Book Title: Agam Sudha Sindhu Part 01 of 01
Author(s): Jinendravijay Gani
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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________________ श्री आचाराङ्ग-सूत्रम् श्रुतस्कंधः 1 अध्ययनं 1 ] गुणट्ठीर से हु दंडेत्ति पवुच्चइ ॥सू० 34 // तं परिगणाय मेहावी इयाणिं जो जमहं पुब्वमकासी पमाएणं ॥सू० 35 // लजमाणा पुढो पास, अणगारा मोत्ति एगे पवदमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारम्भेणं अगणिसत्थं समारंभमाणे अराणे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति / तत्थ खलु भगवता परिराणा पवेदिता, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणामोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव अगणिसत्थं समारभइ, अण्णेहिं वा अगणिसत्थं समारंभावेइ अराणे वा अगणिसत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ; तं से अहियाए, तं से अबोहियाए, से तं संबुज्झमाणे, श्रायाणीयं समुट्ठाय सोचा भगवयो अणगाराणं इहमेगेसिं णायं भवति–एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए, इचत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारंभमाणे अराणे योगरूवे पाणे विहिंसइ ।सू. 36 // से बेमि-संति पाणा पुढवीनिस्सिया, तणणिस्सिया, पत्तणिस्सिया, क्टुनिस्सिया, गोमयणिस्सिया, कयवरणिस्सिया, संति संपातिमा पाणा, याहच्च संपयंति, अगणिं च खलु पुट्ठा एगे संघायमावज्जंति, जे तत्थ संघायमावज्जति ते तत्थ परियावज्जति जे तत्थ परियावज्जति ते तत्थ उद्दायति ॥सू. 37 // एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते श्रारंभा अपरिगणाया भवंति, एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते प्रारंभा परिगणाया भवंति, तं परिगणाय मेहावी व सयं अगणिसत्थं समारंभे, नेवऽगणेहिं अगणिसत्थं समारंभावेजा, अगणिसत्थं समारंभमाणे असणे न समणुजाणेजा, जस्सेते अगणिकम्मसमारंभा परिगणाया भवंति, से हु मुणी परिराणायकम्मे त्ति बेमि ॥सू० 38 // // इति चतुर्थ उद्देशकः // 1-4 //

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