Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 14
________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पट्काय प्रतिपालकं च करुणा धर्मोपदेशोत्सुकं, यत्नार्थ मुखवस्त्रिका विलसितास्यन्दुं प्रसन्नाननम् । अन्तर्वान्त विनाशकाद्धि नखरज्योतिश्चयं चिन्तयन् , संस्तौम्युग्रविहारिणं गुरुवरं पञ्चव्रताऽऽराधकम् ॥३॥ सर्वानुयोग विज्ञान वृद्धान् श्रीगुरु परम्परामुख्यान् । हुकुमचन्द्रजी पूज्यान् भजे जैनागमविशारदान् ॥४॥ पूज्य तत्पट्टशिष्यान् श्रीशिवलालजी वाचकप्रमुखान् । अर्हद् दीक्षादक्षान् निदधेज्ञान वैराग्यसम्पन्नान् ॥५॥ पूज्यान गुरूनुदयसागर पूज्यवर्यान् ज्ञानप्रकाशमिहिराहत जाड्यराशीन् । मान्यान् प्रणम्य विहिताञ्जलि रेष घासीलालोऽनुयोगविशदामुखमातनोति ॥६॥ पृथिवीकायादि षट्काय जीवों का प्रतिपालक दया धर्मोपदेश में तत्पर एवं यतना के लिये मुखवस्त्रिका से अलंकृतमुखचन्द्र, एवं प्रसन्न वदन, उग्र विहारी पांच महाव्रतों का आराधक आन्तरिक मोहान्धकार का विनाशक चरणनखज्योतिःपुञ्ज से विराजमान गुरुवर को चिन्तन करते हुए स्तुति करता हूं ॥३॥ सर्वानुयोग बिज्ञान वृद्ध श्री गुरुपरम्परा प्रमुख जैनागम विशारद पूज्य श्री हुकुमचन्द्र जी को भजता हूं ॥४॥ तत्पट्टशिष्य अर्हद्दीक्षादक्ष ज्ञान वैराग्य सम्पन्न पूज्य श्री शिवलाल जी महाराज वाचक प्रमुख को हृदय में धारण करता हूँ ॥५॥ ज्ञानप्रकाशरूप सूर्य से जाडयान्धकार को दूर करने वाले पूज्यमान्य उदयसागर गुरुवर्य को प्रणाम कर बद्धाञ्जलि घासीलाल मुनि अनुयोग की विशद प्रस्तावना को पल्लवित करता हैं ॥६॥ પૃથિવીકાયાદિ પકાય જીના પ્રતિપાદક, દયાધર્મોપદેશમાં તત્પર, યતનામાટે મુખ વસ્ત્રિકાથી સમલંકૃત, ચન્દ્રવત મુખવાળા, પ્રસન્નવદન, ઉગ્રવિહારી, પાંચમહાવ્રતના આરાધક, આંતરિક મેહાન્ધકારને વિનષ્ટ કરનારી ચરણ નખતિઃ પુજેથી સુશોભિત એવા ગુરુવરનું ધ્યાન કરતો હું તેમની સ્તુતિ કરું છું. એવા સર્વાનુયોગવિજ્ઞાન વૃદ્ધ શ્રીગુરુપરંપરાપ્રમુખ જૈનાગમ વિશારદ પૂજ્ય શ્રીહુકમચન્દ્રજીને हुमछु ॥४॥ તત્પટ્ટશિષ્ય, અહંદુદીક્ષાદ, જ્ઞાન-વૈરાગ્ય સમ્પન્ન પૂજ્ય શ્રી શિવલાલજી મહારાજ વાચક પ્રમુખને હું હૃદયમાં ધારણ કરું છું પા જ્ઞાન પ્રકાશરૂપ સૂર્યથી જાડયાન્ધકારને દૂર કરનારા પૂજય, માન્ય ઉદયસાગર ગુરુવર્યને પ્રણામ કરી બદ્ધાંજલિ થયેલે હું ઘાસીલાલ મુનિ અનુગની વિશદ પ્રસ્તાવનાને वित ४३ ॥६॥ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા

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