________________ आगम निबंधमाला कर्मभूमि रूप पाँच महाविदेह क्षेत्र में, 30 अकर्मभूमि में और 56 अंतरद्वीपों में यह काल परिवर्तन नहीं होता है। उन 91 क्षेत्रों में सदा एक सरीखा काल प्रवर्तमान होता है / यथा५ महाविदेह में- अवसर्पिणी के चौथे आरे का प्रारम्भकाल 10 देवकुरू उत्तरकुरू में- अवसर्पिणी के प्रथम आरे का प्रारम्भकाल 10 हरिवर्ष रम्यक वर्ष में- दूसरे आरे का प्रारम्भकाल 10 हेमवय हेरण्यवय में- तीसरे आरे का प्रारम्भकाल 56 अंतर द्वीपों में- तीसरे आरे के अंतिम त्रिभाग का शुद्ध युगल काल अर्थात् मिश्रण काल के पूर्ववर्ती काल।। उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी मिलकर एक कालचक्र 20 क्रोडाकोड़ी सागर का होता है। चक्र शब्द को ध्यान में रखा गया है। चक्र में गाड़ी के पहियें जैसे आरे होते हैं / अतः इस कालचक्र का चक्राकार चित्र कल्पित करके उसमें 12 आर पूरे गोलाई में बीच की धुरी से लेकर किनारे की पट्टी तक जुड़े होते हैं / गाड़ी के पहिये में आरों की संख्या निश्चित नहीं होती है। बैलगाड़ी के पहिये में 6 आरे प्रायः होते हैं परंतु घोड़ागाड़ी(बग्धी) के बड़े पहियें होते हैं, उसमें 12 आरे होते हैं। इस प्रकार मल शब्द कालचक्र होने से एवं चक्र में आरे होने से यहाँ उस उपमा को लक्ष्य में रखकर आरा शब्द से कहा गया है। चक्र(पहिये) के किनारे के पाटियों के स्थान पर दो सर्प की कल्पना की जाती है। जिनका मुख ऊपर होता है और पूँछ नीचे होती है। अवसर्पिणी के सर्प के मुख स्थान से पहला आरा प्रारंभ होता' है वह 4 क्रोड़ा क्रोड़ी सागर का होता है। फिर सांप नीचे की तरफ पतला होता जाता है वैसे वैसे तीसरे आदि आरे छोटे होते है। पाँचवाँ छट्ठा आरा पूँछ के स्थान में आता है वे दोनों बहुत छोटे हैं। उसके बाद दूसरे सांप की पूछ से उत्सर्पिणी का पहला दूसरा आरा प्रारम्भ होकर सांप के मुख स्थान की जगह उत्सर्पिणी का छट्ठा आरा 4 क्रोड़ाक्रोड़ी सागर का आता है। सर्प की उपमा और उतार चढ़ाव और छोटे बड़े आरे समझे जाते है। इस प्रकार पहले उतरते सर्प से अवसर्पिणी काल होता है फिर पूँछ से ऊपर चढ़ते सर्प से उत्सर्पिणी काल होता है। इसलिये दोनों नाम उपमा की अपेक्षा सार्थक होते हैं / 204]