________________
इस पर कानपुर विश्वविद्यालय द्वारा 'डी० लिट्०' की मानद उपाधि भी प्राप्त हुई है । ग्रन्थ वस्तुतः ही श्रमरण-संस्कृति की दो प्रमुख धाराम्रों - जैन श्रौर बौद्ध के संगम के रूप में एक पाण्डित्यपूर्ण' गम्भीर तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत करता है । उक्त ग्रन्थ के द्वारा तत्कालीन प्रतीत इतिहास के अनेक प्रवृत्त तथ्यों को तटस्थ ऐतिहासिक दृष्टि से इस प्रकार उद्घाटित किया गया है, जिससे पंडित सुखलालजी जैसे अनेक सुप्रसिद्ध विद्वान् भी मुनिश्री के प्रति प्रशंसामुखर हुए हैं ।
र
अर्हतु प्रकाशन, कलकत्ता द्वारा प्रकाश्यमान 'भाषा और साहित्य' नामक प्रस्तुत महाकाय ग्रन्थ भी उपरि निर्दिष्ट अनुशीलन ग्रन्थ के अनुरूप है । अतः यह उसी के दूसरे खण्ड के रूप में प्रकाशित भी हो रहा है । प्रस्तुत ग्रन्थ में भी मुनिश्री की विद्वत्ता एवं प्रतिभा के चमत्कृतिपूर्ण दर्शन होते हैं। यहां भी मुनिश्री की तुलनात्मक एवं गवेषणात्मक शैली विद्वज्जगत् की ऐतिहासिक मनीषा को प्राकृष्ट कर लेती है। मुनिश्री वयसा वृद्ध हो गये हैं, परन्तु, लगता है, उनकी प्रतिभा चिर यौवना है । पहले की तरह ही, अपितु, पहले से ही कहीं अधिक वह दीप्तिमती है !
ग्रन्थ की विस्तृत विषय सूची ही अपने में एक पुस्तक का रूप लिए हुए है । भाषा विज्ञान की भारत, यूनान यूरोप आदि शाखाओं के पुरातन काल से लेकर प्राधुनिक काल तक की विकास-यात्रा का तलस्पर्शी विश्लेषण ऐसो सरल, सुबोध शैली में उपस्थित किया है, जिससे विद्वान् तो लाभान्वित होंगे ही, साधारण शिक्षित जिज्ञासु जन यथामति श्रात्मतोष प्राप्त कर सकेंगे ।
साहित्य की विकास-यात्रा का विश्वतोमुखी बहु प्रायामी लेखन काफी दूर तक चिन्तन क्षितिजों का स्पर्श करता है । वैदिक वाङ्मय, वैदिक संस्कृत और उसका प्राकृत के साय सादृश्य — जैन वाङमय, प्राकृत और उनके नाना प्रकार - बौद्ध साहित्य, पालि और उसकी विकास-यात्रा आदि का ज्ञान-वर्द्धक, साथ ही रोचक वर्णन है, जिससे कि मुनिश्री अध्येताओं के द्वारा सहसा साधुवादार्द्ध हो जाते 1
लिपि - विज्ञान की चर्चा में तो मुनिश्री ने कमाल ही कर दिया है । पुरातन ब्राह्मी लिपि और उससे समुद्भूत विभिन्न लिपियों का विकास - खरोष्ठी लिपि पौर उसकी व्युत्पत्ति - जैन और बौद्ध वाङ्मय में उसके प्रयोग - अशोक और उसके पूर्ववर्ती शिलालेख आदि का इतना विस्तृत, गम्भीर एवं प्रमाण पुरस्सर विवेचन है कि उसमें अध्येता का चिन्तनशील मन गहरा और गहरा डूबता ही जाता है । वह लेखन ही क्या, जो स्वयं भी उथला हो, साथ ही पाठक के मन को भी उथला ही बनाये रखे ।
ग्रन्थ के प्रतिपाद्य को मैं यहां विवेचित नहीं करना चाहता । वह तो पाठक को ग्रन्थ में उपलब्ध ही है । पाठक की जिज्ञासा को प्रारम्भ के पुरोवचन प्रादि में रोके
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org