Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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हैं । इन दर्शनों की आज प्रासंगिकता कितनी है यह एक अलग चर्चा का विषय हो सकता है, पर मिथ्या धारणाओं के बन्धन से मुक्त होने का लक्ष्य तो सर्वत्र सर्वदा प्रासंगिक रहा है, आज के युग में भी चिन्तन की सर्वांगता और सत्यामुगामिता, साथ ही पूर्वग्रह मुक्तता नितान्त आपेक्षिक है सूत्रकृत का लक्ष्य भी मुक्ति तथा साधना की सम्प-पद्धति है । इस लिए इसका अनुशीलन - परिशीलन आज भी उतना ही उपयोगी तथा प्रासंगिक है ।
सूत्रकृत का प्रथम श्रुतस्कंध पद्यमय है, ( १६वां अध्ययन भी गद्य-गीति समुद्र छन्द में है) इसकी गाथाएँ बहुत सारपूर्ण सुभाषित जैसी है । कहीं-कहीं तो एक गाथा के चार पद, चारों ही चार सुभाषित जैसे लगते हैं । गाथाओं की शब्दावली बड़ी सक्त, अर्थ पूर्ण तथा ति मधुर है। कुछ सुभाषित तो ऐसे लगते हैं मानो गागर में सागर ही भर
दिया है।
जैसे :
मा पच्छा असाहूया भवे तवेसु वा उत्तमबंभचेरं अहं विजा-चरणं पमोक्खो
जे एविष्यमा न कु
अम्मुणा कम्म खवेंति धीरा
सूत्रांक १४२
३७४
५४५
५८०
५४६
अगर स्वाध्यायी साधक इन श्रुत वाक्यों को कण्ठस्थ कर इन पर चिन्तन-मनन- आचरण करता रहे तो जीवन में एक नया प्रकाश, नया विकास और नया विश्वास स्वतः आने लगेगा ।
प्रस्तुत आगम में पर दर्शनों के लिए कहीं-कहीं 'मंदा', मूढा "तमाओ ते तमं जंति" जैसी कठोर प्रतीत होने वाली शब्दावली का प्रयोग कुछ जिज्ञासुओं को खटकता है | आर्ष-वाणी में रूक्ष या आक्षेपात्मक प्रयोग नहीं होने चाहिए ऐसा उनका मन्तव्य है, पर वास्तविकता में जाने पर यह आक्षेप उचित नहीं लगता। क्योंकि ये शब्द प्रयोग किसी व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं है, किन्तु उन मूढ या अहितकर धारणाओं के प्रति है, जिनके चक्कर में फंसकर प्राणी सत्यश्रद्धा व सत्य आचार से पतित हो सकता है । असत्य की भर्त्सना और असत्य के कटु-परिणाम को जताने के लिए शास्त्र कार बड़ी दृढ़ता के साथ साधक को चेताते हैं । ज्वरार्त के लिए कटु औषधि के समान कटु प्रतीत होने वाले शब्द कहींकहीं अनिवार्य भी होते हैं। फिर आज के सभ्य युग में जिन शब्दों को कटु माना जाता है, वे शब्द उस युग में आम भाषा में सहजतया प्रयुक्त होते थे ऐसा भी लगता है, अतः उन शब्दों की संयोजना के प्रति शास्त्रकार की सहज-सत्यनिष्ठा के अतिरिक्त अन्यथा कुछ नहीं है ।
सूत्रकृत में दर्शन के साथ जीवन व्यवहार का उच्च आदर्श भी प्रस्तुत हुआ है । कपट, अहंकार, जातिमद, ज्ञानमद आदि पर भी कठोर प्रहार किये गये हैं । और सरल-सात्विक जीवन-दृष्टि को विकसित करने की प्रेरणाएँ दी हैं । कुल मिलाकर इसे गृहस्थ और श्रमण के लिए मुक्ति का मार्ग दर्शक शास्त्र कहा जा सकता है ।
प्रस्तुत संपादन :
सूत्रकृत के प्रस्तुत संपादन में अब तक प्रकाशित अनेक संस्करणों को लक्ष्य में रखकर संपादन / विवेचन किया गया है। मुनि श्री जम्बूविजयजी द्वारा संपादित मूल पाठ हमारा आदर्श रहा है, किन्तु उसमें भी यत्र-तत्र चूर्णि सम्मत कुछ संशोधन हमने किये हैं । आचार्य भद्रबाहुकृत नियुक्ति, प्राचीनतम संस्कृतमिश्रित - प्राकृतव्याख्या - चूर्णि, तथा आचार्य शीलांक कृत वृत्ति - इन तीनों के आधार पर हमने मूल का हिन्दी भावार्थ व विवेचन करने का प्रयत्न किया है । कहीं-कहीं चुणिकार तथा वृत्तिकार के पाठों में पाठ-भेद तथा अर्थ-भेद भी हैं। यथाप्रसंग उसका भी उल्लेख करने का