Book Title: Agam Nimbandhmala Part 02
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 253
________________ आगम निबंधमाला या पूर्ण अचेलत्व स्वीकार करना उपधि व्युत्सर्जन तप है। ४-आहार पानी का पूर्ण रूपेण या क्रमिक त्याग करना भक्त पान व्युत्सर्जन तप है / द्रव्य व्युत्सर्ग तप के ये 4 प्रकार कहे गये हैं / भाव :- कषाय त्याग, कर्म बंध निवारण और संसार भ्रमण का निरोध ये भाव व्युत्सर्ग तप के तीन प्रकार है। विशेष विचारणा :- कायोत्सर्ग में जो लोगस्स आदि के जाप आदि की प्रवृत्ति चल रही हे वह पूर्ण व्युत्सर्जन नहीं है / सही रूप में व्युत्सर्जन वह है जिसमें वचन और काय योग के त्याग के साथ निर्विकल्पता की साधना होती है अर्थात् इसमें मनोयोग के व्यापार का भी निरोध करने का पूर्ण लक्ष्य होता है, अनुप्रेक्षा का भी त्याग होता है, यही पूर्ण कायोत्सर्ग रूप व्युत्सर्ग तप की साधना है। यह ध्यान के बाद का तप है / ध्यान से भी इसकी श्रेणी विशिष्ट दर्जे की साधना वाली है / आजकल इस साधना को भी ध्यान के नाम से प्रचारित किया जाता है। यथा- निर्विकल्प-ध्यान, गोयंका-ध्यान, प्रेक्षा-ध्यान, आदि / यह व्यवहार सत्य ध्यान हो गया है किन्तु वास्तविक सत्य नहीं है / कई लोगों का ऐसा सोचना है कि निर्विकल्पता छदमस्थ के नहीं हो सकती है। किन्तु अका ऐसा एकांतिक विचार अयोग्य है / मनोयोग का अंतर भी शास्त्र में बताया गया है / प्रगाढ निद्रा में भी मनोयोग अवरुद्ध होता ही है / एवं व्युत्सर्ग तप में योगों का व्युत्सर्जन करना भी आगम में तप रूप कहा गया है / इसमे मन के संकल्पों का भी व्युत्सर्जन करना समाविष्ट ही है / अतः उसका एकांत निषेध करना अनुपयुक्त एवं अविचारकता है / ध्यान की साधना से यह व्युत्सर्जन की साधना कुछ विशेष कठिन अवश्य है, किन्तु इसे असाध्य नहीं मानना चाहिये। - ये सभी प्रकार के तप, "ज्ञान-दर्शन-चारित्र" की भूमिका के साथ ही महत्व शील होते है, अर्थात् ज्ञान दर्शन चारित्र या चारित्राचारित्र नहीं है तो बिना भूमिका का तप आत्म उत्थान में, मोक्ष आराधना में महत्वशील नहीं हो सकता / अतः किसी भी छोटे या बड़े तप में ज्ञान, श्रद्धान एवं विरति भाव की उपेक्षा नहीं होनी चाहिये / चाह भले ही वह उच्च ध्यान हो या परम तप व्युत्सर्ग हो। 253]

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