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राडास्मान पुरातन ग्रन्मामाला
प्रधान सम्पादक - पद्मश्री जिनविजय मुनि, पुरातत्त्वाचार्य [सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर]
ग्रन्थाङ्क ६६ श्रीकृष्णभट्ट-कविकलानिधि-गुम्फिता
वृत्तमुक्तावली
বসন্তৰৰবিয়ীন
DEma.
019
0
DOORana
प्र का शक
राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
जोधपुर (राजस्थान)
RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला
प्रधान सम्पादक – पद्मश्री जिनविजय मुनि, पुरातत्त्वाचार्य [ सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान पाच्यविद्या प्रतिष्ठान, बोधपुर ]
ग्रन्थाङ्क ६६ श्रीकृष्णभट्ट-कविकलानिधि-गुम्फिता
वृत्तमुक्तावली
प्रकाशक
राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
जोधपुर ( राजस्थान )
RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR
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राजस्थान पुरातन काला
राजस्थान राज्य द्वारा प्रकाशित
सामान्यत: अखिल भारतीय तथा विशेषतः राजस्थानदेशीयः पुरातनकालोन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी आदि भाषानिबद्ध विविध वाङ्मयप्रकाशिनी विशिष्ट ग्रन्थावलि
THE
प्रधान सम्पादक
पद्मश्री जिनविजय मुनि, पुरातत्त्वाचार्य
सम्मान्य संचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ; ग्रॉनरेरि मेम्बर ऑफ जर्मन ओरिएन्टल सोसाइटी, जर्मनी; निवृत्त सम्मान्य नियामक (प्रॉमरेरि डायरेक्टर ), भारतीय विद्याभवन, बम्बई; प्रधान सम्पादक, सिंच जैन ग्रन्थमाला; इत्यादि
ग्रन्थाङ्क ६६
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श्रीकृष्ण भट्ट - कविकलानिधि - गुम्फिता
वृत्तमुक्तावली
प्रकाशक
राजस्थान राज्याज्ञानुसार
सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर ( राजस्थान )
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श्रीकृष्णभट्ट कविकलानिधि-गुम्फिता
वृत्तमुक्तावली
सम्पादक
कविशिरोमणि भट्ट श्रीमथुरानाथजी शास्त्री .
साहित्याचार्य
प्राक्कथन-लेखक प्रो० एच० डी० वेलणकर अध्यक्ष- संस्कृत विभाग, विश्वविद्यालय, बम्बई
प्रकाशनकर्ता
राजस्थान राज्याज्ञानुसार सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
जोधपुर ( राजस्थान )
विक्रमाब्द २०२० ) प्रथमावृत्ति १०००)
काब्द १९८५
ख्रिस्ताब्द १९६३ ( मूल्य-३.७५
मुद्रक- श्री हरिप्रसाद पारीक, साधना प्रेस, जोधपुर ।
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विषय - सूची
पृष्ठाङ्क
सञ्चालकीय वक्तव्य प्राक्कथन (Foreword)-प्रो० एच० डी० वेलणकर परिचय-लेख (Introductory Note)-श्री कलानाथ शास्त्री,
. . एम. ए., साहित्याचार्य प्रारम्भिकं निवेदनम्-सम्पादक छन्दसामकारादिवर्णानुक्रमसूची विषयानुक्रमः वृत्तमुक्तावली प्रथमो गुम्फः द्वितीयो गुम्फः तृतीयो गुम्फः
७-१३ १-७६
१८-३६
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संचालकीय वक्तव्य
छन्दःशास्त्र वेदाङ्ग है और वैदिक ऋचाओं एवं सूक्तों को सम्यक्तया समझने के लिए इस शास्त्र का अध्ययन आवश्यक है। विश्वसाहित्य का प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद सूक्तों में है। जिन ऋषियों ने इन सूक्तों की रचना कर के इनका गान किया उनको अवश्य ही इनकी छान्दस अभिव्यक्ति एवं संगीत के नियमों का विशिष्ट ज्ञान रहा होगा। सामवेद के सूक्त-गान से विदित होता है कि इनको रचना के समय कर्ण-सुखद अक्षर-पद-योजना की कोई न कोई विकसित विधा प्रयोग में आई थी। ऋग्वेद की छान्दस-सामग्री से स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि इसके सूक्तों के विभिन्न रचनाकाल में नए-नए छन्दों का आविष्कार होता रहा है । तत्तत् ऋषियों ने पूर्व प्रचलित छन्दों में रचना करने के साथ-साथ नवीन छन्दोयोजना का भी निर्माण किया। उनका विश्वास था कि उनके द्वारा रचित नवीन छन्दोविधान से देवताओं को अधिकाधिक प्रसन्नता होगी।
सामवेदीय निदानसूत्र, साङ्ख्यायन श्रौतसूत्र, ऋक्-प्रातिशाख्य और कात्यायनीय अनुक्रमणिका आदि में वैदिक छन्दःशास्त्र का विवेचन हुआ है । इसका प्रारम्भ प्रागैतिहासिक काल से सम्बद्ध है। यह समय इतना प्राचीन भी हो सकता है कि जब इण्डो-आर्यनों का पृथक्करण ही नहीं हुआ था-यदि हो भी गया था तो बस हा ही था।
वैदिक छन्दःशास्त्र में हमको प्राकृतिक विकास की ऐसी ऐतिहासिक शृङ्खला का ज्ञान होता है कि जिस में सम्पूर्ण मानव-समाज ने सम्मिलित रूप से भाग लिया है और एक ऐसी परम्परा का सूत्रपात हुआ है जो किसी आदर्श के आधार पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ती चली गई है तथा प्रत्येक पीढ़ी ने अपने पूर्ववर्ती समाज की देन का आस्वाद करते हुए अनुवतियों के लिए उसे अधिकाधिक समृद्ध करने का प्रयास किया है। ___कविकलानिधि श्रीकृष्णभट्ट-कृत वृत्तमुक्तावली की रचना भी उक्त लक्ष्य को ही दृष्टि में रख कर की गई प्रतीत होती है । इसमें वैदिक छन्दों से लेकर रचनाकार के समय तक प्रचलित प्रायः सभी वैदिक, संस्कृत और व्रजभाषाहिन्दी छन्दों के लक्षण और उदाहरण दिये गये हैं । वैदिक छन्दों के अतिरिक्त सभी छन्दों के उदाहरण स्वयं ग्रंथकार द्वारा निर्मित हैं । व्रजभाषा हिन्दी छन्दों
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[ २ ]
में सफलतापूर्वक लक्षण निर्वाह करते हुए संस्कृत में रचना कर के उदाहरण प्रस्तुत करना कवि की असाधारण प्रतिभा और भाषा पर अधिकार का परिचायक है । ऐसा लगता है कि कविकलानिधिजी ने अपनी इस रचना में वृत्तकल्पद्रुम कर्ता श्री जयगोविन्द ( वाजपेयी) का आदर्श सामने रखा है जिनका इन्होंने पृ० २८ में सम्मानपूर्वक संदर्भ दिया है ।
श्रीकृष्णभट्ट एक सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी कवि, विद्वान् और मनीषी थे । काव्य, साहित्य, छन्दः शास्त्र, व्याकरण और वेदान्तादि विविध विषयों पर उनकी स्वतंत्र एवं अनूदित रचनाएँ उपलब्ध हुई हैं और दिनों-दिन प्राप्त होती जा रही हैं। जयपुर - नगर-संस्थापक, सुप्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, रणपंडित प्रौर विद्वान् एवं विद्वदनुग्राही ज्योतिर्विद्याविद् महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा समादृत इन महाकवि के विशिष्ट ऐतिहासिक काव्य 'ईश्वर विलास' और सुललित गंभीर पद्यनिगुम्फित 'पद्यमुक्तावली' का क्रमशः प्रकाशन प्रतिष्ठान द्वारा पूर्व में किया जा चुका है और यह 'वृत्तमुक्तावली' साहित्यसुरसिक विद्वान् पाठकों के करकमलों
प्रपित की ही जा रही है । इन तीनों और विद्वान् सम्पादक महोदय द्वारा पूर्व सम्पादित ग्रंथों एवं प्रस्तुत कृति में उल्लिखित रचनाओं के अतिरिक्त श्रीकृष्णभट्ट निर्मित 'रामगीतम्' और 'प्रशस्तिमुक्तावली' नामक रचनाओं का पता और लगा है। अपर कृति की एक खण्डित प्रति प्रतिष्ठान के संग्रह में मिली है, जिसके प्राद्य दो पत्र प्राप्त हैं । यदि कदाचित् यह कृति सम्पूर्ण रूप में प्रथवा इसके अभी अनुपलब्ध दो पत्र प्राप्त हो सके तो कविकलानिधिजी की इस सरस एवं वल्लभ-सम्प्रदायान्तर्गत पत्र - शिष्टाचार-पद्धति परिचायक रचना का भी सहृदय साहित्यानुरागियों को प्रास्वाद कराने का सुअवसर प्राप्त हो सकेगा ।
श्रीकृष्ण भट्ट की रचनाओं के प्रति संस्कृत के विद्वानों का ध्यान सर्वप्रथम हमारे सम्माननीय मित्र सुविख्यात भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना ग्रन्थ-संग्रहाध्यक्ष कीर्तिशेष परशुरामकृष्ण गोड़े महोदय ने प्राकृष्ट किया था । उन्होंने प्रस्तुत वृत्तमुक्तावलीगत महाराजा सवाई जयसिंहजी द्वारा जयपुर नगर की संस्थापना और अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठान-सम्बन्धी पद्यों के उद्धरण दे कर सिद्ध किया है कि वास्तव में इस यज्ञ का विधि-विधानयुक्त सम्पादन हुआ था । वृत्तमुक्तावली का रचना - काल ईश्वरविलास से पहिले का है क्योंकि इसकी रचना जयपुर की संस्थापना और अश्वमेधयज्ञानुष्ठान के अनन्तर हुई थी जिनकी तिथियां क्रमशः १७२८ ईस्वी और १७३२ ईस्वी मानी गई हैं । सवाई जयसिंह
१. लॉफ्रेट, कैटलॉगस कैटलॉगरम्, भा. २; पृ. ५६६ ।
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[ ३ ] का निधन-समय १७४३ ईस्वी है । अतः वृत्तमुक्तावली १७३२ और १७४३ ई. के बीच में किसी समय रची गई होगी जब कि ईश्वरविलास की रचना १७४३ या १७४४ ईस्वी में सवाई ईश्वरीसिंह के राज्यारोहण के उपरान्त प्रारंभ हुई। इसके अतिरिक्त वृत्तमुक्तावली में सवाई जयसिंह द्वारा हिन्दुओं को जजिया कर से मुक्त कराने का भी उल्लेख निम्न पद्य में प्राप्त होता है जो इतिहासज्ञों द्वारा समसामयिक साक्ष्य के रूप में ग्रहण किया जा सकता है
"जातोज्जागर 'जेजिया' भिधकरस्तोमात्तभूमीरसप्रस्फूर्जद्यवनेन्द्र भास्वति कलिग्रीष्मेऽतिभीष्मे नृणाम् । भाग्यर्यः प्रविराजतां प्रमुदितोऽजस्र सहस्र समाः
सद्यः स्वोदयसंहृताऽखिलविपत्पीयूषपाथोधरः ॥५"-व.मु. अतः प्रस्तुत रचना का साहित्यिक महत्त्व तो है ही, साथ ही इससे प्राप्त ऐतिहासिक सङ्केत भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं ।
रचयिता ने द्वितीय गुम्फ के अन्त में वृत्तमुक्तावली का अपर नाम 'छन्दोमुक्तावली' भी लिखा है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि श्रीकृष्ण भट्ट वृत्तमुक्तावली से पूर्व बूंदी के राव अनिरुद्ध सिंह के पुत्र राव बुद्धसिंह हाड़ा की प्रार्थना पर 'वृत्तचन्द्रिका' नामक अपर छन्दोग्रन्थ की रचना व्रजभाषा में कर चुके थे। राव बुद्धसिंह स्वयं एक काव्य-प्रेमी और कवि नरेश थे। इनका एक रीति-ग्रन्थ नेहतरंग भी प्रतिष्ठान से पिछले वर्षों में प्रकाशित किया जा चुका है।
हमें दुःख है कि श्री पी.के. गोड़े, जो कविकलानिधि-साहित्य के अन्वेषक एवं उद्घाटक थे और उनके ग्रन्थों के प्रकाशन में जिनका हमें पूर्ण सहयोग प्राप्त था, इस वृत्तमुक्तावली के प्रकाशन से पूर्व ही 'इह-वृत्त' से मुक्त हो गये। ____ यह भी एक मणिकाञ्चन योग है कि कविकलानिधिजी के ग्रंथों का सम्पादन कविशिरोमणि भट्टश्रीमथुरानाथजी शास्त्री, साहित्याचार्य द्वारा हुआ है जो ग्रंथकार के सीधे वंशज होने के अतिरिवत सम्प्रति संस्कृत-साहित्य-जगत् में रससिद्ध कविशिरोमणि एवं विश्रुत वयोवृद्ध विद्वान् के रूप में प्रसिद्ध हैं । यह
और भी सन्तोष और प्रसन्नताका विषय है कि श्रीभट्टजी के ज्येष्ठ चिरंजीव प्रो० कलानाथ शास्त्री, एम० ए०, साहित्याचार्य भी अपने पिताश्री के पद-चिह्नों पर सफलतापूर्वक अग्रसर हो रहे हैं । दोनों ही श्रीशास्त्रीजी और उदीयमान कलानाथजी ने क्रमशः अपने-अपने संस्कृत और अंग्रेजी-भाषा-निबद्ध वक्तव्यों में छन्दःशास्त्र, 'वृत्तमुक्तावली' को हस्तप्रति की उपलब्धि एवं ग्रंथकार के जीवन
और कर्तुत्व-विषयक तथ्यों पर सम्यक् प्रकाश डाला है जो साहित्य-मर्मग्राही विद्वानों एवं अनुसंधित्सु अध्येताओं के लिए परमोपयोगी है।
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[ ४ ] जिस समय पुस्तक का मुद्रण समाप्त हुआ तो कुछ समय के लिये श्रीभट्टजी वार्द्धवय के कारण अस्वस्थता का अनुभव कर रहे थे। तब हमने अपने सहयोगी विद्वान् मित्र श्री एच० डी० वेलणकर, अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, बम्बई विश्व विद्यालय को इस उपयोगी पुस्तिका की भूमिका लिखने के लिए अनुरोध किया। श्रीवेलगाकरजी छन्दःशास्त्र के मर्मज्ञ अधिकारी विद्वान् हैं । इन्होंने हमारी अनुरोध स्वीकार कर आमुख लिखने का कष्ट किया तदर्थ हम प्रतिष्ठान की ओर से धन्यवाद अर्पित करते हैं। बाद में, कुछ स्वस्थ होने पर सम्पादक महोदय ने एवं उनके ज्येष्ठ तनुज श्रीकलानाथजी ने भी अपने अपने वक्तव्य भेजे जिनको अग्रिम पृष्ठों में पाठक-वृन्द पढेंगे। .
आशा है, राजस्थान-निवासी विद्वान् कवि द्वारा राजस्थान में प्रणीत और राजस्थान के विद्यमान विद्वद्वरेण्य ग्रन्थकृवंशजों द्वारा संपादित एवं राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला द्वारा प्रकाशित इस उपयोगी पुस्तक से विद्वज्जन लाभान्वित होंगे।
आषाढीपूर्णिमा; संवत् २०२०.
मुनि जिनविजय
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FOREWORD
In
Ancient Indian metres are broadly divisible into three main classes: (1) Akṣara Vṛttas, (2) Varna Vṛttas and (3) Mātrā Vrttas. Aksara Vṛttas the metrical unit is an Akşara, whether short or long, and the classification of the metres is based on the number of the Akṣaras in a stanza. A stanza is usually divisible into three or four Pādas. Vedic Vṛttas are Akṣara Vṛttas and three main varieties of these are Gayatri, Triṣṭubh and Jagati. The Gayatri stanza has three Padas of 8 Akṣaras each, while the Triṣṭubh and the Jagati stanzas have four Pādas each, those of the former having II and those of the latter having 12 Akṣaras in each of them.
The Varna Vṛttas are really derived from the Vedic Aksara Vṛttas but the basis of their metrical music is not merely the number of intonated and accented Akṣaras as in the Vedic Aksara Vṛttas, but also a variation of short and long Akṣaras coming one after the other, in different order. The tendency towards such a variation is already noticeable in the Vedic Vṛttas, but it was not recognised as a source of metrical music as clearly as it was in the classical period. The metres in classical Sanskrit poetry are almost all of them Varna Vṛttas; they depend both upon the number of the Aksaras which their Pādas may contain and also upon the type of variation of the short and the long Aksaras employed in them. The starting of such metres is rightly attributed by Bhavabhuti in his Uttara-Rama-Carita to the Ādi Kavi, Valmiki. The first metre of this type is the Anuṣṭubh Sloka, which is the ruling metre of the Rāmāyaṇa.
The third variety of the ancient metres is the Matrā Vṛattas. The basis of the metrical music in these metres is a Mātrā, which is a unit of the syllabic content in an Akṣara. According to this principle of syllabic content, a short Akṣara contains one Matra and the long one contains two Mātrās' as their syllabic content. This principle was already recognised in the Pratis'akhyas though its employment as the basis of metrical music was left to the Sanskrit prosodists who made use of the purely Prakrita metres for their Sanskrit compositions.
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[ 2 ] Naturally neither the number of Akşaras nor the particular order in which the short and long ones in them follow each other is of any consequence in these metres. Their Pādas must contain the prescribed number of Mātrās, which may be made up in any way, with the following two broad exceptions : (1) these Mātrās must be divisible into smaller groups of three to seven Mātrās; (2) no long letter must occur at the junction of these smaller groups, i.e. it must not combine in itself the last Mātrā of an earlier group, and the initial Mātrā of the following group, thus keeping the two groups mutually distinguished and independent. It is on account of this latter rule that a mere adding of a required number of Mātrās cannot give us the particular metre. It also serves as the principie of division in the case of Metres having the same number of Mātrās in each of their Pādas.
These Mātrā-Vţattas are turned into Tāla Vrattas in the hands of the Prāksta and the Apabhramsa poets of the middle ages. An additional type of metrical music is employed in them; it depends upon the Tāla or a recurring stress controlled by the Kāla-Mātrā. A KālaMātrā is that portion of time which is normally taken by the pronounciation of a short Akşara and thus corresponds to the older Akşara Mātrā. A Pāda of these metres is similarly divisible into several groups of such Kāla Mātrās, which may contain from 4 to 7 Mātrās in each; but the principle of Tāla requires that a line or Pāda must be made up of the same type of group or groups whether of 4, 5, 6, or % Kāla-Mātrās. The Kāla Mātrās in any one of these groups may be made up normally by employing Akşaras which yield a corresponding number of the Akşara Mātrās; but this is not absolutely necessary and this is the characteristic of the popular Apabhrams'a poetry and the poet may employ at will Akşaras which will normally yield a smaller or larger number of Akşara Mātrās, provided these yield the required number of Kāla Mātrās in their pronounciation. This is done by pronouncing short Aksaras long and vice versa, as also by continuation of the sound of the earlier Akşara for making up the required number of the Kāla Mātrās, without employing any new Akşara at all. The above mentioned rule No. 2 in the case of the Mātrās Vsttas is strictly applicable even here and a long letter must not be employed at the junction of the two groups of Kāla Mātrās, combining in itself the
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[3] Kāla Mātrās of an earlier group and the initial Kāla Mātrā of the following group. Many of the metres defined in the Prakrta Paingala are, as a matter of fact, Tāla Vrattas, though they are included under Mātrā of the Varna Vịttas, and are not recognised as such either by the Prakrta Paingala or any other prosodist who defines them. Sanskrit and Prāksta prosodists do not show any consciousness of the principle of Țāla as a source of metrical music and consequently do not admit a distinct class of Tāla Vrttas, in their manuals and treatises. Our author is, of course, no exception to this.
In the work before us, namely the Vrtta Muktāvalī, the author who is also a poet of high poetical merit, has treated all these three or rather four kinds of metres; but he does not divide them into Sanskrit and Praksta, (or Sanskrit, Prāksta and Apabhraṁsa as Hemacandra has done) metres, and treats all of these as Sanskrit metres only, giving illustrations composed by himself in the case of the non-Vedic metres. The work is divided into three Gumphas or chapters; in the first, Vedic metres are treated with illustrations, on the basis of Pingala's Chandas-Sūtra Adhyayas 2-4. The second Gumpha is devoted to the Mātrā Vrttas; it begins with the Gathā and its divisions and derivatives; they are then followed by the other Mātrā Vrttas of 4 and 6 Pādas constituted with the different Mātra Gaņas mentioned above. In his Chandas-Sūtra Pingala has defined and employed only one Mātra Gana, namely, the Caturmātrā; but our author following the lead of the Prākrta Paingala has employed now and then even the other Mātrā Gaņas in formulating his definitions of more than 30 Mātrā Ganas. Our author has closely followed the Prākrta Paingala in selecting and defining these Mātrā Vsttas, but as said above, has treated all of them as Sanskrit Mātrā Vsttas. In the third Gumpha the author definęs and illustrates the Varna Vsttas; here too he has generally followed the Prākrta Paingala.
The author, Shri Kršņabhatta of the Tailanga Kula was patronised by King Jayasimha (perhaps the same as Sawāi Jayasimha, see v-257) of Jaipur, who bore the title of Rājādhirāja (cf. vv. II. 3,6,7,31 etc.) and ruled over the state during 1699-1743 A.D. Some of the illustrations refer to this patron in highly eulogising terms but generally
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they contain the praise of either Sri Krşņa i.e. Vāsudeva Krisņa or Sri Rāma i.e. Dāsarathi Rāma. A scholar called Jayagovind Vājapeyi is mentioned respectfully as an authority in respect of a metrical practice on II, 24.
The author is undoubtedıy a poet of a high order; his illustrations are composed in a delightfully lucid style, in spite of a sort of artificiality which had to be introduced in view of the metrical needs of a definition. It can be recommended to the reader both as a manual of prosody and as a small poem.
H. D. VELANKAR Professor of Sanskrit and Head of the
Department of Sanskrit, University of Bombay
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INTRODUCTORY NOTE (Kalanath Shastry, M.A., Sahityacharya )
The appa107 of Shri Krishna Bhatta needs no apology for its publication inspite of the fact that there are many other published works on Sanskrit prosody, as it marks a pointedly keen distinction from all other books extant in this field. It does not confine itself to the treatment of classical Sanskrit metres and their divisions only. It is intended to be a valuable reference bcok of prosody giving detailed definitions and illustrations of the Vedic and Classical Sanskrit metres of 'The Varnik system, ‘Prakrit Gathas' and 'Vraj Bhasha' measures of 'the Matrik system' and 'the Dandakas' (longer metres) of Sanskrit and Vraj Bhasha. Its first chapter deals with the nature and divisions of the Vedic metres, their definitions and examples. The second chapter discusses at length the Gathas of Prakrit and metres of Vraj Bhasha giving their definitions and illustrations in Sanskrit. The author has Sanskritised the names of some Vraj Bhasha metres. He calls 'all' as 'f&qn1', 'Ezeqe' as '9792' and 'tror' as 'attro's; others which could be derived according to Sanskrit grammar have been accepted in original. The third chapter deals with the classical Sanskrit metres and the longer "Dandakas'. The Vraj Bhasha Metres
The author, in this way, has tried to make the collection as much exhaustive as possible. Other Sanskrit books on metrics popularly known among the scholars deal with the classical Sanskrit metres only. But Krishna Kavi, perhaps for the first time, includes all the Vedic metres and the verse forms of Vraj Bhasha also extant in his time. He discusses as many as 42 Vraj Bhasha metres (pp. 23-36) and gives as illustrations verses composed by himself.
This is an unmistakable evidence of the fact that towards the beginning of the 18th century the interpenetration of the literary
1 p. 23.
2 p. 25.
sp. 29
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trends and styles of Sanskrit and Vraj Bhasha was manifesting itself. As Vraj Bhasha freely borrowed from Sanskrit the metrics, rhetorics, principles of criticism and theory of emotions, Sanskrit also, in turn, was abundantly influenced by the trends and currents of style in Vraj Bhasha. There were some Sanskrit poets in North India who advocated experimenting on the measures of Vraj Bhasha also in Sanskrit language. The later Sanskrit poets were influenced by this apology for new experiments in verse forms of Vraj Bhasha which had been, by that time, interprovincially accepted as a medium of poetic expression.
Shri Krishna Bhatta himself was one of such poets. He represents a confluence of Sanskrit, Prakrit and Vraj Bhasha poetry. Though originally belonging to Andhra Pradesh he had settled in North India and had cultivated an astonishing command in Vraj Bhasha also. Being closely associated with the editing and publication of his works I have often wondered at the equal amount of felicity that he displays in composing Sanskrit and Prakrit poems in a wide variety of metres and writing chaste Vraj Bhasha in its 'Ghanakshari' and other stock-metres, keeping up their characteristic swing and rhythmic quality. Shri Gopal Narain Bahura of the Rajasthan Orie Research Institute has recently discovered the MS. of a 'Geetikavya' (Lyrical poem) by him entitled 'Ram Geetam' which evidences the poet's lyricism also. This excellence in poetry coupled with a high order of scholarship in Vedic Philosophy, Meemamsa, Vedanta, Grammar and other branches of learning make Shri Krishna Bhatta an extraordinarily erudite intellectual of his time.
This leads me to another striking quality of this work. The author follows the plan ot illustrating all the metrical forms, except the Vedic ones, by verses composed by himself rather than quoting from the classics. This practice has stood him in good stead particu- . larly in the Vraj Bhasha metres to find illustrations of which anywhere in Sanskrit poetry was not only difficult but impossible. It goes without saying that no one but a poet of Krishna Kavi's stature
He is the author of 'Tiara parfafe' (Rhetorics), AiHTT?', 'F143548' etc. in व्रजभाषा. Vide 'ईश्वरविलासमहाकाव्यम्' (Rajasthan Oriental Research Institute), Introd. p. 49.
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could readily compose verses in such a wide variety of verse forms. The poet seems to be at his best in longer forms of Sanskrit and Hindi inetres. His 'स्रग्धरा' is remarkable, his 'सवैया's' are sweet and 'दण्डक' 2s musical.
The Manuscript
The credit of discovering the MS. of the book goes to late Prof. P. K. Gode, Curator of the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona. Prof. Gode got interested in Shri Krishna Kavi, the author of this work and another historical epic 'ईश्वरविलासमहाकाव्यम्', while searching for contemporary evidence to prove the performance of the Asvamedha Sacrifice at Jaipur by Maharaja Sawai Jai Singh of Amber (A.D. 1699-1743). Supporting his thesis by quotations from the 'Ishvaravilasa Mahakavya', he established the historicity of the tradition about the Asvamedha Sacrifice by the Maharaja and also introduced the author of this work to the scholars by publishing a paper in the Bharata Itihasa Samshodhan Mandal Quarterly (1941).3 Incidentally he came across manuscripts of other works by the same author in the Govt. MSS. Library at the B.O.R. Institute, Poona, the 'Vrtta Muktavali' being one of them. In 1944 he published a paper in 'the Indian Culture' Vol. XI No. 1 (July-September, '44) introducing 'Vrtta Muktavali, a rare Sanskrit work by Krishna Kavi, the court poet of Sawai Jai Singh (A.D. 1699-1743).
In the Govt. MSS. Library, Poona, there are two MSS. of the "Vrtta Muktavali', the first representing the first chapter and the second the 2nd and 3rd. Prof Gode, in his paper, describes these manuscripts as follows:
"Aufrecht records some MSS. of a work on prosody of the title
1 p. 62. 2 p 66.
3 Vol. XXII, pp.15-23, entitled 'Krishna Kavi, the author of 'Ishvaravilasa Kavya-His works and descendants, Between A. D. 1669 and 1760'.
CCII, 142
metrics by Kṛṣṇa Pandita', Rgb. SSI
(inc.) (No. 551 of 1884-87). CC III, 125- 'Peters 5.455.' This MS. is missing in the Govt. MSS. Library since 1908. It is No. 455 of 1892-95 called ataft. I am not sure if this work was composed by Krsna Kavi.
-
- Footnote by Prof. Gode.
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'y' by Kṛṣṇa Kavi. One of these MSS. is No. 551 of 188487 in the Govt. MSS. Library at the Bhandarkar O. R. Institute, Poona. It appears to be a work dealing with Vedic metres by fa' as stated in the colophon of the MS. The MS. represents the first chapter called 'प्रथम: गुम्फ' of the 'वृत्तमुक्तावली'.
There is another MS. of the 'वृत्तमुक्तावली' by 'श्रीकृष्णकत्रि', viz. No. 487 of 1899-1915 in the Govt. MSS. Library. This MS. was not known to Aufrecht and it is important as it seems to represent the second chapter (fata: :') of this work, judging by the identity of the names of the authors, titles and names of divisions of the two works, viz. श्रीकृष्ण कवि, वृत्तमुक्तावली and गुम्फ respectively occurring in both the MSS. The first MS. furnishes no historical information about its author or his patron and hence it may be left out of our consideration for the present".
I should hasten to add here that the second manuscript referred to here represents not only the 2nd but also the 3rd chapter of the book. These MSS. were made available from the Govt. MSS. Library, Poona to the editor (Bhatt Mathuranath Shastri) by late Shri Hari Narain Purohit, B.A. of Jaipur. It was a pleasant discovery for him (the editor) as in his ancestral records there was no trace of this book on metrics written by Krishna Kavi, his own forefather. The MS. which had many transcriptional errors was copied by the editor himself who amended the readings of the manuscript and presented it for publication before the Rajasthan Oriental Research Institute.
By bringing to light this work of an eminent Sanskrit scholar of Rajasthan, the Rajasthan Oriental Research Institute and its learned Director have made all the scholars of Indology indebted to them.
1 Another book on metrics entitled
(in Vraj Bhasha) is reported to have been found with a Chaturvedi family of Mathura by Dr. Shyam Sunder Das (Vide his Report).
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प्रारम्भिकं निवेदनम्
काव्यकल्पनाकारु, कृपयतु मयि तेजः किमपि ।
मनसि चकासतु चारु-चरणसरोरुहरेणवः ।। सुरसरस्वत्याः साहित्ये छन्दसां, तद्विवेचनपरस्य छन्दःशास्त्रस्य च किं नाम महत्त्वमिति कस्य वा सचेतसो बोधनीयं स्यात् ? "छन्दः पादौ तु 'वेदस्ये' त्युद्घुष्य निखिलवाङ्मयमुकुटायमानस्य वेदस्याङ्गत्वेन छन्दःशास्त्रस्यावश्यपठनीयत्वं प्रसेधितमासीदार्यमनीषिभिः । वैदिकसाहित्यस्याधिकतमो भागश्छन्दोनिबद्ध इति तु सुविदितमेव सुधियाम् । अत एव हि वैदिकसाहित्यस्य नामैव 'छन्द' इत्यभिधीयते स्म पुरा । 'छन्दसि' 'लोके' इति भेदकशब्दाभ्यां वैदिकलौकिकसाहित्ययोरभिधानं क्रियते स्म । वेदे हि येषां छन्दसामुपयोगोऽस्ति तेषां लोके प्रचारः कथमारब्धः, कथं चान्यान्येषामपि छन्दसां लोके सृष्टिरभूदित्येतद् वाल्मीकीयरामायणेऽनुष्टुप्छन्दसो वाल्मीकिमुखान्निर्गमनकथया ज्ञायते । तमसानदीतटे विचरतस्तस्य क्रौञ्चमिथुनादेकस्मिन् व्याधशरविषयतामापन्ने तमनुशोचन्त्या: क्रौञ्च्याः शोकविह्वलतां वीक्ष्य कारुण्योद्गारः श्लोकरूपेण मुखान्निर्गत इति कथा तथ्यस्यास्योद्बोधिका यन्मानसानां भावानामावेगेनोत्थापितानामुद्गाराणामभिव्यक्तिवाञ्छा छन्दसो जन्मदात्री लोके । तदेवाभिहितं कविकुलगुरुणा कालिदासेन
'तामभ्यगच्छद् रुवितानुसारी मुनिः कुशेष्माहरणाय यातः ।
निषादविताण्डजदर्शनोत्थः श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोकः ॥' परिमिताक्षरपदामिमां भारती 'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती: समाः। यत्क्रोञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्' इत्युक्तवतो वाल्मीर्मनसि कौतूहलविस्मयावुदभूताम् । 'कुतोऽयं वेदादितरत्र छन्दसोऽवतारः' इति। किन्तु ब्रह्मणाऽऽदिष्टोऽसौ-श्लोक एव त्वया बद्धो नात्र कार्या विचारणा। xxx रामस्य चरितं कृत्स्नं कुरु ।' x x x तदेवं लोके सर्वादिमस्य छन्दसः काव्यस्य चावतारोऽभूत् । आदिमेऽप्यस्मिन् काव्ये न केवलं श्लोकस्य (अनुष्टुभः), अपि तूपजातिपुष्पिताग्रावंशस्थादीनामनेकेषां छन्दसामुपयोग इति वृत्तभेदानामियत्त्वरितं लोकप्रियतामेव पिशुनयति । ___ छन्दसः कविकर्मणा सम्बन्धः-छन्दसो लोके समारम्भानन्तरं तस्य लोकप्रियता नूनमनेनैवानुमातव्या यच्छास्त्राणि, विज्ञानानि, कोषादयः सर्वेऽपि विषया
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[ २ ]
छन्दोनिबद्धा एव शोभन्त इति प्रावर्तत विदुषां परम्परा | दर्शनम्, ज्यौतिषम्, श्रायुर्वेदः, व्याकरणं, कोष: यदेव विलिख्येत ग्राहोस्विदेतदाद्योपान्तं छन्दोबद्ध भवेदथवाऽऽद्यन्तयोस्तु नियतमेव तत्र श्लोका विलिख्येरन् । यः श्लोकं रचयितुं न जानाति स्म स नासीदक्षरमुखत्वेनावबुद्ध इति लोकप्रवृत्तिरासीत् । अत एवान्यान्यशास्त्रलेखका ये वराकाः सर्वथा कवित्वबीजभूतसंस्कारलेशशून्या अभूवन् ते ‘कुर्वेऽहन्तु यथामति' 'शुद्धां गुण्यां करोम्यहम्' इत्यादि विलिख्यैवाद्यन्तयोर्मङ्गलं कुर्वन्ति स्म ।
काव्यक्षेत्रे तु छन्दोयोजनापाटवं प्राथम्यमेवाऽभजत् । प्रस्तारक्रमेणाssविर्भूतानामनेकेषां वृत्तभेदानां सृष्टिरभूत् । तत्राऽपि विविधविषयानभिव्यञ्जयितुं तत्तदनुकूलानां वृत्तजातीनां प्रयोगे प्रौढिः स्वारस्यं चेति काव्यशास्त्रमर्मज्ञानां परम्पराः प्रासरन् । छन्दो न खलु बाह्या सामग्री, अपि तु विषयमभिव्यञ्जयितुं, रसोद्र के प्राबल्यमास्थापयितुं, वातावरण - वर्ण्यसामग्र्यादीनामानुकूल्येन रसचर्वणायाः सौहित्यमाधातुं तदिदमतीवोपयोगि, ग्राभ्यन्तरमङ्गमिति घण्टाघोषः कविकुलनेतृणां प्रासिध्यत् । 'कविकण्ठाभरण' - 'सुवृत्ततिलका' दिग्रन्थानां प्रणेत्रा क्षेमेन्द्रेण साधितं यत् - ' प्रावृट्प्रवासव्यसने मन्दाक्रान्ता प्रशस्यते ।' करुणवर्णने वियोगिनी वैशिष्ट्यमावहति, देवभावस्य संवर्धने शिखरिणी शोभते, उत्पात - वात्याऽऽदीनां प्रकटनाय स्रग्धरा सौन्दर्यमादधाति इत्यादि । ता एताः कविपरम्परास्तत्तद्वृत्तनिबद्धानां महाकविकर्मणां तत्तत्क्षत्रष्वतिशयमावहतां पदाङ्केष्वेव निर्मिता इति प्रकटमेव । मेघदूते मन्दाक्रान्ताया: सौन्दर्यातिशयं वीक्ष्य 'प्रावृट्प्रवासव्यसन' चित्रणे तस्या प्रानुकूल्यं नियतीकृतम् कुमारसम्भवे (रतिविलापप्रसङ्गे 'गत एव न ते निवर्त्तते स सखा दीप इवाऽनिलाऽऽहतः । अहमस्य दशेव पश्य मामविषह्यव्यसनेन धूमिताम् ।' इत्यादि) वियोगिनीवृत्तानां सौभगेन करुणवर्णने तस्या श्रानुकूल्यमापादितम् भवभूतेः, शंकराचार्यस्य, पण्डितराजजगन्नाथस्य च देवविषयरतिभावमुव्यञ्जयतां शिखरिणीच्छन्दसां सौन्दर्यमवलोक्य शिखरिण्या देवभावानुकूल्यं प्रसिद्धमभूत् ।
हिन्दीच्छन्दः स्वपि 'बरवै' सदृशानां कतिपयानां जन्मैव विरहादिविशिष्टपरिस्थितिष्वभूदिति तत्तद्रसोद्रेके तेषामतिशय प्रसिद्धोऽभूत् । सुप्रसिद्धमिदं हिन्दी कविसम्प्रदायेषु यद् बरवैछन्दसो जन्मेव नवाब्रखानखानासमये वियोगविह्वलायाः क्षत्रियवध्वा एकस्याः कारुण्यनिवेदनादभूत् । ऐतिह्यमिदामेवम्आसीत्कवीनां कल्पद्रुमस्य स्वयं चापि कवयितुर्नवाबखानखाना इति प्रसिद्धिमुफ्गतस्य सविधे कश्चित् क्षत्रिय राजपुत्रः सेवकः । स हि स्वामिनोऽनुमतिमादय निजदेशमुपगतः कृतवान् कयाचिच्चतुरया क्षत्रियकुमार्या परिणयम् । कांश्चिन्मा
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सान् तत्सहवासेन सानन्दमतिवाह्य पुनरसी स्वामिनः सविधमुपगतो निजं नियोगमशून्यं चकार । इतस्तत्प्रणयिनी प्रियवियोगमसहमाना कथं कथमयापयद्विरहविरसान् कतिचिद् दिवसान् । अथ वियोगवह्निना विह्वला सा प्रियतमसविधे पत्रप्रेषणमुचितमभ्यूह्य स्वयमागुम्फितमेकं छन्द: पत्रे विलिख्य प्रेषित. वती प्रियतमस्योपकण्ठे । किन्तु दैवसंयोगात्तदिदं पत्रमकस्मान्नवाबखानखानामहोदयस्य दृशोर्गोचरमगच्छत् । आसीत्पत्रे सेयं कविता लिखिता
प्रेम प्रीति को बिरवा चलेहु लगाय ।
सींचन को सुधि लीजो मुरझि न जाय ।। __ कवितायामस्यां विरहानुप्राणितयाऽन्तर्वेदना निहिता तया प्रभावितः परमसहृदयो नवाबखानखानामहोदयो राजपुत्रगतं सर्वं वृत्तान्तमवगत्य तत्कालमेव तस्मै गृहगमनानुमति विततार । नवाबमहोदयस्य हृदये कृतपदमिदं छन्द: कविताक्षरानुसारेण 'बरवा' नाम्ना प्रासिध्यत् । कविताप्रणयी नवाबमहोदयः स्वयमस्मिन् छन्दसि भूयसीः सूक्ती: समुपनिबद्धवान् । समाहृतवांश्च तद्दिनादारभ्यैव तदिदं छन्द: कविसमाजः, यस्मिन् हि रचनापाटवं प्रदर्शयन्तो गोस्वामितुलसीदासादयो भूयसी सफलतामधिजग्मुः ।
ऐतिह्येनानेन बरवैछन्दसो विरहवर्णनानुकूलत्वख्यापिनी या परम्परा हिन्दीकविसमाजे प्राचलत्तस्या मूलं गवेषयितुं सुकरम् । एवं बरवैच्छन्दः खानखानामहोदयस्य, चौपाई तुलसीदासस्य, दोहा विहारिणः, छप्पयच्छन्दोनाभादासस्येत्यादि यथा छन्दोनिबन्धपाटवं हिन्दीकवीनां प्रथितं, तथैव कालिदासस्य मन्दाक्रान्ता, भवभूतेः शिखरिणी, शार्दूलक्रीडितैरेव प्रख्यातो राजशेखरः, जगन्नाथस्य मालभारिणी, गोवर्द्धनस्यार्या इत्यादिदिशा तत्तत्कवीनां विशेषच्छन्दोनिबन्धनपाटवं संस्कृतकविसमांजे प्रसिद्धम् । एवमेव 'हास्यं दोधकम्, करुणं मन्दाक्रान्ता-पुष्पिताग्रादीनि, शृङ्गारं पृथ्वी-स्रग्धरादीनि, वीरं शिखरिणी-शार्दूलविक्रीडितादीनि सौकर्येणाभिव्यञ्जयन्ती' ति काव्यप्रकाशोक्तिरपि छन्दसां रसाभिव्यञ्जकत्वे विशेष महत्त्वं चोद्बोधयति । अक्षरसङ्घटना यथा रसोद्रेके सहायिका तथैव वृत्तभेदेषु वर्णपरिमाणादीन्यपि विशिष्टरसानुकूलानीति कतिपयेषां व्रजभाषाच्छन्दसामुदाहरणेन स्पष्टीभवेत् । व्रजभाषायाम् 'अमृतध्वनि-'छप्पया'दिच्छन्दसां घटना, योजना च स्वत एव तादृशी यया वीर-रोद्रादिरसानां चित्रणे नितरामानुकूल्यं भवति कवेः । बरवैछन्दसो वेदनानुकूला संक्षिप्ता, मार्मिकी च सङ्घटना करुणरसानुकूलेत्युपर्युक्तवानस्मि ।
___ संस्कृते मात्रिकच्छन्दांसि तत्तद्रसभावाद्यभिव्यञ्जनाय तदनुकूलानां वृत्तभेदानामावश्यकता छन्दसा
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माविष्कारस्य जननी समभूदथवा नति गवेषणाया विषयः । इदमपि सुसम्भवं यच्छन्दोभेदानामाविष्कारानन्तरं तेषां तत्तद्रसानुकूलत्वमनुभूतं स्यात्कविभिः । किन्तु शनैः शनैश्छन्दसां जातयस्तावत्प्रसृता यत्प्रस्तारभेदेन छन्दसामानन्त्यमुद्घोषितं छन्दोविद्भिः । संस्कृते वर्णानां प्रस्तारेणानन्तानां छन्दसामुद्भावनाऽजायत । मात्रिकच्छन्दसामुद्भवस्तु प्राकृतभाषाभ्योऽभूदिति सम्भवः। गाथाभेदेभ्य आर्याच्छन्दस उद्गमोऽभूत् । दण्डकेष्वपि कतिपये मात्राणामाधारेणव प्राचलन् । अपभ्रंशभाषाभ्यो, ब्रजभाषायाश्चोद्भूतान्यनेकानि छन्दांसि शनैः शनैः संस्कृते समायातानि । शङ्कराचार्यस्य 'चर्पटपञ्जरिका'यां 'अङ्ग गलितं पलितं मुंडम्, दशनविहीनं जाते तुण्डम्' इत्यादिमात्रिकच्छन्दसामुपयोगोऽस्ति ।
हिन्दी-साहित्यस्य 'रीतिकाले' यदा ब्रजभाषाकविता समग्रेऽपि भारते माधुर्यादिगुणः प्रचारमभजत्, तच्छन्दांसि च घनाक्षरी-चौपाई-दोहा-सोरठादीनि समभूवन् सर्वत: प्रप्तिद्धानि; कतिपयैः संस्कृतकविभिरपि छन्दःस्वमीषु काव्यलेखनप्रवृत्तिः प्रदर्शिता। मन्ये कविकलानिधिः श्रीकृष्णभट्टो यो हि संस्कृतप्राकृत-व्रजभाषादिषु मूर्धन्यः कविरासीत्, परम्परायामस्यां प्रामुख्येन भागमगृह्णात् ।
कविकलानिधि-श्रीकृष्णभट्टः' कविकलानिधिः श्रीकृष्णभट्टो गौतमगोत्रीयस्तैलङ्गवंशजो 'देवर्षि' इत्यवटङ्कधरोऽभूत् । एतत्पूर्वजा आन्ध्रप्रदेशाद् वाराणसी, वाराणसीत: प्रयागं, प्रयागाद् बान्धवनगरं, ततो बूंदीनगरं चाऽऽगच्छन्। बुन्दीपतिना श्रीबुधसिंहेन भूरि सम्मानित: श्रीकृष्णभट्टस्तद्राजसभां बहुकालं यावदलंचकार । ततो विद्वद्गुणग्राहिणा महाराजाधिराजेन श्रीजयसिंहेनाम्बेरमानायितः । बुन्दीपतेराज्ञयाऽनेन व्रजभाषायां 'शृंगाररसमाधुरी'त्याख्यो ग्रन्थो व्यलेखि । प्राम्बे रनरेशाद् बहुमानं सौहार्द च लब्धवताऽनेन न केवलं तदाज्ञया बहवो ग्रन्था एव लिखिता:, किन्तु तेनानुष्ठीयमानेऽश्वमेधयागे आत्त्विज्यमप्याचरितम् । अयं हि तत्र ऋत्विक्षट्केऽन्यतमोऽभूद्याजकः। महाराजजयसिंहाज्ञयाऽनेन व्रजभाषायाम् 'अलङ्कारकलानिधिः', संस्कृते 'वृत्तमुक्तावली', संस्कृतगीतेषु 'रामरास:' अथवा 'रामगीतम्', उपनिषदां च प्राचीनहिन्दीभाषायामनुवादा लिखिताः। महाराजजयसिंहस्य स्वर्गाधिरोहणानन्तरं महाराजमीश्वरोसिंहमप्ययं कञ्चित्कालं सेवितवान् । तत्प्रीतये 'ईश्वरविलास महाकाव्यं' नामैतिहासिकं काव्यमयमलेखीत् । सुन्दरीस्तवराज-वेदान्तपञ्चविंशतिप्रभृतयो ग्रन्था अप्यनेन लिखिताः ।
, श्रीकृष्णभट्टस्य विस्तृतं जीवनचरित्र जिज्ञासुभिः राजस्थानपुरातत्त्वान्वेषणमन्दिरात् प्रकाशितस्य 'ईश्वरविलास' महाकाव्यस्य (१९५८) भूमिकायां (पृ. ४१) द्रष्टव्यम् ।
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[ ५ ] महाराजस्येश्वरीसिंहस्य कारुणिकनिधनानन्तरं माधवसिंहो राज्यासनमारुरोह । तदर्थमनेन 'पद्यमुक्तावलो'' समुपगुम्फिता। भरतपुराधीशस्य श्रीसूर्यमल्लस्य राजसभायां सम्मानं लब्धवताऽनेन 'दुर्गाभक्तितरङ्गिणी' ग्रन्थोपि तत्प्रेरणया विरचितः। जयपुरधराधीशेन सादरमस्मै प्रदत्ता ग्रामसम्पत्तिरधुनाऽप्यस्य वंशजैरुपभुज्यते । अयं वेदान्त-मीमांसा-योग - साहित्य - व्याकरणादीनां धुरन्धरो विद्वान्, संस्कृत-प्राकृत-व्रजभाषादीनां समर्थः कविः, सुप्रथितो मन्त्रवेत्ता, महान् याज्ञिको, वेदार्थपारगश्चासीदिति 'कुलप्रबन्ध' कर्तुः श्रीहरिहरभट्टस्यानेन पद्येन सुशकं ज्ञातुम्मीमांसापरिशीलने पटुमतिः सांख्याब्धिपारङ्गमो
न्यायाऽनर्गलवाक्प्रपञ्चचतुरो वेदान्तसिद्धान्तधीः । काव्य-व्याकृतिवृत्तकोषकुशलोऽलङ्कारसर्वस्ववित्
श्रीकृष्णः कविपण्डितो विजयते वाणीविलासालयः ।। एतद्विरचिता बहवो ग्रन्था मत्सकाशे विद्यन्ते । बहवस्तु पूनास्थ-भाण्डारकरओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट प्रभृति प्राचीनग्रन्थागारेषु सुरक्षिताः शनैः शनर्गवेषकाणां परिश्रमेण प्राकटयमायान्ति ।
प्रद्यावध्युपलब्धा एतल्लिखिता ग्रन्थाः- (संस्कृते) ईश्वरविलासमहाकाव्यम्, पद्यमुक्तावली, वृत्तमुक्तावली, प्रशस्तिमुक्तावली, त्रिपुरसुन्दरीस्तवराजः, वेदान्तपञ्चविंशतिः, रामगीतम्, इत्यादयः ।
(व्रजभाषायाम्)-अलङ्कारकलानिधिः, सांभर-युद्ध, जाजऊजुद्ध, बहादुरविजय, जयसिंहगुणसरिता, शृङ्गाररसमाधुरी, विदग्धमाधवमाधुरी, तैत्तिरीयाद्युपनिषदामनुवादः, रामचन्द्रोदयः, रामरासा, वृत्तचन्द्रिका, नखसिखवर्णन, दुर्गाभक्तितरङ्गिणी, इत्यादयः ।
महाराज-सवाईजयसिंहेनास्मै 'कविकलानिधि' इत्युपाधिरपि प्रादीयत । .
भाण्डारकरप्राच्य-शोध-संस्थानाध्यक्षेण स्व० श्री परशुरामकृष्ण गोडे महाभागेनैतल्लिखिता बहवो ग्रन्था: पूनास्थितराजकीयपाण्डुलिपिभाण्डागारादधिगताः । मदुपरि निर्मायं स्नेहभावमारक्षतानेन वृत्तमुक्तावल्या: ईश्वरविलासमहाकाव्यस्य च पाण्डुलिपयो दर्शनार्थमत्र प्रेषिताः । अनेन श्रीकृष्णभट्टस्य परिचायकानि शोधपत्राण्यपि पत्रिकासु प्रकाशितानि । श्रीकृष्णभट्टस्य जन्मकाल: संवत्
' राजस्थानपुरातत्त्वान्वेषणमन्दिरात्प्रकाशिता । २ दृश्यतां :साहित्यवैभवम्' पृ. ५७६ ।
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[ ६ ]
१७२५ (१६६६ ई.) प्रयाणकालश्च संवत् १८०० ( १७४४ ई.) तोऽनन्तर - मित्यनुमीयते ।
वृत्तमुक्तावली
वैदिकच्छन्दःसु, संस्कृतवृत्तजातिषु व्रजभाषा च्छन्दः सु च समानमधिकारं लब्धवता श्रीकृष्णभट्टेन विलिखितश्छन्दः शास्त्र विवेचनपरोऽयं ग्रन्थः पूनातः समुपलब्धोऽभूत् । ग्रन्थेऽस्मिन् वैदिक-लौकिक व्रजभाषादिच्छन्दसां सोदाहरणं विवेचनं ग्रन्थकृता विहितं स्वनिर्मितान्युदाहरणानि च प्रदाय ग्रन्थस्य महत्त्वं समेधितमित्यादिविशेषानालोच्य मयाऽस्य प्रतिलिपि: सामान्यसंशोधनैः सह विहिता, राजस्थानपुरातत्त्वान्वेषण मन्दिरस्य संस्थापनानन्तरं श्रीकृष्णभट्टविरचितस्य 'ईश्वरविलास' महाकाव्यस्य प्रकाशनमेतस्य सम्मान्य-संचालकेन श्रीजिनविजय मुनिना स्वीकृतमासीत्। अनेनैव प्रसङ्गेन श्रीकृष्णभट्टविरचितां वृत्तमुक्तावलिमिमामहं संचालक महोदयाय, पुरातत्त्वसंस्थानस्यास्यान्येभ्यो निर्णायकसदस्येभ्यश्चादर्शयम | पुरातत्त्वमार्मिकेन सञ्चालक महोदयेन राजस्थानस्य धुरन्धरविदुषोऽस्याः कृतेः प्रकाशनाय प्रोत्साहितोऽहम् । तस्यैव महाभागस्य पर्यवेक्षणे सेयमद्य पाठकानां पुरस्तादुपतिष्ठत इति परमं प्रमोदमावहन् श्रीमुनिमहोदयमनेकैर्धन्यवादैरभिनन्दामि ।
प्रसङ्गेऽस्मिन् पुनः सकृद् भाण्डारकर प्राच्य - शोधसंस्थानाध्यक्षः श्री पी. के. गोडे महोदयः स्मरणपथमारोति, येन सर्वतः प्रथमं पुस्तकस्यास्य पाण्डुलिपिरधिगता, परिचायिता च पण्डितमण्डलेषु । प्रतोव खेदस्यायं विषयो यदस्याः प्रकाशनात्पूर्वमेव श्रीगोडे महोदयो दिवमारूढः । महाशयस्यास्योपकारभारं शिरसा वहन् जयपुरस्य स्व० श्रीहरिनारायणपुरोहितमहोदयमपि साभारं स्मरामि यत्सोजन्येन 'वृत्तमुक्तावल्या :' पाण्डुलिपि: पूनातः सुलभाऽभवत् । राजस्थानपुरातत्त्वमन्दिरस्योपसञ्चालकाय श्रीगोपालनारायणशर्मं एम. ए., महोदयायापि साशीरभिनन्दनानि प्रलिमानि येन पाण्डुलिपीनां मुद्रणसमये स्थाने स्थाने संशोधनानि मह्यं बोधितानि वैदिकछन्दः प्रकरणे छन्दोनाम्नां तुलनात्मकमवेक्षणं विधाय संशोधने च साहाय्यमाचरितम् । श्रायुष्मान् चि० कलानाथशास्त्रिसाहित्याचार्य:, एम. ए. ( आंग्ल - साहित्ये ) अपि शुभाशीर्भिरभिनन्दनीयो येन ग्रंथसम्पादने, संशोधने, भूमिकालेखने च मे भूयस्तरां साहाय्यं विहितम् । अनेन हि विलिखित: श्री पी. के. गोडे महोदयस्य गवेषणानां सारसंक्षेपः, पुस्तकस्य परिचयश्चात्रैव प्रकाश्यते पाठकानां प्रमोदाय |
भृशमवदधतोपि मे संशोधने प्रतिलिपीकरणे च यास्त्रुटयः समभूवन् विज्ञा: पाठकास्ताः क्षमिष्यन्त इत्याशासे । वैदिकच्छन्दः प्रकरणेऽन्यत्र च यत्र पाण्डुलिपिस्त्रुटिताऽशुद्धा चाऽऽसीत् तत्र यथामति संशोधनाय प्रयतितवानस्मि,
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[ ७ ] तथापि दुरूहस्थलेष्वनधिकारचर्चामनुचितां मन्वानेन मया त्रुटितानि स्थलान्येकद्वानि यथावदेव त्यक्तानि, अधिकारिभिरेव पूरणीयानि । 'पापरितोषाद्विदुषां न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञान' मित्युक्तिदिशा ग्रंथस्यास्योपयोगित्वस्य त एव परीक्षका इति तेभ्य एव परिश्रममिमं समर्पयन् विरमामि ।
"इत्येतत् सूत्ररूपेण विनयाद् विन्यवेदयत् ।” आषाढी पूर्णिमा, सं० २०२०,
भट्टश्रीमथुरानाथशास्त्री, मजुनिकुञ्जः, सी. स्कीम, जयपुरम् ।
जयपुरालयः ॥१
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"यो ह वा प्रविदितायच्छन्दोदेवतविनियोगेन ब्राह्मणेन मन्त्रेण याजयति वाऽध्यापयति वा स स्थाणु वर्च्छति गतं वा पद्यते प्रमीयते वा पापीयान् भवति यातयामान्यस्य छन्दांसि भवन्ति ।"
(छान्दोग्यब्राह्मण ३७५)
"सर्वश्छन्दोभिर्यजेदित्याहुः, सर्वैवं छन्दोभिरिष्ट्वा देवाः स्वर्गलोकमजयंस्तथैवेतद्यजमानः सर्वैश्छन्दोभिरिष्ट्वा स्वर्ग लोकं जयति"
(ऐतरेयब्राह्मण २।३)
कविप्रशस्तिः
मीमांसापरिशीलने पटुमतिः सांख्याब्धिपारङ्गमो
न्यायानर्गलवाक्प्रपञ्चचतुरो वेदान्तसिद्धान्तधीः । काव्यव्याकृतिवृत्तकोषकुशलोऽलङ्कारसर्वस्ववि
च्छीकृष्णः कविपण्डितो विजयते वाणीविलासालयः ।
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१ छन्दसामकारादिवर्णानुक्रमसूची
नाम
नाम
३५
७,१७ २, ३, ४, १४ २, १२
३,६ ३, ६ ३, १० १,२,१० १, २, ११ २, १२ १४
उपविशाल उपेन्द्रवज्रा उल्लाल उष्णिक
आर्षी उष्णिक देवी प्रासुरी , प्राजापत्या , याजुषी साम्नी मार्ची ब्राह्मी ककुप
३,६ ३, १० १, २, १० १, २, ११ २, १२
» »
१४
पूर
अतिझुल्लन प्रतिधृति अत्यष्टि . अनुष्टुप् पार्षी अनुष्टुप् देवी प्रासुरी , प्राजापत्या, याजुषी , साम्नी , प्रार्थी ब्राह्मी , यजुरन्ता " विराट् ॥
अनुष्टुब विराट् अनुहरिगीत अपरहंसी अमृतगति प्ररिल्ल अष्टि प्राकृति प्राख्यानकी आभीरक इन्द्रवत्रा इन्द्रवंशा उत्कृति उद्गगाथा उपजाति उपझल्लन उपवारि
»
»
अवसानापुर, पर विषमपदा ॥ न्यकुशिरा, बर्द्धमाना , उष्णिग्गर्भा , चतुष्पदा , ककुद्मती कन्द
७, १७ ७,१७
.........:::::::
» » . *
३०
कमल
३८, ४१
७,१७
कमला कमलावली करहंस कलावती
Mexx
काम काव्य
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नाम
पृष्ठ
क्रीडाचक्र कुण्डलिका
कृति
" 9 NMMA
।
बर्द्धमाना गायत्री प्रतिष्ठा द्विपदाविराड त्रिपदाविराड़ वक्रपद चर्चरी चञ्चला
चतुर्वचन
चतुरंस
चतुष्पदी
१,३,७ २, १२ १,० १,३,८
२६
२,३,६,७,१८ २,१२
जगती
खञ्जविशाल खजा खजोपविशाल गगनाङ्गः गन्धानक गाथा गाथिका गायिनी गायत्री प्रष
गायत्री देवी मासुरी प्राजापत्या याजुषी साम्नी प्रार्थी ब्राह्मी चतुविशत्यक्षरा एकपदा स्वराड़ उष्णिग्गर्भा द्विपदा अवसाना त्रिपदा पावनिचत विराट् शंङ्क मती, विराट् छन्दो विराट् द्विपदा , अनिरुक्ता प्रतिपादनिवृत " नागी वाराही
चन्द्र चम्पकमाला चामर चुलियाला जगती पार्षी देवी प्रासुरी प्राजापत्या याजुषी साम्नी मार्ची
१, ३, १० १,२,१० १,२,११
२, १२
३,६ ३, १० १, २, ११ १, २, ११ २, १२
ब्राह्मी
wwwwwrow - Mr.M.mam.orm
marrm
पुरस्ताज्ज्योतिः , मध्येज्योतिः , उपरिष्टाज्ज्योतिः, ज्योतिष्मती
प्रति
३,४,१३
जनहरण झुल्लन तरलनयना तारक ताल ताली तिलक
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नाम
तीर्णा
तुङ्ग
तोटक
तोमर
त्रिभंगी
त्रिष्टुप्
श्रार्षो
देवी
प्रासुरी
प्राजापत्या
याजुषी
साम्नी
श्राच
ब्राह्मी
पुरस्ताज्ज्योतिः उपष्टिज्योतिः
विराट्
शुद्ध
सावित्री
यवमध्या
जगती
त्रिष्टुब् जगती
दण्डक
चण्डवृष्टि
श्रर्ण
अर्णव
जीमूत
लीलाकर
उद्दाम
शङ्खार्क
चन्द्रेश
भोगीन्द्र
पीयूष
वाराहवात प्रचितक
21
त्रिष्टुप् २, १२
३, ८
३, ६
३, ६
३, १०
१, २, ११
१, २, ११
२, १२
१६
१६
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मेघमाला
चण्डवेग
सिंहविक्रान्त
अनङ्गशेखर श्रशोक मज्जरी
कामबाण
भुजङ्गविलास
पन्नगेन्द्र
दम्भोलि
हेलावली
मालती
केलि
कंङ्केलि लीलाविलास
महाण्डवृष्टि
चण्डकील
दण्डकल
दमनक
द्विपथा
द्विपदी
दीपक
दुर्मिला
दण्डक
धवल
धत्ता
धत्तानन्द
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उद्दालक सिंहविक्रीड
मत्तमातङ्गखेलित,,
कुसुमस्तबक
दाम
वितान
वर्तुल
अचल
हेलावती
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93
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६६, ७०
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२५
२५
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नाम
पृष्ठ
नाम
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३८ ७,१७
७,१७
वारि धृति . नगाणिका नराच नरेन्द्र
५४
४
निवृत्.
परिवृत्तहीर प्रकृति प्रज्झटिका प्रभावती प्रमाणिका प्लवङ्गम प्रहर्षिणी पाईत्ता पादाकुलक प्रिया
निशिपाल
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नील
पङ्क्ति
२,३,६,१५ २,१२
पार्षी
पडक्ति
पृथ्वी
देवी प्रासुरी प्राजापत्या याजषी साम्नी
ब्रह्मरूपक बिम्ब
३,८ ३,९ ३, १० १, २, ११ १,२,११ २, १२
बृहती पार्षी
बहती
प्रार्ची
२, १२
३,८
१, २,१० १, २, ११ २, १२
ब्राह्मी सतः प्रस्तार प्रास्तार विष्टार संस्तार प्रक्षर अल्पश: पद पध्या अगती चतुष्पदाविराट् , अवसानामहा , ज्यवसानामहा , महापङक्ति पङ क्तिविराट् , पद्मावती पदहंस
देवी प्रासुरी प्राजापत्या याजुषी साम्नी मार्ची ब्राह्मी पध्या पुरस्ताद उपरिष्टाद् ऊर्ध्व न्यंकुसारिणी स्कन्धोग्रीवी उरो विष्टार
५,१४
महा न्य कुसारिणी उरो, १४ सतो
, १५ वशाष्टकपदा , ५
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नाम
पृष्ठ
।
नाम
१५
२४
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२
४७
७,१७
२१ ३६
४८
चतुष्पदा बहती पिपीलिकमध्या , स्कन्धोद्गीती विपरीता सतो भ्रमरावली भुरिक भुजङ्गप्रयात मणिबन्ध मदनदीपन मधु मधुभार मनोहर मन्थान मन्दर मन्द्रगीत मन्दाक्रान्ता मल्लिका महाराष्ट्र महालक्ष्मी मही माणवकक्रीडा माया मालिनी माला मालाधर माली मुक्तादाम
mpur . . ७r9MX894
रसिक रोला लघुहरिगीत लघुहीर लक्ष्मीधर लीलावती वसन्ततिलका वंशस्थ वारि विकृति विगाथा विज्जोहा विद्याहार विद्युन्माला विराट शक्वरी शङखनारी शङ कुमती - शम्भु
शरभ মাহি शार्दूलविक्रीडित शालिनी शालूर शिखरिणी शिखा शेषराज श्लोक श्री सम्मोहा संयुत समानिका सरोरुह सवैया सार
२६, ४६
मुण्डक
४६
24
मृगेन्द्र मोदक यमक यवमया रथोद्धता रमण
३
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Page #31
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________________
नाम
सारङ्गरूप सारङ्गिका
सारङ्गी सिंहविलोकित
सिंहिनी
सौराष्ट्र
सुभुल्लन
सुन्दरी
सुमुखी
सुवास
सुषमा
पृष्ठ
૪૨
૪૨
५२
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२२
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५०, ६२
४५
४०
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[६]
नाम
सुहीर
स्कन्ध
स्रग्धरा
स्वराट्
स्वागता
हरिगीत
हरिणप्लुता
हाकलि
हारीत
हीर
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३३
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७
४५
३१, ६०
५१
२६
३८
३३
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________________
नाम
मङ्गलाचरणम्-गायत्री
श्रार्षी
देवी
प्रासुरी
प्राजापत्या
याजुषी
साम्नी
श्राच
प्रथमो गुम्फ
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21
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19
ब्राह्मी श्रार्षी उष्णिक् प्रायनुष्टुवादयः देवी गायत्री
देवी उष्णिक्
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देवी अनुष्टुप्
देवी बृहती देवी पङक्ति:
देवी त्रिष्टुप्
देवी जगती प्रासुरी गायत्री प्रासुरी अनुष्टुप्
प्रासुरी उणिगाद्या:
प्राजापत्या गायत्र्यादयः
जगती
विराट्
पङक्तिः
त्रिष्टुप्
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२ विषयानुक्रमः
पृष्ठ
१
१
१
१
१
१
१
३
३
३
३
नाम
जगती
विराट, त्रिष्टुप्
पादनिवृत्
नागी
विपरीता वाराही
वर्द्धमाना
विपरीता प्रतिष्ठा
द्विपदा विराड् गायत्री
त्रिपदा विराड्
उष्णम् गायत्री
उष्णग् जगती
ककुबुष्णिक्
पुरः उष्णिक्
परोष्णिक्
न्यकुशिरा उष्णिक् उष्णग्गर्भोक्ि
चतुष्पदा उष्णिक्
त्रिपदानुष्टुप्
महीपदपङ क्तिः
बृहती
पथ्या बृहती
न्यङ कुसारिणी
स्कन्धोग्रीवी
उरो बृहती
उपरिष्टाव् बृहती
चतुष्पदा बृहती दशाष्टकपदी बृहती
महाबृहती
सतो बृहती
इति बृहत्यधिकारः
पृष्ठे
३
५
५
५
५
५
५
५
५
५
५
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________________
rur ur urur
नाम पङक्तिः सतः पङक्तिः प्रस्तार , प्रास्तार , विष्टार , संस्तार प्रक्षर अल्पशः ॥ पद पथ्या नगती त्रिष्टुब् ज्योतिष्मती ज्योतिष्मती जगती पुरस्ताज्योतिः मध्यज्योतिः इति त्रिष्टुपजगत्योरधिकारः शङ कुमती ककुद्मती पिपीलिकमया यवमया निवृत् भुरिक विराड़ गायत्री स्वराड् , उत्कृतिः अभिकृतिः संकृतिः विकृतिः प्राकृतिः प्रकृति धृतिः प्रष्टिः शक्वरी नगती प्रतिजगती देवी गायत्री
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,
नाम देवी उष्णिक देवी अनुष्टुप् देवी बृहती देवी पङक्तिः देवी त्रिष्टुप् देवी जगती प्रासुरी गायत्री प्रासुरी उष्णिक मासुरी अनुष्टुप् मासुरी बृहती प्रासुरी पङक्तिः मासुरी त्रिष्टुप् प्रासुरी जगती प्राजापत्या गायत्री प्राजापत्या उष्णिक प्राजापत्या अनुष्टुप प्राजापत्या बृहती . प्राजापत्या पङक्तिः प्राजापत्या त्रिष्टुप प्राजापत्या जगती याजुषी गायत्री याजुषी उष्णिक् याजुषी अनुष्टुप याजुषी बृहती याजुषी पङक्तिः याजुषी त्रिष्टुप् याजुषी जगती साम्नी गायत्री साम्नी उष्णिक . साम्नी अनुष्टुप साम्नी बृहती साम्नी पङक्तिः साम्नी त्रिष्टुप् साम्नी जगती आर्ची गायत्री प्रार्ची उष्णिक
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पुरस्ताद् बृहती उपरिष्टाद्,
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प्रार्थी अनुष्टुप मार्ची बृहती आर्ची पङ क्तिः प्रार्थी त्रिष्टुप् प्रार्थी जगती ब्राह्मी गायत्री ब्राह्मी उष्णिक ब्राह्मी अनुष्टुप् ब्राह्मी बृहती ब्राह्मी पङक्तिः बाह्मी त्रिष्टुप् पार्षी अनुष्टुबादयः चतुविशत्यक्षरा गायत्री एकपदा गायत्री रवराड् गायत्री उष्णिगगर्भा गायत्री द्विपदा अनवसाना पादनिचद् विराटश कुमती, विराट् छन्दोः , विराट् द्विपदा , अनिरुक्ता इति गायन्यधिकारः उष्णिक ककुबुष्णिक परोष्णिक अनवसाना पुर उष्णिक पुर उष्णिक विषम पदा उष्णिक वर्द्धमाना उष्णिक इति उष्णिगधिकारः अनुष्टुप् विराडनुष्टुप् यजुरन्तानुष्टुप् अनुष्टुब् विराट इति अनुष्टुबधिकारः
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न्य कुसारिणी उरो बृहतो स्कोन्धोद्गीती विपरीता न्यङ कुसारिणी , सतो बृहती चतुष्पदा बृहती पिपीलिकमध्या बृहती इति बृहत्यधिकारः बृहती पङक्तिः पङक्तिः प्रस्तार पङक्तिः चतुष्पदा विराट् पङक्तिः विष्टार पङक्तिः स्वराट् पक्तिः चतुष्पदा विराट् पङक्तिः अनवसाना महापङक्तिः त्र्यवसाना महापङक्तिः महापङ क्तिः पङक्तिविराट इति पङ्क्त्यधिकारः त्रिष्टुप उपरिष्टा ज्योतिस्त्रिटुप विराट् त्रिष्टुप् पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुय शुद्ध त्रिष्टुप सावित्री त्रिष्टुप् यवमध्यमा त्रिष्टप त्रिष्टप जमती जगतो त्रिष्टुप् इति त्रिष्टुबजगत्योरधिकारः उत्कृतिः अभिकृतिः संस्कृतिः विकृतिः प्राकृतिः
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बृहती
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प्रकृतिः प्रशीत्यक्षराकृतिः
प्रतिधृतिः
घृति:
प्रत्यष्टिः
अष्टि:
प्रतिशक्वरो
शक्वरो
प्रतिजगती
जगती
प्रथ द्वितीयो गुम्फः
द्वितीयगुम्फ प्रस्तावना
गुरुलघुलक्षणम्
भ्रष्टगणाः
द्विगणविचारः
छन्दो निरूपणम्
गाथाप्रभेदाः
freeक्षणम्
सर्वगुरुगाथिका
सर्वलघुगायिका
गाथालक्षणम्
सर्वगुरुगाया
सर्वलघुगाथा
विगाथाच्छन्दः
सर्वगुरुविगाथा
सर्वलघुविगाथा
उद्गाथाच्छन्दः गाथिनी लक्षणम्
सिहिनी स्कन्धकच्छन्दो लक्षणम्
इति गाथाप्रकरणम्
द्विपथावृत्तम् रसिकच्छन्दः
रोलावृत्तम्
गन्धानकच्छन्दः
चतुष्पदी
धत्ता
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धत्तानन्दः
श्रथ षट्पदप्रकरणम्
काव्यं नामच्छन्दः
उल्लाल लक्षणम् प्रज्झटिकाच्छन्दः
श्ररिल्लम्
पादाकुलकम् 'पद्मावतीच्छन्दः
कुण्डलिका
गगनाङ्गम्
द्विपदीच्छन्दः
खञ्जा
शिखा
माला
चुलियाला
सौराष्ट्रम्
हाकलिवृत्तम्
मधुभारवृत्तम्
दीपकच्छन्दः
श्राभीरकच्छन्दः
दण्डकलच्छन्दः
सिहविलोकितम्
प्लवङ्गमच्छन्दः
लीलावती:
हरिगीतच्छन्दः
प्रनुहरिगीतम्
मन्द्रगीतम्
लघुहरिगीतम्
त्रिभङ्गी
दुर्मिलाच्छन्दः
हीरच्छन्दः
सुहीरम्
लघुहीरकम्
परिवृत्तही रकम्
जनहरणं नामच्छन्दः
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नाम
मदनदीपनच्छन्दः
भुल्लनच्छन्दः
उपभुल्लनम्
सुभुल्लनम्
प्रतिभुल्लनम्
महाराष्ट्रनामच्छन्दः चतुर्वचनं नामच्छन्दः
अथ तृतीयो गुम्फः
श्री छन्दः
मधुवृत्तम्
कामच्छन्दः
सारच्छन्दः
महोच्छन्द:
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17
11
शशिच्छन्दः
रमणच्छन्दः
पञ्चालच्छन्दः
मृगेन्द्रच्छन्दः
मन्दरच्छन्दः
तीर्णा
धारि
नगाणिका
संमोहाच्छन्दः
हारीतवृत्तम्
हंसवृत्तम्
यमकच्छन्दः
शेषराजच्छन्दः
तिलकाख्यच्छन्दः
विज्जोहाच्छन्दः
चतुरं सच्छन्दः मन्थानच्छन्दः
शङ्खनारीवृत्तम्
मनोहरच्छन्दः
दमनकच्छन्दः
समानिका
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सुवासच्छन्दः
कर हंसच्छन्दः
मुक्तागुम्फच्छन्दः
विद्य ुन्माला
प्रमाणिका
माणवकक्रीडा
मल्लिका
तुङ्ग च्छन्दः
कमलवृत्तम्
श्लोक लक्षणम्
महालक्ष्मीवृत्तम्
सारङ्गिका
पाईता
कमला
बिम्बवृत्तम्
तोमरच्छन्द
नवाक्षर प्रस्तारः
मालीवृत्तम्
दशाक्षरा
संयुतनामकम्
चम्पकमाला
मणिबन्धाख्यम्
सारवतीवृत्तम्
सुषमाच्छन्दः
हंसी
श्रमृतगति:
अथ एकादशाक्षरा
सरोरुहवृत्तम्
सुमुखी
शालिनी
रथोद्धता
स्वागता
दमनकच्छन्दः
तालच्छन्दः
माला
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नाम
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नाम
इन्द्रवज्रा उपेन्द्रवज्रा उपजातिः प्राख्यानकी वंशस्थवृत्तम् इन्द्रवंशा विद्याहारः भुजङ्गप्रयातम् लक्ष्मीधरः तोटकम् सारङ्ग-रूपच्छन्दः मुक्तादाम मोदकवृत्तम् तरलनयनाच्छन्दः सुन्दरीच्छन्दः मायाच्छन्दः तारकच्छन्दः कन्दच्छन्दः कमलावली प्रहर्षिणी हरिणप्लुता प्रभावतीवृत्तम् कलावती वसन्ततिलका चक्रपदम् भ्रमरावलिः सारंगी चामरम निशिपालच्छन्दः पवहंसकम् मालिनी शरभच्छन्वः नरावच्छन्दः नीलच्छन्दः चञ्चला
ब्रह्मरूपकम् पृथ्वी मालाधरच्छन्दः शिखरिणी मन्दाक्रान्ता मञ्जीरा क्रीडाचक्रम् चर्चरी शार्दूलविक्रीडितम् चन्द्रनामक वृत्तम् धवलच्छन्दः शम्भुवृत्तम् हरिगीतम् मुण्डकच्छन्दः स्रग्धरा नरेन्द्रवृत्तम् अपरहंसीच्छन्दः सुन्दरीवृत्तम् सर्वया दुर्मिला त्रिभङ्गी शालूरच्छन्द विशालाख्यः खञ्जविशाल: उपविशालः खोपविशालः वारि उपवारि अथ दण्डकजातय उच्यन्ते लीलाकरः उद्दामः शङ्खार्कः चन्द्रेशः भोगीन्द्रः पीयूषः
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४४४४
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नाम
पृष्ठ ।
नाम
नाम
धाराहवातः कामबाणः भुजङ्गविलासः दम्भोलिः हेलावती मालती केलिः कडूलिः लीलाविलासः चण्डवृष्टिः अर्णः अर्णवः व्याडः जीमूतः महाचण्डवृष्टिः चण्डकील:
प्रचितक: मेघमालाख्यः चण्डवेगः सिंहविक्रान्तः मनङ्गशेखरः प्रशोकमजरी उद्दालकः सिंहविक्रीड मत्तमातङ्गखेलिताख्यः कुसुमस्तवकाख्यः बामाख्यः वितानाख्याः वर्तुलाख्यः प्रचल: मकरालयः
पृष्ठ ६६ (६६) ७० (६६) ७० (६६) ७० (६६) ७० (६६) ७१ (६६) ७१ (६६) ७१ (६६)
७२ ७२ ७२ ७३ ७३
७३ ७४-७६
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६७-५८ ६६ (६६)
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१
११
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शुद्धि-पत्र
अशुद्धपाठ
बाह्यः
जगत्य
पादनिवृत्
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घटकाश्च
मध्यें से
स्कन्धोद्गीती
• द्वयात्कं
भुलम्
● भुल्लनप (शोभैक)
शुद्धपाठ
ब्राह्मचः
जगत्या
पादनिवृत्
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षट्कश्च
मध्येऽन्ते स्कन्धोप्रोवी
93
बृहस्प ( प ) ते
सनो बृहती
चतुःशतमुत्कृते
तान्यति संभ्याज्ञाप्तेभ्यः
'मतिकृतिः
न्यूनाधिकेन
● मध्यत्वात्
बृहस्पतिर्वरुण इन्दो विश्वेदेवाः बृहस्पतिमित्रावरुणाविन्द्रो विश्वे
31
बृहस्पत्यन्ते सतोबृहती
चतुःशतमुत्कृति:
तान्यभिसंव्याप्रेभ्यः 'मभिकृतिः
ऊनाधिकेन
मध्या
देवा देवताः द्वयात्मकं
• भुल्लनम्
● भुल्लनमपि
सोब्रेक
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________________
॥ श्रीः
।।
तैलङ्गकुलजलधिकौस्तुभदेवर्षिश्रीकृष्णभट्टकविकलानिधिगुम्फिता
वत्ता
वृत्तमुक्तावली
(प्रथमगुम्फः)
श्रीहयग्रीवाय नमः । अविघ्नमस्तु । बिभ्राणो वेदराशिं करकमलतले वामके सामपूर्व स्वाभ्यासात् तत्वमुद्रां द्रुततरकविताबोधिकां दक्षहस्ते। सस्मेरस्वैरहासोल्लसदमलकलाशोभिचन्द्राननश्रीदेवः श्रीवाजिमूर्द्धा मम हृदयगुहाध्वान्तधारांधुनोतु ॥ १ वैदिकवृत्तसमूहं वितनोमि विनोदहेतवे विदुषाम् ।
भुजगेन्द्रवदनविदितच्छन्दःसूत्रानुसारेण ॥ २ अथ प्रथममेव वैदिकच्छन्दोगणं जिज्ञाषयिनीय (जिज्ञासमानानाम्) लौकिकमिति सूत्रप्राग्वति द्वितीयतृतीयचतुर्थाध्यायसूत्राणि कथ्यन्ते
छन्दः । अधिकारोऽयम्, प्राशास्त्रपरिसमाप्तेः । तेन यदित ऊर्ध्वं वक्ष्यामस्तच्छन्दस्त्वेन व्यवहार्यमवगन्तव्यम् । वक्ष्यति हि दैव्यकमित्यादि ।
गायत्री, अयमप्यधिकारः, प्रा द्वादशसूत्रीपरिसमाप्तेः । दैव्येकम् । एकाक्षरं छन्दो दैवीगायत्रीसंज्ञं भवति । अद्यत्वे चरणाधिकाराभावादेकगुरुकमेकलघुकं वा पूर्ण छन्दः । एवमन्यत्रापि । आसुरी पञ्चदश । पञ्चदशाक्षरं छन्द प्रासुरी गायत्री । प्राजापत्याष्टौ। अष्टाक्षरं छन्दः प्राजापत्या गायत्री। यजुषां षट् । षडक्षरं छन्दो याजुषो गायत्री । साम्नां द्विः । षडित्यनुवृत्या द्विषड् द्वादशाक्षरं साम्नी गायत्री भवति । ऋचां त्रिः। त्रिरावृत्ताः षडष्टादशाक्षरम् आर्ची गायत्री। द्वौ साम्नाम् । द्वादशार्णा साम्नी गायत्री द्वौ द्वावको गृहीत्वा वर्द्धत यावदष्टमकोष्ठम् । तेन चतुर्दशषोडशाष्टादशविंशतिद्वाविंशतिचतुर्विशंत्यङ्काः साम्नीपङ्क्तो लेख्याः । त्रोंस्त्रीनृचाम् । आर्ची गायत्री त्रीस्त्रीनङ्कान् गृहीत्वा वर्द्धत । तेन तत्पङ्क्ती एक
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________________
२]
वृत्तमुक्तावली विंशतिचतुर्विंशतिसप्तविंशतित्रिंशत्त्रयस्त्रिशत् षट्त्रिंशदका लेख्याः । चतुरश्चतुरः प्राजापत्या। एषा चतुरश्चतुरोऽङ्कान् गृहीत्वा वर्द्धत । तत्पङ्क्तौ द्वादशषोडशविंशतिचतुर्विंशत्यष्टाविंशतिद्वात्रिंशदङ्का लेख्याः । एकैकं शेषे। यत्र नोक्ता वृद्धिर्दैवीयाजुष्योस्तत्र ते एकमेकं गृहीत्वा वद्धयाताम् । तेन तयोः पङ्क्तौ द्वयादयः सप्तान्तम्, सप्ताद्या द्वादशान्तं लेख्याः । जह्यादासुरी। एषा एकैकं त्यजेत् । तेन तत्र पञ्चदशतो नवान्तं न्यूना लेख्या: । तान्युष्णिगनुष्टुब्बृहतीपङ्क्तित्रिष्टुप्जगत्यः । द्वौ द्वौ साम्नामित्यादि वृद्धयोक्तानि उष्णिगादिसंज्ञां लभन्ते । तिस्रस्तिस्रः सनाम्न्य एकैका ब्राह्मः । यजुःसामर्ची तिस्रो गायत्र्यो मिलित्वा षट्त्रिंशदक्षरैका ब्राह्मी गायत्री भवति। एकैकेति वीप्सयोष्णिगादेरपि ग्रहणम् । सनाम्न्य एकसंज्ञाः। ता एव तिस्रो मिलित्वा द्विचत्वारिंशदक्षरा ब्राह्मी उष्णिक्, एवं ता एव मिलित्वाऽष्टचत्वारिंशदादिसंख्या अनुष्टुबाद्या बोध्याः । वीप्सयैवैतदर्थलाभात्स्पष्टार्थमिदम् । प्राग्यजुषामायः याजुषीप्राग्वतिन्यः । प्राजापत्यासुरीदैव्यस्तिस्रो मिलित्वा चतुर्विंशत्यक्षरार्षी गायत्री। एवमार्ण्य उष्णिगाद्या अपि । तत्रेदं रूपदर्शनम्
प्राजा०
८
पार्षी । २४ | २८ | ३२ | ३ | ४० ४४ ४८ देवी - ३ | २ ३ | ४ । ५ ६ ७ आसुरी | १५ १४ | १३ | १२ | ११ | १० ।
८ | १२ | १६ | २० | २४ २८ ३२ __ याजु० ७ ८ ९ १० ११ १२
साम्नी | १२ | १४ | १६ | १८ | २० | २२ | २४ प्रार्ची | १६ २१ २४ २७ ३० ३३, ३६ । ब्राह्मी | ३६ ४२ | ४८ ५४ । ६० । ६६ । ७२
अवार्षी गायत्री चतुर्विंशत्यक्षरेत्यादि बोध्यम् । 'अग्नि दूतं वृणीमहे । हातारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ।' आर्षी उष्णिग्यथा--'अग्ने वाजस्य गोमतः । ईशानः सहसो यहो अस्मे धेहि जातवेदो महिश्रवः ।' एवमार्योनुष्टुबादयोपि । देवी गायत्री यथा-'ॐ ।' दैवी उष्णिग्यथा-'भुवः वौषट् ।' देवी
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अनुष्टुब् यथा— 'इषे त्वा ।' देवी बृहती यथा - 'भूर्भुवः स्वः ।' देवी पङ्क्तिर्यथा'भूर्भुवः स्वरोम् ये यजामहे ।' एवं त्रिष्टुब्जगत्यौ । आसुरी गायत्री यथा'धिषणासि पार्वती प्रति त्वा दिया [त्या] स्त्वग्वेत्तु ।' श्रसुर्यनुष्टुब् यथा - 'देवानां प्रतिष्ठे स्थः । सर्वतो मा यातम् । एवमुष्णिगाद्याः । प्राजापत्या गायत्री यथा'अमृतापिधानमसि ।' याजुषी गायत्री यथा – 'इन्द्राग्निभ्यां स्वाहा ।' एवमन्याः । प्रायश एता उदाहरिष्यमाणेषु परीक्षितव्याः ।
इति वैदिके द्वितीयाध्यायसूत्राणि ॥
यथा-'
अथातो विशेषसंज्ञाश्चरणनिर्णयश्च प्रदर्श्यते - पादः । अधिकारोयमापादसमाप्तेः । यदित ऊर्ध्वं वक्ष्यामस्तत्र पाद इत्युपतिष्ठते । वक्ष्यति हि 'गायच्या वसव' इत्यादि । इयादिपूरणः । इयादिपूरणो यस्य सः । श्रादिशब्दादुवोऽपि तेन नियमितश्चरणो यत्र पूर्यते तत्रेयोवाभ्यां पूरणीयः । यथा - ' त्र्यम्बकम् त्रियम्बकम् ।' 'स्व:पवते' 'सुवःपवते' इत्यादि । एवमन्यत्राप्यच् सन्धेः प्रकृत्यादिना पूर्तिरपि । प्रकृत्यान्तः पादमन्ये परे इत्यादिसूत्रानुगुण्यसिद्धयानुसंधेयम् । लिङ्गादिव्यत्ययवत् । गायत्र्या वसवः । गायत्र्याश्चरणो यत्राधिधास्यते तत्राष्टाक्षरो ग्राह्यः । यथा 'अग्निमीळ' इत्यादि । जगत्य श्रादित्याः । जागतश्चरणो द्वादशाक्षरो ग्राह्यः, - ' येन सूर्यज्योतिषा बाधसे तमो जगच्च विश्वमुदियर्षभानुना । तेनास्मद्विश्वा मनिरामनाहुतिमपामीवामपदुःस्वप्न्य, सुव ।' विराजो दिशः । वैराजः पादो दशाक्षरो ग्राह्यः । 'अस्ये देव शवसा शुषन्तं वि वृश्चद्वत्रेण वृत्रमिन्द्रः । गा नवाणा अवनीरमुञ्चदभि श्रवो दावने स चेताः । एतां पङ्क्तिमाहुरन्ये । त्रिष्टुभो रुद्राः । त्रैष्टुभ एकादशाक्षरो ग्राह्यः, यथा - - 'हिरण्यरूपः स हिरण्यसंगपां नपात्सेदु हिरण्यवर्णः । हिरण्ययात्परि योनेर्निषद्या हिरण्यदा ददत्यन्नमस्मै ।' अत्राध्याये एताश्चतस्रः परिभाषाः । श्रत्र वैपरीत्येन त्रिष्टुब्जगत्योर्लक्षणादष्टाविंशत्यक्षराया उष्णिहः सप्ताक्षरः, द्वात्रिंशदक्षराया अनुष्टुभोऽष्टाक्षरः, षट्त्रिंशदक्षराया उष्णिहः सप्ताक्षरः, द्वात्रिंशदक्षराया श्रनुष्टुभोऽष्टाक्षरः, षट्त्रिंशदक्षराया बृहत्याः नवाक्षरश्चरणो ग्राह्य इत्येके । एकद्वित्रिचतुष्पादुक्तपादम् । उक्तः परिभाषितः पादोऽस्य तद्गायत्र्यादि तादृशैरेव चरणैः क्वचिदेकपात् क्वचिद् द्विपात् क्वचित्त्रिपात् क्वचिच्चतुष्पाच्च भवति । यथाष्टाक्षरचरणा गायत्री त्रिपदैव, तादृश्यनुष्टुप् चतुष्पदैव । द्वादशै (दश) कादशाक्षरपादा जगती, विरात्रिष्टुभश्चतुश्चरणा एवेति । श्राद्यं चतुष्पादृतुभिः । आद्यं गायत्रं षडक्षरचरणैश्चतुष्पाद् भवति । यथा - 'इन्द्रः शचीपतिर्बलेन वीलितः । दुश्च्यवनो वृषा समत्सुसाहसिः । क्वचित्त्रिपादृषिभिः । क्वचित्सप्ताक्ष रैस्त्रिपाद् गायत्रम्, यथा - 'य एकश्चर्षणीनां वसूनां मिरज्यति इन्द्रः पञ्च क्षितिनाम् ।' सा पादनिवृत् । सेयं सप्तकचरणा पादनिवृदिति संज्ञान्तरं लभते । एवंविधाश्च विज्ञाता विशेषसंज्ञाः श्रेयोविशेषं
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जनयन्ति शब्दशास्त्रे वैकल्पिकरूपज्ञानवदधिकशास्त्रज्ञाने धर्माधिक्यफलत्वात् । केचित्तु । सप्तकयोर्मध्ये षट्कश्चेत्पादनिवृदिति सूत्रयन्ति । यथा - ' - 'पुरूत्तमं पुरूणां स्तोतृणां विवाचि वाजेभिर्वाजयतां' षट्सप्तकयोर्मध्येऽष्ट। वतिपादनिवृत् । यथा 'प्रेष्ठं वो अतिथि स्तुषे मित्रमिव प्रियम् अग्नि रथं न वेद्यम् ।' द्वौ नवकौ षट्काश्च सा नागी | नवकयोरन्ते षट्के नागी यथा – 'अग्ने तमद्याश्वं न स्तोमैः क्रतुं न भद्रं हृदिस्पृशं ऋध्यामातऽप्रहैः ।' विपरीता वाराही । श्राद्ये षट्के वाराही गायत्रो बोध्या । द्वौ षट्को सप्तकश्चरुसीयसी यथा । ' इन्द्रः सहस्रदान्नाम् । वरुणः श ँ, स्यानाम् । क्रतुर्भवत्युक्थः, षट्सप्ताष्टकैर्वर्द्धमाना । यथा - 'एषो उषा पूर्व्या । व्यच्छति प्रियादिवः स्तुषेवामश्विना बृहत् ।' विपरीता प्रतिष्ठा । अष्ट सप्तषट्कचरणा यथा— ' आपः पृरणीत भेषजम् वरूथं तन्वे मम ज्योक्व सूर्यं दृशे । ' क्वचित्तु सप्तषडष्टकचररणा गायत्री दृश्यते । यथा - 'पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम् । इन्द्रं सोमे सचासुते । तृतीयं द्विपाज्जागतगायत्राभ्याम् । तृतीयशब्दो ‘गायत्र्या वसव' इत्यतो 'विराजो दिश' इति तृतीयसूत्रस्थं विराजमाह, तेन जागतगायत्राभ्यां द्विपदा विराड्गायत्री भवति । यथा - ' शुक्रः शुशुष्कां उषो न जारः पप्रा समीचो दिवो न ज्योतिः ।' त्रिपात् त्रष्टुभैः । त्रिभिस्त्रैष्टुभैस्त्रिपदा विराड् यथा - - 'दुहीयन्मित्र धितये युवाकु राये च नो मिमीतं वाजमत्यै । इषे च नो मिमीतं धेनुमत्यै ।' इति गायत्र्यधिकारः ।
उष्णिग्गायत्री जागतश्च । स्पष्टम्, यथा - ' शमग्निरग्निभिः करछन्नस्तपतु सूर्यः । शं वातो वा त्वरया अपस्तिध: ।' ककुम्मध्ये चेदन्त्यः । अन्त्यो जागतो गायत्रयोर्मध्ये चेत्ककुबुष्णिग् भवति । यथा - ' - 'सुदेव: समहासति सुवीरो नरो मरुतः समर्त्यः । यं त्रायध्वे स्यामते ।' पुर उष्णिक् प्रत: । आद्ये जागते सति, यथा'तच्चक्षुर्देवहितं शुक्रमुच्चरत् । पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतम् ।' परोष्णिक परतः । अन्त्ये जागते सति । पूर्वसूत्र ेण गतार्थमपि विशेषसंज्ञार्थमिति हलायुधभट्टा, अन्यैस्तु न पद्यते । त्रैष्टुभजागतचतुष्कैर्न्यकुशिराः विषमो ष्टुभो समौ जागतौ चेच्चतुष्पदा न्यङ्कुशिरा उष्णिग्, यथा - 'परावतो ये दिधिषन्त प्राप्यं मनुप्रीतासोजनिमा विवस्वतः । ययातेर्ये नहुष्यस्य बर्हिषि देवा श्रासते ते अधिब्रुवन्तु नः ।' आद्यः पञ्चकस्त्रयो गायत्रा उष्णिग्गर्भाः । चतुष्कैरित्यनुवर्तते । आद्ये पञ्चके उष्णिग्गर्भोष्णिग् यथा - 'पितुं नुस्तोषं महोधर्माणां तविषीं । यस्य त्रितो व्योजसा वृत्रं विपर्वमर्दयत् । चतुष्पादृषिभिः । सप्तकचरणा चतुष्पदोष्णिग् यथा - 'सवितुष्ट्वा प्रसव उत्पुनाम्यछिद्रेण पवित्रेण वसोः सूर्यस्य रश्मिभिः । इत्युष्णिगधिकारः ।
अनुष्टुब् गायत्रैः। चतुष्कैरित्यनुवृत्तेश्चतुर्भिर्गायत्रैरनुष्टुब् । यथा - 'गायन्ति
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त्वा गायत्रिणोर्चन्त्यर्कमर्किणः । ब्रह्माणस्त्वा शतक्रतऽ उद्वंशमिवयेमिरे । त्रिपात् क्वचिज्जागताभ्याम् । आद्ये गायत्रे सति । जागताभ्यां त्रिपदानुष्टुब् यथा'सुश्रवः सुश्रवा असि यथा त्वं सुश्रवः सुश्रवा असि एवं मां सुश्रवः सौश्रवसं कुरु ।' मध्येऽसे च । जागतयोर्मध्ये असे वा गायत्रे त्रिपदानुष्टुब् यथा-तत्र मध्यगायत्रा यथा—'पर्यषु प्रधन्ववाजं सातये परिवृत्राणि सक्षणिः । द्विषस्तरध्या क्षणयाम ईयसे ।' अन्त्यगायत्रा यथा – ' मा कस्मै धातमभ्यमित्रिणेनो मा कुत्रा नो गृहेभ्यो धेनवः । स्तनाभुजो अशिश्वीः ।' वैराजैर्वा । दशाक्षरैरपि त्रिपदा यथा - 'पिबा सोममिन्द्रमंदतु त्वा यंते सुषाव हर्यश्वाद्रिः । सोतुर्बाहुभ्यां सुयतो नार्वा ।' काविराड् नवद्वादशभिः । यथा - 'ता विद्वांसा हवामहे वाम् । तानो विद्वांसा मन्मवोचेतमद्य । प्रार्चत्दयमानो युवाकुः । नष्टरूपी नवट्प्रात्रयोदशैः । यथा - 'विप्रच्छामिपाक्यान् न देवान् वषट् कृतस्याद्भुतस्य दस्राः पातं च सह्यसो युवं चरभ्यसोनः ।' तनु शिरा एकादशैकादशषड्भिः । यथा - 'प्रया घोषे मृगवाणे न शोभे यया वाचा यजति पत्रियो वाम् । प्रेषयुर्न विद्वान् ।' पञ्चपञ्चका षट्कान्त्या महीपदपङ्क्तिः । यथा - ' नीललोहितं भवति कृत्या सक्तिर्व्यज्यते ।' इत्यनुष्टुबधिकारः ।
बृहती जागतस्त्रयश्च गायत्राः । श्राद्ये जागते त्रिषु गायत्रेषु बृहती यथा'इन्द्र ं धनस्य सातये हवामहे । जेतारमपराजितम् । स नः पर्षदतिद्विषः । स नः पर्षदतिस्तिधः पथ्या पूर्वस्थे तृतीयः । पूर्वजागते तृतीये सति पथ्या बृहती यथा - 'उभयं श्रुणुवच्च न इन्द्रो अर्वागिदं वचः । सत्राच्या मघवा सोमपीतये । धिया सविष्ठ आगमत् ।' न्यङ्कुसारिणी द्वितीयः । जागते द्वितीये सति यथा'प्रतिविश्वानि दुरिता राजानश्चर्षणीनामतिद्विषः । शुनमस्मभ्यमूतये वरुणो मित्रो अर्यमा ।' स्कन्धोद्गीती क्रोष्टुकेः, उरो बृहती यास्कस्य । क्रोष्टुकियास्काचार्ययोर्मते न्यङ्कुसारिण्या एते संज्ञ े स्तः । उपरिष्टाद्बहस्प ( प ) ते । अंह्ये जागते उपरिष्टाद्वृहती यथा - ' तद्धि वयं वृणीमहे वरुणमित्रार्यमन् येनानिरंहसो यूयम् । पाथने था च मर्त्य मतिद्विषः । पुरस्ताद्बृहती पुर: ।' ग्राद्ये जागते सति गतार्थमपि विशेषसंज्ञार्थम् । विष्टा र बृहत्यष्टदशदशाष्टभिः । यथा 'दुवं ह्यास्तं महोरन् युवं वायं निरततं सन्तम् । ता नो बभ्रू सुगोपा स्यातम् । पातं नो वृकादद्यायोः । क्वचिन्नवकाच्चत्वारः । यथा - ' - 'अनाधृष्यमनाधृष्यं, देवानामोजोऽभिशस्तयाः । श्रनभिशस्त्यञ्जसामुपगेषां स्वितेमघाः ।' वैराजो गायत्रौ च । दशाष्टकपदा बृहती यथा - ' - 'उषो वाजं हि वं (स्वयं) चित्रो मानुषे जने । तेनावह सुकृतो श्रध्वरामुपये त्वा गृणन्ति वह्नयः' । त्रिभिर्जागतैर्महाबृहती यथा – 'अजीजनोऽग्रमृतमर्त्येष्वांऋतस्य धर्मन्नमृतस्य चारुणः । सदा सरोवाजमच्छास निष्यदत् । सनो बृहती ताण्डिनः । '
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ताण्डिन श्राचार्यस्य मते । इति बृहत्यधिकारः ।
पक्तिर्जागतो गायत्री च यथा - 'भद्रमिद्भद्रा कृणवत्सरस्वत्यकवारी चेतति वाजिनीवती । गृणाना जमदग्निवत्, स्तुवाना च वशिष्ठवत् ।' पूर्वी वेदयुजी सतः पङ्क्तिः, यथा — जनासो अग्नि दधिरे सहोवृधं हविष्मन्तो विधेम ते, स त्वन्नो अद्य सुमना इहाविता भवा वाजेषु सन्त्यत । विपरीतौ च । समास - षम्ये सतः पङ्क्तिः । यथा - ' स ऋधः श्रावयत्सखा विश्वेत्स वेद जनिमा पुरुष्टुतः । तं विश्वे मानुषा युगा : इन्द्रं हवन्ते तविषं यतः स्र ुचः । प्रस्तारपङ्क्तिः पुरतः । पूर्वेण गतार्थमिदम् प्रास्तारपङ्क्तिः परतः । परौ जागतो चेद्यथा - 'अग्नि न स्ववृक्तिभिर्होतारं त्वा वृणीमहे । यज्ञाय स्तीर्णहविषे विषोमहे । क्षीरं पावकशोचिषं विवक्षसे ।' विष्टारपङ्क्तिरन्तः । जागतौ मध्ये चेद्विष्टारपङ्क्तिरूह्या । संस्तारपङ्क्तिर्बहिः मध्ये गायत्रौ चेद्यथा 'पितुभृतो नतंतुमित्सु दानवः । प्रतिदनो यजामसि, उषा अपस्वसुस्तमः । संवर्तयति वर्तन सुजातता ।' अक्षरपङ्क्तिः पञ्चकाश्चत्वारः । यथा 'पश्वानतायुं गुहा च तंतम् । नमो युजानं नमो वहन्तम् । द्वावप्यल्पशः । पञ्चकौ चेद् द्विपदाऽल्पशः पङ्क्तिरूह्या । केचित्तु पञ्चकौ मिलित्वा दशकचतुष्पदा सेत्याहुः । यथा - ' मन्ये त्वा यज्ञियं यज्ञियानाम् । मन्ये ' त्वा च्यवनमच्युतानाम् । मन्ये त्वा सत्त्वनामिन्द्रकेतुम् मन्ये त्वा वृषभं चर्षणीनाम् ।' सा चाल्पशः । एतौ भेदौ क्वचिदेवेत्यर्थः । पदपङ्क्तिः पञ्च । पञ्चकपञ्चभिः पदपङ्क्तिरूह्या । चतुष्कषट्कौ त्रयश्च । चतुष्कषट्को द्वौ पूर्वी तत स्त्रिषु पञ्चाक्षरेषु वा पदपङ्क्तिरूह्या पथ्या पञ्चभिर्गायत्रः । पथ्या पङ्क्तिर्यथा - 'इन्द्राणीमासु नारिषु, सुभगामहमश्रवम् । न ह्यस्या अपरं च न जरसा मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ।' इति पङ्क्तयधिकारः ।
जगती षड्भिः । गायत्रैरित्यनुवर्तते । यथा – 'तद्विष्णोः परमं पदम् । सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् । तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिधते विष्णोर्यत्परमं पदम् ।' एकेन त्रिष्टुब् ज्योतिष्मती । यथा - 'इन्द्रस्याङ्गिरसां चेष्टौ विदत्सरमा तनयायधासि । बृहस्पतिभिनदद्रिं विदद्गाः । समुस्त्रियाभिर्वाविशत नरः ।' केचित्तु त्रिष्टुभः प्रत्यासत्तेरेकेन त्रैष्टुभेन त्रिभिर्गायत्रः सेति वदन्ति । तथा जागती । एकेन जागतेन त्रिभिर्गायत्रैज्र्ज्योतिष्मती जगती । केचित्तु एकेन जागतेन चतुर्भिर्गायत्रैः पञ्चपदा सेति वदन्ति । पुरस्ताज्ज्योतिः प्रथमेन । श्राद्येन त्रैष्टुभेन जागतेन वान्यैर्गायत्रः । पूर्वसंज्ञाभ्यां सिद्धौ विशेषसंज्ञार्थम् । मध्ये ज्योतिर्मध्येन मध्येन त्रैष्टुभेन जागतेन वा उभयतो गायत्राभ्यां मध्ये ज्योति - रित्युभे ऊ । इति त्रिष्टुप् जगत्योरधिकारः ।
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अथान्यविशेषसंज्ञाः। एकस्मिन् पञ्चके छन्दः शङ्कुमती । यदैकः पञ्च
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[७ कोऽन्ये षट्कास्तदा शकुमती गायत्री बोध्या। छन्द इति प्रकृतेपि पुनर्ग्रहणात्तादृगुष्णिगादिरपि शकुमती। षट्के ककुद्मती। एकस्मिन् षट्केऽन्येषु यथा लक्षणेषु गायत्र्यादिः ककुद्मती भवति । त्रिपादणिष्ठमध्यत्वात्पिपीलिकमध्या। त्रिपादित्यविवक्षितम् । मध्ये अन्त्याक्षरेषु अन्येषु च बह्वक्षरेषु अणुमध्यत्वात्पिपीलिकमध्या गायत्र्यादिः । विपरीता यवमध्या। मध्येऽल्पके । न्यूनाधिकेनैकेन निद्भुरिजौ । चतुर्विंशत्याद्यक्षरा गायत्र्यादिरेकाक्षरेण न्यूनत्वाधिक्याभ्यां निच
द्भुरिजसंज्ञ लभते । द्वाभ्यां विराटस्वराजौ। द्वयक्षरन्यूनाधिकयोरेते संज्ञ। आदितः सं (ज्ञ)दिग्धे । यदा षड्विंशत्यक्षरं छन्दस्तदा किं गायत्री उताहो उष्णिग्विराडित्येवमादौ संदिहानेनादिचरणानिर्णयोऽवसेयः । प्राद्ये गायत्रे गायत्री, आये
औष्णिहे उष्णिक इति । देवतादितश्च । इदमपरं निर्णायकम् । आग्नेयी चेद्गायत्री सावित्री चेदुष्णिगिति । प्रादिशब्दात्स्वरादिः। तथाह । 'अग्निः सविता सोमो बृहस्पतिवरुण इन्द्रो विश्वे देवाः।' गायत्र्यादीनां जगत्यन्तानां क्रमादेता देवताः स्वराः षड्जादयः । षड्जादिनिषादान्ताः सप्त स्वरा गायत्र्यादेः। सितहरितपिशङ्गकृष्णनीललोहितगौरा वर्णाः, आग्निवेश्यकाश्यपगौतमाङ्गिरसभार्गवकौशिकवाशिष्ठानि गोत्राणि । सर्वेषामुदाहरणानि वेदे, देवतादेश्च निर्णयः सर्वानुक्रमण्यादौ परीक्षितव्यानि । इति गायत्र्यादिप्रकरणे तृतीयाध्यायसूत्राणि । - चतुःशतमुत्कृतेः। यत्र चतुरधिकं शतमक्षराणि सोत्कृतिः । चतुरश्चतुरस्त्यजेदुत्कृतेः । चतुरधिकशताङ्कादारभ्य चतुर्भिश्चतुभिरूना अङ्काः स्थाप्या अष्ट चत्वारिंशदन्तम् । तान्यतिसम्या(ज्ञा)प्तेभ्य: कृतिः । तान्युत्कृतेरनन्तराणि पञ्चभ्य उपसर्गेभ्यः पराणि कृतसंज्ञानि स्युः। यथा शताक्षरमतिकृतिः। षण्णवतिक संकृतिः । द्वानवतिकं विकृतिः । अष्टाशीतिकमाकृतिः । प्रकृत्या च अनुपसु(स)ष्टा कृतिरशीतिकं भवति । धृत्यष्टिशक्वरीजगत्यः । कृतेः परेष्वङ्कष्वेताश्चतस्रः संज्ञाः पृथक् पृथक् पूर्वत एतान्येषाम् । एषां धृत्यादीनां पूर्वत्यक्ताङ्केषु धृत्यष्टयाद्या एव संज्ञाः स्थाप्या: । द्वितीयं द्वितीयमतितः। प्रथमोक्ता धृत्यादिद्वितीयं द्वितीयं नाम प्रथमं यच्छब्दरूपं तदतिशब्दात्प्रयोज्यम् । यथा षट्सप्ततिकमतिधृतिः, द्विसप्ततिकं धृतिः । अष्टषष्टिकमत्यष्टिः, चतुः षष्टिकमष्टिरिति। एवमतिशक्वरीशक्वयंतिजगतीजगत्यश्च । यथा-उत्कृतिः । अतिकृतिः । संकृतिः । विकृतिः । प्राकृतिः । प्रकृतिः । कृतिः । अतिधृतिः। धृतिः। अत्यष्टि: । अष्टिः। अतिशक्वरी शक्वरी। अतिजगती । जगती। ॥१०४।१००६६।६२।८८८४८०७६।७२।६८।६४।६०। ५६।५२।४८॥ तत्र दिङ्मात्रमुदाहरणं जगत्युक्तं व । अतिजगती यथा-'गन्ता नो यज्ञ यज्ञियाः सुशमिश्रोताहवमरक्ष एव या मरुत् । ज्येष्ठासो न पर्वतासो व्योमनि यूयं तस्य प्रचेतसः स्यातदुद्धर्तवोनिदः।' शक्वरी यथा-'न तद्रक्षांसि न पिशाचाश्चरन्ति
HHHHHHHHHH
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. वृत्तमुक्तावली देवानामोजः प्रथमं जह्येन तत् यो बिभर्ति दाक्षायणा हिरण्यं स देवेषु कृणते दीर्घमायुः । स मनुष्येषु कृणुते दीर्घमायुः । एवमतिशक्वर्यष्टी अपि । अत्यष्टिर्यथाविश्वे विहाया अरणि वसुर्दधे हस्ते दक्षिण तरणिर्न शिश्रयच्छ वस्य यावशिश्रयत् विश्वस्मा इति युध्यते देवत्रा हव्यमूहिषे विश्वस्मा इच्छ कृते वारमण्वत्यग्निर्द्वारा वृण्वति ।' एवं धृत्यतिधृत्यादयोऽपि सर्वानुक्रमण्यादौ विशिष्य परीक्ष्याः ।
इति वृत्तमुक्तावल्यां प्रथमो गुम्फः दैवी गा 'ॐ', दैवी उ 'भुवः । वौषट् ।' दैवी अनुष्टुप् 'इषे त्वा । ऊर्जेत्वा।' दैवी बृहती यथा-भर्भुवःस्वः। दैवीपङ्क्तिर्यथा—'भूर्भुव: स्वरोम् । ये यजामहे ।' देवी त्रिष्टुप् यथा-'विष्णो हव्य रक्ष । अपानं मे पाहि ।' दैवी जगती यथा'वसोः पवित्रमसि ।' एवं चतुर्दशाध्याये तृतीयाविति मन्त्रेषु प्रात्मनः पूर्वभागे प्राणभृत्संज्ञकानां दशेष्टकानामुपधाने आयुर्मे इत्यादीनि दश यजूंषि ।
छन्दः गा उ अ वृ पं. त्रि ज दैवी १ २ ३ ४ ५ ६ ७
प्रथमं दैवी पङ्क्तिः । द्वि. दै. पं. तृ: दै, पं. दै. पं. नवमं दै त्रि । अन्यत्सर्व देवी पं. तदने तत्रैव 'माच्छन्द' इति षट्त्रिंशद्यजूंषि । तेषु 'अग्निर्देवते' ति द्वादश यजूंषि । तेषामवयवेषु पक्षपुच्छात्मसन्धिषु द्वादश छन्दस्य संज्ञका निमिष्टकानामुपधाने विनियोगः । तेषु प्रथमं देव्यनष्टुप् द्वि. दै. व., त. दै. पं, च. दै. त्रि., पं. दै. वृ., ष. दै., स. दै. व. अ. दै. पं., न. दै. बृ., द. दै. पं., ए. दै. वृ., द्वा. दै. पं., त्र. दै. पं., च. दै. त्रि., पं. दैव्यनु., षो. दै. बृ., स. दै. त्रि., अष्टा. दैव्यनु., ए. दै. वृ., वि. दै. वृ., ए. वि. दै. पं., द्वा. दैव्यनु. । ऽजा. त्रयोविंशतिमं छन्द: दैवी वृहती अश्वश्छन्द: चतुर्विशं दैवी बृहती छन्दः । अग्निर्देवता । दैवी पङक्ति. '५, वातो देवता दै. पं. ५, सूर्यो देवता दैवी पं. ५, चन्द्रमा देवता दै. त्रि. ६, वसवो देवता दै. त्रि. ६, रुद्रा दै. पं. ५, आ. दै. त्रि. ६, मरुतो दै. त्रि. ६. विश्वे देवा दै. दै. ज, बृहस्पतिर्दे. दै. ज. ७., इन्द्रो दे. दै. पं. ५, वरुणो दे. दै. त्रि. ६, एवं दैव्या पङ्क्तिभूरिशो वेदे विस्तृता तत्रैव स्वयमूह्या। कात्यायनकृतसर्वानुक्रमणिकायां प्रपञ्चितावगन्तव्या ।
अतः परमासुरी पङ्क्तिः प्रपञ्च्य सोदाहरणा प्रदर्श्यते । आसुरी गायत्री यथाअ. १।१२ कण्डिकायाम् 'धिषणासि पार्वती प्रति त्वा दिह्या (त्या) स्त्वग्वेत्त' १५ यथा वा-अ. १८।४७ कं । तस्यापो अक्षर स ऊों नाम सन इदम् ।' १५ ।
गा. उ. अ. बृ. पं. त्रि. ज. १५ १४ १३ १२ ११ १०९
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[६ 'ब्रह्मक्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट् ताभ्यः स्वाहा' । यथा वा 'पितृभ्य ऊर्ध्वबहिभ्यो धर्मपावभ्यः स्वाहा' ॥ १५
प्रासुरी उष्णिग्यथा। 'उपयाम गृहीतोसि वैश्वानराय त्वा' ॥ १४ यथा वा'दिविधा इमं यज्ञमिमं यज्ञं दिविधाः' ॥ १४ 'बृहस्पतये त्वा विश्वदेव्या व ते स्वाहा । यमाय त्वाङ्गिरस्वते पितृमते स्वाहा'। १४ 'इन्द्राय त्वा वसुमते रुद्रवते स्वाहा ॥ १४ यथा वा-'तंतुना रायस्पोषेण रायस्पोषं जित्व' ।। १४ 'देवः श्रू त्वं देव धर्मदेवो देवान् पाहि' ॥ १४ ग्रासुर्यनुष्टुप् यथा-'वसवस्त्वां जंतु गायत्रेण छन्दसा' ॥ १३ अादित्यास्त्वां जंतु जागतेन छन्दसा। १३ देवानां प्रतिष्ठे स्थः सर्वतो मा पातम् ॥ चतुश्चत्वारिंशः स्तोमो वर्णो द्रविणम् ।। १३ स्वाहा सूर्यस्य रश्मये वृष्टिवनये ॥' १३ प्रासुरी बृहती यथा-'अत्र प्रावीरनुवां देववीतये ॥ १२ आसुरी पङ्क्तिर्यथा-'एष ते योनिर्वैश्वानराय त्वा ॥ ११ मधुमाध्वीभ्यां मधुमधुन्वीभ्याम्' ।। ११ आसुरी त्रिष्टुब् यथा-'याश्विनः पयस्वा नीयमाने' । १० यथा वा-'षोडशी स्तोम ऊर्जा द्रविणम्' ।। १० यथा वा 'हविः कृदेहि हविः कृदेहि ॥ १० पासुरी जगती यथा— 'वैष्णवमसि विष्णवे त्वा' ॥ ६ यथा वा-'यजमानस्य पशून् पाहि' ।। ६ अत: पर प्राजापत्या पङ्क्तिः प्रदर्श्यते-गा. उ. अ. बृ. पं. त्रि. ज.
८ १२ १६ २० २४ २८ ३२ प्राजापत्या गायत्री यथा-'अमृतापिधानमसि' ॥ ८ यथा वा-'उर्वन्तरिक्षमन्वेमि' ।। ८ यथा वा-'सम्राडसि प्रतीची दिक् ॥ ८ कव्यवाहनाय स्वाहा' ॥ ८ यथा वा-'स्वाहा संज्योतिषा ज्योतिः ॥ ८ प्राजापत्या उष्णिग्यथा-'स्वाहाग्नये यज्ञियाय संयुजुर्व्यः' ।। १२ प्राजापत्या अनुष्टुब् यथा-'तस्यौषधयोप्सरसो मुदो नाम सन इदम्' ।। १६ यथा वा-'तेजोसि शुक्रममृतममृतमायुष्या प्रायुमें पाहि' ॥ १६ प्राजापत्या बृहती यथा-'अश्वस्य त्वा वृष्णः शक्रा धूपयामि देवयजने पृथिव्याः' । २० यथा वा-'देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् ॥ २० यथा वा-'सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्मन्त्रेणाग्नेः साम्राज्येनाभिषिञ्चामि' ।। २० यथा वा-'एष ते योनिरश्विभ्यां त्वा सरस्वत्यै त्वेन्द्राय त्वा सुत्राम्णे' ॥ २० प्राजापत्या पङ्क्तिर्यथा-वसूनां भागोसि रुद्राणामाधिपत्यं चातुस्ष्पात् स्मृतं चतुर्विंशः स्तोमः ।। २४ आदित्यानां भागोसि मरुतानामाधिपत्यं गर्भाः स्मृताः पञ्चविंशः स्तोमः' ॥ २५ यथा वा-'तिसृभिरस्तुवत ब्रह्मा असृज्यंत ब्रह्मणस्पतिरधिपतिरासीत् ॥ २४ प्राजापत्या त्रिष्टुब् यथा- 'सुषुम्णः सूर्यरश्मिश्च इमा गन्धर्वस्तस्य नक्षत्राण्यप्सरसो मे कुरयो नाम' ।। २८ प्राजापत्या जगती यथा चतुर्थस्यैकादशकण्डिकायां-'दवीं धियं मनामहे सुंमडीकाम
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भिष्टये । वर्चोधा, यज्ञवाहस ँ सुतीर्था नो प्रसद्वशे' ।। ३२ यथा वा तत्रैव द्वितीयकण्डिकायाम् 'आपो प्रस्मान्मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनंतु । विश्व हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीः || ३२ यथा वा प्रथमाध्याये चतुर्विंशतितमकण्डिकायाम् 'इन्द्रस्य बाहुरसि दक्षिणः सहस्रवृष्टिः शततेजाः वायुरसि तिग्मतेजा द्विषतो वधः ॥ ३२
अथ याजुषी पङ्क्तिः- गा. उ. अ. बृ. पं. त्रि. ज.
६
७ ८ ε १० ११ १२ याजुषी गायत्री यथा— द्वितीयाध्यायस्य पञ्चविंशतितमकण्डिकायाम् 'अस्यै प्रतिष्ठाया:' ।। ६ यथा वा - द्वि. ६ कं. । 'पाहि मां यज्ञन्यम्' ६ । यथा वा— अ. १६ । १ कं. 'अश्विभ्यां पच्यस्व' ।। ६ यथा वा - ' इन्द्राग्निभ्यां स्वाहा' | ६ याजुष्यष्णिग् यथा - 'सरस्वत्यै पच्यस्व' ॥ ७ यथा वा - प्र. ३।३७ कं. । 'नर्य प्रजां मे पाहि' ॥ ७ याजुष्यनुष्टुब् यथा - प्र. १६ नवम कं. 'प्रोजोस्योजो मयि धेहि ॥ ८ एकोनविंशे षट्त्रिंशत्तम कं. 'श्रमीमदंत पितरोऽतीतृ पंतपितरः ' ॥ ८ याजुषी बृ. द्वि. द्वात्रिंशत्तम कं. षड्यजूंषि । 'नमो वः पितरो रसाय' इत्यादीनि । तेषु सर्वेष्वपि याजुषी बृहतो बोध्या । याजुषी पङ्क्तिर्यथा - 'एकोनविशे नवमकं. 'मन्युरसि मन्युं मयि धेहि' | १० याजुषी त्रिष्टुप् यथा द्वि. विंशतितम कं. 'अग्नये संवेशपतये स्वाहा' ॥ ११ 'सरस्वत्यै यशोभगिन्यै स्वाहा ॥ ११ यथा वा - प्र. १६ । एकादश कं. 'संपृच स्थ सं मा भद्रेण पृक्त' । ११ याजुषी जगती यथा- प्र. ३ । १८ कं. 'चित्रावसो स्वस्ति ते पारमशीय' ।। १२ यथा वा - प्र. ४ । १० कं. 'विष्णोः शर्मासि शर्म यजमानस्य' ।। १२ समाप्ता याजुषी पङ्क्तिः ।
उ. अ. बृ. पं. त्रि. ज. १४ १६ १८ २० २२ २४ साम्नी गायत्री यथा - अध्या ११५ कं. ' इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि ' ।। १२ यथा वा—प्र. ६ । २२ कं. 'इन्द्राय त्वा वसुमते रुद्रवते ॥ १२ साम्न्युष्णग्यथाअ. ६ । ६ कं. 'एष ते पृथिव्यां लोक श्रारण्यस्ते पशुः || १४ यथा वा - प्र. पञ्चत्रिंशत्तम कं. 'एष ते निर्ऋते भागस्तं जुषस्व स्वाहा' || १४ साम्न्यनुष्टुब् यथा— अ. ५ । ३५ कं. 'ज्योतिरसि विश्वरूपं विश्वषां देवानासमित्' ।। १६ यथा वा-अः २ । ३२ कं 'गृहान्नः पितरो दत्त सतो वः पितरो देष्म' ।। १६ साम्नी बृहती यथा— श्र. २ । ३१ कं. 'श्रमीमदन्त पितरो यथाभागमावृषाषित । १८ यथा वा श्र. ८१ कं. 'विष्ण उरुगायैष ते सोमस्त रक्षस्व मा
अथ साम्नी पङ्क्तिः प्रपञ्च्यते - गा. १२
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[ ११ त्वा दभन्'। १८ साम्नी पङ्क्तिर्यथा-अ. २ । २८ कं. 'अग्ने व्रतपते व्रतमचारिषं तदशकं तन्मेऽराधि' ।। २० यथा वा-अ. १४। २६ कं. 'नवभिरस्तुवत पितरोऽसृज्यंतादितिरधिपत्न्यासीत् ॥ २० साम्नो त्रिष्टुब् यथा-अ. १४।२८ कं. 'एकयास्तुवत प्रजा अधीयंत प्रजापतिरधिपतिरासीत्' । २२ यथा वा तत्रैव'सप्तभिरस्तुवत सप्त ऋषयोऽसृज्यन्त धाताधिपतिरासोत्'। २२ यथा वा-अ. ६।३१ कं. 'अश्विनौ द्वयक्षरेण द्विपदो मनुष्यानुदजयतां तानुज्जेषम् ॥ २२ सोमश्चतुरक्षरेण चतुष्पदः पशूनुदजयत्तानुज्जेषम् ॥ २२ यथा वा-अ. ६।३२ कं. 'मरुतः सप्ताक्षरेण सप्त ग्राम्यान् पशूनुदजयंस्तानुज्जेषम्' ।। २२ साम्नी जगती यथा-अ. १४।२८ कं. 'पञ्चभिरस्तुवत भूतान्यसृज्यन्त भूतानां पतिरधिपतिरासीत् ॥ २४ यथा वा-अ. १४।३० कं. 'पञ्चविंशत्या स्तुवताऽऽरण्या पशवोऽसृज्यन्त वायुरधिपति रासीत् ॥ २४ समाप्ता साम्नी पङ्क्तिः । अथ प्रार्थी पङ्क्तिर्विविच्य प्रदर्श्यते-गा. उ. अ. बृ पं. त्रि. ज.
१८ २१ २४ २७ ३० ३३ ३६ आर्ची गायत्री यथा-अ. ५।३६ कं.'देव सवितरेष ते सोमस्त . रक्षस्व मा त्वा दभन्'। १८ यथा वा-अ. ४।३ कं. 'वृत्रस्यासि कनीनकश्चक्षुर्दाऽअसि चक्षुर्मे देहि ॥ १८ आर्ची उष्णिग् यथा-अ. ६।८ कं. 'ऋतस्य त्वा देवहविः पाशेन प्रतिमुञ्चामि धर्षा मानुषः' ॥ २१ यथा वा-अ. २।१५ कं. 'इन्द्राग्न्योरुज्जितिमनूज्ज्जेषं वाजस्य मा प्रसवेन प्रोहामि' ।। २१ यथा वा-अ. २१७ कं. 'सुयमे मे भूयास्तम् । अस्कन्नमद्य देवेभ्य प्राज्य - संभ्रियासम् ।' २१ यथा वाअ. २२।१६ कं. 'देवा आशापाला एतं देवेभ्योऽश्वं मेधाय प्रोक्षित * रक्षत' । २१ प्राय॑नुष्टुब् यथा-अ. ६।३४ कं. 'वसवस्त्रयोदशाक्षरेण त्रयोदशं स्तोममुदजयँस्तमुज्जेषम्'। यथा वा-तत्रैव चतुस्त्रिशत्तमः । 'आदित्याः पञ्चदशाक्षरेण पञ्चदश: स्तोममुदजयंस्तमुज्जेषम्' । २४ आर्ची बृहती यथा-अ. ६।१३ कं. 'देवस्याह 'सवितुः सवे सत्यप्रसवसो बृहस्पतेर्वाजजितो वाज जेषम्'। १७ यथा वा-१।१६ कं. 'कुक्कुटोऽसि मधुजिह्वइषमूर्जमावद त्वया वय संघात संघातं जेष्म'। २७ आर्ची पङ्क्तिर्यथा-अ. ४।२२ कं. "आदित्यास्त्वा मर्द्धन्नाजिमि देवयजने पृथिव्या इडायास्पदमसि घृतवत्स्वाहा' । ३० यथा वा-अ. ६।१८ कं. 'रडेस्यग्निष्ट्वा श्रीणात्वापस्त्वा समरिणन्वातस्य त्वा प्राज्य पूष्णो र" ह्या ऊष्मणो व्यथिषत्' ३० । यथा वा तत्रैव-'घृतं घृतपावानः पिबत व्वसां वसापावानः पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा' । ३० प्रार्ची त्रिष्टुब् यथा-अ. ७।४७ कं. 'अग्नये त्वा मह्यं वरुणो ददातु सोमृतत्वमशीयायुर्दात्र एधि मयो मह्यं प्रतिगृहीत्रे' ३३ । यथा वा-अ. ८।१० कं. 'प्रजापतिर्वृषासि रेतोधा रेतो मयि धेहि प्रजापतेस्ते वृष्णो रेसोधसो रेतोधामशीय' ॥ ३३ आर्ची जगती यथा-अ. १४।३०
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१२ ]
वृत्तमुक्तावली कं. 'सप्तविंशत्यास्तुवत द्यावापृथिवी व्यैतां वसवो रुद्रा आदित्या अनुव्यायंस्त एवा. धिपतय आसन्' । ३६ अथ ब्राह्मी पङ्क्तिविविच्य प्रदर्श्यते-गा. उ. अ. ब. पं. त्रि. ज.
..३६ ४२ ४८ ५४ ६० ६६ ७२ ब्राह्मी गायत्री यथा-अ. ६।१२ कं. 'एषा वः सा सत्या संवागभूद्ययेन्द्रं वाजमजीजपताजीजपतेन्द्रं वाजं वनस्पतयो विमुच्यध्वम्'। ३६ यथा वा-अ. ८६ कं. 'उपयाम गृहीतोऽसि बृहस्पतिसुतस्य देव सोम त इन्दोरिन्द्रियावत: पत्नीवतो ग्रहाँ ऋध्यासम्' । ३६ ब्राह्मी उष्णिग् यथा-अ. ६।१२ कं. 'एषा वः सा सत्या संवागभूद्यया बहस्पति वाजमजोजपताजीजपत बृहस्पति वाजं वनस्पतयो विमुच्यध्वम्' । ४२ यथा वा–अ. ६।११ कं. 'रेवति यजमाने प्रियं धा प्राविश । उरोरन्तरिक्षात्सतर्देवेन वातेनास्य हविषस्त्मना यज समस्य तन्वा भव' । ४२ ब्राह्मयनुष्टुब् यथा-अ. ११८ कं. 'देवानामसि वह्नितम सस्नितमं पप्रितमं जुष्टतमं देवहूतमं अह्र तमसि हविर्धानं दृहस्व मा ह्वार्मा ते यज्ञपतिर्षीित् ॥ ४८ यथा वा-अ. ३।१६ कं. 'सं त्वमग्ने सूर्यस्य वर्चसागथा: समृषीणा स्तुतेन । सं प्रियेण धाम्ना समहमायुषा सं वर्चसा सं प्रजया स . रायस्पोषेण ग्मिषीय' ॥ ४८ ब्राह्मी बृहती यथा-अ. ४।१५ कं. 'पुनर्मन: पुनरायुर्मागन् पुनः प्राणः पुनरात्मा म आगन् पुनश्चक्षुः पुनः श्रोत्रं म अागन् । वैश्वानरो अदब्धस्तनूपा अग्निर्नः पातु दुरितादवद्यात्' । ५४ यथा वा-अ. ११५८ कं. 'परमेष्ठी त्वा सादयतु दिवस्पृष्ठे ज्योतिष्मतीम् । विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानाय विश्वं ज्योतिर्यच्छ । सूर्यस्तेऽधिपतिस्तया देवतयाऽङ्गिरस्वद् ध्रु वा सीद'। ५४ एवं ब्राह्मी पङ्क्तिस्त्रिष्टुब्जगती च वेदे यथालक्षणं द्रष्टव्या। अथ पार्षी पङ्क्तिर्विविच्य प्रदर्श्यते-गा. उ. अ. बृ. पं. त्रि. ज.
२४ २८ ३२ ३६ ४० ४४ ४८ आर्षी गायत्री यथा-'अग्नि दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम्' । आर्षी उष्णिग् यथा-'अग्ने वाजस्य गोमत ईशानः सहसो यहो । अस्मे धेहि जातवेदो बहिः श्रवः'। एवमार्योऽनुष्टुवादयोपि । इति । दैव्यादि च्छन्दोऽष्टकमुदाहृत्य प्रदर्शितम् । गायत्री चतुर्विंशत्यक्षरा यथा-अ. २।४ कं. 'वीतिहोत्रं त्वा, कवे द्युमन्तं समिधीमहि अग्ने बृहन्तमध्वरे ।' यथा वा-'समिधाग्नि दुवस्य त धृतर्बोधयतातिथिम् । आस्मिन् हव्या जुहोतन' । एकपदा गायत्री यथा-'अग्निर्योतिर्योतिरग्निः स्वाहा' । सूर्यो ज्योतिर्योतिः सूर्यः स्वाहा ।' यथा वा-'अग्निर्व! ज्योतिर्वर्चः स्वाहा' । स्वराड् गायत्री यथा वा-अ. १७।४ कं. 'समुद्रस्य त्वावकयाग्ने परे व्ययामसि । पावको अस्मभ्यं शिवो भव' । २५
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[१३ 'हिमस्य त्वा जरायुणाग्ने परि व्ययामसि । पावको अस्मभ्यं शिवो भव'। २४ प्रतिष्ठा गा. यथा-'त्वमग्ने व्रतपा असि देव ा मर्येष्वा। त्वं यज्ञेष्वीडयः' । उष्णिग्गर्भा गायत्री,यथा-अ. २०१४ कं. 'कोऽसि कतमोऽसि कस्मै त्वा काय त्वा। सुश्लोक सुमङ्गलसत्यराजन्' । २३ द्विपदा गायत्री यथा-'क्षत्रस्य योनिरसि क्षत्रस्य नाभिरसि' ।। १४ अनवसाना गा. यथा-अ. २०।१८ 'यदापो अध्न्या इति वरुणेति शपामहे ततो वरुण नो मुञ्च' । क्वचित्रिपादृषिभिः सा पादनिचूद् गायत्री यथा- अ. ६।२४ 'अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह ता नो हिन्वन्त्वध्वरम्' । २४ विराट् शकुमती गा. अ. १२।७३ 'वि मुच्यध्वमघ्न्या देवयाना अगन्म तमसस्पारमस्य । ज्योतिरापाम' । विराट् छन्दो यथा-अ. २।२१ 'देवा गातुविदो गातुं वित्वा गातुमित । मनसस्पत इमं देव यज्ञ स्वाहा वातेधाः' । विराट् द्विपदा यथा-अ. १५।४८ 'अग्ने त्वन्नो अन्तम उत त्राता शिवो भवा वरूथ्यः।' वसुरग्निर्वसुश्रवा अच्छा नक्षि धुमत्तम • रयिन्दाः । तं त्वा शोचिष्ठ दीदिवः सुम्नाय नूनमीमहे सखिभ्यः' । ३ अनिरुक्ता गायत्री यथा-प्र. २६।३७।३८ 'केतु कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे । समुषद्भिरजायथा' । २४ ‘जी मूतस्येव भवति प्रतीक यद्वी याति समदामपस्थे अनाविद्धया तन्वा जय त्वा स त्वा वर्मणो महिमा पिपर्तु' । अवसानहीना गायत्री । अ. ५.३५ । 'त्व सोम तनूकृद्भयो द्वेषोभ्योऽन्यकृतेभ्य उरु यन्तासि वरूथ स्वाहा ॥' एकपदा विराट तत्रैव । 'जुषाणो अप्सु राजस्य बेतु स्वाहा'। इति गायत्र्यधिकारः।।
उष्णिक अ. १५॥३७। 'क्षपो राजन्नुत त्मनाग्ने वस्तोरुतोषस: । स तिग्मजम्भ रक्षसो दह प्रति'। २८ यथा वा-चतुष्पादृषिभिः । अ. ३१६२ 'त्र्यायषं जमदग्ने: कश्यपस्य व्यायुषम् । यद्द वेषु व्यायुषं तन्नो अस्तु व्यायुषम्' । २८ ककुबुष्णिग् यथा—अ. ३।५६ 'भेषजमसि भेषजं गवेश्वाय पुरुषाय भेषजम् । सुखं मेषाय मेष्य' । २८ यथा वा—'प्रतिगृह्णाम्यग्ने अग्नि रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय । मामुदेवताः सचन्ताम्' । परोणिग् यथा- अ. १८१५४' 'दिवो मूर्द्धासि पृथिव्या नाभिरूर्गपामोषधीनाम् । विश्वायुः शर्म सप्रथा नमस्पथे'। अनवसाना पुर उष्णिग्यथा-अ. ६।६ 'अप्स्वंतरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तिष्वश्वा भवत वाजिनः' । २६ पुर उष्णिग् यथा— 'वातो वा मनो वा गन्धर्वाः सप्तविंशतिः । ते अग्नेऽश्वमयुजस्ते अस्मिन् जवमादधुः' । ३० विषमपदा उष्णिग यथा-अ. २७।१० 'उद्वयन्तमसस्परि स्व: पश्यन्त उत्तरम् । देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् । ऊर्ध्वा अस्य समिधो भवन्त्यूर्वा शुक्रा शोची" ष्यग्नेः । धुमत्तमा सुप्रतीकस्य सूनोः। २ तनूनपादसुरो विश्ववेदा देवो देवेषु देवः । यथो अनक्त मध्वा घृतेन। ३ मध्वा यज्ञ नक्षसे प्रोणानो नराश" सो अग्ने । सुकृद्देवः सविता विश्ववारः । ४ अच्छायमेति शवसा घृतेनेडानो
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१४ ] वह्निर्नमसा । अग्नि स्र चो अध्वरेषु प्रयत्सु ।। ५ अग्ने स्वाहा कृणुहि जातवेदम्' इत्यन्तस्य द्वादशर्चस्य, इष्टकायशौ प्रयाजानां याज्यात्वेन विनियोगः । वर्द्धमाना उष्णिग् यथा-अ. ७।२६। 'कोसि कतमोसि कस्यासि को नामासि । यस्य ते नामामन्महि यन्त्वा सोमेनातीतृपाम' ।। ३० इति उष्णिगधिकारः।
अनुष्टुप् । अ. ४।२६ 'प्रति पन्थामपद्महि स्वस्तिगामनेहसम् । येन विश्वा: परि द्विषो वृक्ति विन्दते वसु' । ३१ यथा वा-अ. ४।३२ 'सूर्यस्य चक्षरारोहाग्नेरक्ष्णः कनीनकम् । यत्रैतशभिरीयसे भ्राजमानो विपश्चिता' ।। ३२ नष्टरूपी अनुष्टुब् विराट् छन्दः । अ. ७१। 'वाचस्पतये पवस्व वृष्णो अंशुभ्यां गभस्तिपूतः । देवौ देवेभ्यः पवस्व येषां भागोऽसि' । ३१ विराडनुष्टुब् यथा-प्र. ४।७ 'पापो देवीव्हतीविश्वशंभुवो द्यावापृथिवी उरो अन्तरिक्ष । बृहस्पतये हविषा विधेम' । ३४ यजुरन्तानुष्टुब् यथा-अ. ११।११ 'हस्त प्राधाय सविता बिभ्रदभ्रि
हिरण्मयीम् । अग्नेयोतिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरदानुष्टुभेन छन्दसाङ्गिरस्वत्' । ४१ अनुष्टुब् विराड् यथा-अ. १८॥३५॥३६ सं मा सृजामि पयसा पृथिव्याः सं मा सृजाम्यद्भिरोषधीभिः । सोहं वाजसनेयमग्ने ।। पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः। पयस्वती: प्रदिशः सन्तु मह्यम् ॥' इत्यनुष्टुबधिकारः।
बृहती यथा-अ. १९०२ 'परीतो पिंचता सुत" सोमो य उत्तम हविः । दधन्वान् यो नर्यो अप्स्वन्तरा सुषाब सोममद्रिभिः' । यथा वा-अ १६।११ ‘पदापिपेष मातरं पुत्रः प्रमुदितो धयन् । एतत्तदग्ने अनृणो भवाभ्यहतौ पितरौ मया' ।। ३४ पुरस्ताद् बृहती। यथा-अ. ४।२८ 'परिमाग्ने दुश्चरिताब्दाधस्वा मा सुचरिते भज । उदायुषा स्वायुषोदस्थाममृतां अनु' । त्रिभिर्जागतैर्महाबहती 'सोमो राजा म सुतशजोषेण जहान्मृत्यम् । स तेन सत्यमिन्द्रियं विपान" शुक्रमन्धस इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोमृतं मधु । अद्भयः क्षीरव्यपिवक्रुङ्गांगिरसो धिया। शतेन सत्यमिन्द्रियं विपान शुक्रमेधस इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोमतं मधु । सोममधो व्यपिव छन्दसा हसः । शुविषत् शतेन सत्यमिन्द्रियं विपान' शुक्रमन्धस इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोमृत मधु' । उपरिष्टाद् बृहती यथा-अ. ११।८३ 'अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः । प्रप दातारं तारिष ऊर्ज नो धिहि द्विपदे चतुष्पदे' ॥ ३६ ऊर्ध्वबृहती अ. १२।७ 'अग्नेभ्यावर्तिन्नाभि मा निवर्तस्वायुषा वर्चसा प्रजया धनेन । सत्या मेधया रय्या पोषण' । ३३ न्यकुसारिणी उरो बहती स्कन्धोद्गीती वा बृहती यथा-अ. ११।६३ 'देवस्त्वा सवितोद्वपतु सुपाणि: स्वगुरिः सुबाहुरुत शक्त्या। अव्यथमाना पृथिव्यामाशा दिश प्रापृण' ।। ३७ पथ्या बृ. षष्ठस्य ३७ 'त्वमङ्ग प्रश : सिषो देवः शविष्ठ मर्त्यम् । न त्वदन्यो
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वृत्तमुक्तावली
[१५ मघवन्नस्ति मड्डितेन्द्र ब्रवोमि ते वचः'। ३३ यथा वा-ग्र. ६।३४ 'श्वात्रा स्थ वृत्रतुरो राधोगूर्ता अमृतस्य पत्नीः । ता देवीदेवत्रेमं यज्ञ नयतोपहूताः सोमस्य पिबत । ३७ विपरीता बृ. अ. ६।३३ 'यत्ते सोम दिवि ज्योतिर्यत्पृथिव्यां यदुरावन्तरिक्षे । तेनास्मै यजमानायोरु राये कृद्धयधि दात्रे वोचः' ।। ३७ न्यकुसारिणी यथा-प्र. ३।३६ 'अयमग्निहपतिर्हिपत्यः प्रजाया वसुवित्तमः । अग्ने गृहपतेऽभिद्युम्नमभि सह आयच्छस्व' ॥ ३७ सतो बृ. अ. १२।१०८।१०६।११० 'ऊर्जा नपाज्जातवेदः सुशस्तिभिर्मन्दस्व धीतिभिहितः। त्वे इषः संदधु रिवर्पसश्चित्रोतयो वामजाताः ॥ ३८ इरज्यन्नग्ने प्रथयस्व जातुभिरस्मे रायो अमर्त्य । स दर्शतस्य वपुषो विराजसि पृणक्षि सानसिं ऋतुम् । इष्कर्तारमध्वरस्य प्रचेतसं क्षयन्त राधसो राधसो महः । राति वामस्य सुभगां महीमिषं दधासि सानसिं रयिम्' । ४० चतुष्पदा बृहती यथा—अ. २३।७ 'यद्वातो अपो अगनीगन् प्रियामिन्द्रस्य तन्वम् । एत स्तोतरनेन पथा पुनरश्वमावर्त्त यासि नः' । पिपीलिकमध्या बृहती यथा-अ. १७।६७ 'पृथिव्या अहमुदन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम् । दिवो नाकस्य पृष्ठात्स्वोतिरगामहम्' ।।
बृहती पङ्क्तिर्वा अ. १७।३ 'ऋतव स्थ ऋतावृध ऋतुष्ठा स्थ ऋतावृधः । घृतश्चुतो मधुश्चुतो विराजो नाम कामदुधा अक्षीयमाणाः' । इति बृहत्यधिकारः। __ पङ्क्तिर्यथा अ. ५।३ 'भवन्तं नः समनसौ सचेतसावरेपसौ । मा यज्ञ. हि:सिष्टं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः ॥ ४० अ. ३।५११५२। 'प्रक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रिया अधूषत । अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजा न्विन्द्र ते हरी ।। सुसंदृशन्त्वा वयं मघवन्वंन्दिषीमहि । प्र नूनं पूर्णबन्धुर स्तुतो यासि वशाँ अनु योजा विन्द्र ते हरी' ॥ प्रस्तार पं. अ. ३।६१ 'एतत्ते रुद्रावसं तेन परो मूजवतोऽतीहि । अवततधन्वा पिनाकावसः कृत्तिवासा अहि सन्नः शिवोऽतीहि'। ४० यथा वा-अ ४।२३। 'समख्य देव्या धिया सं दक्षिणयोरुचक्षसा मा म प्रायुः प्रमोषीर्मो अहं तव वीरं विदेय तव देवि संदृशि' । ४० चतुष्पदा विराट् पङ्क्तिर्यथा—प्र. ५१४ 'अग्नावग्निश्चरति प्रविष्ठ ऋषीणां पुत्रो अभिशस्ति पावा। स नः स्योनः सुयजा यजेह देवेभ्यो हव्य सदमप्रयुछन्त्स्वाहा' । विष्टारपङ्क्तिर्यथा अ. १२।१०६ 'अग्ने तव श्रवो वयो महि भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो। बृहद्भानो शवसा वाजमुक्थं दधासि दाशुषे कवे' । ३६ यथा वाअ. १२।१०७।८ 'पावकवर्चाः शुक्रवर्चा अनूनवर्चा उदियर्षि भानुना । पुत्रो मातरा विचरन्नुपावसि पृणक्षि रोदसी उभे ॥ ४१ स्वराट् पङ्क्तिर्यथाअ. १३।२ 'अपां पृष्ठमसि योनिरग्ने: समुद्रमभित: पिन्वमानम् । वर्द्धमानो महाँ मा च पुष्करे दिवो मात्रया वरिम्णा प्रथस्व' ।। ४२ प्रस्तारपं. अ. ८१४३
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१६ ]
वृत्तमुक्तावली . 'इडे रन्ते हव्ये काम्ये चन्द्रे ज्योतेऽदिते मरस्वति महि विश्रुति । एता ते अघ्न्ये नामानि देवेभ्यो मा सुक्रतुं ब्रूतात्' ॥ ४२ चतुष्पदा विराट् पङ्क्तिर्यथाअ. ५।४ 'अग्नावग्निश्चरति प्रविष्ट ऋषीणां पुत्रो अभिशस्तिपावा। स नः स्योनः सु यजा यजेह देवेभ्यो हव्य, सदमप्रयुच्छन्त्स्वाहा' ।। ४४ अनवसाना महापङ्क्तिः । अ. ६।१७ 'इदमापः प्रवहतावद्यं च मलं च यत् । यच्चाभिदुद्रोहानृतं यच्च शेपे अभीरुणम् । आपो मा तस्मादेनसः पवमानश्च मुञ्चतु' ॥ ४४ त्र्यवसाना महापङ्क्तिर्यथा-अ. ३।४३ 'उपहूता इह गाव उपहूता अजावयः । अथो अन्नस्य कीलाल उपहूतो गृहेषु नः । क्षेमाय वः शान्त्यै प्रपद्ये शिव शग्म * शय्योः शय्योः' ॥ महापङ्क्तिर्यथा-अ. ३।१८ इन्धानास्त्वा शत हिमा द्युमन्त” समिधीमहि । वयस्वन्तो वयस्कृत : सहस्वन्तः सहस्कृतम् । 'अग्ने सपत्नदम्भन मदब्धासो अदाभ्यम्' । पङ्क्तिविराड् यथा-अ. १७।७१ 'अग्ने सहस्राक्ष शतमूर्द्धञ्छतं ते प्राणा: सहस्रं व्यानाः । त्व" साहस्रस्य राय ईशिषे तस्मै ते विधेम वाजाय स्वाहा' ॥ इति पङ्क्तयधिकारः .
त्रिष्टुब् यथा—अ. ४।३७ 'या ते धामानि हविषा यजन्ति ताते विश्वा परिभूरस्तु यज्ञम् । गयस्फानः प्रतरणः सुवीरोऽवीरहा प्रचरा सोम दुर्यान्' ।। ४३ उपरिष्टा ज्योतिस्त्रिष्टुब् यथा—अ. १२।१११ 'ऋतावानं महिषं विश्वदर्शतमग्नि" सुम्नाय दधिरे पुरो जनाः । श्रुतकर्ण सप्रथस्तमं त्वा गिरा दैव्यं मानुषा युगा' ॥ ४२ विराट् त्रिष्टुब् यथा-अ. २।२२ 'सं बहिरङ क्ता हविषा घृतेन समादित्यैर्वसुभिः संमरुद्भिः । समिन्द्रो विश्वेदेवेभिरङक्तां दिव्यं नभो गच्छतु यत्स्वाहा' । ४२ पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुब् यथा—अ. १७।७४ 'ता" सवितुर्वरेण्यस्य चित्रामाहं वृणे सुमतिं विश्वजन्याम् । यामस्य कण्वो अदुहत्प्रपीना
सहस्रधारां पयसा महीं गाम्' ।। ४३ शुद्धत्रिष्टुब् यथा-अ. २२।२ 'इमामगभ्णन् रशनामृतस्य पूर्व आयुषि विदथेषु कव्या । सा नो अस्मिन्त्सुत आ बभूव ऋतस्य सामन्त्सरमारपन्ती ।। सावित्री त्रिष्टुब् यथा-अ. ८।६ 'वाममद्य सवितर्वाममु श्वो दिवे दिवे वाममस्ममभ्य सावीः । वामस्य हि क्षयस्व देव भूरेरया धिया वाभभाज: स्याम' ।। यवमध्या त्रिष्टुब् यथा- अ. १६।५१ 'मीढुष्टम शिवतम शिवो नः सुमना भव । परमे वृक्ष प्रायुधं निधाय कृत्ति वसान आ चर पिनाकं बिभ्रदागहि' ॥ इति त्रिष्टुब् जगती यथा-अ. ४।३५ 'नमो मित्रस्य वरुणस्य चक्षसे महो देवाय तदृत सपर्यत । दूरदृशे देवजाताय केतवे दिवस्पुत्राय सूर्याय श सत' ।। ४७ यथा वा-अ. ४।१२ 'श्वात्राः पीता भवत यूयमापो अस्माकमन्तरुदरे सुशेवाः ता अस्मभ्यमयक्ष्मा अनमीवा अनागस: स्वदन्तु देवीरमृता ऋतावृधः' । जगती त्रिष्टुब् यथा-- 'उपज्मनु पवेतसे वतर नदीष्वा । अग्ने
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वृत्तमुक्तावली
[ १७ पित्तमफामसि मण्डूकिताभिरागाहसे सन्नो यज्ञ पावकवर्णं शिवं कृधि ।' इति जगत्यधिकारः। ___ इति पादनियतगायत्र्यादिच्छन्दसामुदाहरणानि कात्यायनोक्तसर्वानुक्रमणिकानुसारेणोक्तानि ।
उत्कृतिश्चतुरधिकशताक्षरा सा यथा—अ. १४।१५ कण्डिकायाम्-'नभश्च नभस्यश्च वार्षिकावृतू अग्नेरन्तः श्लेषोऽसि कल्पेतां द्यावापृथिवी कल्पन्तामाप प्रोषधयः कल्पन्तामग्नयः पृथङ मम ज्यैष्ठ्याय सव्रताः । ये अग्नयः समनसो ऽन्तरा द्यावापृथिवी इमे । वार्षिकावृतू अभिकल्पमाना इन्द्रमिव देवा अभिसंविशन्तु तया देवतयाङ्गिरस्वद् ध्रुवे सीदतम्' । १०४
एवं शताक्षरा अतिकृतिः षण्णवत्यक्षरा संस्कृतिश्च ज्ञातव्या । द्विनवत्यक्षरा विकृति: सा यथा-अ. १४।१२ कण्डिका.-'विश्वकर्मा त्वा सादयत्वन्तरिक्षस्य पृष्ठे व्यचस्वतीं प्रथस्वतीमन्तरिक्षं यच्छान्तरिक्षं द हान्तरिक्षं मा हि सीः । विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानायोदानाय प्रतिष्ठायै चरित्राय । वायुष्ट्वाभिपातु मह्या स्वस्त्या छर्दिषा शन्तमेनतया देवतयाङ्गिरस्वद् ध्रुवासीद' ॥ ६२ एवमष्टाशीत्यक्षरा प्राकृतिर्बोध्या। चतुरशीत्यक्षरा प्रकृतिर्यथा-अ. ५७ कण्डिका 'पशुर शुष्टे देव सोमाप्यायतामिन्द्रायैकधनविदे। आ तुभ्यमिन्द्रः प्यायतामा त्वमिन्द्राय प्यायस्व । आप्याययास्मान्त्सखीन्त्सन्या मेधया स्वस्ति ते देव सोम सुत्यामशीय । एष्टा रायः प्रेषे भगाय ऋतमृतवादिभ्यो नमो द्यावापृथिवी. भ्याम्' ।। ८४ ॥ अशीत्यक्षराकृति: मा यथा-अ. १२।४ कण्डिका-'सुपर्णोसि गरुत्माँस्त्रिवृत्त शिरो गायत्रं चक्षुबृहद्रथन्तरे पक्षौ । स्तोम आत्मा छन्दांस्यङ्गानि यजूंषि नाम । साम ते तनूमिदेव्यं यज्ञायज्ञियं पुच्छं धिष्ण्याः शफाः । सुपर्णोऽसि गरुत्मान्दिवं गच्छ स्वः पत' ।। ८०
एवं षट्सप्तत्यक्षरा अतिधृतिद्विसप्तत्यक्षरा धृतिश्च विशेषतो ज्ञया । अष्टषष्टयक्षरा अत्यष्टिर्यथा-अ. ८।५३ कण्डिका-'युवं तमिन्द्रापर्वता पुरोयुधा यो नः पृतन्यादप तन्तमिद्धतं वज्रेण तन्तमिद्धतम् । दूरे चत्ताय छन्त्सद्गहनं यदिनक्षत् । अस्माकं शत्रून् परि शूर विश्वतो दा दर्षीष्ट विश्वतः' ।। ६८ चतुः षष्टयक्षरा अष्टिः सा यथा-अ. १६६४८ कण्डिका-'इद" हविः प्रजननं मे अस्तु दशवीरं सर्वगण स्वस्तये । आत्मसनि प्रजासनि पशुसनि लोकसन्यभयसनि । अग्निः प्रजां बहुलां मे करोत्वन्नं पयो रेतो अस्मासु धत्त'। ८४ षष्टयक्षरा अतिशक्वरी सा यथा-अ. ३८।१७ कण्डिकायाम्-'अभीमं महिमा दिवं विप्रो बभूव सप्रथाः । उत श्रवसा पृथिवी स सीदस्व महा असि रोचस्व देववीतमः । वि धूममग्ने अरुषम्मियेद्ध्य सृज प्रशस्त दर्शतम्' । ६० शक्वरी
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१८]
वृत्तमुक्तावली
षट्पञ्चाशदक्षरा यथा - प्र. ३४।५१ कण्डिका- 'न तद्रक्षांसि न पिशाचास्तरन्ति देवानामोजः प्रथमज ह्येतत् । यो बिर्भात दाक्षायणं हिरण्य स देवेषु कृणुते दीर्घमायुः स मनुष्येषु कृणुते दीर्घमायुः' । ५६ 'एवमतिजगती द्विपञ्चाशदक्षरा सा यथा--अ. ९।५ कण्डिकायाम् । 'वाजस्य नु प्रसवे मातरं महीमदिति नाम वचसा करामहे । यस्यामिदं विश्वं भुवनमाविवेश तस्यां नो देवः सविता धर्मसाविषत्' ।। ५८ एवमष्टचत्वारिंशदक्षरा जगती सा यथा - अ. हा 'जवो यस्ते वाजिन्निहितो गुहा यः श्येने परीतो अचरच्च वाते । तेन नो वाजिन् बलवान् बलेन वाजजिच्च भव समने च पारयिष्णुः ' ॥ ४८
"
इहानुक्तान्युदाहरणानि सर्वानुक्रमण्यादी विशिष्य परीक्षणीयानि । इति वैदिक च्छन्दसामुदाहरणानि संक्षेपतः प्रदर्शितानि ॥
इति श्रीवृत्तमुक्तावल्यां श्रीकृष्णकविप्रकाशितायां वेदच्छन्दः प्रकरणं नाम प्रथमो गुम्फः ।।
श्रथ द्वितीयो गुम्फः
अमन्दस्वानन्दप्रकरमकरन्दद्रवभृतं नखालीकिञ्जल्कद्युतिललित रक्तांगुलिदलम् । सदा विद्वच्चेतो मधुपसुखहेतोर्विकसितं भजे भूयः शम्भोश्चरणयुगमम्भोजसुभगम् ॥ १॥ न्दे पिंगलनागमुद्भवति यः स्वच्छन्दधीश्छन्दसामाचार्यत्वमुपेत्य पूरितकलावर्णप्रसारार्णवः । अत्तुं यो विधृतः स्वजातिविदुषा तार्येण तस्मै पुनः स्वां विद्यां प्रतिबोधयन्न तिजवः सिन्धोस्तटान्तं ययौ ॥ २ ॥ अस्ति प्रत्यर्थिपृथ्वीपरिवृढवनिताने त्रनीराब्धिनियंकोर्तिश्री पूर्णचन्द्रद्युतिदलितनभोभूतलध्वान्तजालः । प्रातन्वानः प्रतापावलिमनभिमतक्षोणिसीमान्तभीमां श्रीमान् राजाधिराजः सततमखगणप्रीतगीर्वाणराजः ।। ३ ।। जागति ज्वलदुज्ज्वलोज्ज्वलवलज्ज्वालावलीताण्डव
प्रक्षीणप्रतिपक्षपत्तनपुरग्रामाच्छधामालयः ।
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[ १६
वृत्तमुक्तावली आशाकुज्जरकर्णतालबहलोद्भूतप्रचण्डानिलप्राप्तप्राज्यजवो जगत्यभिनवो यस्य प्रतापानलः ॥ ४ ॥ जातोज्जागर जेजिया'भिधकरस्तोमात्तभूमीरसप्रस्फूर्जद्यवनेन्द्रभास्वति कलिग्रीष्मेऽतिभीष्मे नृणाम् । भाग्यैर्यः प्रविराजतां प्रमुदितोऽजस्रं सहस्रं समाः सद्यः स्वोदयसंहृताऽखिलविपत्पीयूषपाथोधरः ॥ ५ ॥ मान्धाता सगरो भगीरथ इति ख्याता धरारक्षिणस्तैः पूर्वं कृतवाजिमेधमुखसद्यज्ञैर्यदेवार्जितम् । तद्धर्मामृतमिन्दुसुन्दरयशोवृन्दान्वितं संप्रति प्राज्ञानां सुखहेतवे वितनुते राजाधिराजः स्वयम् ।। ६ ॥ अत्यर्थं हयमेधमुख्यविलसद्यज्ञावलोकारिणो ये पूर्वं युवनाश्ववैण्यसगराद्याः संबभूवुर्नृपाः । तेषां कीर्तिरभूच्चिरेण भुवने सर्वत्र जीर्णेव या तामेतां सुनवीकरोति स भवान् राजाधिराजो नृपः ।। ७ ।। भूभृन्मौलिकिरीटलालितपदाम्भोजद्वयस्य प्रभोस्तस्यातिप्रसृतप्रसादपरमप्रेमप्रमोदस्पृशा। अत्यर्थं कवितोन्मुखेन मनसा नित्यं प्रयुक्तः कविः श्रीकृष्णः कुरुते रसज्ञसुखदां सद्वृत्तमुक्तावलीम् ॥ ८ ॥
अथ निखिलच्छन्दोगणघटकप्रथिताष्टगणगतये । गुरुलघुलक्षणमादौ कथयामि समस्तसंमतिं ज्ञात्वा ।। ६ ।। दीर्घः संयुक्तपरो बिन्दुविसर्गान्वितश्चापि ।
स गुरुरनृजुद्धिमात्रः, शुद्धककलो लघुर्भवत्यन्यः ॥ १० ॥ उदाहरणानि
आली भूषितवेषा शैशवशेषा मनोजमोदमयी । शोभासौरभसीमा दृष्टवती मामियं रहसि ॥ ११ ॥ स्फूर्जत्पर्जन्यगर्जद्विगुणगिरिगुहागर्भनिर्यत्सगर्वप्रोद्यत्पारीन्द्रवर्यप्रकलितपरमध्वानधिक्कारधुर्याः ।
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२० ]
वृत्तमुक्तावली कल्पान्तरसारस्वतविपुलवलल्लोलकल्लोलसंघर्षोद्घानुद्घाटयन्तो रघुधरणिपतेः सैन्यनिःसाननादाः ॥ १२ ॥ अञ्जनरञ्जनमञ्जुनि खजनतनुखञ्जताकरणे । गजितकञ्जवने तव नयने मम मानसं लग्नम् ॥ १३ ॥ रूपपराजितकामः कामतरु: कोपि याचकजनस्य । स जयति भृशमभिराम: श्रीरघुरामः सतां मनसि ।। १४ ।। लसदपघनरुचिजितनवजलधर, निजजननिवहभजनभवबलधर । क्षितिभरहरण नरकमधुमुरहर, जय जय कमलनयन नतपुरहर॥ १५॥ पादान्तस्थो लघुरपि वर्णः कुत्रापि भजति गुरुभावम् । अथ संयुक्तपरोऽपि क्वापि बिभोष लघुभावम् ॥ १६ ॥
यथा
नन्दकुमार नमस्ते वितर समस्तेश दर्शनं मह्यम् । हन्त न कि हरिदश्वः श्वपाकभवनं प्रकाशयति ? १७ ॥ सन्ततगभीरभवह्रदसुखदुःखतरंगमालयाऽऽकुलितः । स्वस्थहृदयः कदा स्यां कृष्ण त्वच्चरणतरणिमधिरुह्य ॥ १८ ॥
अथाष्टगणा:म-य-र-स-त-ज-भ-न-नाम्नामष्टानां छान्दसगणानाम् । भूजलपावककालव्योमार्कनिशाकराहयो देवाः । १६ मस्त्रिगुरुर्नस्त्रिलघुर्यरता लघ्वादिमध्यान्ताः । सद्भिस्तथैव बोध्या भ-ज-सा गुर्वादिमध्यान्ताः ॥ २० ॥ इह गुरुवर्णत्रितयप्रस्तारे संभवन्त्यष्टौ। मयरसतजभनसंज्ञो गणाः क्रमाच्छन्दसां घटकाः ॥ २१ ॥ मगणनगणौ सखायौ, भृत्यौ जानीत भगणयगणौ । तगणजगणावुदासौ ततोऽवशिष्टावुभौ रिपू भवतः ॥ २२ ।। स्यावृद्धि: स्थिरकार्यता मगणतो, दद्याद्य कारः सुखं . संपत्ती, मरणं करोति रगणस्तापं जकांराह्वयः । तोऽन्तःशून्यफलस्तनोति विषयोद्वासं, सकारः शुभं दत्ते, भो नगणाद्भवन्ति विजय-श्री-बुद्धि-वृद्ध यादयः ।। २३ ॥
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वृत्तमुक्तावली अथ द्विगणविचार:
मित्रान्मित्रं सुखानि प्रकटयति ततो राति भृत्यः स्थिरत्वं कार्गे युद्धे जयं च प्रथयति बहुधा कार्यबन्धानुदासः । मित्राच्छत्रुश्च गोत्रस्वजनरुजमथो भृत्यतो मित्रभृत्यौ कल्याणायैव वित्तक्षयरिपुभयदावप्युदासीनशत्रू ॥ २४ ॥ अत्रोदासीनमित्रे किमपि कलयतः कार्यविघ्नं पुरस्ताद्भव्यायोदासभृत्यौ न हि शुभमशुभं चापि चेवावुदासौ । कृत्वोदासीनशत्रू जनयति रिपुतां गोत्रजेऽप्येवमुच्चैः शत्रोश्चेन्मित्रभृत्यानुभयरिपुगणाः श्रेयसे नैव ते स्युः ॥ २५ ॥
अथ छन्दोनिरूपणम्मात्रा-वर्णविभेदेन वृत्तद्वैविध्यमीरितम् । तत्र संख्यातमात्राणि वृत्तान्यादौ प्रचक्ष्महे ।। २६ ॥
तत्रादौ गाथाप्रभेदाः जानीत गाथिका-गाथा-विगाथोद्गाथिकायुताः । गाथिनी सिंहिनी स्कन्धेत्यार्याः सप्तव कोविदाः !! ।। २७ ।। भवति चतुःपञ्चाशन्मात्राभिर्गाथिका नाम । गाथा तद्द्वयधिकाभिस्तविपरीता विगाथा स्यात् ।। २८ ॥ उद्गाथा षष्टिकला द्वाषष्टिकला च गाथिनी ज्ञेया।
तद्विपरीता सिंही भजति स्कन्धा कलाश्चतुःषष्टिम् ॥ २६ ॥ अथ गाथिकालक्षणम् -
यस्यामुभयोर्दलयोः सप्ताधिकविंशतिर्मात्राः ।
प्रत्येक विधृताः स्युर्गेया सा गाथिका नाम ॥ ३० ॥ सा सर्वगुरुर्यथा -
श्रीरामाज्रिध्यानप्रोद्भूताऽशेषकल्याणः ।।
धर्माध्वत्राताऽद्य श्रीमान् राजाधिराजोऽयम् ॥ ३१ ।। सर्वलघुर्यथा -
विषमसमरजयपटुतर लसदसिपरिकलितपृथुभुजबल ।
कमठकुलकलशनरवर जय जय नयनिलय जितपरबल ॥ ३२ ।। अथ गाथालक्षणम् -
पूर्वार्द्ध त्रिंशत् स्युः परतोऽपि च सप्तविंशतिर्मात्राः । तहि भवेत् सा गाथा तद्विपरीता विगाथा स्यात् ॥ ३३ ।।
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वृत्तमुक्तावली
२२ ] सापि सर्वगुरुर्यथा
लोकालोकालोकी लोके लोके विलोकितालोकः ।
पायात् सायं प्रातर्मध्याह्नाद्भावितो भानुः ॥ ३४ ॥ सर्वलघुर्यथा
धरणिधरधरणभुजवर परिसरपरिलसितवलयसुरुचिरतर ।
प्रकटितरसमयविलसित भवजलनिधिमधुरविधुरुदयसि ॥ ३५ ॥ अथ विगाथाच्छन्दः । सर्वगुरुर्यथा
गोपीनेत्राम्भोजस्वच्छन्दानन्दसंदोहः ।
कल्याणं ते कुर्यात् कृष्णः कंसादिवैरिविध्वंसी ॥ ३६ ॥ सर्वलघुर्यथा
समुदितरसभरजलधर तडिदुपमितवसनरुचिसुरुचि ।
जय जय मधुमुरहर पुरहरपरिकलित दलितभवभवभय ॥ ३७ ॥ प्रथोद्गाथाछन्द:
यस्यामुभयोर्दलयोस्त्रिशन्मात्राः क्रमेण विधृताः स्युः ।
उद्गाथा सा ज्ञेया भुजङ्गनाथाऽऽननाननोद्गीता ॥ ३८ ॥ उदाहरणम्
लक्ष्मीनेत्रानन्दी मन्दीभूताखिलाघसंदोहः । श्रीगोपालः पायात् संसारायासराशिविध्वंसी ॥ ३६ ।। वजयुवतिनयनसुखकर मुखरुचिभरविजितसकलकलहिमकर ।
निजजननिवहमहिमकर जय जय रसभरितचरितसमुदयधर ॥ ४० ॥ प्रथ गाथिनी-सिहिनी लक्षणम्
पूर्वार्द्ध त्रिशत्स्युर्द्वात्रिंशत्स्युस्तथोत्तरार्द्धगताः ।
सा गाथिनीति बोध्या, तद्विपरीता नु खलु सिंहिनी भवति ॥ ४१ ॥ द्वयं यथा गाथिनी
राधाबाधाहारी भक्ताऽगाधातिहृत्कृपाऽऽधारः । - शोभापारावारः केलीकारः करोतु कामं कृष्णः ॥ ४२
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वृत्तमुक्तावली
[ २३ दुरितभरहरणपटुतर भवभवभयभरितशरण गतिशुभकर।
सुरनरनिकरदुरधिगमसुरुचिरतरचरितभरित जय जय मुरहर॥४३॥ अथ सिहिनी
नारीचेतोहारी तेजोधारो ललामलोलाकारी। दत्तां शं कंसारी रासविहारी कृपाकरः कृष्णः ॥ ४४ ।। कलिकलितकलुषविदलनमगणितगुणभरितचरितचयचतुरिम ।
मह इह महय हृदय मम निरुपमतमममितममृतघनमधुरिम ॥ ४५ ॥ अथ स्कन्धकच्छन्दोलक्षणम्
यत्र चतुर्मात्राकाः प्रसरन्त्यष्टौ गणाः सदा रमणीयाः ।
उभयोरपि दलयोस्तत् स्कन्धाख्यं वृत्तमद्भुतं वित्त ॥ ४६॥ अथोदाहरणे
राका राधाकारा राकाकारा रराज रासे राधा । अन्या गोभृत्कन्यास्तारा मन्यामहे सुधन्यं मन्याः ॥ ४७ ।। अतुलितभुजबलजलनिधिलहरितनिजबलगतुरगतरलितपरबल । गुणगणधवलिमधवलित निजजनमतिरमण जयसि रघुकुलपरिवृढ।।४८ इति सर्वगुरुप्रमुखा भेदाः प्रसरन्ति सर्वलघुमुख्याः । सर्वेषां वृत्तानां विज्ञेयाः कोविदः कविभिः ॥ ४६ ।।
अत्रेदं बोध्यम्- एतेषु गाथाप्रभेदेषु चतुष्कलानां गणानां मध्ये षष्ठो गणस्तावज्जगण एव भवति चतुर्लघ्वात्मको वा भवतीति प्राचीननियमानुसारेण सर्वगुरुप्रभेदेषु लघुद्वयसत्त्वेऽपि न विरोधः, तथैव लक्षणनियमात् । इत्यास्तां तावत्।
इति वृत्तमुक्तावल्यां गाथाप्रकरणम्
त्र्यधिका' दश विरचय कला, मुहुरेकादशधाम ।
इति दलयुगलयुतं कलय, वृत्तं द्विपथा नाम ॥ १ ॥ यथा
सनकादिकमुनिदुरधिगमपरमानन्दनिधान ।
पाहि पाहि सीतापते कृतभीताऽभयदान ।। २ ॥ १. त्रयोदश। २. 'दोहा' हिन्दी छन्दः प्रभाकरः ।
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२४ ]
वृत्तमुक्तावली अथ रसिकच्छन्दः
कुरु शिवमितलघुललितमधिकविमलमतिकलित । षडुदितसुखकरचरणमुपचिनु चतुरिमशरण ।
तदिह रसिकमिति जयति फणिपतिविधुमुखमयति ॥ ३ ॥ उदाहरणम्
विधिभवनुतगुणसदन । तनुरुचिलवजितमदन ॥ कलितदनुजबलकदन । निरुपममधुरिमवदन ।।
निखिलनिगमगणगदन । जय मधुवनकृतनदन ।। ४ ।। अथ रोलावृत्तम्
सचतुर्विंशतिकलिकं यस्य चरणमभिरामम् । द्वे लघुनी खलु नियते भवतो यत्र निकामम् । द्वादशकलिकोपरि पुनरुदयति यत्र विरामः। तत्किल रोलावृत्तं किमपि वयं कलयामः ।। ५ ॥
इह केचिदेकादश्यां कलायां विरतिमिच्छन्ति, तन्न । काव्यभेदादभेदापत्तेः । वस्तुतस्तु द्वादश्यां कलायां यतिरिहैष्टव्या। यथा
विषयविषाकुलसंतत तापहुताशनिकेते । लोभमोहमदमत्सरबहुविधवीचिसमेते । भवजलधाविह सज्जन मा कुरु मज्जनमेते ।
हरिचरणामलतरणी शरणीकरणीये ते ॥ ६ ।। अथ गन्धानकच्छन्दः
दशसप्तवर्णविरचितशुभचरणकलितम् पुनरष्टादशवर्णकृतचरणमतिललितम् । ईदृशं विरच्य दलयुगलमखिलमद्भुतम् गन्धानकमिति वृत्तमुदाहर मोदसुसंयुतम् ।। ७ ॥
यथा
मुखचन्द्रकान्तिकलितगृहा तिमिरहरणा लसदम्भोरुहनयना मृदुगतियुतचरणा ।
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द्वितीयो गुम्फः
[ २५ मन्दहाससौरभ भरप्रफुल्लनवमल्लिका ।
भातितरामबलेयमनेकवधूषु मतल्लिका ।। ८ ।। अथ चतुष्पदो'
या भवति चतुः कलतापरिपुष्कलगणसप्तकसुनिरुक्ता पुनरन्तविराजितपरमसभाजितविलसदेकगुरुयुक्ता ॥ त्रिंशत्कलपीना जगणविहीना विषमे भृशमभिरामा
सा जयति चतुष्पदिका कविसंसदि दिग्वसुरविसविरामा ।। ६ ॥ यथा-विधिशिवसुरनायकहृत्सुखदायककुशलविधायकनामा
परमप्रियराधामनसिजबाधाहरनवजलधरधामा । गुणगणविस्तारणपटुतरचारणजनसाधारणसामा।
स जयति निश्छद्मा मधुवनसद्मा यदुरसि पद्मा रामा ।। १० ।। अथ धत्ता
दशकलगणयुक्तं नदतु निरुक्तं वसुकलगणयुतमानयत ।
सत्रिकलं दशकलमुक्तासुविमलधत्तावृत्तं मानयत ।। ११ ।। इदं वृत्तं द्विपदमेव भवतीति संप्रदाय:यथा-सज्जनगणरञ्जन परमनिरञ्जन खलकुलगञ्जन चतुरतर ।
लोचनजितखञ्जन भवभयभञ्जन जय शुभसञ्जन कंसहर ।। १२ ।। अथ धत्तानन्दः
रुद्रकलागणयुक्तमथ सुनिरुक्तसप्तकलाकलितं कलय ।
त्र्यधिककलादशकेन सहितततेन धत्तानन्दं हृदि वलय ॥ १३ ॥ यथा-दानवदारण देव दुर्लभसेव कृतभवसागरसंतरण ।
जय जय भशमभिराम रघुवर राम सकलभक्तकामदचरण ॥१४॥ प्रथ षट्पदप्रकरणम् पूर्वं 'काव्यं' नामच्छन्द:
यस्य चरणे चतुर्विंशतिमात्राः, स्तास्वादौ एकादश द्विपथालक्षणाक्रान्ताः, चतुर्दशी कला लघुरेव । तदनन्तरं द्वौ चतुष्कलौ, तयोराद्यो जगणभिन्नः एकः, तदुत्तरं च द्वे कले मिश्रिते विशकलिते वा, तत्काव्यं' नाम छन्दः । चतुर्दश्यां कलायां यतिरपि कार्या, तदभावे तु 'चपला' काव्यं भवति । यथा-जय जय नन्दकुमार कमललोचन हृतशोचन __ जय जय दानवनिवहदलन भवतापविमोचन । १. 'चवपैया' छन्द:प्रभाकरः । २. 'रोला' (छन्द:प्रभाकरे)।
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२६ ]
वृत्तमुक्तावल्याम् जय सेवकजनशरणचरण निश्चलकरुणाकर केशव मामिह पाहि वदनरुचिविजितसुधाकर ।। १५ ॥ लसदपारकरुणाविसारपरिगलदसारभव गोपदारगोकुलविहारधृतवेणुताररव ॥ दलितमारशतरूपसार माधुर्यभारधर
निर्विकारनरकृतविचार जय सदवतारकर ॥ १६ ॥ अथोल्लाललक्षणम्
'यस्य चरणे चतुष्कलत्रयं तथैकस्त्रिकलः, एवं पञ्चदशकला [विषमे] विधाय, षट्कल-चतुष्कल-त्रिकलात्मकः (त्रयोदशकलात्मकः) विषमचरणः' कार्यः । एवं दलद्वये कृते उल्लालाख्यं वृत्तं भवति । यथा-जय जानकीश जगदेकहित जन्मजराजनिदुःखहर ।
जय मन्दहसितसुखकन्दमुख जय जय रघुकुलकेलिकर ॥ १७ ॥ काव्यवृत्तं तथोल्लालवृत्तमिति वृत्तद्वयात्कं षट्पदवृत्तम्यथा-जय विबुधेशमहेशशेषवागीशकृतस्तव
जय निजजनसुखकरण तरुणकरुणैकसमुद्भव । जय वचनामृतदलितकलुषकलिकालमहादव मायामतपाखण्डखण्डखण्डनसुमहाजव । जय देव वल्लभाधीश जय जय सज्जनसेवितचरण । जय चारुचरितविरचनचतुर साकारश्रुतिमतधरण ॥ १८ ।।
यथा वा
अतिललामरमणीयधामनिर्दलितकाममद विगतकामभजनीयनाम मुखकलितकामपद । सकलयाममोहितसकामगोपीनिकामसुख
रत्नदामधर सदभिरामतामरसवाममुख । उद्दामदितिजसंग्राम जय सदायाम कामदचरण । जय चण्डधामसमधाम जय घनश्याम सज्जनशरण ॥ १६
१. समः (द्वितीयः, चतुर्थः) इति युज्यते
२. छप्पय (छन्दःप्रभाकरे)
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द्वितीयो गुम्फः
. [ २७ अथ प्रज्झटिकाच्छन्दः
यस्य पादेषु चत्वारश्चतुष्कला अनियता:, किन्त्वाद्यो जगणभिन्नः, ततोऽन्त्यो जगण एवेति तत्प्रज्झटिकम् । यथा-अभिराम कामशतरूपवाम खलकुलविराम कृतभक्त काम ।
धृतरत्नदाम लोचनललाम निजदिव्यधाम मयि धेहि राम ॥२० ।। अथारिल्लम्____ यस्य चरणे जगणभिन्ना द्विलध्वन्ताश्चत्वारश्चतुष्कला भवन्ति, तदरिल्लमिति लक्षयन्ति । उदाहरणेषु पुनः सगणचतुष्टयोत्तरं द्वे लघुनी इत्येव दृश्यते । यथा-बलधारण वारणमानविदारण । भवकारण दानववंशनिवारण ।
मुखचन्द्रसुधाकृतलोचनपारण। जय कृष्ण कृपाकर सेवकतारण ।।२१।। अथ पादाकुलकम्
इदमेव (अरि०) अन्त्येन गुरुणा षोडशकलचरणं पादाकुलकम् । यथा-वदनसुधाकरमधुरिमसदनम् । निजतनुरूपपराजितमदनम् ।
भूभरहृतये रिपुकुलकदनम् । प्रणमत मङ्गलनामनिगदनम् ।।२२।। अथ पद्मावतीच्छन्दः
यस्याश्चरणे अन्तगुर्वन्ताश्चतुष्कला अष्टौ गणाः सा पद्मावती । चरणकला द्वात्रिंशत् । अस्यां विषमस्थाने जगणं वर्जयन्ति । दशकलोऽष्ट कलश्चतुर्दशकलश्चेति वर्गत्रयेण कलानां विन्यासः कार्यः । वर्गान्त्यकलाया. पराऽमिश्रितत्वमात्रं विवक्षितं, न तु पादान्तपातित्वमिति तत्त्वम् । यथा-गोपालसखायं गोकुलरायं हृतमायं जलधरकायम्
निजभक्तसहायं दलितापायं सुखदायं विपदवसायम् ।। मधुविपिननिकायं मधुरच्छायं कलितायं मुरलीगायम्
तं कलय सदा यं ध्यायं ध्यायं पतति (ज)रामापदि नायम् ॥ २३ ॥ यथा वा
व्रजभूनवनागर मधुरिमसागर लसदुज्जागरमहिमानम्
जनमोदविधायक मङ्गलदायक हतसुरनायकमदमानम् ।। १. पद्धरि (छन्दःप्रभाकरे)
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२८ ]
वृत्तमुक्तावल्याम् गोवर्द्धनधारक भवसन्तारक निवंतिकारकगुणगानम् ।
प्रणमामि सुधादनमानसमादनमुरलीवादनसुविधानम् ।। २४ ।। अथ कुण्डलिका
द्विपथावृत्तं काव्यवृत्तं चेति वृत्तद्वयात्मकं कुण्डलिकाच्छन्दः । द्विपथान्ते काव्यादौ, काव्यान्ते द्विपथादौ च लाटानुप्रासो नियमेन कार्य इति संप्रदायः । उक्तञ्च जयगोविन्दवाजपेयिभिः ।।
'यमकादिरलंकारो न वृत्ताङ्ग तथापि तत् ।
विशेषणीकृतं लक्ष्यप्रयोगनियमात्तथा' । यथा- वृन्दाविपिने वन्दिता वृन्दारकनिकरेण ।
राजति कापि कलिन्दजा तरलतरङ्ग भरेण । तरलतरङ्ग भरेण भरितभूमीतलशोभा निरवधिनिजलावण्यकलितलोचनयुगलोभा ॥ उन्मीलितकमलौघमिलितमदलुलितमिलिन्दा
मञ्जुलतरजलकेलिवशितगोपीजनवृन्दा ॥ २५ ॥ अथ गगनाङ्गम्'
यस्य चरणः पञ्चविंशत्या कलाभिः, विंशत्याऽक्षरै पूर्यते, किन्त्वादौ एकश्चतुष्कलोऽन्ते च गुरुनियतस्तद् गगनाङ्गं नाम छन्द: । केचिद् द्वादशभिर्यतिमिच्छन्ति। तद्यथा-आननसुरुचिविताननसरसिजकाननशोचना
खञ्जनचतुरिमगञ्जनसुहृदनुरञ्जनलोचना । नन्दतनयहृदसन्दसकलसुखकन्द गुणाधिका
रासधरणिनवलासवसतिरिह सा सखि राधिका ॥२६ ।। अथ द्विपदीच्छन्द:__यस्या अर्द्ध षोडशकल: ततो द्वादशकलो गणः, गणयोरन्ते यतिश्च, तद्विपदम् । यथा-दानवगञ्जन मुनिजनरञ्जन भयभञ्जनगुणभरिते।
त्वयि मम वन्दनमिह रघुनन्दन जगदानन्दनचरिते ।। २७ ।। अथ खञ्जा- . ___ यस्या अर्द्ध एकचत्वारिंशत्कलाः, षट्त्रिंशता लघुभिः शेषे रगणेन संपन्नाः सा खञ्जा। १. गगनाङ्गना, (छन्दःप्रभाकरे)।
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द्वितीयो गुम्फ
यथा-मलत रकमल मुख- यमलतरुश मलहरलसितसित हसितदलितहिम किरणनामदम् । भजत करकलितरसचलितमृदुचलितरवललितसुखफलितगलितगतिमुरलिकानदम् ।। २८ ।।
-
श्रथ शिखा
यस्याः पूर्वार्द्ध चतुर्विंशतिर्लघवस्ततो जगणः, उत्तरार्द्धेऽष्टाविंशतिर्लधवस्ततो जगणः सा शिखा ।
[ २६
यथा-मदनमदकदन सुखसदन निजवदनरुचिविलसितनिकुञ्ज |
अमृतभरभरणकर सुखदतरसलिलधर जय जय मधुरगुणपुञ्ज || २६ ।।
अथ माला
यस्याः पूर्वार्द्ध षट्त्रिंशल्लघवस्ततो रगणस्ततो गुरुद्वयम् । उत्तरार्द्धन्तु गाथोत्तरार्द्धमेव सा माला ।
तव गिरिधरण विषमविरहजरुजि किमपि वधिक इह कलयति रतिपतिरतिशयवेदनाभारम् । तदुपरि शशी विधत्ते ज्वरमुज्ज्वलचन्द्रिकाकारम् || ३० ॥
अथ चुलियाला
द्विपथोपरि सुखकारणं गणं पञ्चकलमेकमिहाऽऽनय । तञ्च्चुलियालावृत्तमिति दलयुगले सविवेक वितानय ।। ३१ ।।
यथा-वृन्दावनघनकुञ्जगृहकलित केलिकमनीयकलाधर ।
जय जय सुन्दररसिकवर विकचकञ्जरमणीयकुलाधर ।। ३२ ।। अथ सौराष्ट्रम् -
द्विपथावृत्तमशेषमुच्चर कृतविपरीतगति ।
मानय वृत्तविशेषमिह सौराष्ट्रमुदारयति ॥ ३३॥ थथा - मोहित गोकुलदार निगमसार सुन्दरचरित ।
जय जय नन्दकुमार नित्यमलौकिकगुणभरित ॥ ३४ ॥ अथ हाकलिवृत्तम् —
कलय चतुर्दशकलकलितं हाकलिवृत्तमिदं ललितम् । सगणभगणलघुवर्णमितं विलसदेकगुरुयुतममितम् ।। ३५ ।।
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३०
वृत्तमुक्तावल्याम् यथा-पानननिर्जितचन्द्रकला लोचनलज्जितकञ्जदला।
केलिविवद्धितकामबला जयसि सदा कृतदृष्टिबला ॥ ३६ ।। अथ मधुभारवृत्तम्
मुखजगणसारवसुकलमुदार ।
मधुभारवृत्तमानय सुवृत्त ।। ३७ ॥ . यथा-अयि नन्दबाल करुणकपाल ।
मयि धेहि देव निजभक्तिमेव ।। ३८ ॥ यथा वा
हरकण्ठवाममणिवर्यदाम ।
तव नाम राम मम चित्तधाम ।। ३६ ।। अथ दीपकच्छन्दः
यस्य चरणे आदी जगण भिन्नश्चतुष्कलः, ततो नगणस्ततो गुरुर्लघुश्चेति तद्दीपकम् । यथा-शमलं दलय नाम कुशलं कलय राम ।
भवदन्यमिह यामि शरणं न कलयामि ।। ४० ।। यथा वा
तिमिराणि दलयन्ति हृदयानि ललयन्ति ।
रघूनाथचरितानि निजभव्यभरितानि ।। ४१॥ अथाभीरकच्छन्दः
रुद्रकलामयसार - चरणचतुष्कमुदार ।
सुन्दरमिदमाभीर - वृत्तमुदितमतिधीर ।। ४२ ।। यथा-मोहितगोकुलदार पङ्कजदलसुकुमार ।
दूरीकृतभयभार जय जय नन्दकुमार ॥ ४३ ॥ अथ दण्डकलच्छन्दः
यस्य चरणे चत्वारश्चतुष्कलाः, ततःषट्कलः, ततश्चतुष्कलौ गणौ ततो गुरुः, इत्येवं क्रमः स दण्डकलो नाम । चरणकलाः ३२ । यथा-उन्मदनवजलधरसममधुरिमभरलीलारसवारिधिलसितम्
राकोदितहिमकरमञ्जिममदहरमुनिमानसमोहनहसितम् ।
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द्वितीयो गुम्फः
[३१ समुदितसप्तस्वरसततविकस्वरमुरलीरवखुरलीकलितम् कुञ्चितकुटिलालकमद्भुतबालकमहमीले लोचनललितम् ।। ४४ ।।
अत्र दण्डकले चरणादौ कलाद्वयं न्यूनं क्रियते चेत्तदा लघुदण्डकल उत्प्रेक्षितो भवति। उदाहरणमन्यत्र द्रष्टव्यम् । एवं पद्मावत्यादौ सर्वत्र लघुपद्मावत्यादय उत्प्रेक्षणीयाः ।
अथ सिंहविलोकितमः
यस्य चत्वारश्चतुष्कला अनि(य)तास्तुर्यः सगण एव तत्सिहविलोकितम् । यथा-नवमञ्जुलवजुलकुञ्जगतम् । रसवलितललितशिशुकेलिरतम् ।
वशवतिसकलपशुपालमतम् । हृदि कलय वहसि यदि पुण्यशतम् ॥४५ । अथ प्लवङ्गमच्छन्दः
यस्य चरणे मादी गुरुस्ततश्चत्वारश्चतुष्कलास्ततो लघुस्ततो गुरुः, स प्लवङ्गमः । यथा-उन्मीलति किल दिशि दिशि भूरुहवल्लरी
कूजति पिककुलमसहमनोभवझल्लरी। मानिनि पश्यतु भवती मधुरयमागतः
संप्रति जल्पति पतिमबला सखि रागतः ॥ ४६ ।। अथ लीलावती:
यस्याश्चरणे द्वात्रिंशन्मात्राः सा लीलावती। यथा-सेवकहृदयमरालमनोरथपूरकविमलयशोभरसरितम्
विधिशिवशुकसनकादिगीततरसतत भीतभयहारकचरितम् । दानवनिवहनिवारणकारणमतिशयसुखपूरितदशहरितम्
प्रणमत नन्दतनयमतिमञ्जुलजनमोहनमङ्गलगुणभरितम् ॥ ४७ ॥ अथ हरिगीतच्छन्दः
यस्याश्चरणे प्रथमं पञ्चकलस्ततः षट्कलस्ततस्त्रयः पञ्चकलास्ततो गुरुरित्यष्टाविंशतिः कलास्तद्धरिगीतं नाम । यथा-नतपङ्कजासनकलितशासनमघनिरासनपण्डितम्
व्रजभूमिपूषणमसुरदूरषणमुरुविभूषणमण्डितम् । जगदेकवन्दनहृदयनन्दनचरितचन्दनचारिणम् भज पल्लवाधरमुदितभाधरमिह धराधरधारिणम् ॥ ४८ ॥
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३२ ]
वृत्तमुक्तावल्याम्
अन्त्यगुरुमात्रेण हीनमनुहरिगीतम् । यथा-नवकोकिलाकुलललितकलकलकलितजागरकाम
मतिधीरमलयसमीरधोरणिवलितमधुकरदाम । सखि भूरिकुसुमपरागपूरितकुञ्जमजुलधाम परिपश्य मानिनि मधुदिनं रपणेन सन्तनु साम ।। ४६ ।।
यदा त्वनुहरिगीतस्यादौ कलाद्वयं वर्द्धते तदा मन्द्रगीतमुत्प्रेक्षितं भवति । यथा-जलधरधामधारण मोहतारण भवनिवारणशील
मधुमुरनरकगञ्जन दुरितभञ्जन नयनरञ्जनलील । त्रिभूवनभव्यभावक निजजनावक कलितपावकपान
जय रसकेलिभाजन सुरसभाजन कृतसभाजनमान ।। ५० ।। अथ कलाद्वयह्रासे लघुहरिगीतम्यथा-मल्लिकानववल्लिकासुमतल्लिकारसपीन
मालिकानवमालिकाकमलालिकामधुलीन । सोऽधुना विकरालकालकलाकुलोद्यत एत्र
कुन्दकाननकौतुकी मा धाव मधुकर देव ॥ ५१ ।। अथ त्रिभङ्गी
पद्मावत्या एव चरणे दशभिस्ततो द्विरष्टभिस्तत: षड्भिश्चेद्य तिर्भवति, तदा त्रिभङ्गीनामकं छन्दः । यथा-वृन्दावनचारिणि नित्यविहारिणि (कलिमलहारिणि) हृतबाधे
हरिविरहनिवारिणि बहुसुखकारिणि भृशमभिसारिणि हृदगाधे । जितजगदौपम्ये निभृतनिशम्ये भक्तिनियम्ये दलिताधे गुरुगुणगणरम्ये निगमागम्ये मुनिजननम्ये जय राधे ।। ५२ ।।
यथा वा
शशिगर्वविमोचनरुचिभररोचनतिलकितरोचनशुभभाले खजनसंकोचनपङ्कजशोचनचपलविलोचनमृगबाले । वृषभानुतनूजे सुरकृतपूजे कोकिलकूजे सुखशाले जय सकलसभाजितरूपसभाजितहरितनुराजितवनमाले ।। ५३ ॥
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द्वितीयो गुम्फः अथ दुर्मिलाच्छन्दः__यस्याश्चरणे द्वात्रिंशत्कलिकाः, षोडशभिश्च यतिः, यतिश्च नेह पदान्तत्वमात्रं किन्तु परकलयाऽमिश्रितत्वाऽभावमात्रम् । अस्याः सगणान्तत्वनियममपि केचिदिच्छन्ति । यथा-स्नेहरसौघसततसन्दीपितमन्दीकृतकुलगतिसन्तमसः ।
कलयति सखि सन्तापमसह्यं किमपि कथापथमेति न मम सः ।। उरुनिश्वासनिवहझञ्झानिलद्धितशिखोदारसञ्ज्वलितः
स्फुरति विरहदीपो हृदि सदने कलुषकलङ्ककज्जलाकुलितः ॥५४।। अथ हीरच्छन्दः - ___यस्य चरणे आदी गुरुस्ततश्चत्वारो लघव इत्येवं क्रमेण षट्कलत्रितयं विधायाऽन्ते रगणः क्रियते, तद्धीरच्छन्दः । तच्च प्रतिषट्कलं यत्या रहितं सहितं च । आद्यं सुहीरम्, अन्त्यं हीरम् । क्रमेण यथा
रासललितलासकलितहासवलितशोभनम् लोकसकलशोकशमलमोकमखिललोभनम् । जातनयनपातजनितशातमुदितभारसम् भाति मदनमानकदनमीशवदनसारसम् ।। ५५ ।। खजनवरगञ्जनकरमञ्जनरुचिराजितम् कामहृदभिराममतिललामरतिसभाजितम् । नीलकमलशीलमुदितकीलविरहमोचनम् जातिकुटिलयाति सुदति भाति तव विलोचनम् ॥ ५६ ।।
अत्र षट्कलस्य सर्वलघुत्वे, तुर्याक्षरस्यैव गुरुत्वे वा छन्दोऽन्तरमुत्प्रेक्षितं भवति । तच्च लघुहोरकं परिवृत्तहीरकं चेति व्यवहर्तव्यम् । द्वयमपि यथा
विरहगरलभरिततरलकुटिलसरललोचना चरणनखरकलितमदनयुवतिमदविमोचना । अमलकमलरजनिरमणमुकुरविलसितानना त्वमिह जयसि सुतनु किरणवलितसकलकानना ।। ५७ ।। . विलसदङ्गचितरङ्गललितरङ्गरञ्जिनी लसदपारपटिमभारमदनदारगञ्जिनी ।
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३४ ]
वृत्तमुक्तावल्याम्
सकलयामसुखदवामतरललामलीलना
जयसि नाम हृदभिरामरतिनिकामशीलना ॥ ५८ ॥
अथ जनहरणं नामच्छन्दः
यस्य चरणे त्रिंशदमिश्रिताः कला अन्ते द्वे मिश्रिते कले, दशभिः, द्विरष्टभिः ततः षड्भिश्च यतिः, तज्जनहरणम् । अत्र गुर्वन्तरप्रवेशे त्रिभङ्गोतो भेदो न स्यादिति वदन्ति । चरणकला द्वात्रिंशत् ।
यथा-अनवरतभजनपरसुरनरमुनिवरहृदयसदनचरभयहरणम् ।
परिलसितविमलतरनरवर किरणभरसकल तुहिनकरजयकरणम् । ततसुरपतिभवविधिकलितम मृतनिधिभृशभवजल निधिकृततरणम् मम मनसि करुणयुतमयतु निगमनुतमिह दशरथसुत तव चरणम् ५६ अथ मदनदीपनच्छन्दः
यन्मदनगृहमिति प्राचीनैर्व्यवहृतम् । सगणान्ताष्टकलेन वर्द्धिता पद्मावत्येव मदनदीपनं नाम ।
यथा-वन चन्दकिर्षणमलिकुलकर्षणमतिसुखवर्षणगुणशरणं सौभगधरणम् पिककीरचकोरकहरिण किशोरक हृत्सञ्चोरकरुचिकरणं मानसहरणम् । शुककोकमरालकपन्नगबालकचयसञ्चालक सुखभरणं भुवनाभरणम् वपुरिदमुद्भासय मामिह दासय मानमुदासय धृतिदरणं परुषाचरणम्
।। ६० ।।
प्रथ भुल्लनच्छन्दः
यस्य चरणे सप्त पञ्चकलास्ततो द्वे कले तज् भुल्लनं नाम । यद्यपि पञ्चकलभेदा श्रविशेषेणैव गृहीतास्तथापि प्रतिगणं द्वितीया कला परया कलया मिश्रितोद्वे जिकेत्यनुभवसाक्षिकम् ।
यथा - शेषपतगेशविबुधेश भुवनेश भूतेशस विशेष सुनिदेशधरणी
कन्दलितसुन्दरानन्दमकरन्दरसमज्जनमिलिन्दभवसिन्धुतरणी । ज्ञानमण्डनपरा' कर्मखण्डनधरा शमनदण्डनपराभूतिहरणी नित्यमिह वक्ति मुनिवृन्दमनुरक्तिमज्जयति हरिभक्तिरासक्ति
करणी ॥ ६१
१. स्वभावकुटिला यतिः गतिर्यस्य तत् ।
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द्वितीयो गुम्फः
[ ३५ अष्टचत्वारिंशत् ' कलमुपझुल्लम् । तस्मिश्चोपान्त्यो गुरुरन्त्यो लघुनियतः । यथाचण्डभूजदण्डसदखण्डकोदण्ड (श) शिखण्डशरखण्डझरदण्डितविपक्ष पर्वभृतशर्वरीनाथरुचिगर्वहरसर्वहृदखर्वसुखलीलनवलक्ष । दुष्टनररुष्टतरपुष्टनयजुष्टजनतुष्टमतिघुष्टचरितौघकृतिदक्ष तत्क्षणसमक्षकृतरक्षणसपक्षगणलक्षितसुलक्षण जयेश गतलक्ष ।। ६२ ।।
कलाद्वयाधिक्येन एकोनचत्वारिंशत्कलचरणमपि संभवति, तच्च सुझुल्लनं
नाम।
यथा
चूतनवपल्लवकषायकलकण्ठबलमञ्जुकलकोकिलाकूजितनिदानम् . माधुरीमधुरमधुपानमत्तालिकुलवल्लकीतारझङ्कारसुखदानम् । चारुमलयाचलोद्यातपवमानजवजागरितचित्तभवसायकवितानम् पश्य सखि पश्य कुसुमाकरमुदित्वरं मा कलय मानसे मानमतिमानम् ।।६३॥ चत्वारिंशत्कलमतिझुल्लनपि स्वीकार्यम् । यथाकासकैलाससविलासहरहासमधुमाससविकास सितसारससमानगति शारदतुषारकरसारघनसारभरहारहिमपारदविसारसमुदारमति । बालकमणालमदुमालतीजालरुचिचालितविशालविबुधालयमरालतति राजमृगराजवर राजते तव यशो राम सुरराजसुसभाजितसमाजनति॥६४॥ अथ महाराष्ट्रनामच्छन्दः___यस्य चरणे चतुष्कला: सप्तगणाः किन्तु सप्तमो गुर्वन्त एव । तत एको लघुः । दशभिरष्टभिरेकादशभिश्च यतिस्तन् महाराष्ट्रम् । यथा-हरितनुघनदामिनि कुञ्जस्वामिनि गजगामिनि सुखदासि
नूतन रतियामिनि निरुपमकामिनि राधानामिनि भासि । कमपि प्रियदोषं परिहर जोषं किमु तोषं नहि यासि ? . शृणु मम मुखलापं वचनकलापं परितापं किमु रासि ॥ ६५ ।।
१. अष्टत्रिंशत्, इति युज्यते ।
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३६ ]
वृत्तमुक्तावल्याम् यथा वा
क्वचिदपि धृतमन्दर सुखितपुरन्दर गुणगणकन्दर वीर क्वचिदपि भूधारण वारणतारण शोकनिवारणधीर । क्वचिदमितविरोचनसुतमदमोचन रघुकुलरोचनहीर
जय राम सदा जितलोकसभाजित कनकविराजितचीर ।। ६६ ॥ अथ चतुर्वचनं नामच्छन्द:
यस्याऽसमयोश्चरणयोः षोडश कलाः, समयोश्चतुर्दश, तच्चतुर्वचनम् । यथा-(जय) जगदुज्जागरमधुरिमसागर नवनागर रसकेलिनिधे । ।
जय रघुनन्दन जगदानन्दन निरवधिवन्दन शीलनिधे ।। ६७ ।। ... इति श्रीलङ्गकुलजलधिकौस्तुभायमान-श्रीजयसिंहमहाराजाधिराजसंमान्यमानकविकलानिधिश्रीकृष्णभट्टविरचितछन्दोमुक्तावल्यां द्वितीयो गुम्फः ।
अथ तृतीयो गुम्फः गुरुचरणौ फणिराज गणनाथं च प्रणम्य शतकृत्वः ।
मूलानुसारिकथया प्रथयामो वर्णवृत्तानि ॥ १ ॥ श्री छन्दः
सा श्रीः । यो गः ॥ १ ॥ यथा-श्रीर्मे सा स्तात् ।। २॥ मधुवृत्तम्
युग लघु, भए। मधु ॥ ३ ॥ यथा-कुरु शिव, शुभमिह ।। ४ ।। कामच्छन्दः
द्वौ गौ यौ तौ कामो वृत्तम् ।। ५ यथा-वन्दे रामं रुच्या वामम् ।।६।। अथ सारच्छन्द:- ग्लौ नु धेहि सारमेहि ॥७॥ यथा-राम राम, धेहि धाम ।। ८॥
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तृतीयो गुम्फः
[ ३७ यथा वा
त्वत्कनाम । शर्मधाम ।। ६॥ यथा वा-धेहि राम । कण्ठदाम ॥१०॥ अथ मही
लगौ धृतौ भवेन्मही ।।११।। यथा-हरिः शिवः । शिवो हरिः ।।१२।।
यथा वा-गुरुः पतिमतिर्गतिः ॥ १३ ॥ अथ ताली
त्रिर्वः सन्धया । सा ताली विज्ञया ।। १४ ॥ यथा-सानन्दं स्वच्छन्दम् । तं देवं वन्देहम् ॥ १५ ॥ अथ प्रिया
मध्यगश्चेल्लघुः । सा प्रिया भण्यते ॥ १६ ।। यथा-सा भवे सारदा । सेव्यतां शारदा ।। १७ ॥ यथा वा
राधिकानायकम् । नौमि शंदायकम् ॥ १८ ॥ अथ शशिच्छन्दः
लघुद्वौं गुरूचेत् । निरुक्त: शशी सः । १६ ।। यथा-व्रजेशं भजामः । भवे शं व्रजामः ॥ २० ॥ यथा वा
नुमस्तं समस्तम् । जगद्यः पुनीते ॥ २१ ॥ अथ रमणच्छन्दः
रमणो विहितः । सगणो निहितः ।। २२॥ यथा-भवतश्चरणं, करवै शरणम् ।। २३ ।। यथा वा-कमलाधव हे। भ्रमणं न वहे ।। २४ ॥ पञ्चालच्छन्दः
लघ्वन्तमादेहि पञ्चालमाधेहि ॥ २५ ॥ यथा-हेराम मामेहि । भद्राणि मे देहि ।। २६ ।। अथ मृगेन्द्रः
गमध्यगणे हि । मृगेन्द्रमवेहि ॥ २७ ॥ यथा-अघानि धुनोहि । गिरीश पुनीहि ।। २८ ।।
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३८ ]
श्रथ मन्दरच्छन्दः
वृत्तमुक्तावल्याम्
दिगमुच्चर मन्दरमुद्धर ।। २६ ।।
यथा - हे भव लालय । पालय पालय । ३० ॥ कमल च्छन्द:
नगरणमवत | कमलमयत ।। ३१ ॥
यथा - भुजगवलय शमिह कलय ।। ३२ ।। श्रथ तीर्णा
चत्वारश्चेद्वक्रा वर्णाः तीर्णाख्यं तच्छन्दो भव्यम् ।। ३३ ।। बाला लोला लीलाशाला ।
यथा--दृष्ट्या दृष्ट्वा पीता हाला ।। ३४ ।। अथ धारि
रं विधेहि लं वधेहि । धारिवृत्तमत्र वित्त ॥ ३५ ॥ यथा - जातभूरिभक्तपक्ष । शम्भुदेव रक्ष रक्ष ॥ ३६॥ नगाणिका
जमुच्चरन् गुरूत्तरम् । नगाणिकामिहानयेः ॥ ३७ ॥ यथा - भवैधना निबन्धना । मृषा जनास्तिधंधना ॥ ३८ ॥
यथा वा
अनोहरम् मनोहरम् । स्थितं व्रजे हरि भजे ॥ ३६ संमोहाच्छन्द:
मान्ते संयुक्ती, वक्रौ चेदुक्तौ । संमोहावृत्तं तत्स्यान्मे वित्तम् ||४०|| यथा - उद्यत्संग्रामं रक्षोभिः कामम् । सद्धर्मारामं वन्दे तं रामम् ॥ ४१ ॥ अथ हारीतवृत्तम्
तादुत्तरं चेद् वक्रद्वयं स्यात् । हारीतवृत्तं तन्मग्नचित्तम् ।। ४२ ।। यथा-देवेश शम्भो दासोऽस्म्यहं भोः । त्वं दासवित्तं त्वय्येव चित्तम् ॥४३॥ श्रथ हंसवृत्तम्
भादुपरिस्थं वत्रयुगं चेत् । हंस इतीदं सन्तनु वृत्तम् ।। ४४ ।। यथा-तद्भवपीडा-हारकमुच्चैः । कृष्णपदाब्जं भावय चेतः ।। ४५ यथा वा-निर्जितकामं लोचनवामम् । दुःखविरामं तं भज रामम् ॥ ४६ ॥
यमकच्छन्दः
द्विलघुतनु नगणमनु । यमकमुरु - धिषण कुरु ॥ ४७
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तृतीयो गुम्फः
[ ३६ यथा-अचलभृति दुरितहति । हृदयलयमिह कलय ॥ ४८ ॥ यथा वा-शशिवदन जितमदन । जय नयनकृतदयन ॥ ४६॥ अथ शेषराजच्छन्दःविद्वच्चेतःस्वादे षड्वक्रो यत्पादे। तच्छेषाख्यं वृत्तं विज्ञेयं नो वित्तम् ।।५०।। यथा-भूयो दत्तानन्दं लीलाकृत् स्वच्छन्दम् ।
ब्रह्म श्रुत्या गीतं वन्दे चित्तानीतम् ।। ५१ ॥ अथ तिलकाख्यच्छन्दः
सगणद्वितयं कुरुवर्णचयम् । तिलकाख्यकलं तनु वृत्तमलम् ॥५२॥ यथा-वरशैलधरं भवदुःखहरम् । भज सर्वपरं भजनीयतरम् ।। ५३ ॥ विज्जोहा
रद्वयाकारभृद् यत्र पादो भवेत्। वित्तविद्योतिकावृत्तमेतद् बुधाः ॥५४॥ यथा-कृष्णतेजोघटासङ्गिविधुच्छटा ।
भक्तबाधाहरा भाति राधाऽभिधा ।। ५५ ।। चतुरंसच्छन्दः
निगमलघूर्ध्वं यदि गुरुयुग्मम् । तदिह सुवृत्तं भण चतुरंसम् ॥५६।। यथा--मधुवनलील विहरणशीलम् । हृतभवकीलं भज घनलीलम् ॥५७॥ यथा वा-विरचितरासं विहितविलासम् । कृतवनलासं भजत सहासम् ॥५८ अथ मन्थानच्छन्दः
तद्वन्द्वमादाय पादं समाधाय । मन्थानवृत्तं तदाख्याहि सुप्रज्ञ ॥५६॥ यथा-भक्तयेकसिद्धान्तविश्रान्तिकृत्स्वान्त ।
सेवस्व तद्धाम नन्दात्मजं नाम ।। ६० ॥ शङ्खनारीवृत्तम्
यकारद्वयात्मा धृतो यत्र पादः । तदा तत्र वृत्तं भवेच्छङ्खनारी ॥६१॥ यथा-हृताशेषबाधा विलासैरगाधा। कृतानङ्गबाधा हरौ भाति राधा।।६२।। यथा वा--विचाराधिरोहं परिब्रूहि कोऽहम् ।
समुद्भिद्य मोहं मिमीथाः शिवोहम् ।। ६३ ।। यथा वा--हृताशेषवादः समुद्धृतसादः ।
स्फुरद्दिव्यनादः कदा ते प्रसादः ।। ६४ ॥
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४० ]
श्रथ मनोहरच्छन्द:
जयुग्मल लाम पदं कलयाम । मनोहरनाम तदस्य वदाम ।। ६५ ।।
श्रथ दमनकच्छन्दः
नयुगलमनु मतिमभितनु । दमनकमिति कथय झगिति ।। ६६ ।। यथा--सुजनशरण सुखदचरण । पशुपतनय शमिह जनय ।। ६७ ।। श्रथ समानिका
रोत्तरं जमुच्चरेः प्रान्ततो गमुद्धरेः ।
सप्तवर्णंगा कवे सा समानिका भवे ॥ ६८ ॥ यथा-- ही रहारहारिणं पीतचीरधारिणम् ।
केलिकुञ्जचारिणं नौमि भव्यकारिणम् ॥ ६६ ॥
श्रथ सुवासच्छन्द:
वृत्तमुक्तावल्याम्
सलघुचतुष्टयभगणमिहानय । कथय सुवासकमिति तदुपासक ॥७०॥ यथा--मनसिजसायकनयनसहायक । नवनटनायक जय सुखदायक ॥७१॥
श्रथ करहंसच्छन्दः
निगमलघुवाम जगणकृतधाम । कथय करहंसमतुलमतिशंस ॥ ७२ ॥ यथा-- परमशुभधाम हृदयमणिदाम । गिरिधरणनाम शरणमुपयाम ॥७३॥ श्रथ मुक्तागुम्फच्छन्दः
वक्राः सप्ताऽऽधातव्याः पादे पादे दातव्याः । मुक्तागुम्फाख्यं वृत्तं जानीतेदं सद्वृत्तम् ॥ ७४ ॥ यथा--विद्वच्चेतोविश्रामं प्रावृट्पाथोदश्यामम् ।
नाऽवैद्वेदो यं कामं वन्दे तं देवं रामम् ।। ७५ ।। विद्युन्माला
यस्यामष्टी वक्रा युक्ताः पादे स्युः सुप्रज्ञैरुक्ता: । सा विज्ञेया विद्युन्माला चेतोहर्त्री यद्वद्बाला ।। ७६ ॥ यथा -- या शोभापीयूषाऽगाधा चेतोबाधाहर्त्री राधा ।
कल्याणौघं सा मे दत्तादन्तः सत्ता प्रेमाऽकृष्टा ।। ७७ ।। प्रमाणिका
लघुर्गुरुर्निरन्तरं यथाक्रमं निधीयताम् । तदा प्रमाणिकाभिधं सुवृत्तमष्टवर्णकम् ॥ ७८ ॥
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तृतीयो गुम्फः यथा-विलासिनीविलासिनं तडिदुकूलभासिनम्।
__ समोद-रासलासिनं भजे निकुञ्जवासिनम् ।। ७६ ।। माणवकक्रीडा
भं गपरं द्विः प्रणयेदित्युदितं यस्य पदम् ।
माणवकक्रीडमिति ज्ञयमहो वृत्तमदः ।। ८० ।। यथा-भक्तमनस्तापहरं रूपसुधावारिधरम् ।
चारुतडिज्जैत्रपट नौमितरं दिव्यनटम् ॥ ८१॥ अथ मल्लिका
वक्र शुद्ध सुक्रमोण दीव्यदष्टवर्णशालि ।
उत्क्रमात्प्रमाणिकैव मल्लिकाख्यवृत्तमस्ति ।। ८२ ॥ यथा-रासलासमुक्ततन्द्र केलिसिन्धुपूर्णचन्द्र ।
भक्तपक्षबद्ध कक्ष कृष्ण कृष्ण रक्ष रक्ष ॥ २३ ॥ तुङ्गच्छन्दः
नगणयुगलयुक्तं यदि गुरुयुगमुक्तम् ।
तदिह भवति तुङ्गं रुचिरवरणसङ्गम् ॥ ८४ ॥ यथा-हरिसहकृतरासा कलितललितलासा।।
दलितविरहबाधा जयति जयति राधा ।। ८५ ।। कमलवृत्तम्
कलय लघुपञ्चकं रगणसमुदञ्चकम् ।
कमलमिति वृत्तकं भवति हृतचित्तकम् ।। ८६ ॥ यथा-सकलसुखसाधिका विरहरयबाधिका।
अखिलभुवनाधिका जयति हृदि राधिका ।। ८७ ।। यथा वा
व्रजभुवि विहारिणं मधुमणिहारिणम् ।
हृदयसुखकारिणं भजत गिरिधारिणम् ॥ ८ ॥ अथ श्लोकलक्षणम्
षष्ठं स्याद् गुरु सर्वत्र लघु पञ्चममक्षरम् । समयोः सप्तमं श्लोके ज्ञयं विषमयोर्गुरुः ।। ८६ ।।
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४२ ]
वृत्तमुक्तावल्याम् यथा-अमुना यमुनाकूलवटमूलविहारिणा ।
हारिणा हरिणा हन्त हेलितं हृदयं मम ।। ६० ।। महालक्ष्मीवृत्तम्
रत्रयं यत्र सन्दीयते पादशोभा समानीयते ।
तन्महालक्ष्म्यदो नामकं वृत्तमन्तःसुधाऽऽचामकम् ।। ६१ ।। यथा-पण्डितालीमनोहारिणी कापि वाणी चमत्कारिणी।
मोदवृन्दैकविस्तारिणी मन्मुखान्तर्जनोद्धारिणी ।। ६२ ॥ अथ सारङ्गिका
सलघुचतुष्कं निहितं गयुगलमन्ते विहितम् ।
सगणसमेतं सुविदः ! कलयत सारङ्गमदः ॥ ६३ ।। यथा-कुचजितनारङ्गिकया दृगुदितसारङ्गिकया।
विरचितमन्दस्मितया विदलितचित्तोऽस्मि तया ॥ ६४ ।। अथ पाईत्ता
चत्वारः स्युर्यदि गुरवः शुद्धा वेदाः' सुविदुरवः ।
अन्ते वक्रो भवति सदा पाईत्ताख्यं जयति तदा ।। ६५॥ यथा-चामं चामं चरितरसान्नामं नामं निजशिरसा।।
श्यामं वामं कमलदृशं कामं रामं भजत भृशम् ।। ६६ ॥ प्रथ कमला
वसुलघुपरिकलिता मुखहृतगुरुललिता ।
मदुपदगतिरमला विलसति किल कमला ।। ६७ ॥ यथा-भवजलनिधितरणं निखिलसुजनशरणम् ।
हृदयतिमिरहरणं कलयत हरिचरणम् ॥ ६८ ॥ अथ बिम्बवृत्तम्
भवति लघुपञ्चकं चेत् तदनु रगणक्रमं चेत् ।
वदनगुरुलग्नचित्तम् कलय ननु बिम्बवृत्तम् ॥ ६ ॥ १. चत्वारो गुरवः, शुद्धाः (लघवः) वेदाः (चत्वारः) अन्ते वक्र: (गुरुः) तदा
'पाईत्ता' च्छन्दः ।
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तृतीयो गुम्फः . . [ ४३ यथा-कलितकमलाविलासं ललितरसरासलासम् ।
सततकमनीयशीलं भजत हरिमभ्रनीलम् ।। १०० ।। तोमरच्छन्दः
सगणैकमञ्जिमपालि जगणद्वयातिशालि ।
इति तोमराभिधवृत्तमतुल विधेहि सुवृत्त ।। १०१ ।। यथा-गुणगानगुम्फितसाम दुरितौघपावननाम ।।
भज राममेव ललाम-मभिराममद्भुतधाम ॥ १०२ ।। अथ नवाक्षरप्रस्तारः [मालीवृत्तम्]
भूखण्डख्याता वक्रा वर्णाः शोभन्ते यस्यां पादे पादे ।
तद्रूपा मालीनाम्ना वृत्तं संप्रोक्त लोके छन्दोविद्भिः ॥ १०३ ।। यथा-नृत्यन्ति स्वैरं विद्युन्माला गर्जन्ति स्निग्धाम्भोभृज्जालाः ।
वान्त्येते मन्दाः शीता वाताः क्व प्रेयस्यस्मिन् काले याता ॥१०४॥ अथ दशाक्षरा
यदि तोमरस्य मुखे धृतं गुरुरूपमक्षरमादृतम् ।
तदवेहि संयुतनामकं ननु वृत्तमस्त्यभिरामकम् ॥ १०५॥ यथा-चतुरङ्गसंततनर्तिनः पवमानसंमितवर्तिनः ।
तव वाजिनो विहगोपमा विलसन्तु जातनभ:क्रमाः ॥ १०६ ॥ अथ चम्पकमाला
स्याद् भगणान्ते यद्गुरुयुग्मं संतनुत द्विःसंगतमेवम् ।
चम्पकमालानाम सुवृत्तं राजति भूयो मोहितचित्तम् ॥ १०७ ॥ यथा-पीतदुकूलं मङ्गलमूलं सेवितहंसापत्यसुकूलम् ।
सेवकलोकानामनुकूलं तं शरणं कुर्वे हृतशूलम् ।। १०८ ।। अथ मणिबन्धाख्यम्
चम्पकमाला निश्चरमा चेतसि धार्या सा परमा।
स्यान्मणिबन्धं वृत्तमदः शंसत संसन्मध्यसदः ।। १०६ ॥ यथा-अम्बरविद्युयोतधरं कुन्द-बलाकाजातभरम् ।
मोदनलीलावारिझरं भावय कञ्चिन्मेघवरम् ।। ११०॥
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४४ ]
वृत्तमुक्तावल्याम्
अथ सारवतीवृत्तम्
भत्रयमानय भव्ययुतं वक्त्रलसद्गुरुवर्णरुतम् ।
सारवती किल वृत्तमिदं रञ्जयते सततं सुविदम् ॥ १११ ।। यथा-केन शिवाय समर्प्य शिरः संपणितासि परैव गिरः ।
सुन्दरि यत्र रता पुरुषे कायमशेषमलंकुरुषे ॥ ११२ ॥ यथा वा
कस्य हरिष्यसि तापकरं सुन्दरि भूरिवियोगभरम् ।
यस्य कृते पुलकौघधरं मण्डयसोह शरीरवरम् ।। ११३ ।। अथ सुषमाच्छन्द :
वक्रद्वितयं भूयः सगणस्तद्वत्पठनीयं सुज्ञ पुनः ।
वृत्तं सुषमानामाकलितं ज्ञयं विबुधैरुच्चैललितम् ॥ ११४ ।। यथा-शोभासदनं जाग्रन्मदनं लोके तरुणीचेत:कदनम् ।
मुक्तावदनन्तद्युतिरदनं भोते तव तत्कान्तं वदनम् ॥ ११५ ।। अथ हंसी
मन्दाक्रान्ता कविवरहिता प्रान्ते सप्ताक्षरविरहिता ।
सा विज्ञ या विमलमतिभिर्नाम्ना हंसी विबुधततिभिः ।। ११६ ।। यथा-कुञ्ज कुजे कृतविलसनं विद्युन्मालाललितवसनम् ।
चन्द्रज्योत्स्नाविशदहसनं वन्दे कृष्णं व्रजनिवसनम् ।। ११७ ।। प्रथामृतगति :
सलघुचतुष्टयभगणं रचयत रामनुसगणम् । इति सुविनिर्मित चरणाममृतगति विद सुकवे ।। ११८ ॥
[ह्यमृतगति तसुगणा] यथा-विलसितजीवितमदना विधुशतनिर्जयिवदना।
मुनिमनसामपि कदना तनुरुचिशोभितसदना ॥ ११६ ।। अयि वृषभानुजलतिके तरलतडिद्गुणततिके ! मयि भवती शुभमतिके ! गतिरिह नित्यमगतिके ॥ १२० ॥
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तृतीयो गुम्फः
[ ४५ [अर्थकादशाक्षरा
भत्रयशालिगुरुद्वययुक्त यच्चरणं कविभिः सुखमुक्तम् ।
तत्कलयामृतनिर्भरसारं लालसरोरुहवृत्तमुदारम्' ॥ १२१ ।। यथा-दिव्यकृपावरुणालयमेकं निर्मितचित्तसुधारससेकम् ।।
हर्षितबहिणकारितकेकं नौमि हरि धृतरुच्यतिरेकम् ।। १२२ ।। सुमुखी
सलघुचतुष्टयभद्वितयं तदनु गुरुं कुरु मुक्तभयम् ।
भण सुमुखीति सुवृत्तमिदं वशयति वल्गु गिरासुविदम् ।। १२३ ।। यथा-कति कति भूमिभृतो न गताः कतिमनुजेषु कृता नरता।
अलमधुना कविते मम हे रघुपतिवर्णनमेष वहे ।। १२४ ।। शालिनी
यत्पादे स्युनिमिता वेदवका भूयो रम्यं रद्वयं चापि वक्रम् ।
इत्थं यत्या योजितेयं मनोज्ञा प्राज्ञैरुक्ता शालिनी शोभमाना ॥१२५॥ यथा-बाला लोला कोमलालापशाला मल्लीमालाशालिनी चारुभाला।
कामज्वालाहारिपीयूषधारा दृष्टया दृष्टा सुन्दरी साऽभिसारा ।१२६। . यथा वा
देशे देशे मञ्जुला कुजवीथी कुजे कुजे पुष्पसौरभ्यसारः । पुष्पे पुष्पे पञ्चबाणस्य बाणा बाणे बाणे कामिनां प्राणपातः ।।१२७॥ स्थाने स्थाने भान्ति सौधा विशाला: सौधे सौधे कामिनीनां विलासाः ।
लासे लासे नेत्रचाञ्चल्यशोभा नेत्रे नेत्रे मत्ततायाः प्रकाशः ।।१२८॥ अथ रथोद्धता
रोत्तरं नगणरौ लघुर्गुरुः कार्यमित्युदयशालि यत्पदम् ।
सा फणीन्द्र मुखपङ्कजोद्गता राजते सुवितता रथोद्धता ।। १२६ ।। यथा-मण्डपीकृतजगत्त्रयोदरे मण्डनीयति सतारकं विधुम् ।
कोतिरद्भुत कलापटीयसी दिक्तटीषु भवतो नटीयते ।। १३० ॥ अथ स्वागता
अक्षरं तु नवमं दशमं चेद् व्यत्ययेन निहितं खलु यस्याम् ।
एतदेव हि रथोद्धतवृत्तं स्वागतेति कविभिः कृतनाम ॥ १३१ ॥ १. दोधकवृत्तमिति वृत्तरत्नाकर-छन्द:प्रभाकरादयः ।
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४६ ]
वृत्तमुक्तावल्याम्
यथा-चञ्चदञ्चल तिरोहितदीपज्योति रुल्ल सदुरोजयुगश्रीः । कापि कामरमणीरमणीया मन्दमन्दमुपयाति वधूटी ।। १३२ ॥
अथ दमनकच्छन्दः
प्रतिपददशलघुकलितं वदनवलितगुरुललितम् ।
दमनकमिति वदत बुधा अमृतमिव पिबति वसुधा ।। १३३ ।। यथा - जय जय गिरिवरतनये विधिविधुहरकृतविनये ।
निरयिणि शिशुगृहधनये मयि शुभशतमिह जनयेः ॥ १३४ ॥
अथ तालच्छन्द:
अष्टवर्णधोरणी विधोयतां शुद्धवक्रसुक्रमेण दीयताम् । अन्ततो लमध्यसद्गणान्वितं तालवृत्तमेतदेव निर्मितम् ।। १३५ ।। यथा - उन्नमत्सुधापयोधरत्विषं कंस केशिमुख्यदानवद्विषम् । भक्तलोकचित्तचारुचन्दनं संततं नमामि नन्दनन्दनम् ॥ १३६ ॥
श्रथ माला
रुद्रा वा वर्णा यस्यामस्यन्ते यत्या युक्ता विज्ञ रुक्ता रस्यन्ते । तन्मालाख्यं वृत्तं चित्ते मन्वीथा यत्पीयूष स्रोतस्तुल्यं तन्वीथाः ॥ १३७॥ यथा - धीरं धीरं धारासारैर्वर्षन्तः पान्थस्त्रीणां चेतोधैर्यं कर्षन्तः । संप्रत्येते मेघा उच्चैः सज्जन्ते मानिन्योऽन्तर्मानं कृत्वा लज्जन्ते ।। १३८ ।।
प्रथेन्द्रवज्रा
यस्यां तकारद्वितयं जकारः प्रान्ते निधेयं गुरुवर्णयुग्मम् । मात्राभिरष्टादशसंमिता सा सैकादशार्णा जयतीन्द्रवज्रा ॥ १३६ ॥ यथा - लीलाललामा, ललिता लताभा लोलेक्षणा लास्यपरा लसन्ती । लावण्यलक्ष्मीलु लिताऽलकान्ता लभ्या कदा सा भुवनेत्र कान्ता ॥ १४० ॥ चञ्चच्चमत्कारिचकोरचञ्चचाञ्चल्य चातुर्य चयैकचौरैः । श्राकुञ्चितैरञ्चितलोचनान्तैः काले कदा मां कलयिष्यतीयम् ॥१४१॥ वक्षोरुहोद्भासितपद्ममाला प्रत्यङ्गदीव्यज्जलबिन्दुजाला । राजद्वपुर्वारिविहारकाले कासारतः कापि ससार बाला ।। १४२ ॥
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[ ४७
तृतीयो गुम्फः चन्द्रानना चम्पकचारुगात्रा दृङ्मात्रसंचारितकामयात्रा।
केलाकलालालितकोमलाङ्गी दृष्टया कुरङ्गीनयना निपीता॥१४३।। प्रथोपेन्द्रवज्रा
यदीन्द्रवज्रा लघुवर्णवक्त्रा विधीयते नागपतेनिदेशात् ।
उपेन्द्रवज्रेति तदा कवीन्द्रविरच्यते चारुकवित्वकीत् ॥ १४४ ।। यथा-प्रयुक्तकालागरुधूपिताशं सखीजनोद्भासितपुष्पतल्पम् ।
ज्वलत्सचन्द्रोज्ज्वलवतिदीपं निशामुखे वासकवेश्म भाति ॥ १४५।। अथोपजातिः
यत्रेन्द्रवज्रा प्रथमे तृतीये द्वितीयतुर्योद्यदुपेन्द्र वज्रा।
सा प्राज्ञवर्यैरुपजातिरुक्ता मनोज्ञविच्छित्तिविशेषयुक्ता ॥ १४६ ।। यथा-पाटीरवाटीषु कृतप्रचारस्तरङ्गिणीवारिभवद्विहारः ।
मल्लीलताऽऽलिङ्गनमोदधीरःप्रवाति कान्तेऽद्य सुखं समीरः ।। १४७॥ अथाख्यानकी
आख्यानकी तां प्रवदन्ति नित्यं यदीन्द्रवज्राचरणेन युक्तान् ।
उपेन्द्रवज्रा चरणान् वहेत् त्रीन् विशेषविच्छित्तिमत: कवीन्द्राः ।।१४८ यथा-मामि..................."दाम्बुजन्मनीस्फुरञ्चिदानन्दभर दसौ। .
सुरेन्द्र भोगीन्द्र मुनीन्द्रमानसैरनारतं य .....................।। १४६ ॥ अथ वंशस्थवृत्तम्
उपेन्द्रवज्राचरणेषु चेद्भवन्त्युपान्त्यवर्णा लघवः सुखप्रदाः ।
दिनेशसंख्याक्षरशालिवृत्तकं वदन्ति वंशस्थमिति प्रसिद्धिमत् ॥१५० यथा-नमामि ते नाथ पदाम्बुजन्मनी स्फुरच्चिदानन्दमरन्दसौरभे।
सुरेन्द्र भोगीन्द्रमुनीन्द्रमानसैरनारतं यत्र मधुव्रतायितम् ।। १५१ ।। अथेन्द्रवंशावंशस्थवृत्ते यदि पूर्ववर्णकाः राजन्ति वक्रा: सुखसारहेतवः ।
- ॥१५२ ।। यथा-प्रोद्भूतरक्ताङ कुरवृन्दशालिनः सुपुष्पिता भान्ति रसालशाखिनः ।
वर्मावृताः कार्मुकबाणपाणयो वीरा बतैते स्मरचक्रवर्तिनः ।। १५३॥
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४८ ]
वृत्तमुक्तावल्याम्
अथ विद्याहारः'
पादे पादे यस्मिन् भास्वत्संख्या वर्णाः ।' सर्वे वक्राः सद्योमुह्यच्चेतःकर्णाः । सुजैरुक्त दोषैर्मु (क्त) यत्या युक्तम्
विद्याहाराख्यं तद्वृत्तं श्रीसंयुक्तम् ।। १५४ ।। यथा-रक्षोवक्षोविक्षोभाय प्रोद्यद्वाणं भास्वद्भल्लोत्कृत्ताशेषारातिप्राणम् । पुण्यारण्यक्ष्मासंचारात्किञ्चित्क्षामं मोघश्याम सेवे नामं नामं रामम्
॥ १५५ ॥ प्रथ भुजङ्गप्रयातम्
चतुःसंख्यका यस्य पादे यकाराः सदा मोदयन्ते समन्तादुदाराः ।
भुजङ्गप्रयाताभिधं वृत्तमेतत्सुधापातिहेतुः सतां मानसे तत् ॥ १५६ यथा-चिरं चन्द्ररोचिःसमुच्चारचञ्चच्चलच्चामर श्रीचमत्कारचारु ।
समस्तावनिच्छन्नसुच्छायभूयःसमुच्छायशालिच्छविच्छत्ररम्यम् १५७ दरीभृद्दरीदारणोद्रिक्तदृप्यत्समुत्तुङ्गमातङ्गलक्ष्मीनिवासम् । अधस्ताद्भुजङ्गावलीभञ्जनेच्छाखुराग्रक्षतक्षोणिवाजीन्द्रयुक्तम् १५८ चमूचक्रमाक्रान्तवेलान्तवेगोच्छलसिन्धुकल्लोलनिस्सानघोषम् । पुरः प्रत्यगाशाचलोद्दण्डदण्डस्फुरत्सूर्यचन्द्रध्वजश्रीमनोज्ञम् ।। १५६ प्रतापप्रभा-कीर्तिशोभासमूहैः समुद्धतसर्वत्रिलोकान्धकारम् । नताशेषराजन्यमूर्धानरत्नत्विषाकीर्णसिंहासनप्रान्तदेशम् ।। १६० ।। अविश्रान्तजाम्बूनदासारधाराकृतार्थीकृताशेषविद्वत्समूहम् ।
महाराजराजेन्द्र राजाधिराज त्वदीये भुजाग्रे समुद्भाति राज्यम् १६१ अथ लक्ष्मीधरः
स्याच्चतुर्भी रकारैयुतं यत्पदं भूरिविद्वन्मनोदत्तभूयोमदम् ।
भाति लक्ष्मीधराख्यातमेतत्स्फुटं वृत्तमाकृष्टसभ्यश्रवःसंपुटम् ।। १६२ यथा-शातकुम्भस्फुरत्कुम्भसंभावितौ यौवनोदारकुम्भीन्द्रकुम्भोपमौ ।
तारहारप्रभाभारसंदीपितौ दृप्यतस्तावको तन्वि वक्षोरुहौ ॥ १६३।। १. विद्याधारी (छन्द:प्रभाकरे)
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तृतीयो गुम्फः
[ ४६
यथा वा
दीव्यदिन्दुद्युतिद्योतमाने घनध्वान्तधाराधरध्वंसकृद्धामनि ।
मानमाद्यन्मनोमन्मथोन्माथने मोदमानं मनाङ् मन्मनो मज्जतु।१६४। यथा वा
खजनाऽऽकारभागञ्जनाकारणे कञ्जनामप्रथाभञ्जनाभङ गुरे ।
विस्फुरन्मानिनीमानसङ्कोचने लोचने ते मनोरोचने राजतः ॥१६॥ अथ तोटकम्
अतिचारुसकारचतुष्कभृतं चरणं खलु यस्य विभाति कृतम् ।
इति तोटकवृत्तमिदं कथितं कविराजिविराजिगणग्रथितम् ॥१६६।। यथा-तनुकान्तिजितामृतसान्द्रघनं तडिदुज्ज्वलचारुलसद्वसनम् ।
मुरलीरवकूजितमजुतरं प्रणमामि परं परितापहरम् ॥ १६७ ॥ अथ सारङ्गरूपच्छन्द:
लघ्वन्तदोव्यद्गणानां चतुष्केन यस्याङ्गि राभाति सद्वर्णयुक्तन ।
सारङ्गरूपाख्यमत्युत्तमं तत्प्रमोदावहं वृत्तमेतद्बुधा वित्त ॥ १६८ यथा-कन्दर्पसन्दर्पसन्दोहहारीणि लोकत्रयीकोटिकल्याणकारीणि ।
लक्ष्मीश ते लीलितानि स्मरन्नेव सद्यो भवेयं कृतार्थः कदा देव
प्राथ मुक्तादाम
जकारचतुष्टयमानय दक्ष भृशं च चतुश्चरणानिति रक्ष ।
सुवृत्तमिदं मधुराक्षरधाम भवेदिह मौक्तिकदामसुनाम ।। १७० ।। यथा-सुधामयतोयदसुन्दरकाय विराजितगोपवधूसमुदाय ।
धराधरधारणधीर सुधीर नमो जय नन्दनिकेतनहीर ॥ १७१ ।। अथ मोदकवृत्तम्
तोटकवृत्तमुखे गुणमण्डित वर्णचतुष्टयमस्ति सुपण्डित ।
यत्प्रथमं ध्रियते कविनायक मोदकवृत्तमिदं सुखदायक ॥ १७२ ॥ यथा-कोटिकलाधरमञ्जुललीलन गोपवधूरतिभावसुशीलन ।
दानववंशकृताधिकनिग्रह पाहि हरे नववारिदविग्रह ॥ १७३ ।। अथ तरलनयनाच्छन्दः
निगमनगणसहितचरणमनणु रचय सुमतिशरण । तरलनयनमिदमुदयति परमसुखद जगति जयति ।। १७४ ।।
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५० ]
वृत्तमुक्तावल्याम्
यथा-शमलहरण कमलचरण सकलभुवनकुशलकरण ।
मुदितनिखिलसुजनशरण जयसि सततमचलधरण ॥ १७५ ।। सुन्दरीच्छन्दः
नगणभद्वितयीरगणान्वितो भवति यच्चरणः सुखदायकः ।
जयति वृत्तमिदं खलु सुन्दरीत्युदित'नामकमद्भुतभोगिना ॥१७६।। यथा-वनलता न लता पदपल्लवा कमलिनीमलिनीकृतमानसा।
अतनुदा तनुदा तरुमञ्जरी सुमदनो मदनोऽद्य वियोगिनोः ।। १७७ ॥ मायाच्छन्दःचत्वारश्चेन्मञ्जिमभाजो गुरुवर्णा भूयो भाते यत्र भकारो गुरु
युग्मम् । शुद्धौ वक्रौ यत्र च वर्णी क्रमवन्तौ मायावृत्तं तत्खलु गेयं हृतचित्तम्
॥१७८॥ यथा कुञ्ज कुजे कोकिलकान्ता मधुमत्ता भाते कञ्जश्रेणिषु कान्ता मधुमत्ता। भृङ्गाः सङ्गायन्ति रसालं वनभाज कान्तं वामा याति रसालम्बन
भाजम् ॥ १७६ ।। अथ तारकच्छन्द:
सलघुद्वयभत्रितयं गुरुयुग्मं चरणे खलु यस्य भवेदतिरम्यम् ।
वद तारकवृत्तमिदं रमणीयं मधुराक्षरसारसुधारसरुच्यम् ॥ १८० ।। यथा-सविलाससुलासकलागणशाली शिखिपिच्छकिरीटधरो मणिमाली।
वृषभानुसुतामुखकञ्जरताली कलयत्वनिशं कुशलं वनमाली ।।१८१॥ प्रथ कन्दच्छन्दः
भुजङ्गप्रयाताभिधं वर्द्धते यत्र कलामात्रतः शेमुषीविस्तरादत्र।
भवेत्तत्र सुप्राज्ञ कन्देति सन्नाम सदा वृत्तमत्युत्तमं माधुरीधाम ॥१८२॥ यथा-लसन्म गुजाफलोदारहारेण सदाऽमन्दवृन्दाटवीकेलिकारेण ।
मुहुर्जातगोवर्द्धनाद्रिप्रचारेण हृतं मे मनो दिव्यगोपोकुमारेण ॥१८३॥ अथ कमलावली
भादनु सलघुचतुष्टयभद्वय-मस्ति चरणमितिरित्थमनामय ।
सन्तनु ननु कमलावलिनामक-वृत्तमतुलमिदमद्भुतधामक ॥१८४॥ १. द्रुतविलम्बितमिति नामान्तरम् ।
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तृतीयो गुम्फः
[ ५१ यथा-नूतनजलदमनोहरविग्रह जातदनुजदितिजौघविनिग्रह। ... भालकलितविलुलत्कुटिलालक पालय निजजनमद्भुतबालक
।। १८५॥ प्रहर्षिणी
लक्ष्मैतन्मनजरगाः क्रमेण कार्या विश्रामस्त्रिभिरथ दिग्भिरत्र धार्यः । भोगीन्द्रस्फुटमुखचन्द्रगा सुधेयं विख्याता कविषु भवेत्प्रहर्षिणीति
॥१८६॥ यथा-अध्यक्षिणदमवेक्ष्य पङ्कजातं सजातं विकसितमापतन्मिलिन्दः ।
श्यामायाममृतमयूखमीक्षमाणः सम्मोदप्रचयमचीकरच्चकोरः ।
॥ १८७ ।।
अथ हरिणप्लुता
पठितं रहितप्रथमाक्षरं द्रुतविलम्बितमाद्यतृतीययोः ।
गदिता कविभिर्मतिशालिभिर्भवति सा भुवने हरिणप्लुता ॥ १८८ ।। यथा-अपि कोपि पिको विपिने रटन्विकुरुते कुरुते न मनो मम ।
__ क्व नु सा प्रमदा प्रमदावहा हरति या रतिया विरहज्वरम् ॥ १८६।। प्रभावतीवृत्तम्
तान्ते गुरुर्नजरगणा यदि क्रमाहत्ता भवन्त्यनपमरीतिशालिनः । मोदावहा भवति यतियुगग्रहैः सा जीयते गरिमवती प्रभावती
॥ १६० ॥ यथा-कूजपिकीकलकलकाकलीकले कुजालये पुलकविसंष्ठुलाकृतिः । कृष्णोऽधुना तव मुखचन्द्रचन्द्रिकातृष्णोच्चलन्नयनचकोरकः स्थितः
॥१६॥ इयमेव लघ्वादिश्चेत्कलावती स्यात्यथा-समुल्लसत्कुसुमपरागधोरणी पुरो यथा प्रसभमुदेति कानने । तथोत्थितां मदननृपस्य लक्षये समन्ततो भुवि चतुरङ्गिणी चमूः
॥१६२॥ अथ वसन्ततिलका
वक्रद्वयं जगणतः सगणद्वयं स्यादन्ते तथैव यगणः सततं नियोज्यः । फुल्लद्वसन्ततिलकाञ्चितसौरभाढयं छन्दो वसन्ततिलकाभिधमेत
दुच्चैः ।। १६३॥
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५२ ]
वृत्तमुक्तावल्याम् यथा-कूमककन्दभुजगाधिपदिव्यनालं स्वर्णाद्रिकणिकमुदञ्चितदिग्दलौघम्। भूमीहरिच्छदपरिच्छदमम्बराऽलि श्रीरामचन्द्र भवतो यश एव पद्मम्
॥१६४॥ अथ चक्रपदम्
भाऽनुगकविवरवसुलघुकलितं राजति किमपि सगणयुतिललितम् । तत्पदमखिलविबुधगणभणितं चक्रपदकमिदमभिगुणगणितम्
॥ १६५॥ यथा-सन्ततमपघनसुललितकमला लीलितविलसितविजितसुकमला । - लोचनमुखकरपदशुभकमला भासि तरणिरधितरुणिमकमला ॥१६६।। भ्रमरावलिः
सगणान् कुरु पञ्च विचार्य विशूद्धमते
भ्रमरावलिनामकमेतदुदारगते । जयतीह सुवृत्तमनेककवीन्द्रमतं
कलपञ्चदशाक्षरभूषितपादततम् ॥ १६७ ।। विलसज्जलसज्जलसद्घनवृन्दरुचः
पृथुदानपयोभरनिर्भरसङ्घमुचः । मणिसुन्दरकुम्भमिलद्रविबिम्बभृतः
प्रसरन्ति गजास्तव राघव युद्ध जितः ॥ १६८ ।। सारङ्गी
तिथ्याख्यातप्रोद्यत्संख्या वर्णा यस्याः स्युः पादे
विभ्राजन्ते सर्वे वक्राश्चित्तान्तर्दत्तास्वादे । सारङ्गीति प्रोक्ता सर्वैश्छन्दोविद्भिर्विज्ञाता
पीयूषाक्त : शब्दैरथैर्युक्ता सम्यक्प्रोद्भाता॥ १६६ ॥ अम्भोगभैरुद्गच्छद्गम्भीरध्वानं गर्जद्भिः
प्रायः प्रेयोविश्लिष्टप्राणेशीजीवानर्जद्भिः । रम्भास्तम्भाऽऽकम्पाऽऽरम्भिप्रातर्वातोद्यन्नोदैः'
प्रावृटकालप्राविर्भूतैर्योम च्छन्नं पाथोदैः ।। २०० ॥ १. प्रातर्वातेन उद्यन् (उत्पद्यमानः) नोदः प्रेरणं येषां तैः (पाथोदः)।
यथा
यथा
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तृतीयो गुम्फः
[ ५३ यथा-कामस्यैषा सेना काचित्सम्प्रत्युच्चैरुद्याता
शम्पाशक्त्या कम्पा लोके लोके लोके विख्याता । संख्यातीता पन्थिश्रेणी झञ्झाभिर्भीतिं नीता
कुञ्ज कुजे केकाशब्दरेका कीर्तिः सङ्गीता ।। २०१॥ चामरम्
वक्रशुद्ध सुक्रमेण सप्तवारमुच्चरन्तन्त एकवक्रवर्णमानयेति दुष्करम् । चामराख्यवृत्तमत्र वित्त चित्तमोहनं नागराजभाषितं समस्तशर्म
दोहनम् ॥ २०२॥ यथा-हंसवंशसप्रशंसमिन्दुबिम्बगज्जनं क्षीरसिन्धुनीरबन्धुहीररूपभञ्जनम् । शुक्ल चामरौघचारु लोकचित्तरञ्जनं भाति राम तावकं यशः
प्रमोदसञ्जनम् ।। २०३ ।। निशिपालच्छन्द:
वक्र'रगणत्रितयमग्नरगणान्वितं यत्र चरणं भवति वर्णगणभावितम् । वृत्तमिदमेव निशिपाल इतिनामकं वित्त हृतचित्तममृतौघ
निजधामकम् ।। २०४।। यथा-पारदतुषारभरनारदतनूपमा सारघनसारमणिहाररुचिसंक्रमा। शारदविशालपटशारदघनोज्ज्वला भाति तव भूमिधव कीर्तिरति
शीतला ॥ २०५॥ पदहंसकम्
लघुयुग्ममुच्चर वक्रमुद्धर तन्मुखं बहुशुद्धमानय भं विना नय सन्मुखम् । बहुवक्रशुद्धमथापि भं रगणं ततः पदहंस'काभिधमेघगर्जसभागतः
॥२०६ ॥ यथा-वनकीरकोकिलकेकिकूजितभावितं जलदानधारणमेघवारणधावितम्। अवनीहरित्तृणसंगतेन्द्रवधूयुतं समयं विलोकय मानिनि द्रुतमद्भुतम्
॥२०७॥ १. भोज सुनि राघवहि द्योस निशिपाल है। अर्थात् भ-ज-स-न-र गणा निशि. पालमिति छन्दःप्रभाकरः । २. मन हंसमिति छन्दः प्रभाकरः। स-ज-ज-भ रगणाः। 'सजजीभरी मनहंसा
वृत्तहि गानकै'
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५४ ]
वृत्तमुक्तावल्याम् मालिनी
नगणयुगलमादौ वक्रयुग्मं रयुग्मं तदनु कलय वक्र तोषयन्भूमिशक्रम् । प्रतिचरणनियम्यं वृत्तमेतत्सुरम्यं गुणिगणमुखगेयं मालिनीनाम
धेयम् ।। २०८ ॥ यथा-यदसिविलसितौघेरासुरं सर्गमस्तं
गतमवनितलान्तर्वीक्ष्य सेन्द्राः सुरौघाः ।। प्रसभमवतरीतुं व्योमत: कामयन्ते
___स जयति जयसिंहो मानवंशप्रदीपः ॥ २०६।। शरभच्छन्द:
भुवनगणितलघुमधुरिमकलितं चरमविधृतगुरुसमधिकललितम् । तदिह शरभ इति सुविदितरचनं जयति सततसुखसमुदयसचनम्
॥२१०॥ यथा-सूसमरवसदसि विदलितधिषणं सुसमरवसदसिविदलितधिषणम् ।
अधिनवमहमिह वरभवकन्तं अधिनवमहमिह वरभवकन्तम् ।।२११॥ अथ नराचच्छन्दःलघुर्गुरुर्यदि क्रमेण धीयतेऽष्टवारकं
" तदेह वृत्तमुत्तमं विभाति चित्तहारकम् । नराच इत्यमन्दनामसङ्गतं विराजितं
फणीन्द्रवक्त्रभाषितं कवीन्द्रहृत्सभाजितम् ।। २१२ ॥ यथा-करीन्द्रकुम्भसम्पदामशेषभावतस्करी
प्रभूतशातकुम्भकुम्भसम्भ्रमैकसुन्दरौ। उदारहारभारभातरङ्गिणीविहङ्गमौ
विराजतः समौ तव स्तनौ सदैकसङ्गमौ ।। २१३ ।। यथा वाललाटवेदिकान्तिकस्थिताक्षिकुण्ड विस्फुरत्
प्रचण्डपावकावलीहुतासुरप्रपञ्चकम् । समस्तलोकमङ्गलप्रसङ्गदिव्यदीक्षितं
त्रयीनिरूढलक्षणं तमेव देवमाश्रये ॥ २१४ ।। अथ नीलच्छन्दःअत्र भपञ्चकमन्तविराजितवक्रयुतं
षोडशवर्णसभाजितसुन्दरशब्दरुतम् । तत्कविनायकमोदविधायकमजुतरं
नीलमिति स्फुटनामसुवृत्तमवेहि पदम् ॥ २१५ ।।
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यथा - रास मनोहरलासवितीर्णविलाससुखं हासविराजितभासहितोरुविकासमुखम् । नीलपयोधरशोलधरं भवकीलहरं
तं कलये हृतशङ्कमहं हतपङ्कभरम् ॥ २१६ ॥
अथ चञ्चला
तृतीयो गुम्फः
वक्रशुद्धवर्णयुग्ममष्टवारमुच्चरन्तु षोडशार्णवृत्तमेतदेवमेवमुद्धरन्तु । चञ्चलाभिधानधारि भूरि वित्त मोदकारि नागराजवक्त्रचन्द्रसम्मतं विशेषहारि ॥ २१७ ॥
यथा-उल्लसद्वसन्तकाल वल्लरीवितानि तेषु
विस्फुरद्धनान्धकारधोरणीसमावृतेषु । तेषु तेषु काननेषु तानि तानि लीलितानि
यथा वा
विस्मृतानि नन्दबाल कुब्जिकामनस्यमानि ॥। २१८ ॥
अथ ब्रह्मरूपकम्—
आदौ त्रिर्वक्रं दत्त्वा वक्रद्वन्द्वान्युक्त्वा पञ्चातत्रिर्वक्रं दत्त्वा चित्तं हृत्वा यस्यैकोङ्घ्रिः सञ्जातः । तच्छन्दोविद्भिश्छन्दो वेद्यं मन्दोहानाम ज्ञेयम् ब्रह्माख्यं रूपं जाग्रद्रूपं तुष्यद्भूपं विज्ञेयम् ॥ २१९ ॥ - उद्वेल्ल द्विद्युद्वल्लीमल्लीभूता सल्लीला सङ्गच्छद्गङ्गा वीचीरङ्गा मोहध्वान्तप्रोन्मीला | मन्दोद्यद्द्रुष्टश्रेणीनिद्रामुद्रारुद्रारुद्राणी
यथा
प्रोद्भूतश्रेयःश्रीनिःश्रेणी श्रेयस्येषा मद्वाणी ।। २२०
[ ५५
कुत्रासौ भूमिर्भूयोभारा कुत्राऽसाराऽपां धारा कुत्रैतत्तेजस्तीक्ष्णं भानोः क्वैते वायोविस्ताराः ।
क्व श्यामं व्योम भ्रामं भ्रामं कामं क्षामप्रज्ञोऽहम्
श्रीनाथस्याथ स्पृष्टो दृष्ट्या हृष्टो भिद्यां सम्मोहम् ।। २२१ ।।
अथ पृथ्वी
जशुद्धजगुरूत्तरं नगणरद्वयं चेद्भवेतदा सकलवाग्मिभिर्भृशमभाणि पृथ्वीति तत् ।
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२६ ]
वृत्तमुक्तावल्याम् विभाति यतिरष्टभिर्नवभिरक्षरैर्मोददा विमोहितसभासदा समुदयेल्लसद्वृत्त के ॥ २२२ ॥ क्वचित्कनकमालिका क्वचन किङ्किणीजालिका क्वचिद्रुचिरमम्बरं क्वचन भालरत्नं वरम् । क्वचिच्च चिकुरोत्करः क्वचन भाति मुक्तासरः
प्रमथ्य सुरताम्बुधिं कृतवती त्वमेवं विधिम् ।। २२३ ॥ यथा वा
ननु व्यरचि सा वधूरिह सुमेधसा वेधसा वशीकरणवस्तुभिस्तुहिनशीकरक्षालितैः । विलोचनसुखावहावयवशालिनी यन्मनो
जहार हृदि सङ्गता सकलमङ्गतापं च मे ॥ २२४ ।। अथ मालाधरच्छन्द:
इह रुचिरवृत्तके हृतसभासदश्चित्तके त्रिलघुमय आदिमो यदि गणो विनिर्मीयते । भणत विबुधास्तदा सरसवर्णमुक्ताफलम्
सुखदमतिसुन्दरं सततमत्र मालाधरम् ॥ २२५ ॥ यथा-विरहिहृदि यायिनः स्मरसुकीर्तिसङ्गायिन:
कमलमधुपायिनः सविषबाणसञ्चायिनः । सुरभिरथसङ्गिनः सुमणिकिङ्किणीरङ्गिण:
किमपि ददतेऽलयः कुतुक मुल्लसत्केलयः ।। २२६॥ अथ शिखरिणी
पुर: शुद्धं वक्रं कुरु गुरुलघूनां सुरुचिरम् चतुष्क प्रत्येकं यगणनगणावन्तगुरुकौ । क्रमादेवं न्यासाऽतिशयसविलासाक्षरपदा
रसै रुदैर्युक्ता रचितयतिरुक्ता शिखरिणी ॥ २२७ ॥ यथा-जराजन्मागारं मरणभयभारं विदधतम्
रुजां पारावारं विगतसुखसारं च विरसम् । अये वारं वारं कुमतिजनतारञ्जनकरम् धिगेनं संसारं व्रजपतिकुमारं स्मर मनः ।। २२८ ॥
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[ ५७ .
तृतीयो गुम्फः यथा वा
कलाकान्ते याते चरमदिशि जातेन महता वियोगेन श्यामा मलिनतरधामा समभवत् । मुहुनिद्रामन्दोदयकुमुदसन्दोहकपटा
निमोलन्नेत्रेयं तनुतरतनुत्वं च भजते ।। २२६ ॥ अथ मन्दाक्रान्ता
वेदा वक्रा नगणसगणौ रद्वयं चापि वक्र यस्यामेवं चरणनियमो भोगिराजेन गीतः । विश्रामः स्याद्यगरसहयैः सर्वदाऽऽनन्दहेतु
मन्दाक्रान्ता परिलसति सा वृत्तशास्त्रे प्रसिद्धा ॥ २३० ॥ यथा-श्रीमद्गोवर्द्धनधरवराधीश धैर्यैकधारिन्
धीरोदात्तध्वनितमुरलीनादमाधुर्यधामन् ! धीमन् धाराधरसम धराधार धूतोद्ध राधे राधाऽसाधारणरतिनिधे सन्निधेह्यान्तरे नः [ध्वान्तमेतद्धमीहि]
॥२३१ ।।
...... स्फुरच्छुद्धवक्रं यदा।। भवति चरणमेतदुच्चैस्तदा भाति वृत्तं बुधा
भुजगनृपतिगीतमुक्तादिहाराख्यमन्तः सुधा ।। २.२ ।। यथा-जय जय जय राम वेदान्तसिद्धान्तसाराकृते
सुरपतिहितकार्यजातावतारोग्रतेजोधृते ! दशमुखमुखदुष्टरक्षोवरानीकिनीसंहृते
कलय कलय भव्यमस्मादृशे मोहभस्मावृते ।। २३३ ।। अथ मञ्जीरा
षड्भिर्वरग्रे शोभितमुच्चै रेकभकारस्थानं वक्रद्वन्द्वानन्दिभ्राजितमग्रेऽप्येकभकाराऽऽदानम् । अन्ते वेदैर्वकै राजितमुद्यद्दीपविरामोदारं मञ्जीराख्यं वृत्तं सम्प्रति जानीताच्छसुवर्णस्फारम् ॥ २३४ ।।
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५८ ]
वृत्तमुक्तावल्याम् यथा-रक्षोवक्षोविक्षोभोचितचञ्चबाणविमुञ्चच्चापं
दारं दारं वारं वारमरातिप्राणविसर्पत्तापम् । भास्वद्वंशोत्तंसं शंसितमग्रे वेदचतुष्केनालं
कामं कामं रामं नौमि समन्तादद्भुतभूमीपालम् ।। २३५॥ अथ क्रीडाचक्रम्
भुजङ्गप्रयातं भणैकाघ्रिजातं तदने तदर्द्ध प्रविन्यस्य कुर्याः समुच्चारमुच्चैः सबुद्धया समृद्धम् । तदा वृत्तधाम स्फुटं तस्य नाम प्रकृष्टं गृणीयाः
समाक्रीडचक्र समुद्भाव्य वक्र मनांस्यावृणीयाः ।। २३६ ।। यथा-कवित्वप्रसारातिपीयूषधारा विनिर्यद्विचारा
समुद्भूतभूयोविकारात्तरुद्राभिसारा [ऽऽत्मधारा] । प्रशस्ता प्रकारावलीभिः समाराध्यमन्त्रप्रचारा समन्तादुदारा महादेवदारा विनोदैकसारा ॥२३७ ।। विधेः पार्श्वयाता तथा लोकमाता तुषाराद्रिजाता गुणौघावदाता यश:पारिजातातिसौरभ्यवाता। प्रसर्पत्प्रभातार्कविद्योतपाता वसत्यङ्कजातारुणश्रीसमांताम्रहस्ताम्बुजाता कृतानेकशाता ॥ २३८ ।। सदैवाऽविगीताश्रया दिव्यगीताख्यशास्त्रेण गीता. मनोदेशनीता तदैव प्रतीता शशिश्रेणिशीता। परित्रातभीता मरालीपरीता गम्भोजपीता वशीभूतसीतापतेर्बुद्धयतीता द्विजेन्द्ररधीता ॥ २३ ॥ नमन्नाकपालादिदिकपालबालाशिरोधार्यमाला महारत्नजालावलीढप्रभालालिताघ्रिप्रबाला । समालिप्तकालागुरुर्वैरिकालायिता पीतहाला
जयत्युद्भटालापशाला विशाला महेशी कराला ॥ २४० ।। अथ चर्चरी
रान्वितं लघुयुग्ममुच्चरत त्रिवारमुदञ्चितं प्रान्ततो रगणान्वितं पदमेवमानय सञ्चितम् ।
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तृतीयो गुम्फः
[ ५६ चर्चरीति मनोहराभिधमद्भुतं समुदाहृतं
वृत्तमेतदहीन्द्रनिर्मितमञ्जसा कविभिः कृतम् ।। २४१ ॥ यथा-शारदापटनारदाकृतिपारदाकरराजितं
क्षीरसागरतीरशोभितहीरसप्रसभाजितम् । चन्द्र चन्दनचन्द्रिकाचय चारुचामरभाजितं
सस्तवं सुयशस्तवाऽवनिशस्तसुज्ञसभाजितम् ॥ २४२ ।। अथ शार्दूलविक्रीडितम्
दत्वादौ मगण ततः सजगणौ सान्ते ततस्तद्वयं तस्यान्ते गुरुमेकमुच्चर सखे कृत्वा मतिं निश्चलाम् । इत्युच्चैः प्रचरच्चतुश्चरणभाक् सम्भाव्यमानाक्षर
छन्दः सन्ततसुन्दरं विजयते शार्दूलविक्रीडितम् ।। २४३ ।। यथा-हुङ्कारान् वितनोति मुण्डपटली रुण्डावली कूदते
शुण्डाः शुण्डिभुशुण्डिखण्डपतितास्तत्राऽस्रकुण्डान्तरे । इत्थं विक्रमवक्रखङ्गनखरप्रकान्तघोरक्रियस्त्वं राजेन्द्र रणाङ्गणे वितनुषे शार्दूलविक्रीडितम् ॥ २४४ ॥
यथा वा
खेलन्मजुलखञ्जरीटनयना पूर्णेन्दुबिम्बानना तारामण्डलमण्डनातिविशदज्योत्स्नादुकूलावृता । वक्षोजायितचक्रवाकमिथुना चञ्चन्मृणालीभुजा
फुल्लत्कोकनदौघपाणिचरणा भाते शरत्कामिनी ।। २४५ ।। अथ चन्द्रनामकं वृत्तम्
नगणलघुयुगल मिति तद्विरिह सुजन कुरु तदनु गुरुनगणयुगमन्तलघुयुगलमुरु । वद तदतिरुचिरगति वृत्तमिह सुकविवर कलय निजमनसि किल चन्द्र इति चतुरनर ॥ २४६ ॥
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वृत्तमुक्तावल्याम्
यथा-कुशलकरमुशलधर घूर्णतरनयनवर
दनुजहर मनुजदवदुःखभरहरणकर ! अमलकरकमलवरणीयवरनिकरधर धरणिधरधरणवर वीरवर मनसि चर ॥ २४७ ।।
अथ धवलच्छन्दः
सनिगमलघुगणमुपनय कविवर मुखतः चतुरिह विरचय सुचतुरवर निजसुखतः । तदुपरि सगणमुदिततरमिह कुरु सततं
कलय धवलमिति सुविदितमतिगुणविततम् ॥ २४८ ॥ यथा-अमृतभरितनवजलधरमधुरिमधरणं
समुदितमनसिजशतगतरुचिमदहरणम् । [प्रमुदितसकलविबुधहृदि मतिधृतिकरणं]
भज भज गिरिधरमुपनतबुधजनशरणम् ॥ २४६ ।। अथ शम्भुवृत्तम्
लघुयुग्मं कारय भूयो धारय वक्रद्वन्द्वं सानन्दं भगणं विस्तारय वक्रौ धारय भान्ते धेहि स्वच्छन्दम् । मुनिवक्राखण्डितमुद्यत्पण्डितराजीमध्ये दानीयं
निजचेतस्यानय वृत्तं मानय नाम्ना शम्भुस्थानीयम् ।। २५० ।। यथा-कलकूजितकोकिललोकाकारितदृप्यच्चेतःकन्दर्प
वनवल्लीपुञ्जितभृङ्गीगुञ्जितनश्यद्वीरासन्दर्पम् । सहकारामोदिविसर्पन्मारुतदत्ताकम्पश्रीखण्डं
मधुमेनं मानिनि मुग्धे मानय मानं मुञ्चामुं चण्डम् ॥ २५१ ॥ अथ हरिगीतम्
लघुयुग्ममुच्चर वक्रमुद्धर शुद्ध भाभरतन्मुखं भगणं वितानय वक्रमानय शुद्ध मासय सत्सुखम् । भमथो नियोजय गुं प्रयोजय शुद्धतो नय भं च रं भुजगोदितं हरिगीतमुगिर वृत्त मन्तरसुन्दरम् ॥ २५२ ॥
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तृतीयो गुम्फः
यथा
- बहु कामदायक देवनायक मुक्तमाय कलानिधे गिरिराजधारण जम्भदारणदर्पवारणहृद्विधे । जनचित्तरञ्जन दुःखभञ्जन कंसगञ्जन सन्निधे जय भक्तरक्षणकृद्विचक्षण दिव्यलक्षणवारिधे ।। २५३ ।।
श्रथ मुण्डकच्छन्दः
वक्रशुद्धात्मकान्वर्णान् दशवारं समुच्चरन् । कुरुष्व मुण्डकाख्यं तच्छन्दः सन्दर्भकोविद ॥ २५४ ॥ यथा-शारदाच्छतारकाभिरामरूपराजमान तारहार
विस्फुरद्विलासहासभासमान रासलासकेलिकार । मञ्जुलालिपुञ्जगुज्जमालतीत माल कुञ्जमोदमान पाहि कृष्णचन्द्र चित्तहारितार (मध्य) मन्द्रवेणुगान ।। २५५ ।।
श्रथ स्रग्धरा
पूर्वे स्युर्वेदवक्रास्तदुपरि यगणः शुद्धषट्कं च वक्रो रद्वन्द्वान्तेऽथ वक्रः पुनरपि चरणानीति चत्वारि यस्याम् । मार्तण्डाश्वैर्मुनीन्द्रैः पुनरपि मुनिभिर्यत्र विश्रान्तिरुक्ता छन्दः सन्दोहकल्पद्रुम कुसुमकृतस्रग्धरा स्रग्धरा सा ।। २५६ ॥ यथा- प्रद्याभूदुत्तरङ्गो मम हृदि परमानन्दपाथोधिरुच्चैः
स्वान्तध्वान्तौघशान्तौ सपदि दश दिशः सुप्रकाशा ममाद्य । सन्तापः संहृतो मे कठिनतरकलिग्रीष्मजन्माऽद्य यस्माद्दृष्टः श्रीमत्सवाईजयपुरपृथिवीपालपीयूष रश्मिः ।। २५७ ।। अथ नरेन्द्रवृत्तम्
भानु[सु]वक्रशुद्धगणयुगयुतषड्लघुभद्वययुक्तं सन्ततमन्तवत्र्युगविरचितमेतदतीव निरुक्तम् ।
[ ६१
भोगिनरेन्द्र वक्त्रविधुनिगदितमन्तरमोदनिदानं वित्त नरेन्द्रवृत्तमिदमनुपममत्र सुधैकसमानम् ।। २५८ ॥ यथा - फुल्लस रोजधूलि भरदृढत रचमं चमत्कृतिधारी चञ्चलचञ्चरीकततिलसदसि कम्पन कौतुककारी ।
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६२ ]
एष वियोगिलोकभयवितरणसद्गतिधारणधीरः कामनिदेशवश्य इह विसरति मानिनि मारुतवीरः ।। २५६ ।
श्रथापरहंसीच्छन्द:
वृत्तमुक्तावल्याम्
विद्युन्मालापादस्यान्ते विलसिततररविलघुगणयुक्त तस्याप्यन्ते नित्यं राजद्गुरुयुगविरचनसुललितमुक्तम् । हंसीनामच्छन्दो वेद्यं सकलसुकविजनकृतसुखदानं दिग्भर्लोकैर्यत्या रुच्यं निरुपमचतुरिमनिचयनिदानम् ।। २६० ।। यथा-उच्चैराशाः फुल्लत्काशाः कलितविषमदल विपिनविकासाः कञ्जे कञ्जे भृङ्गश्रेण्यः कलितललिततररवधृतपाशाः । जाग्रज्ज्योत्स्नाजालज्वाला दिशि दिशि विकलितसविरहबाला सम्प्रत्येषाऽऽयाता लोके शरदनुपमरुचिकलनविशाला ।। २६१ ।। श्रथ सुन्दरीवृत्तम्
सगणद्वययुक्तं भगणनिरुक्तं सादनु वक्रयुगाकलितं सगणत्रयशोभं विरचितलोभं मञ्जुलवर्णतया ललितम् । भण सुन्दरवृत्तं मोहितचित्तं पण्डितलोकमनोवलितं रसपुञ्जसमेतं सम्पदुपेतं पादचतुष्कसदाचलितम् ॥ २६२ ॥ यथा - प्रतिसुन्दररूपं त्रिभुवनभूपं दत्तभवोदधिसन्तरणं दशकन्धरकालं समरकरालं जातपुरन्दरसत्करणम् । धृतदुर्धरचापं कुशलकलापं सन्ततसत्पथसञ्चरणं
नितरामभिरामं भज भज रामं साधुसमूहसदाशरणम् ।। २६३ ॥
श्रथ सवैया - सप्त भगणा गुरुश्चैकोन्ते, द्वौ वा अष्टौ भगणा एव वा, सगणा एव वा इति चतुर्द्धा सवैयाच्छन्दः । क्रमेणोदाहरणानि -
पीतदुकूल तडिद्युतिवृन्दसुदीपितभक्तमनोगगने बर्हिणचन्द्रकचारुकिरोटपुरन्दरचापसमुद्वहने । वेणुरवामृत गर्जितशालिनि पालितसज्जनचित्त वने पातकपूरित चातकपोत न यासि कथं नवनीलघने ।। २६४ ॥ हासविलासविकासवती रुचिरूपल सन्मकरन्दरसाला मोहितचित्तमधुव्रतराजसभाजित सन्ततसौरभशाला ।
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तृतीयो गुम्फः
[ ६३ यौवनरक्तिमचारुपरागधरा परिगुम्फितसद्गुणजाला भामिनि भाति परं भवती भुवि हेमसरोजमयी नवमाला ॥२६॥ दानवगञ्जन सज्जनरञ्जन हृद्भयभञ्जन मङ्गलदायक मानवतीजनमानविमोचन निर्गतशोचन लोचनसायक । मज़ुलवजुलकुञ्जकुटीविलसद्वषभानुसुतागुणगायक रासविलासकलासमुदञ्चित मामिह पाहि परं वजनायक ।।२६६।। मृदुहासविलासविसृत्वरसौरभलुब्धमधुव्रतसंवलना धृतकोमलकेलिकलाकुसुमावलिरुच्चकुचद्वयसम्फलना । कमनीयलसद्गुणपल्लविता ललिता परितापविनिर्दलनो नवकामनिकुञ्जललामलतेव विभाति विलासवती ललना ॥२६७॥
इमामेव केचिदुर्मिलेति सङ्गिरन्ते । अथ द्वितीयत्रिभङ्गीद्विरुदितवसुलघु चतुरुपचितलघु विरचितभद्विगुवर्णं द्विलवक्रद्वन्द्वसुयुक्त तदनु भगणयुतगुरुयुगकृतरुतमुदितमवद्यविमुक्त फणिराजेनैव निरुक्तम् । इदमनुपमगति बुधजनकृतरति शुभयतिदानविचित्रं हृतचित्तं सत्कविवित्तं धरणिधिषणसम विरचय सुधिषण किमपि मनोहरवृत्तं शुभवाचा वर्णित
वृत्तम्। ।। २६८ ।। यथावलितललितगतिचलितकलितसुखजलधरसुन्दरभासं सविलासं कोमलहासं प्रकटितसुघटनटनपटुनवनटवटतरुसङ्गतरासं कृतलासं केलिनिवासम्। अमितमदनमधुरिममदविदलनपदनखरश्मि विकासं सदुपासं पापनिरासं तमिह कलय मम हृदय भजनरतिकृतमति सङ्गसमासं सुखभासं
मोदितदासम् ॥ २६६ ॥ अथ शालूरच्छन्दः
वक्रद्वयविरचितमुखरुचिपरिचितमथ षडुदितमिति निगमकलं शालूरमवधिपरसगणमुरगवरवदनकमलगतममलमलम् । वृत्तं तदखिलहृदयरुचिरतर(नर) मुचितविरतिभरनिहितबलं जानीहि विबुधवर नृपतिसदसि चर कलय हृदयहरममृतफलम्
॥ २७० ॥
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६४ ]
वृत्तमुक्तावल्याम् यथा-संसारसरणकरविकलसकलनरनिकरपरमशरण (द) चरणे
गोवर्द्धनगिरिवरधरणविदिततरसुरपतिमदभरपरिहरणे । वंशीरवसुमुदितगणशतसमुदितपशुपयुवतिविलसितकरणे चेतो मम विरचितशममिह निवसतु भगवति भवजलनिधितरणे
॥ २७१ ।। अथ विशालोपविशालच्छन्दोलक्षणे
यत्र चरणे यथोचिताऽनियतगुरुलघुशालिनि पूर्व षोडशवर्णैर्यतिस्ततः पञ्चदशवर्णैस्तद्विशालाख्यं छन्दः । पूर्वं पञ्चदशादौ विरामस्तत: षोडशादी, तत् खजविशालं भवति । यत्र पुनः षोडशवर्णैस्तदुत्तरमपि षोडशवर्णं रेव विरामस्तत् उपविशालं नामच्छन्दः । इदमपि पूर्ववद्यतिभेदे खोपविशालाख्यं वृत्तं भवति । परं त्विह द्वात्रिंशद्वर्णघटिते उपान्त्यो वर्णः सर्वदा गुरुरेव प्रयोक्तव्योऽन्त्यश्च लघुरेवेत्येक: पक्षः । उभावन्त्योपान्त्यौ लघू एव भवतः, परः पक्षः । उदाहरणम्
शारदनभःस्थलीव निर्मलनिरभ्रगणा, राजमानरुच्यरुचितारावृन्दधारिणी चारुपुरुहूतमणिबद्धसरणी (व), बहुरत्नरमणीयरूपकौतूहलकारिणी। दीपमालिकाया निशि भाति भूरि दीपभृता, कालिन्दी करालकलिकल्मषविदारिणी वसुमती केशवविलासवती तनुधृता, नीलशाटिकेव हेमबिन्दुजालधारिणी ।। २७२ ।। वृन्दारण्यचारिणी कदम्बपुष्पभारिणी, मिलिन्दवृन्दहारिणी सुगन्धिपूरगामिनी भक्तलोकपालिनी दयालुतानिभालिनी, रमेशसङ्गलालिनी महाघशैलदामिनी। पारिजातपुष्पतारकौघमण्डिता रमेशचन्द्रसङ्गिनीव कापि नील [नील]यामिनी भूरिभङ्गरङ्गिणी तरङ्गिणीषु निस्तुला, करोतु मे शुभानि सा कलिन्दजेतिनामिनी ॥ २७३ ।।
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[ ६५
तृतीयो गुम्फः रासकृतलाससविलासमुखहासरुचिदूरीकृतराकारजनीकरसहस्रमान मधुकरपुञ्जगुञ्जशालिनवकेलिकुञ्जचक्रवर्तिताधरस्वतन्त्रतैकमोदमान । चारुवरसानुगिरिवासिवृषभानुजाभिलाषकृत [भानुजार्थ] गोचारणवेणुगान भक्तपरिरक्षणविचक्षणसुलक्षणवलक्षगुणलक्ष जय कृष्ण करुणानिधान ।। २७४ ।। शैलसुतासानुरागशोभमानवामभाग, चारुरुचिचन्द्रकलाकलित[किरीटतट] मौलिमिलन्मन्दाकिनीमञ्जुलतरङ्गरङ्गमङ्गलनिधान पञ्चबाणदमनैकभट । भीषणभुजङ्ग भोगभासमानमालाधर, कालानललोचन विशालकलिताशापट पालय कृपालय निभालय गिरीश देव,
सर्वलोकसंहरणकेलिलसदेकनट ॥ २७५॥ वायुपवारिछन्दोलक्षणम्
कला यत्र तिस्रो दश च दश भूयो दत्ता, इत्येवं चरणस्थितौ कलिता, गुणवत्ता, वारिवृत्तमिदमीरितं लसदक्षरजालं,
कलायुगलरहितं भवेदुपवारिरसालम् ॥ २७६ ।। उभेऽपि यथा
वन्देहं निगमत्रयीनिश्वासविलासं, मालापुस्तकशङ्खचिन्मुद्राकरवासं राकाहिमकरमण्डले कृतवसतिविकास, विकचसरोरुहविष्टरे बद्धासनभासम् । चरणकमलसदुपासनात्तारित निजदासं, विद्यादानविशारदं मृदुमञ्जुलहासं हेषारवहिंकारधुतदानवहृत्त्रासं, हयग्रोवममृताकृतिं कृतमोहनिरासम् ॥ २७७ ।। जय जय जय वागीश हयकन्धर विष्णो चरणकमलसन्ततनमद्विधिहृद् जिष्णो।
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६६ ]
वृत्तमुक्तावल्याम्
दुग्धोदधिमध्यस्फुरद्विधुमण्डलवासिन् ! कमलासनशोभिततनो परमविलासिन् ! विशदवेदवाणीसुधा[सं]भृतमुखचन्द्रे ! भक्तमनोरथ पूरणानिशनिस्तन्द्रे ! हेषारवनाशितमहादितिजकदम्बे !
भवति निमज्जतु मम हृदयमेकालम्बे ।। २७८ ॥ श्रथ दण्डकजातय उच्यन्ते
षड्विंशत्यक्षरादूर्ध्वं समं पादचतुष्टयम् ।
पिपीडिकादीनुत्सृज्य दण्डकः समुदाहृतः ।। २७६ ।।
पिपोडिकादयो ग्रन्थान्तरे पद्यजातिष्वेव परिगणितास्तेन दण्डकलक्षणे तेषां व्यावृत्तिः । दण्डकेष्वादौ चण्डवृष्टिर्नामदण्डकः ।
तल्लक्षणम्
नगणयुगलशेषतः सप्त रेफास्तदा चण्डवृष्टिः प्रसिद्धो भवेद्दण्डकः । प्रतिपदमनुवृद्धरेफाः स्युरर्णार्णवव्याजजीमूतलीलाकरोद्द । मशङ्खार्कचन्द्रेश भोगीन्द्रपीयूष - वाराहवातादयः । यदि तु लघुपञ्चकाद्यस्तदा चण्डकीलो भवेत् । प्रचितकसमभिधो नद्वयात्सप्तभिर्यैः ।
नगणयुगलतश्चेन्मस्तदास्ततो या यथेच्छं निबद्धास्तदा मेघमाला । नगणयुगल परस्माद्यथेच्छं निबद्धेर्य कारैरयं चण्डवेगाभिधानः । शरमितलघुपूर्वैर्य कारैरयं सिंहविक्रान्तनामा | लघुर्गुरुर्लघुर्गुरुर्यदा मुदा निधीयते तदा पुनर्भवत्यनङ्गशेखरः यत्र वा निधीयते ।
गुरुर्लंघुर्गुरुर्लघुः स उच्यते जनैरशोकमञ्जरीति ।
प्रत्येकं मादिभिः कुर्यात्स्वेच्छया हारमेरुभिः उद्दालः सिंहविक्रीडो मत्तमातङ्गलेखितम् । कुसुमस्तबकं दाम वितानं वर्तुलाचलौ
चण्डो ललित इत्येवं दश भेदा उदाहृताः ॥ स्यात्कामबाणाभिधो दण्डकोऽयं यथेच्छं निबद्धैस्तसज्यैर्गुरुभ्यां च चित्ताभिहारी । यत्र यथारुचि भा विलसन्ति गुरू च स एष भुजङ्गविलासः ।
नगणतश्चेद् गुरुस्तस्य पश्चाद्यदाऽष्टौ तु रेफास्तदा पन्नगेन्द्रः कृतः पन्नगैः । प्रतिपदं पन्नगेन्द्रात्पुना रेफवृद्धया तु दम्भोलि हेलावली - मालती के लि-कङ्कलिलीलाविलासादयः, इति दण्डकलक्षणानि । प्रथ दिङ्मात्रेणोदाहरणानि । तत्रादौ चण्डवृष्टिर्नामदण्डकः -
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तृतीयो गुम्फः
जय जय जय देव गोवर्द्धनोदारभूमोधराधीशवृन्दाटवी चारिणे चरणकमलचारुपङ्केरुहान्तभ्रं मन्मत्तभृङ्गातिश्री मनोहारिणे । सुमधुरमुरलीरवाहूतसप्रेमगोपालिकादृक् चकोरीचमत्कारिणे
[ ६७
नम इह मम तुभ्यमुद्यन्महाघोरकंसासुरप्रेषितद्वेषिसंहारिणे ॥ २८० ॥ अस्मिन् दण्डके प्रतिचरणमेकैकरगणवृद्धौ श्रर्ण-प्रणव- व्याड जीमूतादिनामानो दण्डका भवन्ति । तत्राष्टभी रगणैरर्णार्णवः । नवभिर्व्याहः । दशभिर्जीमूतः । एवं नामानि भवन्ति ।
यथा
जय जय जय देव गोवर्द्धनोदारभूमीधराधीशवृन्दाटवीचारिणे धृष्णवे चरणकमलचारुपङ्केरुहान्तभ्रं मन्मत्तभृङ्गायितश्री मनोहारिवर्तिष्णवे । सुमधुरमुरलीरवाहूतसप्रेमगोपालिकादृक् चकोरीचमत्कारिणे जिष्णवे नम इह मम तुभ्यमुद्यन्महाघोरकंसासुरप्रेषितद्वेषिसंहारिणे विष्णवे ।। २८१। जय जय जय देव गोवर्द्धनोदारभूमीधराधीशसंशोभिवृन्दाटवीचारिणे धृष्णवे चरणकमलचारुपङ्केरुहान्तभ्रं मन्मत्तभृङ्गायितश्री मनोहारिणे रासवर्तिष्णवे । सुमधुरमुरलीरवाहूतसप्रेमसन्दोहगोपालिकादृक्चकोरीचमत्कारिणे जिष्णवे नम इह मम तुभ्यमुद्यन्महाघोरकंसासुरप्रेषिताशेषविद्वेषिसंहारिणे विष्णवे
।। २८२ ।।
जय जय जय देव गोवर्द्धनोदारभूमीधराधीशसंशोभिसानन्दवृन्दाटवीचारिणे धृष्णवे । चरणकमलचारुपङ्केरुहान्त भ्रं मन्मत्तभृङ्गायितश्रीमनोहारिणे सन्ततं रासवर्तिष्णवे । सुमधुरमुरलीरवाहूतसप्रेम सन्दोहसाकूतगोपालिकादृक् चकोरी चमत्कारिणे जिष्णवे ।
नम इह मम तुभ्यमुद्यन्महाघोरकंसासुरप्रेषिताशेषविद्वेषिभूपाल संहारिणे विष्णवे ॥ २८३ ॥
इत्यादि, एवं प्रतिचरणं शतावधिरगणवृद्धो महाचण्डवृष्टिर्नाम दण्डको भवति । यथा श्री रामचन्द्रस्तुति:
'जय जय
पाल
जय देव भूमीतलेन्द्र श्रियातन्द्रचन्द्रद्युते रामचन्द्र क्षमाशक्रादिदिक्पालतेजःस्फुरच्चण्डकोदण्डदण्डस्फुटोद्गीर्णबाणावली शीर्ण
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६८ ]
वृत्तमुक्तावल्याम् विद्वेषिसङ्घप्रभूतप्रचण्डप्रतापप्रकाशप्रकृष्टप्रसर्पत्प्रभावप्रसारप्रभापूरितक्ष्मातलक्षेम - दाक्षुण्णकौक्षेयकाऽक्षामलक्ष्मीक-सक्षेमसोन्मादमातङ्गविश्राणनोद्दामदीव्यद्गुणग्राम • भूदेवविश्रामभूयस्तरायामधर्मद्रुमाराम हे राम कामाभिरामधुते ।
जय कविजनगीत सम्वित्तुलातीत नित्यप्रभोदीत शीतद्युतिस्फीत सत्कीतिसम्वीत साङ्गस्वराधीत विप्राननोनीतमाङ्गल्यवाग्गीत, खड्गस्फुटाघातसद्यःसमुत्खातसर्वद्विषबातभूमीतलापातलावण्यसङ्घातदोविक्रमत्रातसद्धर्मविख्यातकिञ्चिन्नवप्रातरुद्यत्पयोजातरोचिष्ण्वभिख्यातपादद्वयापातनम्रद्विषत्सात दानस्फुटौदार्यसद्विप्रसत्कार्यसद्वृत्तनिर्धार्यवीर्यश्रियाऽवार्यसौन्दर्यसत्पात्रभूयोलसद्गात्रनित्यद्युते ।
जय गुणमयकाय सर्वाधिकोच्छाय दीव्यत्सदध्याय विप्रावलीदाय जाताहिताऽपायशातावलीसाय, विस्फूजितामन्दसौरभ्यमाकन्द लक्ष्मीलताकन्द पूर्णान्तरानन्द दत्तारिहाक्रन्द, विद्वत्सभोल्लास भूयोरसावास बाणासनोज्जास खड्गाद्भवत्त्रासवश्यद्विषद्दास भास्वद्यशोहास बाणासनोत्प्रास विक्रान्तिसोद्भास देव तत्र त्वया कीर्तिरस्थापि यत्रोल्लसन्तः सुधापूरपूर्णाः स्फुरन्त्युच्चकैस्तुङ्गगङ्गातरङ्गास्तथा राजहंसावली राजते यत्र कीर्तिस्तथा स्व:पतेर्धाजते ।
जय कविजनभाल भूरिस्फुरद्भाग्य भूम्ये कसौभाग्य सम्पत्तिसम्भारधौरेयतोद्दण्डदोर्दण्ड शुण्डासमुच्चण्डभृङ्गावलीगण्ड(शोभेक)वेतण्डविश्राणनाखण्डभूमण्डलाखण्डलोग्रप्रभाजाग्रदत्युग्रहस्तान किं भूयसा विस्तरेण त्वया देव कीर्तिश्रिया विश्वमेतत्समस्तं कृतं निस्तमस्क तथा कोटिनिर्लाञ्छनेन्दुच्छवीनां घटाभिर्नसम्भाव्यते तादृशीरतस्त्वं समस्तावनीपालमूर्दाग्रमाणिक्य हे राघवेन्द्र प्रभो जीव जीयाश्चिरं देव जीयाश्चिरम् ।। २८५॥ यथा वा श्रीकृष्णचन्द्रमहामहिषी-श्रीयमुनास्तुतिः____ जय जय जय देवि ज़म्भारिमुख्यामरग्रामजञ्जप्यमानस्वरूपे लसज्जह्न - कन्यादिकल्लोलिनीवृन्दजाग्रज्जयोत्कर्षजन्यातिहर्षे समुत्फुल्लकुञ्जावलीवृक्षपुजाटवीमञ्जुगुजारवोन्मत्तभृङ्गीगणाभङ्गसङ्गीतभङ्गीप्रसङ्गप्रसीदत्प्रतीरप्रदेशस्थयक्षे महापातकध्वंसनाबद्ध कक्षे जगज्जीवकल्याणदानकदक्षे सदारक्षिताशेषभक्त कपक्षे कलिन्दाचलाखण्डगण्डोपलक्षेऽपसंक्षुब्धपाथोघटात्युद्भटेऽन्योन्यसङ्गोच्चलत्तुङ्गभङ्गच्छटे निम्नभूमोनमत्पूरपूर्णाऽवटे ध्यानजापादिभिर्नष्टसत्संकटे तिग्मतापत्रयीपापभेदोत्कटे हेमहीरावलीबद्धदीव्यत्तटे पूरगस्वर्वधूरोजराजद्घटे लोलवीचीभुजासिक्तरोधोऽवटे कञ्जकिजल्क रुक्पोतचञ्चत्पटे नित्यशृङ्गारितारण्यशैलाज्जटे कृष्णकान्ते महानीलरत्नद्युते । ____घनघनवनवृक्षवल्लीशताच्छन्नतीरस्थनीरे सदाधौतगोपालकेलीकुटीरे कलिग्रीष्मसन्तापसंहारवीरे हरिप्रेमसन्तानदानकधीरे महारूपलावण्यलक्ष्मीगभीरे लसत्कूलकूजत्पिकीकेकिकीरे तरङ्गावलीसङ्गमुह्यत्समीरे चलच्चारुवीचीविलोलत्कुलीरे तटश्रेणिकाबद्ध [माणिक्य ) हीरे लसत्कूलसंरूढमन्दारवृक्षप्रसूनौघ
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तृतीयो गुम्फः .
[ ६६ निष्यन्दिमाध्वीकधारामिलत्सौरभोत्कर्षपाथःप्रवाहे लतामण्डपश्रीसमालोकनिःस्पन्दसानन्दवन्दारुवृन्दारकीवृन्दकेलीकलाशालिकूलावनीशोभिवृन्दाटवीमध्यफुल्लत्कदम्बप्रसूनोत्थपारागचूर्णौघसंछन्नवेगोच्चलच्चारुपुण्योदके हेमहीरावलीबद्ध गारुत्मतग्रावरश्मिच्छटासङ्घसन्दिग्धपूरे भवक्लेशपाथोधिसन्तारशूरे स्वजन्मोररीकारसन्तुष्टसूरेऽव नित्याद्भुते ।
__ अतुलवनवनिन्यमाधुर्यधुर्यस्फुरत्कृष्णकौमारपोगण्डकैशोरकेलीचमत्कारियूथीजपामालिकामालतीमल्लिकामाधुरीकेतकीकणिकारादिवल्लीतरुच्छन्नतीराङ्गणे सान्द्रवंशीवटच्छायरुद्धातपस्पर्शशैत्यावहोद्वेल्लदम्भस्तरङ्गे व्रजाधीशलीलावनोपात्तरङ्गे सदाविस्फुरद्गोपिकावृन्दसङ्गे तटारण्यविश्रान्तनानाविहङ्गे कलिङ्करधिक्कारबद्धा. भिषङ्ग महारासकर्तु विलासान्तरङ्गे भवत्सिद्धयोगीन्द्रवृन्दप्रसङ्गे निजासङ्गचित्रीकृतस्वच्छगङ्गे सदासम्भवत्पातकव्यूहभङ्गे मरुल्लोलवीचीचमत्कारचङ्गे गभीराम्बुमज्जत्तमस्वर्मतङ्गे लसत्कूलभूलोलखेलत्कुरङ्गे निजाम्भ:पृषन्तिव्रजस्पृष्टतीरस्थवामेक्षणाबाहुवल्लीद्वयीकङ्कणीभूतभूयोरदैकैकभित्तेभसम्पादितस्वर्गवासप्रमोदेऽनु - कम्पायते ।
अगणितगुणगुम्फिते लोकमातः प्रवाहान्तरामज्जदब्जेक्षणामुग्धधम्मिल्लभारानुबद्धस्फुरच्चामरौघाम्बुसंस्पर्शकालोद्धृताऽशेषतत्सौरभेयीकुले पुण्यपाथोवगाहप्रसङ्गागतानेककर्णाटदेशाङ्गनाकर्णसौवर्णभूषामिलन्मञ्जमुक्तावलोवारिसङ्ग - क्षणप्रोद्धृतप्रोल्लसत्ताम्रपर्णीसमुद्रौघसङ्गस्थलीलालुलच्छुक्तिजन्तुव्रजे दीव्यदिभ्याङ्गनाश्रोणिसम्बेष्टिताऽतुच्छपट्टाम्बरक्षालनकक्षणस्वर्गसम्प्रेषिताशेषतत्कोषकीटे सदावेदवेदान्तविख्यातभास्वद्यशोधोरणीचन्द्रिकावृन्दसम्प्रेषितप्राज्ञचेतश्चकोरे तटद्वन्द्वसंस्थापितस्तम्भसम्बद्धदोलाविलासप्रिये पीतवासःप्रिये शारदाशम्भुशेषादिजेगीयमानप्रसर्पद्गुणग्रामसम्भूषिते कृष्णवंशीरवाऽऽकर्णनोद्भूतहर्षाकुले मत्तमातङ्गधीरेऽम्ब ! भास्वत्सुते सुस्तुते सुस्तुते सुष्ठु तेऽस्मन्नमः सुष्ठु तेऽस्मन्नमः ।। २८५ ॥ ___ प्रादो लघुपञ्चकं ततश्चण्डवृष्टिवदेव रगणानां विन्यासः कार्यः । सोऽयं चण्डकीलो नाम दण्डकः । यथा-कमलमुखगोपिकामण्डलीवल्लरीकाननप्रस्फुरन्नीलमेघाकृते
रुचिररुचिमज्जताशेषदृग्विधुदुद्द्योतजिच्चारुचीरावृते । धरणिधरधुर्यधारिन् धराभारहारिन् प्रभो भव्यकारिन् भवप्रोद्धृते जय दितिजलोकसंहारक ! श्रीपते माधुरीधोरणीधामलीलाकृते॥२८६॥
अथ नगणद्वयानन्तरं सप्तभिर्यगणैः प्रचितकाभिधो दण्डकः । स यथा-जय जय जय समन्तादुदञ्चद्दिगन्ताचितध्वान्तहारिप्रकाशैकराशे * प्रतिदिनमुषसि भूयो भवद्भरिशक्त सरोजावलीवक्त्रमुद्राविनाशे ।
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७० ]
प्रसृमररुचि विसर्पत्सहस्रातिसख्यांशुमालिन् महाकाशमध्यावकाशे ग्रहपरिवृढ विवस्वन् सदा मे शुभं देहि भानो समुद्यत्कृपावारिराशे ॥ २८७॥ अथ नगणद्वयानन्तरं मगणं निधाय यथेच्छं यगणाश्चेद्विधीयन्ते तदैवंविधचतुरचरणनिबद्धो मेघमालाख्यो दण्डकः ।
वृत्तमुक्तावल्याम्
यथा
नवजलधरजालश्रीरसौ नन्दबालः सदाऽऽलापशाली किशोराकृतिः सुन्दरेन्दीवराक्षः विषमविरहबाधाहृत् समुद्भूतराधारता
सक्तयगाधातिकेलीकलाधारिचुञ्चुकटाक्षः ।
नवमधुरिमभाजा श्रीलगोपीसमाजामितानन्दकन्देन नन्देक्षणामन्दवात्सल्य देन स्मरतजयिभासा स धृतो येन गोवर्द्धनाद्रिः कराग्रे गवां पालकः पातु लम्बालकस्त्वाम् ॥ अथ नगणद्वयानन्तरं यथेच्छं यगणाश्चेद्विधीयन्ते तदैवंविधचतुश्चरणनिबद्ध'रचण्डवेगाभिधानो दण्डकः ।
यथा
जय जय जय विवस्वत्कुलालङ्क्रिया नीलरत्नप्रभानिर्जितप्रावृषेण्याभ्रकान्ते पदनखरुचिचमत्कारिचन्द्रावली चन्द्रिकौघप्रमृष्टस्वकीयान्तरध्वान्ततान्ते । अभिरणमहि समस्त त्रिलोकीमनः कण्टकोद्यद्दशग्रीवसम्पात सञ्जातशान्ते परमपुरुष सदासच्चिदानन्द पूर्णावतार प्रभो राम पायात्तमां नाम माऽन्ते ।। २८८ ॥
अस्यैवादौ लघुपञ्चकं चेद्विधीयते तदा सिंहविक्रान्तनामा दण्डकः ।
यथा
जय जयसि विवस्वत्कुलालङ्क्रियानीलरत्नप्रभानिर्जितप्रावृषेण्याभ्र कान्ते चरणनखचमत्कारिचन्द्रावलीचन्द्रिकौघप्रचारोद्धतस्वान्तगध्वान्ततान्ते ।
अधिधरणि समस्त त्रिलोकीमनः कण्टकोद्यद्दशग्रीवसम्पातसञ्जातशान्ते परमपुरुष सदासच्चिदानन्द पूर्णावतार प्रभो राम पायात्तमां नाम माऽन्ते ।। २८६ ॥
अथ लघुर्गुरु घुर्गुरुरित्येवं क्रमेण प्रतिचरणं वर्णाश्चेन्निधीयन्ते तदाऽनङ्गशेखरो नाम दण्डकः ।
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तृतीयो गुम्फः
यथा - त्रिलोकलोकशोकहारि पातकप्रमोककारि, कोकलोककेलिधारि कीरपूरमण्डिता समन्ततः प्रमोदलक्ष सम्पदेकदानदक्षशुद्धकृष्णभक्तिपक्षपालनैकपण्डिता । सराधिकस्मराधिकव्रजेशसङ्गसाभिलाषगोकुलाबलाविलासलासभूरिखण्डिता कलावती कृपावती कलिन्दजा करोतु शं, करालकल्मषोच्चलच्चमूषु वेगचण्डिता ॥ २६० ।।
अथ गुरुर्लघुर्गुरुर्लघुरित्येवं क्रमेण प्रतिचरणनिबद्धवर्णोऽशोकमञ्जरी नाम दण्डकः । - साभिलाषगोपदारलोचनैकमोदभार,
स यथा
माधुरीविसारसार रूपराशिराजमान संविधूतकोटिकाम सौभगप्रकामनाम,
सन्तताभिरामधाम धोरणीकलानिधान । दानवौघजातघात भक्तलोकपारिजात, दत्त कोटिसङ्ख्यशात विस्फुरत्सदावदान
[ ७१
राधिका
तृष्ण पाहि पाहि कृष्ण कृष्ण, विष्णवे नमोस्तु ते प्रसिद्धपुण्यकीर्तिगान ॥ २६१ ।।
अथ प्रत्येकं मयरसनजभनलघुरुद्दालकादयो दश दण्डकभेदा भवन्ति । तत्र मगणैरुद्दाको नाम दण्डकः ।
स यथा
गोपोनामत्यन्तं मूर्तोऽसावानन्दः संलग्न श्रीचक्षुः साफल्यप्राग्भारः सम्पन्नं यद्भूमेरुद्भूतं सौभाग्यं सौदार्यं गाम्भीर्यं सौन्दर्यं सौशील्यं सौरस्यं सौरभ्यं सौलभ्यं चात्यर्थं तेनैव न्यस्ताः सद्धर्मा राजन्ते । रागालीसङ्गच्छद्वेणूद्यन्निर्घोषैर्वक्त्रेन्दुप्रोदञ्चत्पीयूषस्रोतोभिः स्वच्छन्दं लोकानामानन्दं तन्वानो राधाहृद्बाधाहृत्साधूनामाधारः प्राधान्येनाधार्याऽगाधार्तिस्वीयानामेकाप्तः श्रीकृष्णः कल्याणं देयान्मे ।। २६२ ॥
अथ यगणैः सिंहविक्रीडो नाम दण्डकः ।
स यथा- स्तुमः कोमलालापपीयूषधारा सदामोदिताशेषगोपीकलापं समुत्तुङ्गभावाद्भुतभ्रु विलासक्षणे नर्तिताखण्डकन्दर्पचापम् ।
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७२ ]
वृत्तमुक्तावल्याम्
स्फुरत्पर्वगाऽखर्वभाशर्वरीशप्रभागर्वनिर्वासनोदञ्चदास्यं कलाकोटिलावण्यलक्ष्मीललामप्रकामप्रसर्पत्कटाक्षेषुलास्यम् ॥
व्र'जस्त्रीचकोरीचयाचान्तचञ्चच्चमत्कारकृच्चन्द्रिका चारुहास्यं भवोद्भूतभूयोभयाभावहेतो सदान्तः समुद्यत्पदाम्भोजदास्यम् । तपोदानदीक्षादि हित्वा समस्तं मनःप्रेममात्रेण धन्यैरुपास्यं [स्वभावोदयतमेकं] भवद्वृत्ति रोधो निरोधो निरोधस्फुटानन्यसामान्यचैतन्यभास्यम् ।। २६३ ।।
एवं रगणैर्मत्तमातङ्गखलिताख्यो दण्डकः । स यथा- प्रोल्लसन्मल्लिकावल्लरीवृन्दसत्पुष्पसौरभ्यसानन्दभृङ्गावलीतारविस्फारझङ्कारजाग्रत्स्मरे चूतनूत्नाङ्कुरास्वादमाधुर्यभृत्कोमलालापकृ
त्कोकिलाकाकलीकेलि कोलाहलाकान्तकुञ्जान्तरे । भानुजातीरभूरासलासस्थलीनृत्य कृत्कृत्स्नगोपालिकामण्डली विस्फुरत्स्वर्ण माणिक्यमालाधरे सुन्दरानन्दकन्देन्दिरामन्दिरे याति निर्मङ्क्तुमह्राय मन्मानसं चारुवृन्दावने मोदवृन्दाकरे ॥ २६४ ॥ एवमेव सगणैः कुसुमस्तबकाख्यो दण्डको भवति । यथा - विलसत्सुषमाकमनीयतमा रजनीशसमाSSननबिम्बरमापरिधूत निकुञ्ज निकेततमा भुवनत्रितयी भरितप्रमदा वलिहारलतातरलामितभापरिषद्रसभावमयी परमा । महनीयमहो महिमाकलिता ललितालुलितादिसखीवलिताऽखिल मानवतीजनमानगमा सखि भासि विभासितकेलिकलाकुलकामबला, वृषभानुसुते हरिमेघगता तडिदोघसमा ।। २६५ ।। एवमेव तगणैर्दामाख्यो दण्डकः । -
स यथा - यः कौशिका देशतो लब्धवानेव दिव्यानि तेजोमयान्यद्भुतास्त्राणि भूमीभरोद्भूतरक्षोविरामाय यश्चण्डकोदण्डदण्डं निजोद्दण्डदोर्दण्डगं क्रीडया खण्डयामास सीतारमासङ्गमानन्दकामाय ।
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तृतीयो गुम्फः तस्मै नमः सच्चिदानन्दरूपाय लोकत्रयीभव्यसाकेतभूपाय सौन्दर्यशोभापराभूतकामाय धाराधरस्तोमधामाभिरामाय योगीन्द्रसन्दोह
चेतोललामाय लीलाकृते राघवेन्द्राय रामाय ।। २६६ ॥ एवमेव जगणैवितानाख्यो दण्डकः ।। स यथा-जयामितसेवक कामितदान विनिर्धं तदेव महीरुहमान
जगत्त्रयपावनसद्गुणगान सदाचरितश्रुतिधर्मविधान, धुरन्धरधीर, दयैकनिधान मुनीन्द्र मनोगतमोदनिदान । जयाङ्ग्रिसरोजनमत्पवमानतनूजनिवेदितसिद्धसमान मनोरथबद्धविनोदवितान जयातुलपुष्पकनामविमान
विराजिकृतस्वपुरप्रतियान दृशं मयि दासजनेऽपि बधान ॥२६७॥ एवमेव भगणैर्वर्तुलाख्यो दण्डकः । स यथा-सेवकरक्षणकर्मविचक्षण भूभरतक्षण
भाविततत्क्षण विक्रमलक्षण लक्षनिकेतन शारदचन्द्रजयैकविशारदवक्त्रविभकविधूततमोभररूपजगर्वचलज्झषकेतन। वामलसन्मिथिलेशसुतावरकल्पलतावलितामरभूरुहसाधुजनावनभूरिकृपामय भव्यदभानुकुलामलभूषण नाशितसत्रिशि
रःखरदूषण राम पते जगदेकगते जय ॥ २९८ ।। एवमेव नगणरचलो नाम दण्डकः । स यथा-रज निरमणरुचिरवदन सकलभुवन
कुशलसदन सुजनशरणचरणकमल क्वचन कलितभुजगशयन करुणलुलितनलिननयन भजनदलितसकलशमल । क्वचन धरणिधरणचतुर निगमनिवहविलसदवन तुरगवदन महिमनिलय समरचलितदनुजदितिज विबुधमनुजसंखदचरित जयसि जगति शमिह कलय ॥ २६९ ॥
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७४ ]
वृत्तमुक्तावल्याम् एवमेवान्येऽपि दण्डकभेदा यथालक्षणं स्वमत्योहनीयाः। पूर्वं नगणस्तत एको गुरुस्ततो रगण इत्येवं सप्ताक्षरो गणः स्वेच्छया सप्ताष्टनवादिक्रमेण मुहुनिधीयते तदैवंविधचतुश्चरणशाली विच्छित्तिविशेषवान् मकरालयो नाम दण्डकः । स यथासकलवित्ताभिराम कमलानित्यधाम प्रबलापत्प्रशाममुदयत्प्रेमकाम सततोन्मत्तवाममतुलोद्दामधाम कलिताशेषकामविबुधेन्द्रादिधाम जय विख्यातनाम जनचेतोभिराममतिफुल्लत्तमालतरुहिन्तालजालकलगुजालिमालघनकुञ्जातिशालि विकचाम्भोजवृन्दपरिगुञ्जन्मिलिन्दबहुलानन्दकन्द कलवल्लीलताविविधमल्लीशताविरतसङ्गोद्धतानिलगताशेषतापकलकोकिलकलापपरपुष्टप्रलापयुतमहोदुरापतरमत्युअपापचयविच्छेददक्षमतिपुण्यैः समक्षमखिलक्षेमरक्षहृदयक्षोभदक्षमवनीदुःखभक्षमव - नीयात्तपक्षमखिलक्ष्माविलक्षणमथोदञ्चदक्षमखिलोद्धारकारिसुमनःस्वान्तहारि हृदि मुहयन्नगारिविचरत्पन्नगारिकृतसंसारपारमखिलक्षोणिसारमुदितातुल्यतारपरपूर्णावतारजनमोक्षप्रकारपशुपालीविहारभरनित्यप्रसारगतभूयोविकारमतिलावण्यभार . धृतपुण्यप्रसारमनुजानामगारमुदितानन्दधारमथ शृङ्गारहारलतिकालग्नतारतरनिध्वानकामदत्तालिभारकपटोद्भूतभारनृपवैदूर्यहारमरुणापत्यपातबहुसंघर्षजाततुहिनस्पर्शवातसततस्पर्शजातहरिसम्भोगजातनिखिलस्वेदपातमथवर्षाविनोल्लसितहर्षा - वलीविवशतर्षाकुलप्रमदनृत्यन्मयूरनिनदासक्तदूरत रविश्रामशूरतरुणीकर्णपूरनधिकानन्दघूर्णदलिपुञ्जप्रपूर्णमनिलस्पर्शतूर्णततपारागचूर्णभृतपुत्रादिहंसकुलसङ्गीतकंसहरकीर्तिप्रशंसनसमुद्यच्चिदं(श) भृतभूयोरिरंसपशुपालावतंसमतिसौगन्ध्यपुष्टलवलिश्रेरिणजुष्टनवमाकन्दतुष्टपरपुष्टालिघुष्टरुचिरं नित्यरुष्टतरपञ्चेषुदुष्टहृदयाशेषलोकमनिशोन्नादिकोककृतदुःखप्रमोकहृदयाशेषशोकभरसंहारहेतुरथ संसारसेतुररविन्दावलीमुखितवृन्दारकान्तरमिलिन्दालयं मनुजवृन्दाऽवनं जयति वृन्दावनम् । ____ जयति तत्रालिवृन्दविहितत्राणपुष्पफलपत्रालयेऽखिलखलत्रासनो निजगुणत्राकृतव्रजजनत्रायको विहितसत्रावलिद्विजगणत्राऽबलाहृतसुपत्रादिमिश्रसदमत्रालिसम्भरितभूयःकरम्भभुजिमादीपलम्भउदयदर्पजम्भरिपुनिःशेषदम्भमदसंरम्भहारिभुजगेशानुकारि वरशैलेन्द्रहारिबहुकामाभिसारि तरुणीचित्तहारि परमानन्दकारि भुजविक्रान्तिवारितमहाकालवारिदसमूहप्रसारिमुशलाकारवारिभरधारासहस्रभयभाराव • सन्ननिरगारात्मलोककृतहारावहृत्पशुपदारावलन्नयनताराभ उल्लसितहारावली ललिततारावली वलितधाराधरप्रतिममाराशुगोद्धरविहारार्थसङ्गतरमाराधितोपचितवक्षा हृताखिलविपक्षान्वयो विबुधपक्षावनप्रबलकक्षाप्रबन्धसुविदक्षाशयः स्वजनरक्षाकरः कलितयक्षाभिभूतिलसदक्षामविक्रमवलक्षाकृतिजितकुलक्षाढयरोषनिवहक्षारचित्तबहुरक्षाभवत्कलिमलक्षालनामृतसकक्षाद्भुतस्फुरददन्तालयः ।
पर.
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तृतीयो गुम्फः
[ ७५ दिगन्तागताघबकहन्ताधिमेदिनि समन्तादुरत्रिगुणसन्तानभत्कुवनसन्तापहृतत्स्वजनसन्तारणोल्लसदनन्तारशब्दितमिदंतास्वरूपमधिगन्ताखिलेश्वरनियन्ता प्रमोदवनरन्ता स्वकीयविपदन्ताभिकः श्रुतदुरन्तागमः सदनुमन्ता स्वधर्मशततन्तावभीक्ष्णमथ गन्ताऽखिलोपनिषदन्तावनौ विपुलदन्तावलप्रचुरदन्तान्वितान् समभिगन्ता रिपून्समभिहन्ता चिराद्विपुलमञ्चोत्तमादुदितचञ्चोपमं निखिलपञ्चोत्तमप्रकरसञ्चोष्यमाण (परि). सञ्चोरितप्रगुणपण्डाधरौघहृदखण्डावनीवलयचण्डासुरप्रकरदण्डावहोरुभुजदण्डाहित त्रिदशखण्डाभयः परवितण्डाहर:सुभगगण्डालुलद्वदनमण्डालकःप्रगुणगोपालकःपशुपसबालकः सुरवधूचालकः खलचमूकालकः स्वजनदृगलालकः खरवधोत्तालकः परमरम्यालक: परिलसन्नालकस्थमणिभाजालकः सकलशोभालकः स्फुटयशोभालक: सुखितदिक्पालकः परिहृतज्वालकः स्वजनसम्भालकः । ___ जयति तस्याखिलव्रततपस्यासुरोघवरिवस्या शिवाशिवनमस्याफलं व्रजजनस्यातिमञ्जुहृदयस्याधिदैवमिव धीरामिलज्जलगभीराभिराम दिनहीरात्मजावितततीरावनिस्थयुवतीरासमण्डलगनीराजमाननखहीरामलच्छविमती, राजमानदलिताम्भोजभाननवबन्धूकमानहरसेवाविधानकलितानन्ददानपरमश्रीनिदाननवसम्प - निधानचरणासज्ज्यमानतनुशाटीपिधानगतरम्भासमानलसदूरुप्रभाऽनवरतोत्साहदासुरसनाभिह्रदा त्रिवलिसङ्गा विराजिविलसद्रोमराजिरणुमात्रोदरी सुरतवाञ्छा(क)हरी मृगमदक्षोदलिप्ततरवक्षोजकान्तिहृदयक्षोभदा मदनरक्षोपमाननविलक्षोदजाविशदपक्षोदचारि विहगक्षोभकृद्गतिसुलक्षोपमाजितमदक्षोरितद्विपविपक्षोदया पतिदिदृक्षोदयन्निजविवक्षोढगाढभुजकक्षोर आहितसदक्षोभ्यकञ्चुकसमक्षोप्तमजुमणिलक्षोच्चलत्किरणकक्षोदयास्तशितिपक्षोद्गमा लसदसामान्यरूपभरधामातिशोभितनुधामाऽमला विजितकामा बलाशतमहामाधुरीभरनिकापाद्भुता प्रणयिकामावहस्मितसुधामादिनी निखिलरामावलीसकलयामादनप्रगुणनामाञ्चिता विहितदामाच्छभाभ्रमितसामादिकश्रुतिगिरामापिता किमपिगामाप्य भक्तजनतामानदाप्रणयकामातुरप्रसितरामानुजप्रहितसामार्थसङ्गतसुदामाभिधानसखितामाद्युदन्तकथना - माननीतदिनयामाकुला क्वचन या माधवोक्तपररामाभ्रमप्रभवतामाभिधा श्रुतिमहामानिनी विधिकृतामातमोभरविरामायतद्युतिललामाद्भुताखिलकलामालिनी तरणिभासा भवन्नवविकासाभितःस्फुरितकासारपुष्पसुषमासारहारिमुखहासान्विता कलितरासावली ललितलासा मनोहरविलासातिशोभिनिजवासाऽजिराऽमितसुवासावहावयवभासादितोरुमधुमासार्हस सृणवासा हरेरियमसाधारणस्मरजबाधाहराऽखिलसमाधानकृद् व्रजजनाधारभूतसदगाधातिमञ्जुलगुणाधारिणी नयननाधाऽननातिसुखसाधाऽऽयुधाब्धिरिव राधाभिधा।
जयति सातद्वयीविहृतिरातन्वती विविधसातवजं तरणिजाऽतय॑तीरसुष
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७६
वृत्तमुक्तावल्याम् मातन्यमानमुदि कामावनेखिलजगत्पावनै सततमानन्दने मधुरतानन्दने मितलसच्चन्दने मुदितसङ्क्रन्दने सुरसभावन्दने च्छविभरच्छन्दने विरहजाक्रन्दने नयननिष्पन्दने मधुभरस्यन्दने भृतमनोभन्दने तरुलतालीघने निभृतमस्मिन् वने क्वचन तालालिषु प्रमदशालायमानपशुपालाबलाशतसमालापभू रसिकनालाभदा क्वचन कालाभ्रमैचकतमालावलीषु बहुतालाभिराम-सुविशालाननस्वररसालाच्छगानरसहालामदोल्ललितमाला भवत्तरणिजालावधूतभुजनालाभिरुच्चनरपालान्विता क्वचन बालातपारुणितपालाशकाननरसालावली।
सरलसालाटवी विटपकालापसङ्गमसदालाल्यमानलतिकालाघवा कवनकालातिमत्तरतिपालाशुगस्खलितनालाबलाकनकमालासमूहसुनिभालाकृतिः क्वचन कालागरुद्रवकृतालेपना क्वचन कालासहस्मरभंवद्वेपना क्वचन कृष्णास्यपङ्ककजसतृष्णाशयप्रणयनिष्णातगोपललनालीलना क्वचन दोषाभिसारगतिसंशीलना क्वचन केलीकलाकुलकृतोन्मीलना क्वचन भूयोवियोगभवरुक्कीलना क्वचन पम्पासरःसलिलझम्पाप्रवीणमृदुसंपातिफुल्लनवचम्पाटवी कलितकम्पाऽनिलोद्यदनुकम्पासमुज्झितसुलंपाकपञ्चशरसम्पालनाललितशम्पासुसङ्गतपयोदावलीप्रगतमोदाकुला प्रिययशोदातनूजपरमोदारकेलिसुविनोदावहा दितिजतोदातुरत्रिदशरोदापहा विगलितोदाहृति: कथितगोदामबन्धनकथोदासितव्रजजनोदारधीरमितशोभानिधिः कलितलोभा दृशामुरुमनोभाविताच्छसुमनो भामिनीनयनवित्ताहृति: सकलहृत्तापनाशनसरित्तादृशात्मजनवित्तापितामहिमवित्तारणाधिकपवित्रा कलिप्रभववित्रासहृत्परममित्रादृतोरुगुणचित्रा मनोनटचरित्राश्रयाद्भुतवरत्रानुरक्तहृदयप्रेमभक्तजननित्याश्रया कुशलकृत्यक्षमा मधुरनृत्यक्रमा कलितभूरिभ्रमा निशि शरीरश्रमापनयदोविश्र मावहनिजांसावलम्बकरगोपीकदम्बसुखसम्पत्पदम् ।। ६६ यथा वा विच्छित्तिविशेषशालिदण्डकान्तरं वृन्दारकेशेत्यादि ।
समाप्तः तृतीयो गुम्फः राधाकृष्णो जयति
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राजस्थान सरकार
राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान ( Rajasthan Oriental Research Institute )
जो ध पुर
Mann
Helan
सूची-पत्र
* राजस्थान पुरातन गन्ममाला
प्रधान सम्पादक-पद्मश्री जिनविजय मुनि, पुरातत्त्वाचार्य
अगस्त, १९६३ ई०
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थ-माला प्रधान सम्पादक-पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य
प्रकाशित ग्रन्थ
१. संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश १. प्रमाणमंजरी, ताकिकचूड़ामणि सर्वदेवाचार्यकृत, सम्पादक - मीमांसान्यायकेसरी पं० पट्टाभिरामशास्त्री, विद्यासागर ।
मूल्य-६.०० २. यन्त्रराजरचना, महाराजा-सवाईजयसिंह-कारित । सम्पादक-स्व० ५० केदारनाथ ___ ज्योतिर्विद्, जयपुर।
मूल्य-१.७५ ३. महर्षिकुलवैभवम्, स्व. पं० मधुसूदनप्रोझा-प्रणीत, भाग १, सम्पादक-म० म० ___पं० गिरिधरशर्मा चतुर्वेदी ।
मूल्य-१०.७५ ४. महषिकुलवैभवम्, स्व० पं० मधुसूदन अोझा प्रणीत, भाग २, मूलमात्रम् सम्पादक-पं० श्रीप्रद्युम्न अोझा।
- मूल्य-४.०० ५. तर्कसंग्रह, अन्नंभट्टकृत, सम्पादक-डॉ. जितेन्द्र जेटली, एम.ए., पी-एच. डी., मूल्य-३.०० ६. कारकसंबंधोद्योत, पं० रभसनन्दीकृत, सम्पादक-डॉ० हरिप्रसाद शास्त्री, एम. ए., पी-एच. डी.।
मूल्य-१.७५ ७. वृत्तिदीपिका, मोनिकृष्णभट्टकृत, सम्पादक-स्व.पं. पुरुषोत्तमशर्मा चतुर्वेदी, साहित्याचार्य।
_मूल्य-२.०० ८. शब्दरत्नप्रदीप, अज्ञातकर्तृक, सम्पादक-डॉ. हरिप्रसाद शास्त्री, एम. ए., पी-एच.डी.।
मूल्य-२.०० - ६. कृष्णगीति, कवि सोमनाथविरचित, सम्पादिका-डॉ. प्रियबाला शाह, एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट् ।
मूल्य-१.७५ १०. नृत्तसंग्रह, अज्ञातकर्तृक, सम्पादिका-डॉ. प्रियबाला शाह, एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट् ।
मूल्य-१.७५ ११. शृङ्गारहारावली, श्रीहर्षकवि-रचित, सम्पादिका-डॉ. प्रियबाला शाह, एम. ए., पी-एच.डी., डी.लिट् ।
मूल्य-२.७५ १२. राजविनोदमहाकाव्य, महाकवि उदयराजप्रणीत, सम्पादक-पं० श्रीगोपालनारायण
बहुरा, एम. ए., उपसञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर । मूल्य-२.२५ १३. चक्रपाणिविजय महाकाव्य, भट्टलक्ष्मीधरविरचित, सम्पादक-पं० श्रीकेशवराम काशीराम शास्त्री।
मूल्य-३.५० १४. नत्यरत्नकोश (प्रथम भाग), महाराणा कुम्भकर्णकृत, सम्पादक-प्रो. रसिकलाल छोटा
लाल पारिख तथा डॉ. प्रियबाला शाह, एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट् । मूल्य-३.७५ १५. उक्तिरत्नाकर, साधसुन्दरगरिणविरचित, सम्पादक-पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजयजी, पुरा
तत्त्वाचार्य, सम्मान्य संचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर । मूल्य-४.७५ १६. दुर्गापुष्पाञ्जलि, म०म० पं० दुर्गाप्रसादद्विवेदिकृत, सम्पादक-पं० श्रीगङ्गाधर द्विवेदी, साहित्याचार्य।
मूल्य-४.२५ १७. कर्णकुतूहल, महाकवि भोलानाथविरचित, इन्हीं कविवर की अपर संस्कृत कृति श्रीकृष्ण
लीलामत सहित, सम्पादक-पं० श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम. ए., मूल्य-१.५० १८. ईश्वरविलासमहाकाव्य, कविकलानिधि श्रीकृष्णभट्टविरचित, सम्पादक-भट्ट श्रीमथुरानाथशास्त्री, साहित्याचार्य, जयपुर । स्व. पी. के. गोड़े द्वारा अंग्रेजी में प्रस्तावना सहित ।
मूल्य-११.५० १६. रसदीपिका, कविविद्यारामप्रणीत, सम्पादक-पं० श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम.ए.
मूल्य-२.०० २०. पद्यमुक्तावली, कविकलानिधि श्रीकृष्णभट्टविरचित, सम्पादक-भट्टश्रीमथरानाथशास्त्री, साहित्याचार्य।
मूल्य-४.०० २१ काव्यप्रकाशसंकेत, भाग १ भट्टसोमेश्वरकृत, सम्पा.-श्रीरसिकलाल छो० पारीख, अंग्रेजी में विस्तृत प्रस्तावना एवं परिशिष्ट सहित
मूल्य-१२.०० २२. काव्यप्रकाशसंकेत, भाग २ भट्टसोमेश्वरकृत, सम्पा०-श्रीरसिकलाल छो० पारीख,
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मूल्य-८.२५ २३. वस्तुरत्नकोष, अज्ञातकर्तृक, सम्पा०-डॉ० प्रियबाला शाह ।
मूल्य-४-०० २४. दशकण्ठवधम, पं० दुर्गाप्रसाद द्विवेदिकृत, सम्पा०-पं० श्रीगङ्गाधर द्विवेदी । मूल्य-४.०० २५. श्रीभुवनेश्वरीमहास्तोत्र, सभाष्य, पृथ्वीधराचार्यविरचित, कवि पद्मनाभकृत भाष्य
सहित पूजापञ्चाङ्गादिसंवलित । सम्पा०-पं. श्रीगोपालनारायण बहुरा। मूल्य-३.७५ ६. रत्नपरीक्षादि-सप्तग्रन्थ-संग्रह, ठक्कूर फेरू विरचित, संशोधक-पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य।
मूल्य-६.२५ २७. स्वयंभूछन्द, महाकवि स्वयंभूकृत, सम्पा० प्रो० एच. डी. वेलणकर । विस्तृत भूमिका (अंग्रेजी में) एवं परिशिष्टादि सहित
मूल्य-७.७५ २८. वृत्तजातिसमुच्चय कवि विरहाङ्करचित, , , ,
मूल्य-५.२५ २६. कविवर्पण, अज्ञातकर्तृक,
मूल्य-६.०० ३०. कर्णामृतप्रपा, भट्टसोमेश्वरकृत सम्पा०-पद्मश्री मुनि जिनविजय । मूल्य-२.२५ ३१. त्रिपुराभारती लघुस्तव, लघूपण्डितविरचित, सम्पा०
मूल्य-३.२५ ३२. पदार्थ रत्नमञ्जूषा, पं० कृष्णमिश्रविरचिता, सम्पा०
मूल्य-३.७५ ३३. वृत्तमुक्तावली, कविकलानिधि श्रीकृष्ण भट्ट कृत; सं० पं० भट्टश्रीमथुरानाथ शास्त्री।
मूल्य-३.७५ २. राजस्थानी और हिन्दी ३४. कान्हडदेप्रबन्ध, महाकवि पद्मनाभविरचित, सम्पा०-प्रो० के.बी. व्यास, एम. ए.।
मूल्य-१२.२५ ३५. क्यामखां-रासा, कविवर जान-रचित, सम्पा०-डॉ. दशरथ शर्मा और श्रीअगरचन्द नाहटा।
मूल्य-४.७५ ३६. लावा-रासा, चारण कविया गोपालदानविरचित, सम्पा०-श्रीमहताबचन्द खारड़।
मूल्य-३.७५ ३७. वांकीदासरी ख्यात, कविराजो वांकीदासरचित, सम्पा०-श्रीनरोत्तमदास स्वामी, एम. ए., विद्यामहोदधि ।
मूल्य-५.५० ३८. राजस्थानी साहित्यसंग्रह, भाग १, सम्पा०-श्रीनरोत्तमदास स्वामी, एम.ए.। मूल्य-२.२५ ३६ राजस्थानी साहित्यसंग्रह, भाग २, सम्पा०-श्रीपुरुषोत्तमलाल मेनारिया, एम. ए., साहित्यरत्न ।
मूल्य-२.७५ ४०. कवीन्द्र कल्पलता, कवीन्द्राचार्य सरस्वतीविरचित, सम्पा०-श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत ।
मूल्य-२.०० ४१. जुगलविलीस, महाराज पृथ्वीसिंहकृत, सम्पा०-श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत।
मूल्य-१.७५ ४२. भगतमाळ, ब्रह्मदासजी चारण कृत, सम्पा०-श्री उदैराजजी उज्ज्वल । मूल्य-१.७५ ४३. राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिरके हस्तलिखित ग्रंथोंकी सूची, भाग १। मूल्य-७.५० ४४. राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठानके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची, भाग २। मूल्य-१२.०० ४५ मुंहता नेणसीरी ख्यात, भाग १, मुंहता नैणसीकृत. सम्पा०-श्रीबद्रीप्रसाद साकरिया।
मूल्य-८.५०
" मूल्य-६.५० ४७. रघुवरजसप्रकास, किसनाजी पाढाकृत, सम्पा०-श्री सीताराम लाळस । मूल्य-८.२५ ४८. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची, भाग १ सं० पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । मूल्य-४.५० ४६. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची, भाग २-सम्पा०-श्री पुरुषोत्तमलाल मेनारिया एम.ए., साहित्यरत्न।
मूल्य-२.७५ ५०. वीरवाण, ढाढ़ी बादरकृत, सम्पा०-श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत। मूल्य-४.५० ५१. स्व० पुरोहित हरिनारायणजी विद्याभूषण-ग्रन्थ-संग्रह-सूची, सम्पा०-श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम. ए. और श्रीलक्ष्मीनारायणगोस्वामी दीक्षित ।
मूल्य-६.२५ ५२. सूरजप्रकास, भाग १-कविया करणीदानजी-कृत, सम्पा०-श्री सीताराम लाळस।
मूल्य-८.०० ५३. , २ ,,
, , मूल्य-६.५०
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[३]
५४. नेहतरंग, रावराजा बुधसिंहकृत - सम्पा० - श्रीरामप्रसाद दाधीच, एम.ए. ५५. मत्स्यप्रदेश की हिन्दी-साहित्य को देन, प्रो. मोतीलाल गुप्त, एम. ए., पी.एच.डी. ५६. वसन्तविलास फागु, प्रज्ञातकर्तृक, सम्पा० - श्री एम. सी. मोदी । ५७. राजस्थान में संस्कृत साहित्य की खोज- एस. आर. भाण्डारकर, हिन्दी श्री ब्रह्मदत्त त्रिवेदी, एम. ए., साहित्याचार्य, काव्यतीर्थं ५८. समदर्शी श्राचार्य हरिभद्र, श्रीसुखलालजी सिंघवी,
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प्रेसों में छप रहे ग्रंथ
५. प्राकृतानन्द, रघुनाथकवि - रचित, सम्पा० - पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय | ६. कविकौस्तुभ, पं० रघुनाथरचित, सम्पा०-श्री एम. एन. गोरे ।
मूल्य - ४.०० मूल्य - ७.००
मूल्य - ५.५० अनुवादक
संस्कृत
१. शकुनप्रदीप, लावण्यशर्मारचित, सम्पा०- पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । २. बालशिक्षाव्याकरण, ठक्कुर संग्रामसिंहरचित, सम्पा० - पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय ।
३. नन्दोपाख्यान, श्रज्ञातकर्तृक, सम्पा० - डॉ० बी. जे. सांडेसरा ।
४. चान्द्रव्याकरण, प्राचार्य चन्द्रगोमिविरचित, सम्पा०-श्रा बी. डी. दोशी ।
मूल्य - ३.००
मूल्य ३.००
१०. हमीरमहाकाव्यम्, नयचन्द्रसूरिकृत, सम्पा० - पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय,
११. स्थूलभद्र काकादि, सम्पा० डॉ० श्रात्माराम जाजोदिया ।
७. एकाक्षर नाममाला – सम्पा०- मुनि श्री रमणिकविजय ।
८. नृत्य रत्नकोश, भाग २, महाराणा कुंभकर्णप्रणीत, सम्पा० - श्री आर. सी. पारिख और डॉ. प्रियबाला शाह ।
६. इन्द्रप्रस्थ प्रबन्ध, सम्पा०-डॉ. दशरथ शर्मा ।
१२. वासवदत्ता, सुबन्धुकृत, सम्पा० डॉ० जयदेव मोहनलाल शुक्ल ।
१३. श्रागमरहस्य, स्व० पं० सरयूप्रसादजी द्विवेदी कृत, सम्पा०-प्रो० श्रीगङ्गाधर द्विवेदी ।
राजस्थानी और हिन्दी
१४. मुंहता नेणसीरी ख्यात, भाग ३, मुंहता नैणसीकृत, सम्पा० - श्री बद्रीप्रसाद साकरिया । १५. गोरा बादल पदमिणी चऊपई, कवि हेमरतनकृत सम्पा० - श्रीउदयसिंह भटनागर, एम.ए. १६. राठौडांरी वंशावली, सम्पा० - पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय |
१७. सचित्र राजस्थानी भाषासाहित्यग्रन्थसूची, सम्पा०- पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । १८. मीरां - बृहत् पदावली, स्व० पुरोहित हरिनारायणजी विद्याभूषण द्वारा संकलित, सम्पा० - पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय ।
१६. राजस्थानी साहित्यसंग्रह, भाग ३, संपादक - श्रीलक्ष्मीनारायण गोस्वामी ।
२०. सूरजप्रकास, भाग ३, कविया करणीदानकृत सम्पा० - श्रीसीताराम लाळस । २१. रुक्मिणी हरण, सांयांजी भूला कृत, सम्पा० श्री पुरुषोत्तमलाल मेनारिया, एम. ए., सा. रत्न २२. सन्त कवि रज्जब : सम्प्रदाय और साहित्य डॉ० व्रजलाल वर्मा ।
२३. पश्चिमी भारत की यात्रा, कर्नल जेम्स टॉड, हिन्दी अनु० श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम. ए. २४. बुद्धिविलास, बखतराम शाहकृत, सम्पा०- श्रीपद्मधर पाठक, एम. ए.
अंग्रेज़ी
25. Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts Part I, R.O.RI. ( Jodhpur Collection ), ed., by Padamashree Jinvijaya Muni,. Puratattvacharya.
26. A List of Rare and Reference Books in the R. O.R.I, Jodhpur, compiled by P.D. Pathak, M.A.
विशेष- पुस्तक विक्रेताओं को २५% कमीशन दिया जाता है ।
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