________________ आगम निबंधमाला सूक्ष्म है अर्थात् हवा तो रूपी पदार्थ है किन्तु आत्मा अरूपी पदार्थ है, उसे हाथ में कैसे दिखाया जा सकता है ? अतः तुम श्रद्धा करो कि हवा के समान आत्मा भी स्वतंत्र अचक्ष ग्राह्य तत्त्व है / / कोई व्यक्ति, वकालात पास है इसे प्रत्यक्ष जानने के लिए कोई डाक्टर उसके शरीर एवं मस्तक को काट छांट कर देखना चाहे कि मैं प्रत्यक्ष देखू तो वह सफल नहीं हो सकता है। जब ज्ञान को ऐसे नहीं देखा जा सकता तो ज्ञानी को(आत्मा को) ऐसे प्रत्यक्ष देखने का संकल्प करना भी अयोग्य ही है / ] कोई व्यक्ति, भूमि में आम, अंगूर, गन्ना, मिर्ची आदि सभी पदार्थों के परमाणु रहे हुए है, यह श्रद्धा कर बीज बोवे तो फल प्राप्त कर सकता है। किन्तु यदि कोई उसी भूमि को खोदकर कण कण मैं उन आम, अंगूर, गन्ना, मिर्च के परमाणु को प्रत्यक्ष देखने का प्रयत्न करे तो उसे कुछ भी इच्छित फल प्राप्त नहीं होगा। ये रूपी पदार्थ भी सूक्ष्म ए वं विरल होने से सामान्य ज्ञान वालों को प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर नहीं हो सकते तो आत्मा जैसे अरूपी अतिसूक्ष्म पदार्थों के प्रत्यक्ष देखने की कल्पना करना नादानता एवं बालदशा है / अतः आत्मा, परलोक, पुद्गल परमाणु, सूक्ष्म समय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीव की आदि, तैजस-कार्मण शरीर, कर्म आदि कितने ही तत्त्व सामान्य ज्ञानियों के लिये श्रद्धागम्य एवं बुद्धिगम्य हो सकते हैं, प्रत्यक्ष गम्य नहीं हो सकते। राजा- भंते ! जीव को अलग तत्त्व मानने पर उसका एक परिमाण (माप) मानना होगा / तब फिर वह आत्मा कभी हाथी जैसे विशाल काय में, कभी कीड़ी जैसे छोटे शरीर में किस तरह रहेगी? यदि छोटी मानेंगें तो हाथी के शरीर में(भव में) कैसे रहेगी? हाथी जैसी मानेंगे तो कीड़ी आदि में किस तरह रहेगी? अर्थात् नहीं रह सकेगी। अतः शरीर से भिन्न आत्मतत्त्व नहीं मानना चाहिए अन्यथा यह दुविधा खड़ी रहेगी। केशी- राजन्! जिस प्रकार एक दीपक(या बल्ब अथवा ट्यूबलाइट) बड़े होल में है तो उसका प्रकाश उतने में समाविष्ट हो जाता है और उससे छोटे छोटे कमरे में रखा जाय तो उसका प्रकाश उस कमरे म समाविष्ट हो जाता है उसी बल्ब को एक कोठी में रख दिया जाय | 137