________________ सम्पादकीय वक्तव्य सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वीतराग परमात्मा जिनेश्वर देवों की सुधास्यन्दिनी प्रागम-वाणी न केवल विश्व के धार्मिक साहित्य की मनमोल निधि है अपितु वह जगज्जीवों के जीवन का संरक्षण करने वाली संजीवनी है। प्रर्हन्तों द्वारा उपदिष्ट यह प्रवचन वह अमृत-कलश है जो सब विष-विकारों को दूर कर विश्व के समस्त प्राणियों को नव जीवन प्रदान करता है। जैनागमों का उद्भव ही जगत् के जीवों के रक्षण रूप दया के लिए हुमा है।' अहिंसा, दया, करुणा, स्नेह, मैत्री ही इसका सार है। अतएव विश्व के जीवों के लिए यह सर्वाधिक हितंकर, संरक्षक एवं उपकारक है। यह जैन प्रवचन जगज्जीवों के लिए त्राणरूप हैं, शरणरूप है, गतिरूप है और प्राधारभूत है। पूर्वाचार्यों ने इस प्रागम-वाणी को सागर की उपमा से उपमित किया है / उन्होंने कहा _ 'यह जैनागम महान् सागर के समान हैं। यह ज्ञान से अगाध है, श्रेष्ठ पद-समुदाय रूपी जल से लबालब भरा हुआ है, अहिंसा की अनन्त ऊर्मियों-लहरों से तरंगित होने से यह अपार विस्तार वाला है, चुला रूपी ज्वार इसमें उठ रहा है, गुरु की कृपा से प्राप्त होने वाली मणियों से यह भरा हुआ है, इसका पार पाना कठिन है। यह परम सार रूप और मंगल रूप है। ऐसे महावीर परमात्मा के प्रायमरूपी समुद्र की भक्तिपूर्वक प्राराधना करनी चाहिए।' सचमुच जैनागम महासागर की तरह विस्तृत और गंभीर है / तथापि गुरुकृपा और प्रयल से इसमें अवगाहन करके सारभूत रत्नों को प्राप्त किया जा सकता है। जैन प्रवचन का सार अहिंसा और समता है। जैसाकि सूत्रकृतांग सूत्र में कहा है-सब प्राणियों को आत्मवत् समझ कर उनकी हिंसा न करना, यही धर्म का सार है, प्रात्मकल्याण का मार्ग है। जैन सिद्धान्त अहिंसा से ओतप्रोत हैं और प्राज के हिंसा के दावानल में सुलगते विश्व के लिए अहिंसा की अजस्र जलधारा ही हितावह है / अत: जैन सिद्धान्तों का पठन-पाठन / अनुशीलन एवं उनका व्यापक प्रचारप्रसार प्राज के युग की प्राथमिक आवश्यकता है। अहिंसा के अनुशीलन से ही विश्व-शान्ति की सम्भावना है, अतएव अहिंसा से प्रोत-प्रोत जैनागमों का अध्ययन एवं अनुशीलन परम आवश्यक है। जनागम द्वादशांगी गणिपिटक रूप हैं। अरिहंत तीर्थकर परमात्मा केवलज्ञान की प्राप्ति होने के पश्चात् अर्थरूप से प्रवचन का प्ररूपण करते हैं और उनके चतुर्दश पूर्वधर विपुल बुद्धिनिधान गणधर उन्हें सूत्ररूप में निबद्ध —प्रश्नव्याकरण सूत्र 1. सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए भगवया पावयणं कहियं / 2. बोधागाधं सुपदपदवी नीरपूराभिरामं, जीवाहिंसाऽविरललहरी संगमागाहदेहं / / चलावेलं गुरुमममणिसंकुलं दूरचारं। सारं वोरागमजलनिधि सादरं साधु सेवे / / 3. अहिंसा समयं चेव एयावंतं विजाणिया / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org