Book Title: Agam Nimbandhmala Part 02
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 246
________________ आगम निबंधमाला खड़े रहना, शयनासन का त्याग करना, वीरासन आदि कष्ट प्रद आसन करना, आतापना लेना, सर्दी में शीत सहन करना, निर्वस्त्र रहना, अचेल धर्म स्वीकार करना, ये कायक्लेश तप है / संयम विधि के आवश्यक नियम पाद(पैदल) विहार, लोच करना, स्नान नहीं करना, औषध उपचार नहीं करना, भूमि शयन करना, आदि भी काय क्लेश तप रूप ही है। इसके चार भेद है- १-आसन, २-आतापना, ३-विभूषा त्याग, ४-परिकर्म-शरीर सुश्रुषा त्याग / ६-प्रतिसलीनता तप :1- इन्द्रियों को अपने विषयों में नहीं जाने देना एवं सहज इन्द्रिय प्राप्त विषयों में राग-द्वेष नहीं करना, इन्द्रिय प्रतिसलीनता तप है। : 2- गुस्सा, घमंड, कपट, लोभ-लालच को उत्पन्न ही नहीं होने देना, सावधान रहना एवं उदय की प्रबलता से उत्पन्न हो जाय तो उसे तत्काल विफल कर देना अर्थात् ज्ञान से वैराग्य से अपने कर्तव्य का चिंतन कर, आत्म सुरक्षा के लक्ष्य को प्रमुख कर, परदोष दर्शन दृष्टि को नष्ट कर, स्वदोष दर्शन को प्रमुख कर, ऐहिक स्वार्थों को गौण कर, आध्यात्म विकास को प्रमुख रखकर, उन कषायों को टिकने ही नहीं देना "कषाय प्रतिसंलीनता" है / 3- खोटे संकल्प विकल्प उत्पन्न ही नहीं होने देना, अच्छे उन्नत संकल्पों को बढाते रहना एवं मन को एकाग्र करने में अभ्यस्त होना अर्थात् धीरे-धीरे संकल्प विकल्पों से परे होना, ये सभी "मन योग प्रतिसलीनता" है। इसी प्रकार खराब वचन का त्याग या अप्रयोग, अच्छे वचनों का प्रयोग, उच्चारण और मौन का अधिकतम अभ्यास, यह "वचन योग प्रतिसंलीनता" है। हाथ-पाँव आदि शरीर के अंग उपागो को पूर्ण सयमित सकचित रखना, स्थिरकाय रहना, चलना, उठना, बैठना, अंग संचालन आदि प्रवृतियों पर विवेक और यतना की विधि को अभ्यस्त रखते हुए अयतना पर पूर्ण अंकुश रखना काय प्रतिसलीनता है।हाथ पाँव मस्तक, अस्तव्यस्त चंचलता युक्त चलाते रहना, अनावश्यक प्रवर्तन करना, काय अप्रतिसंलीनता है। 4- एकांत स्थानों में रहना, बैठना, सोना आदि चौथा "विविक्त शयनासन" प्रतिसंलीनता तप है / [246

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