थानीय हैं।
अधिकांश विवेचन जिसे पश्चिमीय शब्दावली में 'डिस्क्रिप्टिव' और 'हिस्टारिकल लिंग्विस्टिक्स' कहा जाता है, उसी कोटि का है। · सातवें अध्याय से मुनिश्री लिपियों के विकास की ओर मुड़ गये हैं। गौरीशंकर हीराचन्द अोझा और सी० शिवराममूर्ति के कार्य से यह प्रागे नहीं बढ़ पाया है।
परन्तु इस वृहत् ग्रन्थ का सर्वाधिक मौलिक और स्थायी महत्व का अंश है अध्याय पाठवां-- "प्रार्ष ( अर्द्धमागधी ) प्राकृत और पागम वाङमय" पर मुनिश्री ने दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यताओं की सापेक्ष और तुलनात्मक विवेचना की है। यहां ध्वनिविज्ञान, रूप-विज्ञान, अर्थ-विज्ञान, वाक्य-विज्ञान तथा विवेचन-शास्त्र की समूचे सम्मतित अनुभव और जानकारी का उत्तम उपयोग किया गया है। कई नई-नई बातें इस अध्याय को पढ़कर मुझे जानने को मिलीं। प्राकृत के सुप्रसिद्ध अध्येता एवं वैयाकरण डा० पिशेल ने 'उत्तराध्ययन' तथा 'दशवकालिक' को प्राकृत के भाषाशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण बतलाया था। मुनिश्री ने उसी आलोक में और भी कई स्थापनाएं उपस्थित की हैं।
__ बस्तुत: भाषा-विज्ञान केवल शब्द-चर्चा या वाक्य-शवच्छेदन नहीं है । वह व्याकरण से अधिक व्यवहार-करण है। 'शास्त्राद् रूढिर्बलीयसी'। एक-एक शब्द या रचना के पोछे एक-एक पूरी सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक, भौगोलिक-ऐतिहासिक पीठिका. होती है। उसकी गवेषणा करने से वह समझ में आता है कि कोई भी विचार अपने आप में एकाकी, अप्रभावित, अलौकिक नहीं होता। वह मानव-निर्मित, मानव-पोषित मानव द्वारा सचेतन या अचेतन रूप में परिवर्तित होता रहता है। मुनिश्री प्राचीन तथा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के समष्टि अध्येता हैं; अत: उनके इस बृहद् ग्रन्थ का विचार-वैभव हिन्दी के लिए एक अनुपम देन है। अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, रूसी में जो इस सम्बन्ध में विचार उपलब्ध हैं, वह केवल हिन्दी भाषा-भाषी के लिए एक बन्द पुस्तक है। यहां तक कि भारत की विभिन्न भाषाओं में इन विषयों पर जो लिखा गया है, वह भी पूरी तरह जानने की बड़ी प्रावश्यकता है। तभी हम कोई नये निष्कर्ष निकाल सकेंगे।
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