Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 23
________________ द्वारा प्रतिपादित धर्मकथा / संस्कृत साहित्य में प्रस्तुत मागम का नाम 'ज्ञातृधर्मकथा' उपलब्ध होता है। प्राचार्य मलयगिरि१४ ब आचार्य अभयदेव१५ ने उदाहरणप्रधान धर्मकथा को ज्ञाताधर्म कथा कहा है। उनकी दृष्टि से प्रथम अध्ययन में ज्ञात हैं और दूसरे अध्ययन में धर्मकथा हैं। प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने कोश में ज्ञातप्रधान धर्मकथाएँ ऐसा अर्थ किया है। प. वेचरदास जी दोशी, डा. जगदीशचन्द्र जैन, डा. नेमिचन्द्र शास्त्री१६ का अभिमत है कि ज्ञातपुत्र महावीर की धर्मकथानों का प्ररूपण होने से प्रस्तुत अंग को उक्त नाम से अभिहित किया गया है। श्वेतांबर पागम साहित्य के अनुसार भगवान् महावीर के वंश का नाम 'ज्ञात' था / कल्पसूत्र, प्राचारांग 20, सूत्रकृतांग 1, भगवती२२, उत्तराध्ययन, और दशवकालिक 24 में उनके नाम के रूप में 'ज्ञात' शब्द का प्रयोग हुआ है। विनयपिटक 25, मज्झिमनिकाय२६. दीघनिकाय२७, सुत्तनिपात 28 आदि बौद्धपिटकों 13. तत्त्वार्थवातिक 1120, पृ. 72 14. ज्ञातानि उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा: अथवा ज्ञातानि-ज्ञाताध्ययनानि प्रथमश्रुतस्कंधे धर्मकथा द्वितीयश्रुतस्कंधे यासु ग्रंथपद्धतिषु (ता.) ज्ञाताधर्मकथाः / -नंदी वृत्ति, पत्र 230-231 15. ज्ञातानि उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा, दीर्घत्वं संज्ञात्वाद् अथवा--प्रथमश्रुतम्कंधो ज्ञाताभिधायकत्वात् ज्ञातानि, द्वितीयस्तु तथैव धर्मकथाः / -समवायांग पत्र 108 / 16. भगवान महावीर नी धर्मकथानो, टिप्पण पृ. 180 17. प्राकृत साहित्य का इतिहास 18 प्राकृत भाषा और साहित्य का पालोचनात्मक इतिहास, पृ. 172 19. कल्पसूत्र 110 20. (क) प्राचारांग श्रु. 2, अ. 15, मू. 1003 (ख) प्राचारांग थु. 1, अ.८, उ.८, से. 448 21 (क) सूत्र. उ. 1, गा. 22 (ख) सूत्र. 1602 (ग) सूत्र. 11624 (घ) सूत्र. 216 / 19 22. भगवती 1579 23. उत्तरा० 6 / 17 24. दशव०म० 5, उ० 2, गा० 49 तथा 6 / 25 एवं 6 / 21. 25. विनय पिटक महावग्ग पृ० 242 26. मज्झिमनिकाय हिन्दी उपाति-सुत्तन्त पृ० 222 चूल-दुक्खक्खन्ध सुत्तन्त चूल-सोरोपम-सुत्तन्त महा सच्चक सुत्तन्त अभयराज कुमार सुत्तन्त 234 देवदह सुत्तन्त 1, 441 27 दीघनिकाय सामञ्जफल सुत्त 18 / 21 , संगीति परियाय सुत्त 282 ,, महापरिनिवाण सुत , पासादिक सुत्त 28. सुत्तनिपात--सुभिय सुत्त 124 252 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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