________________ आगम निबंधमाला शील, संतोष अनुकम्पा भाव रूप होते है। इन धर्माचारों में भी अनुकम्पादान और जनसेवा रूप दान पुण्यधर्म रूप होता है / अभयदान एवं सुपात्र दान संवर निर्जरा धर्म रूप होता है। शेष सभी व्रत प्रत्याख्यान शील संतोष धर्माचरण संवर निर्जरा धर्म रूप होते हैं। किसी भी धर्माचरण में जीताचार या लोक व्यवहाराचार को प्रविष्ट कर देना, घुसा देना, उसकी परंपरा बना देना भी अनुचित है, किसी भी जीताचारको धर्माचरण का वाना पहना देना या उसे धर्माचरण मान लेना भी उचित नहीं है तथा गृहस्थावस्था में, व्यवहारिक जीवन में, अनिवृत्त जीवन में अथवा माता, पिता, राजा, समाज आदि किसी के भी अधीनस्थ जीवन में रहते हुए भी जीताचार या लोक व्यवहाराचार की एकांत रूप से विवेक रहित (अविवेकीपन से) हानि लाभ का विचार किये बिना उपेक्षा करना भी उपयुक्त नहीं होता है। जो सामाजिक गृहस्थ जीवन से ऊपर उठकर, निवृत्त साधनामय जीवन में रहता हो तो उसके द्वारा जीताचार आदि का पूर्ण त्याग कर देना अनुपयुक्त नहीं होता है, उपयुक्त ही है। इसी कारण से अनिवृत्त गृहस्थ जीवन में 6 प्रमुख आगार होते है और निवृत साधना जीवन में श्रावक के उन 6 आगारों का भी त्याग हो जाता है। फिर भी कोई विशिष्ट साधक विवेक बुद्धि रखते हुए किसी भी जीताचार व्यवहाराचार से अलग रह सकता है। किन्तु अनिकृत श्रावक जीवन में जीताचारों की एकांत रूप से उपेक्षा नहीं की जा सकती / ज्ञाता सूत्र वर्णित आदर्श श्रावक अरणक जो धर्म श्रद्धा में पिशाच रूप देव से भी विचलित नहीं किया जा सका, उसने भी यात्रा के प्रारंभ में कई मंगल एवं नावा की अर्चा पूजा नमस्कार प्रवृत्ति की थी ।सम्यग् दृष्टि एक भवावतारी देवेन्द्र भी तीर्थंकरों के दाह संस्कार, भस्म, अस्थि, आदि संबंधी कई क्रिया कलाप करते हैं। उत्कृष्ट धर्म आराधना से देव बने सूर्याभ ने सम्यग् दृष्टि होते हुए भी अपने विमान के छोटे बड़े अनेक स्थानों की अर्चा पूजा की, यह राजप्रश्नीय सूत्र में स्पष्ट वर्णित है। तात्पर्य यह है कि जीताचार को जीताचार रूप में मान्य करते हुए उसे धर्माचरण न मानते हुए यथाप्रसंग आवश्यकतानुसार स्वीकार करना गृहस्थ जीवन में अनुचित नहीं है किन्तु उसकी अविवेकपूर्ण एकांत उपेक्षा करना अनावश्यक एवं अयोग्य है। गृहस्थ जीवन की साधना में 149