Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 12
________________ इस विवेचन से स्पष्ट है कि छठा अंग ज्ञातृधर्मकथा धर्मकथानुयोग में प्राता है, जबकि छठा उपांग जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति गणितानुयोग में प्राता है। विषय की दृष्टि से इनमें कोई संगति नहीं है। किन्तु परम्परया दोनों को समकक्ष अंगोपांग के रूप में स्वीकार किया जाता है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र सात वक्षस्कारों में विभक्त है, जिनमें कुल 181 सूत्र हैं। वक्षस्कार यहाँ प्रकरण है। वास्तव में इस शब्द का अर्थ प्रकरण नहीं है। जम्बूद्वीप में इस नाम के प्रमुख पर्वत हैं, जो वहाँ के वर्णनक्रम के केन्द्रवर्ती हैं। जैन भूगोल के अन्तर्गत उनका अनेक दृष्टियों से बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है / अतएव वे यहाँ प्रकरण के अर्थ में उद्दिष्ट हैं / प्रस्तुत प्रागम में जम्बूद्वीप का स्वरूप, विस्तार, प्राकार, जैन कालचक्र--अवसर्पिणी-सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुःषमा, दुःषमसुषमा, दुःषमा, दुःषमदुःषमा, उत्सर्पिणी-दुःषमदुःषमा, दुःषमा, दुःषमसुषमा, सुषमदुःषमा, सुषमा, सुषमसुषमा, चौदह कुलकर, प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ, बहत्तर कलाएं नारियों के लिए विशेषतः चौसठ कलाएं, बहविधशिल्प, प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत, षट्खण्डविजय, चल्लहिमवान, महाहिमवान्, वैताढ्य, निषध, गन्धमादन यमक, कंचनगिरि, माल्यवन्त मेरु, नीलवन्त, रुक्मी, शिखरी आदि पर्वत, भरत, हैमवत, हरिवर्ष, महाविदेह, उत्तरकरु, रम्यक, हैरण्यवत, ऐरवत आदि क्षेत्र, बत्तीस विजय', गंगा, सिन्ध, शीता, शीतोदा, रूप्यकला, सूवर्णकला, रक्तवती, रक्ता आदि नदियां, पर्वतों, क्षेत्रों आदि के अधिष्ठातृदेव, तीर्थकराभिषेक, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे आदि ज्योतिष्क देव, अयन, संवत्सर, मास, पक्ष, दिवस आदि एतत्सम्बद्ध अनेक विषयों का बड़ा विशद वर्णन हुमा है। चक्रवर्ती भरत द्वारा षदखण्डविजय आदि के अन्तर्गत अनेक प्रसंग ऐसे हैं, जहाँ प्राकृत के भाषात्मक लालित्य की सुन्दर अभिव्यंजना है। कई प्रसंग तो ऐसे हैं, जहाँ उत्कृष्ट गद्य की काव्यात्मक छटा का अच्छा निखार परिदृश्यमान है / बड़े-बड़े लम्बे वाक्य हैं, किन्तु परिश्रान्तिकर नहीं हैं, प्रोत्साहक हैं। जैसी कि प्राचीन शास्त्रों की, विशेषत: श्रमण-संस्कृतिपरक वाङमय की पद्धति है, पुनरावृत्ति बहुत होती है। यहाँ ज्ञातव्य है, काव्यात्मक सजन में पुनरावृत्ति निःसन्देह जो आपातत: बड़ी दुःसह लगती है, अनुपादेय है, परित्याज्य है, किन्तु जन-जन को उपदिष्ट करने हेतु प्रवृत्त शास्त्रीय वाड्.मय में वह इसलिए प्रयुक्त है कि एक ही बात बार बार कहने से, दुहराने से श्रोताओं को उसे हृदयंगम कर पाने में अनुकलता, सुविधा होती है। संपादन : अनुवाद : विवेचन शुद्धतम पाठ संकलित एवं प्रस्तुत किया जा सके, एतदर्थ मैंने जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र की तीन प्रतियाँ प्राप्त की, जो निम्नांकित हैं 1. प्रागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित, संस्कृतवृत्ति सहित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति / 2. परम पूज्य श्री अमोलकऋषिजी म. द्वारा कृत हिन्दी अनुवाद सहित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति / 3. जैनसिद्धान्ताचार्य मुनिश्री घासीलालजी म. द्वारा प्रणीत टीका सहित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति तीनों भाग / पाठ-संपादन हेतु तीनों प्रतियों को प्राद्योपान्त मिलाना आवश्यक था, जो किशनगढ़-मदनगंज में चालू किया गया। तीनों प्रतियाँ मिलाने हेतु इस कार्य में कम से कम तीन व्यक्ति अपेक्षित होते / जब स्मरण करता हूँ [11] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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