________________ आगम निबंधमाला है और नियत समय में अतिचार रहित नियम का दृढ़ता के साथ पालन किया जाता है। जिस प्रकार भिक्षुप्रतिमा धारण करने वाले को विशुद्ध संयम पर्याय और विशिष्ट श्रुत का ज्ञान होना आवश्यक है, उसी प्रकार उपासक प्रतिमा धारण करने वाले को भी बारह व्रतों के पालन का अभ्यास होना और कुछ श्रुतज्ञान होना भी आवश्यक है, ऐसा समझना चाहिए। प्रतिमा धारण करने वाले श्रावक को सांसारिक जिम्मेदारियों से निवृत्त होना तो आवश्यक है ही तथापि सातवीं प्रतिमा तक अनेक छोटे बड़े गृहकार्यो का त्याग आवश्यक नहीं होता है, किन्तु प्रतिमा के नियमों का शुद्ध पालन करना अत्यावश्यक होता है। आठवीं प्रतिमा से अनेक गृहकार्यो का त्याग प्रारंभ हो जाता है एवं ग्यारहवीं प्रतिमा में सम्पूर्ण गृह कार्यों का त्याग करके वह श्रमण के समान आचार का पालन करता है। . ग्यारह प्रतिमाओं में से किसी भी प्रतिमा को धारण करने वाले को आगे की प्रतिमा के नियमों का पालन करना आवश्यक नहीं होता है। स्वेच्छा से वह पालन कर सकता है अर्थात् पहली प्रतिमा में सचित्त का त्याग या श्रमणभूत जीवन धारण करना, वह चाहे तो कर सकता है। ... किन्तु आगे की प्रतिमा धारण करने वाले को उसके पूर्व की सभी प्रतिमाओं के सभी नियमों का पालन करना नियमतः आवश्यक होता है अर्थात् सातवीं प्रतिमा धारण करने वाले को सचित्त का त्याग करने के साथ ही सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य, कायोत्सर्ग, पौषध आदि प्रतिमाओं का भी यथार्थ रूप से पालन करना आवश्यक होता है। (1) पहली दर्शनप्रतिमा धारण करने वाला श्रावक 12 व्रतों का पालन करता है किन्तु वह दृढप्रतिज्ञ सम्यक्त्वी होता है। मन, वचन व काया से वह सम्यक्त्व में किसी प्रकार का अतिचार नहीं लगाता है तथा देवता या राजा आदि किसी भी शक्ति से किंचित् मात्र भी सम्यक्त्व से विचलित नहीं होता है अर्थात् किसी भी आगार के बिना तीन करण, तीन योग से एक महीना तक शुद्ध सम्यक्त्व की आराधना करता है। इस प्रकार वह प्रथम दर्शनप्रतिमा वाला व्रतधारी श्रावक कहलाता है। 233