Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Arhat Prakashan
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रखना कुछ अच्छा नहीं है ; प्रतः मैं जिज्ञासु सज्जनों से सानुरोध निवेदन करूंगा कि वे अवश्य ही जरा लम्बा समय निकाल कर मुनिश्री के प्रस्तुत ग्रन्थ का अध्ययन की दृष्टि से साद्यन्त अवलोकन करें। भाषा और साहित्य के सम्बन्ध में इतना प्रमाण पुरस्सर विस्तृत विवेचन अन्यत्र और वह भी राष्ट्रभाषा हिन्दी में कम ही उपलब्ध है।
ग्रन्थ की कुछ अवधारणाए ऐसी भी हो सकती हैं, जो तर्कशील उच्चतर मनीषियों को सम्भवतः मान्य न हों और यह कोई जरूरी भी नहीं कि सभी मान्यताएं सभी को मान्य हों। परन्तु, इतना अवश्य है कि प्रतिपाद्य की विवेचना में ऐसा कुछ है, जो प्रबुद्ध पाठक को सोचने, समझने और विचारने के लिए बाध्य करता है। और लेखक की सफलता का यही बीज-मन्त्र है, जो मुनिश्री के लेखन में स्पष्टतः परिलक्षित है।
किमधिकम् ! मै मुनिश्री को हृदय से सधन्यवाद, साधुवाद देता हूँ कि देर से ही सही, उन्होंने 'भाषा और साहित्य' जैसे महत्वपूर्ण विषय पर एक महान् ग्रन्थ साहित्य जगत् को अर्पित किया। यह अपने में एक ऐसी ऐतिहासिक देन है, जो भविष्य की प्रबुद्ध मनीषा को वैज्ञानिक दृष्टि से बिवेचित सत्यार्थ से प्रकाशमान करती रहेगी।
वीरायतन, राजगृह ३०-७-८२
-उपाध्याय अमर मुनि
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