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(जो अर्धमागधी है और आर्ष प्राकृत कहलाती है) की हम उपासना करते हैं।
उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध होता है कि प्राकृत , संस्कार विशेष पाने से संस्कृत आदि अन्य भाषाओं के रुप में परिणत होती है।
प्राकृत भाषा की विशेषताएं :- कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरिजी ने स्वोपज्ञ काव्यानुशासन में लिखा हैं
अकृत्रिम स्वादुपदां, परमार्थाभिधायिनीम् । सर्व भाषा परिणतां, जैनी वाचमुपास्पहे ।।
अकृत्रिम, पद-पद पर मधुरता धारण करनेवाली, परम अर्थ का प्रतिपादन करनेवाली और सभी भाषाओं में परिणाम पाई हुई जैनीवाणी की हम उपासना करते है ।
अकृत्रिमता :- व्याकरण आदि के संस्कार से निरपेक्ष स्वभावसिद्धता ।
स्वादुता :- श्रोतावर्ग के कर्णयुगल में मधुर रस पैदा करनेवाली ।
अकृत्रिम स्वादुता :- प्रकृति सिद्ध मधुरता या नैसर्गिक मधुर रस पोषकता।
यायावरीय कवि राजशेखर बालरामायण में लिखते है'गिरः श्रव्या दिव्याः प्रकृतिमधुराः प्राकृत-धुराः।
सुनने योग्य दिव्य और प्रकृति मधुर ऐसी प्राकृत आदि वाणी है।
सरलता :- प्राकृत में रही सुबोधता, सुखग्राह्यता, बालादिबोधकारिता किसको आकर्षित नहीं करती है।
सिद्धर्षि गणी ने उपमितिभवप्रपंचा कथा में पीठबंध श्लोक 51 में लिखा हैं