Book Title: Agam 25 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Stahanakvasi Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni Publisher: Agam Prakashan SamitiPage 13
________________ (1) निर्ग्रन्थों के विधिकल्प, (2) निग्रंथियों के विधिकल्प, (3) निग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के विधिकल्प, (4) सामान्य विधिकल्प / इसी प्रकार निषेधकल्प आदि भी समझना चाहिये / जिन सूत्रों में 'कप्पई' शब्द का प्रयोग है, वे विधिकल्प के सूत्र हैं। जिनमें 'नो कप्पई' शब्द प्रयोग है, वे निषेधकल्प के सूत्र हैं। जिनमें 'कप्पई' और 'नो कप्पई' दोनों का प्रयोग है वे विधि-निषेधकल्प के सुत्र हैं और जिनमें 'कप्पई' और 'नोकप्पई' दोनों का प्रयोग नहीं है वे विधानसुत्र हैं। प्रायश्चित्तविधान के लिये सूत्रों में यथास्थान स्पष्ट उल्लेख है। छेदसूत्रों में सामान्य से विधि-निषेधकल्पों का उल्लेख करने के बाद निर्ग्रन्थों के लिये विधिकल्प और निषेधकल्प का स्पष्ट संकेत किया गया है। इसी प्रकार निर्ग्रन्थी के विधि-निषेधकल्प का कथन है। दोनों के लिये क्या और कौन विधि-निषेधकल्प रूप है और प्रतिसेवना होने पर किसका कितना प्रायश्चित्त विधान है, उसकी यहां विस्तृत सूची देना संभव नहीं है। ग्रन्थावलोकन से पाठकगण स्वयं ज्ञात कर लें। प्रायश्चित्तविधान के दाता-आदाता की योग्यता दोष के परिमार्जन के लिये प्रायश्चित्त विधान है। इसके लेने और देने वाले की पात्रता के सम्बन्ध में छेदसूत्रों में विस्तृत वर्णन है। जिसके संक्षिप्त सार का यहां कुछ संकेत करते हैं। अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार दोष सेवन के कारण हैं / किन्तु जो वक्रता और जड़ता के कारण दोषों की आलोचना सहजभाव से नहीं करते हैं, वे तो कभी भी शुद्धि के पात्र नहीं बन सकते हैं / यदि कोई मायापूर्वक आलोचना करता है तब भी उसकी आलोचना फलप्रद नहीं होती है। उसकी मनोभूमिका अालोचना करने के लिये तत्पर नहीं होती तो प्रायश्चित्त करना आकाशकुसुमबत् है। उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि आलोचक ऋजु, छलकपट से रहित मनस्थितिवाला होना चाहिये। उसके अंतर् में पश्चात्ताप की भावना हो, तभी दोषपरिमार्जन के लिये तत्पर हो सकेगा। इसी प्रकार प्रालोचना करने वाले की आलोचना सुनने वाला और उसकी शुद्धि में सहायक होने का अधिकारी वही हो सकेगा जो प्रायश्चित्तविधान का मर्मज्ञ हो, तटस्थ हो, दूसरे के भावों का वेत्ता हो, परिस्थिति का परिज्ञान करने में सक्षम हो, स्वयं निर्दोष हो, पक्षपात रहित हो, प्रादेय वचन वाला हो। ऐसा वरिष्ठ साधक दोषी को निर्दोष बना सकता है। संघ को अनुशासित एवं लोकापवाद, भ्रांत धारणाओं का शमन कर सकता है। इस संक्षिप्त भूमिका के आधार पर अब इस ग्रन्थ में संकलित-१. दशाश्रुतस्कन्ध, 2. बृहत्कल्प और 3. व्यवहार, इन तीन छेदसूत्रों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करते हैं। (1) दशाश्रुतस्कन्ध अथवा प्राचारदशा समवायांग, उत्तराध्ययन और आवश्यकसूत्र में कल्प और व्यवहारसूत्र के पूर्व आयारदसा (आचारदशा) या नाम कहा गया है। अतः छेदसूत्रों में यह प्रथम छेदसूत्र है। स्थानांगसूत्र के दसवें स्थान में इसके दस अध्ययनों का उल्लेख होने से 'दशाश्रुतस्कन्ध' यह नाम अधिक प्रचलित हो गया है। दस अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं१. असमाधिस्थान, 2, सबलदोष, 3. अाशातना, 4. गणिसम्पदा, 5. चित्तसमाधिस्थान, 6. उपासकप्रतिमा, 7. भिक्षप्रतिमा, 8. पर्युषणाकल्प 9. मोहनीयस्थान और 10. आयतिस्थान / इन दस अध्ययनों में असमाधिस्थान, [12] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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