Book Title: Agam Nimbandhmala Part 02
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 250
________________ आगम निबंधमाला ८-अकण्डूयक- खुजली चलने पर भी देह को नहीं खुजलाना। ९-अनिष्ठीवक- थूक कफ आदि आने पर भी नहीं थूकना / सर्वगात्र परिकर्म एवं विभूषा विप्रमुक्त- देह के सभी संस्कार तथा विभूषा-श्रंगार आदि करने से मुक्त रहना / १-दण्डायतिक- दंडे के समान सीधे लम्बे पैर करके सोना। २-लगण्डशायी- शिर और एड़ी को जमीन पर टिकाकर शेष शरीर को ऊपर उठाकर सोना / अथवा करवट से सोकर हथेली पर शिर एवं एक खड़े पांव के घुटने पर दूसरे पांव की एडी रखना। इस आसन में शिर रखे हाथ की कोहनी जमीन पर रहती है और एक पांव का पंजा भूमि पर रहता है, एक करवट भूमि पर रहता है / / ३-समपादपुता- दोनों पैरों को और नितम्बों को भूमि पर टिकाकर बैठना / ४-गोदोहिका- गाय दुहने की तरह, से बैठना / ५-अप्रतिशायी- शयन नहीं करना / खड़े रहना या किसी भी आसन से बैठे रहना / ७-प्रायश्चित्त :- प्रमाद से, परिस्थिति से या उदयाधीन होने से लगे दोषों की आलोचना आदि करना / सरलता, नम्रता, लघुता युक्त होकर पूर्ण शुद्धि करना, यथायोग्य प्रायश्चित्त स्वीकार करना, मिथ्या दुष्कृत देना आदि "प्रायश्चित्त तप" है / ८-विनय :- विनय का सामान्य अर्थ नम्रता, वंदना, नमस्कार, आज्ञापालन, आदर देना, सन्मान करना, भक्ति भाव युक्त व्यवहार करना, यह सब प्रवर्तन सामान्य 'विनय तप' है / विशेष अर्थ :- आत्मा के कर्मों को दूर करने हेतु ज्ञान दर्शन चारित्र का आराधन कर, श्रुत भक्ति एवं अनाशातना का व्यवहार करना, मन वचन काया को प्रशस्त रख कर कर्म बंध से आत्मा को विशेषरूप से दूर करना, अप्रशस्त मन वचन व्यवहार नहीं करना भी विनय है। विनय के क्षेत्र काल सम्बन्धी नियम अनुष्ठानों का, व्यवहार का पालन करना भी "विनय तप" है / कायिक प्रवृतियाँ यतनापूर्वक करना प्रत्येक व्यक्ति या प्राणी के साथ सद्व्यवहार करना इत्यादि / विशेष विनय के सात प्रकार है यथा- 1. ज्ञान विनय 2. दर्शन विनय 3. / 250

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