________________ आगम निबंधमाला निबंध-३७ प्रदेशी राजा का जीवन परिवर्तन सार्ध पच्चीस आर्य देश में केकयार्ध देश में श्वेतांबिका नगरी थी। वहाँ प्रदेशीराजा राज्य करता था। वह अधार्मिक, अधर्मिष्ठ, अधर्म आचरण वाला एवं अधर्म से ही आजीविका करने वाला था। वह राजा, आत्मा, धर्म आदि कुछ भी नहीं मानता। सदा हिंसा में आसक्त, क्रूर, पापकारी, चंड़, रुद्र, शूद्र बना रहता था। कूड़-कपट 'बहुल, निर्गुण, मर्यादाहीन, व्रतपच्चक्खाण आदि से रहित यावत् अधर्म का ही सरदार बना रहता था। अपनी प्रजा का भी अच्छी तरह संरक्षण पालन नहीं करता था। एवं धर्मगुरुओं महात्माओं का आदर सत्कार विनय भक्ति कुछ भी नहीं करता था। उसके सूरिकंता नाम की राणी थी एवं सूर्यकंतकुमार नाम का पुत्र युवराज था। जो राज्य की देखरेख संभाल लेता हुआ रहता था। उस राजा के भ्रातकल में चित नामक सारथी (प्रधान) था। जो चारों प्रकार की बुद्धियों का स्वामी, कार्यकुशल, दक्ष (चतुर)सलाहकार, राजा के प्रमाणभूत, अवलंबनभूत, चर्भूत, मेढ़ीभूत था। राज्यकार्य की चिंता में सक्रिय भाग लेता था। ऐसे अच्छे सहयोग के होते हुए भी प्रदेशीराजा महा अधर्मी पापिष्ट था, यहाँ तक कि उसके हाथ खून से रंगे रहते थे। ऐसा यहाँ मुहावरे की भाषा में कहा गया है। राजा का अपना जीवन अधर्मिष्ठ था सो था ही किंतु विशेष में वह धर्मगुरुओं महात्माओं का विद्वेषी भी था एवं समय-समय पर संत महात्माओं के लिये दुःखदाई पीड़ाकारी भी बनता था। यह उसका आचरण चित्तसारथी(प्रधान) को खटकता था। किंतु राजा के दुराग्रही मानस के आगे वह कुछ कर नहीं सकता था। फिर भी राजा की वृत्ति को सुधारने का हित चिंतन उसके मस्तिक में सदा बना रहता था। एक बार उसके ही सूझ बूझ और प्रयत्न से राजा, केशीश्रमण की धर्मसभा (प्रवचनसभा) में पहुँच गया। केशीश्रमण चार ज्ञान के धारी एवं तीर्थंकर पार्श्वनाथ के शासन में विचरण करने वाले महान संत थे। एक ही दिन, एक ही बैठक की संगति में केशीश्रमण के ज्ञान एवं विवेक [16]