Book Title: Jin Stotra Kosh
Author(s): Chandrodayvijay, Suryodayvijay
Publisher: Kot Tapgacch Murtipujak Shwetambar Jain Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पण्डित-श्रीविनयहंसगणिविरचित श्रीजिनस्तोत्रकोशः सम्पादको मुनि चन्द्रोदय- सूर्योदयविजयौ રસૂરિ नगर -:प्रकाशक :कोट श्रीतपगच्छमूर्तिपूजकश्वेताम्बर श्रीजैनसंघ, मुंबई नं. १ For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org जन्म : सवत १९५७ पाष वद १ मंगळवार प. पू. गुरुदेव श्रीमान् --: गुरु गुण संभारणा : सने १९७१ वि. सं. २०२७ प. पू. प्राकृत विशारद सिद्धान्त महोदधि आ. म. श्री विजय कस्तूरसूरीश्वरजी महाराजश्रीना ७१ मां वरसना जन्म दिननो मंगल प्रवेश तेमज ५१ वर्षनी संयम साधनानी अनुमोदना निमित्ते:पूज्यश्रीना विरचित- प्रकाशित - संपादित अने प्रेरित प्रकाशनो गुणानुरागी महानुभावो तरफथी सप्रेम भेट । Ac/o. लो. नश्री नेमिविज्ञानकस्तूरसूरि शांतिलाल चीमनलाल संघवी आचार्यपद संवत २००१ फागण शुद ४ बुरानपुर ज्ञानमंदिर, गोपीपुरा-सूरत मेनेजींग ट्रस्टी। दीक्षा : संवत १९७६ फागण वद ३ मेवाड For Private and Personal Use Only Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शान्तिविधायक - श्रीशान्तिजिनेश्वराय नमः । पूज्यपादाचार्यश्रीनेमि-विज्ञान - कस्तूर रिसद्गुरुभ्यो नमः । पण्डितविनयहंसगणिविरचित श्रीजिनस्तोत्रकोशः सम्पादकौ— मुनिचन्द्रोदय- सूर्योदयविजयौ श्री. वी. नि. सं २४८४] वि. सं. २०१४. For Private and Personal Use Only [ नेमिसं. ९ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकाशकः कोट - श्रीतपागच्छमूर्तिपूजक श्वेताम्बर श्री जैन संघ शा. गुलाबचंद फुलचंद १९० / १९४ बोराबजार स्ट्रीट, कोट, मुंबई नं. १ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राप्तिस्थान जसवंतलाल गिरधरलाल शाह ११५ कल्याण भुवन, चौथे माळे, तिलकमार्ग, (रिलीफ रोड) अमदावाद नं. १ मूल्यम् रू. १. --> मुद्रक लक्ष्मीबाई नारायण चौधरी निर्णयसागर प्रेस, २६ / २८ कोलभाट स्ट्रीट, कालबादेवी रोड, मुंबई नं. २ For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशकीय निवेदन वि. सं. २०१२ मां मुंबई-कोट श्रीशान्तिनाथजीना उपाश्रये श्रीसंघनी आग्रहभरी विनंतिथी प. पू. शान्तमूर्ति समयज्ञ आचार्यदेव श्रीमद् विजयविज्ञानसूरीश्वरजी महाराज साहेबनी आज्ञा पामी, तेओश्रीना पट्टधर प. पू. प्राकृतविद् विशारद सिद्धान्तमहोदधि आचार्य महाराजश्री विजयकस्तूरसूरिजीमहाराजसाहेब विशालमुनिवृन्दसह चातुर्मास पधार्या हता. .. प्रशान्तात्मा ते पूज्यश्रीनी स्थिरताबाद श्रीसंघमां अनेकविध आराधना साथे अपूर्व शासन प्रभावनाना कार्यो श्रीसंघे उत्साह भरे का हता. सतत स्वाध्याय-ध्यान-विविधतपानुष्ठानरत तेओश्रीजीना शिष्य-प्रशिष्यादि वृन्दमां प्रस्तुत श्रीजिनरत्नकोशनुं संशोधनकार्य मुनिप्रवरश्रीचंद्रोदयविजयजीमहाराज तथा मुनिवरश्रीसूर्योदयविजयजीमहाराज ए बन्ने मुनिवरोए पूर्ण करतां मुद्रणकार्यनी शरुआत थतां, पूज्य आचार्यदेवश्रीए प्रस्तुत श्रीजिनरत्नकोशना प्रकाशन कार्यमा आर्थिक साह्यता करी श्रुतभक्तिनो लाभ लेवा श्रीसंघने प्रेरणा करता, श्रीसंघे ते प्रेरणाने शिरोधार्य गणी ते प्रेरणानुसार प्रकाशनकार्य पूर्ण थता काव्यनी विविध चमत्कृतियुक्त तरणतारण श्रीजिनेश्वर देवादिना स्तोत्रादि आजे आराधक आत्माओ उपरांत विद्वजनना करकमलमा मुकता अमो आनंद अनुभवीए छीए. प्रकाशक कोट. श्री. श्वे. मू. तपागच्छसंघ. For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपादकीय भवोदधितारक पूज्य गुरुदेवादिनी परमनिश्रामा बाळउछेरनी जेम संयमीजीवनमा अनेकविध स्वाध्याय-ध्यान-तपादिना वारि सिंचाता संयमी जीवननी अमारी भूमिमां अनेकविध अंकुरा स्फुरता रह्या अने तेवा एक प्रसंगे पूज्य गुरुदेवश्रीनी प्रेरणा मलतां प्रस्तुत 'श्रीजिनरत्नकोश'नुं संशोधन कार्य शरू कर्यु अने तेओ पूज्यश्रीनी कृपावर्षाथी तेमज संपूर्ण संशोधन अंगेनी चोकसाईथी ते कार्य पूर्ण थयु छे. आ स्तोत्रकोशनी मूळ प्रति तेमज प्रेसमेटर अमोने आगमप्रभाकर मुनिवरश्री पुण्यविजयजी महाराजश्रीजीनी पासेथी मळी हती अने ते प्रतिदर्शन वखतेज तेओश्रीनुं पण संशोधन अने प्रकाशन अंगे प्रेरणा अने सूचना मळी हती, ते आ प्रसंगे भूलवू न जोईए. बाकी तो संशोधनक्षेत्रमा प्रायः अमारो आ प्रथम प्रयास छे अने आ विद्वत्ता भरपूर प्रौढ चमत्कृतियुक्त स्तोत्रादि छे. एटले मतिदोषथी के मुद्रणकार्यअंगे कोई पण क्षति देखाय तो क्षन्तव्य गणी वाचकवर्ग अमोने जाण करी संशोधन कार्य माटे पुनः उत्साहित करशे एम इच्छीए छीए । मुनि चन्द्रोदयविजय मुनि सूर्योदयविजय For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प-पू प्राकृतविद्विशारद सिद्धान्तमहोदधि आचार्य देव श्रीमद् विजयकस्तूरसूरीश्वरजी महाराज यदीयदयालेशवशतः सफलोऽयं प्रयासस्तस्मै करुणावरुणालयाय परमगुरवे श्रीकस्तूरसूरये सादरं समर्प्यते मुनिच द्रोदय-सूर्योदयाभ्याम् । For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशान्तर्गतस्तोत्राणा मनुक्रमणिका। पृष्ठम् . १४ १४ १५ क्रमाङ्कः . स्तोत्रनाम १ श्रीजीरापल्लीमण्डनश्रींपार्श्वजिनेश्वरस्तोत्रम् .... २ साधारणश्रीजिनस्तुतिः ३ श्रीशत्रुञ्जयमहातीर्थस्तोत्रम् ... ... ४ श्रीमण्डपाचलमण्डनश्रीसुपार्श्वेश्वरवर्णनस्तोत्रम्... ५ सकलश्रीजिनराजपचकल्याणकस्तोत्रम् ६ श्रीअजितशान्तिस्तोत्रम् ७ श्रीयुगादिदेवस्तवनम् ८ श्रीअजितनाथजिनस्तोत्रम् ९ श्रीशम्भवनाथजिनस्तोत्रम् १० श्रीअभिनन्दनदेवस्तोत्रम् ११ श्रीसुमतिजिननाथस्तोत्रम् १२ श्रीपद्मप्रभजिनस्तोत्रम् १३ श्रीसुपार्श्वनाथजिनस्तोत्रम् १४ श्रीचन्द्रप्रभजिनस्तोत्रम् । १५ श्रीसुविधिनाथजिनस्तोत्रम् १६ श्रीशीतलदेवस्तोत्रम् १७ श्रीश्रेयांस देवस्तोत्रम् ... १८ श्रीवासुपूज्यजिनस्तोत्रम् १९ श्रीविमलदेवस्तोत्रम् ... २० श्रीअनन्तजिनस्तोत्रम् २१ श्रीधर्मनाथस्तोत्रम् २२ श्रीशान्तिदेवस्तोत्रम् २३ श्रीकुन्थुदेवस्तोत्रम् ... २४ श्रीअरदेवस्तोत्रम् २५ श्रीमल्लिदेवस्तोत्रम् २६ श्रीमुनिसुव्रतदेवस्तोत्रम् २७ श्रीनमिदेवस्तोत्रम् ::::::::::::::::::::: :::::::::::::::::::::::::: :::::::::::::::::::::::::::. dM N० ० ० ० For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पृष्ठम् २६ 2. .. .. mmmmm ४२ . . क्रमाङ्कः स्तोत्रनाम २८ श्रीनेमिदेवस्तोत्रम् २९ श्रीपार्श्वदेवस्तोत्रम् ३० श्रीवर्धमानदेवस्तोत्रम् ३१ श्रीसीमन्धरस्वामिस्तोत्रम् ३२ श्रीशाश्वतजिननामस्तोत्रम् ३३ पञ्चम्यां श्रीनेमिदेवस्तोत्रम् ३४ श्रीगौतमस्वामिस्तोत्रम् ३५ श्रीपुण्डरीकगणधरस्तोत्रम् ३६ समस्यामयं श्रीयुगादिदेवस्तवनम् । ३७ श्रीपार्श्वनाथस्वामिस्तवनम् ३८ श्रीजिनराजचतुर्विंशतिकास्तोत्रम् ३९ साधारणजिनस्तोत्रम् ४० साधारणजिनस्तुतिः ४१ द्वितीयसाधारणजिनस्तुतिः ४२ शत्रुञ्जयस्तोत्रम् ४३ समस्यापदास्पदं श्रीयुगादिदेवस्तोत्रम् ४४ समस्यामयं युगादिदेवस्तोत्रम् ... ४५ श्रीयुगादिदेवजटाकुटवर्णनस्तोत्रम् । ४६ श्रीपार्श्वदेवशिरःस्थफगावलिवर्णनस्तोत्रम् ... ४७ श्रीआदिदेवस्तवनम् ४८ श्रीयुगादिदेवस्तुतिः ४९ चतुर्दशवप्नस्तुतिगर्भिता श्रीयुगादिदेवस्तुतिः ... ५० श्रीस्तम्भनपार्श्वदेवस्तोत्रम् ... ५१ श्रीस्तम्भनपार्श्वदेवस्तोत्रम् ... ५२ श्रीचिन्तामणिपार्श्वदेवाधिदेवस्तोत्रम् ५३ श्रीनारङ्गश्रीपार्श्वदेवाधिदेवस्तोत्रम् ५४ श्रीजीरापल्लीयपार्श्वनाथस्तोत्रम् ५५ श्रीवरकाणकपाश्र्वनाथस्तोत्रम् ... ५६ श्रीगौडिकश्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् ... ५७ श्रीबम्भणवाटकश्रीमहावीरस्तोत्रम् । ५८ श्रीतीर्थराजाधिराजपूजातिशयस्तोत्रम् ग्रन्थप्रशस्तिः ॥ ५१ ५४ ४ ur ६७ प For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है अहं नमः । ॐ नमः श्रीशङ्केश्वरपार्श्वनाथाय नमः श्रीमद्विजयनेमि - विज्ञान - कस्तूरसूरीश्वरेभ्यो नमः । मुनिप्रवरश्रीविनयहंसगणिविरचितः श्रीजिनस्तोत्रकोशः। श्रीजीरापल्लीमण्डनश्रीपार्श्वजिनेश्वरस्तोत्रम् । जीरापल्लीस्थानास्थानस्वाख्याख्यातिप्रख्यान, बुद्धध्येया देयामेयज्योतीरूपा तारूपम् । पिष्टानिष्टं सृष्टाभीष्टं पुष्टाकृष्टश्रीसृष्टि, पार्योपास्यं श्रीपार्श्वशं विश्वाधीशं सेवेऽहम् ॥ १ ॥ यस्या दानं नाम्नः सर्वस्थामस्थानं भव्यानां, स्थाने स्थाने नित्यानन्दश्रीसन्दोहं यहत्ते। भोगाभोगं योग्यारोग्यं सत्सौभाग्यं तत्स्थाने, स श्रीजीरापल्लीपार्श्वस्तत्तत्सिद्धौ यजामन् ॥ २ ॥ कासश्वासाः पुष्टाः कुष्ठा दुष्टाटोपाश्च स्फोटा, नष्टानिष्टव्यापा आमाश्चान्ये पिष्टाः किं न स्युः। यन्माहात्म्यैर्भव्यावल्याः पोषाः सौख्येऽसंख्येयाः, यत्तद्युक्तं येन स्वामी विश्वेष्टानीष्टे कर्तुम् ॥ ३॥. * लीलाखेलछन्दः ( एकन्यूनी विद्युन्मालापादौ चेल्लीलाखेलः ) १ खनामप्रसिद्धिस्तस्याः संबंधी यस्य तं तथा । २ अंतरंगस्वरूपम् । ३ दान-ग्रहणम् । ४ सर्ववीर्यपदम् । For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः पाथश्चौरव्यालाग्नीभाऽदभ्रामित्रेभारीणां, क्वाप्याशङ्का शङ्काप्यास्ते तस्यावश्यं किंचित्ते । यः श्रीपार्श्वध्यानध्यायी धीशुद्धः स्यात्तत्सत्यं, यत्सर्वात्मत्राता नेता धुर्यः सैकस्त्रैलोक्ये ॥४॥ व्याख्यामः किं तेऽन्यद्यत्त्वन्नामस्मृत्याप्यस्मर्या, ार्य स्मर्याः श्लोका लोकाश्चर्याकार्यावर्याभाः । सर्वत्रौजः स्फूर्जत्तेजो जय्यैश्वर्य स्यात् शश्वत्, पार्श्वस्वामिश्चित्रं तत् किं यत्त्वं ध्यातः सुश्रीदः ॥ ५॥ अष्टौ स्पष्टाः सिद्युल्लासाः प्राकाम्याद्याः स्युः शंभौ, सा मूढोक्तिर्व्यक्तिस्त्वेषा त्वत्पादाजस्थध्याने । पार्थ्यावश्यं वश्यास्तेऽमी वासा बद्धा नो चेत् किं, ___ स्थाने स्थाने त्वद्भक्तानां युक्त्या युक्ता लक्ष्यास्ते ॥६॥ कीर्तिस्फूतिर्मूर्तिश्चक्रे धात्रा शुद्धद्रव्यैर्यो नेतस्ते तान्यानन्दश्रीरूपाणीवासन्मन्ये । किं चासौख्याद्वैतस्फूर्जद्राज्यप्राज्योर्जाणीव, स्पष्टं चैतत् स्पृष्टेष्टासौ नो किं दृष्टया प्रत्यङ्गम् ॥७॥ पादोपास्ति शस्तानन्तैश्वर्यो जम्भत्खानि ते, भव्यैर्नोग्या भोग्योपायां ह्रीणाः पार्श्व प्रेक्ष्याथो। कल्पाद्यास्ते किंचिद्दत्वं ज्ञात्वा स्वस्मिन् मेर्वादौ, नेशुभैजुस्तेनेवामी कालेऽलक्ष्यत्वं ह्यस्मिन् ॥ ८॥ त्वन्माहात्म्यं पार्श्व ब्रूमः कोट्या वाचा किं यस्मात्, नृत्येत्यङ्गुः पद्भ्यां दग्भ्यां पश्येदन्धः सद्राज्यम् । भुङ्क्ते दुःस्थावस्थः सुस्थः पुत्रैर्वन्ध्योऽवन्ध्यः स्यात्, निःस्वः सुस्वः पूज्योपाख्यो मित्रन्त्येतेऽमित्राद्याः ॥९॥ १ अचिंत्यः । २ लोकोत्तरः। ३ उत्तमध्येय। ४ प्रत्यवयवम् । ५ माहात्म्यादिति पदं प्रत्युक्ति योज्यम् । For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजीरापल्लीमण्डनश्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् पादद्वन्द्वं विश्वेशानं सर्वैश्वर्य पाणिश्री, लक्ष्मी कक्षी कीशांत्मा वक्षः पक्षः सुब्रह्मा। इत्यात्मानं नानादेवाध्यात्म्यं धत्ते यत् पार्श्व, स्तत् किं मन्ये दातुं शश्वत्सम्पद्भोगं भक्तानाम् ॥ १० ॥ श्रीपाश्वोच्चैौलौ लक्ष्या नामूः फाण्यः श्रेण्यः स्युः किंतु क्रीडावासाः सप्तद्वीपश्रीणां सुक्रीडाः । भक्त्याऽऽसत्त्या यं वा रक्तानां नैवं चेत्तत् कस्मा, दर्हन्नाम ध्यानस्थानां क्रीडन्त्येताः संस्ताये ॥ ११ ॥ पार्श्वेश त्वं शश्वत् सम्पदोऽसीत्येतां स्वख्याति, धत्सेऽस्म्यर्थी खेष्टस्पृष्टावेषोऽहं तु त्वन्नाथः। तेनानेहः क्षेपापायं विश्वैश्वर्य मे कुर्या, यस्मात् स्वामी विश्वाधारः किं नो दत्ते भक्तेष्टम् ॥१२॥ अन्ये देवा देवाभासा हेत्वाभासा यद्वन्नो, साध्यायालं मानाध्यक्षानध्यक्षाभ्यां त्रैलोक्ये । यस्माजीरापल्लीपार्श्वः पक्षे जीवे सन्मोक्षं, साध्यं साध्यत्येते नैषः सत्यो हेतुः सत्सिद्धौ ॥ १३ ॥ स्वाकुंभद्भचिन्तारत्नं द्यो धेनुर्वा त्वन्नाम्नि, .. स्थास्तूपाख्येत्येतत्सत्यं विश्वस्वामिन् यल्लोके। अर्हगोत्रं सत्यं मन्नं यन्त्रं तन्त्रं बिभ्राणा, श्चित्ते भक्ताः किं किं प्रापुर्नेहाहार्यायैश्वर्यम् ॥ १४ ॥ पार्योपास्यस्फूर्जत्पार्थः श्रीपार्धात्तैर्हन्त्री ते, मूर्तिस्फूर्तिदृष्टाभीष्टश्रेण्यैकस्यास्या न स्यात् । सौभाग्यश्रीभाग्यारोग्याभङ्गाभोगोद्यद्भोगा, स्वादा मन्दामोदोदारश्रेयःसौख्याख्येयायै ॥ १५ ॥ । १ ल० इत्यत्र एकपक्षे विष्णुः । २ एकपक्षे शंभुः। ३ सु० एकपक्षे ब्रह्मा । ४ गृहे। ५ निर्विलंबम् । ६ मिथ्याभासहेतवः । ७ समर्थाः । ८ प्रमाणप्रत्यक्षपरोक्षाभ्याम् । For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः इत्थं श्रीगुरुपूज्यहर्षविनयश्रीसूरिह त्वं स्तुतो, जीरापल्यभिधाभिधेयमहिमामेयश्रिया संश्रितः। नित्यानन्दमहोदयोदितपदप्रष्टप्रथां देहि मे, . शर्मश्रीनिधिधर्महंस सरसी श्रीपार्श्वविश्वेश्वर ॥ १६ ॥ ॥ इति श्रीजीरापल्लीमण्डनश्रीपार्श्वदेवस्तोत्रम् ॥ १॥ साधारणश्रीजिनस्तुतिः ॥ २॥ येषां कक्षा न्यक्षा खूणा कक्षीकाराक्षोदीयः, पैक्षाक्षेपक्षुण्णारोहांहःसन्दोहापोहोहा। वन्धाऽनिन्द्याऽव॑द्याऽतोद्या मानशानं विज्ञानं, नाभेयाद्यान् देवार्यान्त्यान् सर्वान् सास्तिान् स्तोष्ये ॥१॥ या संसारे सारासारं मत्वा देयं संहेयं, त्यक्त्वा सङ्गासक्तिं युक्त्याराध्याऽबाध्यं चारित्रम् । कर्मोन्मूल्यालायज्ञानं नित्यानन्ताभां लेभे, तीर्थे शाली सम्पल्लीलोल्लासायासौ भूयान्मे ॥२॥ सिद्धेश्वर्य कुर्यात् कस्यावश्यं न श्रीसिद्धान्तः _ सत्याप्यार्थः सार्वैः सूत्र्यासूत्रः सूत्रात्तच्छिष्यैः। कैवल्यश्रीलीलावासः सृष्टाभीष्टानुष्ठेयः, शिष्टाचारस्पष्टीकारे भास्वान् शश्वद्विश्वाऽर्थ्यः ॥ ३॥ सार्वोपास्या यक्षा यक्षिण्यः श्रीरम्बा चक्रेशा, ब्राह्मी पद्मा जिह्मब्रह्माद्वैताश्चान्याधिष्ठाव्यः। विघ्नारिष्टं नन्तु श्लोकालोकं मेलं देयासु,ोग्यारोग्यं भोग्याभोगं रणद्भाग्यं सौभाग्यम् ॥ ४॥ ॥ इति साधारणश्रीजिनस्तुतिः ॥ २॥ १ प्रतिज्ञा । २ संपूर्णा चासौ निर्दोषा च । ३ अंगीकारस्य महत्तरः । ४ पक्षः सर्वविरतिरूपः। ५ पुनरनुत्पत्तिमान् यः पापसमूहस्तस्य अपोहो निषेधस्तस्य अहो यस्याः सा । अस्तीति क्रियाध्याहारः। ६ दोषरहिता। ७ श्रीमहावीर । ८ सार्वपदस्य उपास्यः सेव्यो येषां यासां वा ते ता वा। For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीशत्रुक्षयमहातीर्थस्तोत्रम् ॥श्रीशत्रुञ्जयमहातीर्थस्तोत्रम् ॥३॥ सिद्धिक्षेत्रं पदमिदमिति प्राप्तपुष्टप्रतिष्ठं जीयादेतत्विजगति गतं क्वापि नैतत्प्रभुत्वम् । तेन स्तुत्यः स्तुतिपदपदैोऽस्ति सिद्धार्थसिध्यै, तं स्तौमि त्वां विमलगिरिराट्र दर्शनोदारबीजम् ॥ १॥ यस्यावश्यं श्रवणसुभगं नाममन्त्रं संकर्णाः श्रावं श्रावं विमलमहिमं निर्विषं स्वात्मरूपम् । कुर्वन्त्युच्चैर्गुणपदभवद्भावनाभावनाभिः, सेवे शत्रुञ्जयगिरिममुं कर्ममर्मारिजैत्रम् ॥२॥ इन्द्रोपेन्द्राद्यतिरसकृताऽर्हाऽर्हणाऽरीणमूर्ति-, स्फूत्यैवाशु व्यपहतजगत्पापतापप्रपातः। आधिव्याधिज्वरदरगराऽरिप्रपंचप्रवासी, श्रेयः श्रीणां प्रकटनपरः स्तात् सतां सिद्धराजः ॥३॥ सर्वार्हद्भिः स्तुतनतमतं चाभवत् सिद्धिसिद्ध्यै, यचाऽवश्यं कुगतिभयभिद्धातमात्रं त्रिलोक्याम् । चिन्तामण्याद्यधिकफलदं विश्वशुद्धिप्रकाशं, सिद्धक्षेत्रं दिशतु तदिदं सिद्धिसौधाधिवासम् ॥ ४ ॥ अस्मिन् सिद्धाचलभुवि पुरा सर्वतः सर्वदेशे, सिद्धाः सिद्धाः शरदशभिदानन्तशो ये च भव्याः। सेत्स्यन्त्यत्राद्भुतगुणगणे तानहं साधु सेवे, शश्वद्भावैः सुखपदमिदं वन्दनं भाविनां यत् ॥ ५॥ तिर्यञ्चोऽपि प्रशमितरुषस्त्यक्तजातिस्वभावा, लब्धा दिव्यावतरणपदं प्राप्तसौख्यप्रकर्षाः। . येत्रामात्रा प्रतिहतगुणाः का कथा मानुषाणां, तं श्रीमन्तं विमलमचलं साधुशुद्ध्यै प्रपद्ये ॥६॥ १ विद्वांसः। २ सिद्धक्षेत्रे. For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनस्तोत्रकोशः श्रेयःश्रेणीप्रसव इव लसत्सम्पदो दारकन्दः, सत्त्वा लीनामिव सुखकलाचार्यकश्रीरिवास्ते । साक्षाद्वास्वानिव शिवपथोयोतने कोविदानामुत्प्रेक्षैवं स्फुरति हृदये प्रेक्ष्य शत्रुञ्जयाद्रिम् ॥ ७ ॥ प्रज्ञा ज्ञानं चरणकरणं दर्शनानां प्रभुत्वं, योगाः सर्वे व्रततततपस्तप्तभावप्रभावाः । त्वय्यासन्ने विपुलसफलानन्तवीर्यप्रवादाः, सम्पद्यन्ते सुभग गरिमागार सिद्धाचलेन्द्र ॥ ८ ॥ यस्मिन् दृष्टे विकट निकटस्थायिनोऽनन्तदुःखो, - त्पादे दक्षाः सुविपुलखलाः कर्ममर्मादिरूपाः । नश्यन्त्येते परिकरधरावैरिपूराः समूला, - स्तेनेव स्याज्जगति विततं नाम शत्रुञ्जयस्य ॥ ९ ॥ राजादन्या सरस सुभग स्थापयाऽर्हन्मुखानां, वैयावृत्त्यं स्वयमुपकृतं यत्र तेनेव मन्ये । पूज्या जाता जयति जगतां सिद्धराजे स्थिता सा, सङ्गः प्रथयति गुणित्वाख्यया वन्द्यभावम् ॥ १० ॥ संसारामप्रमयनिरतं भेषजं दोषराग, द्वेषोन्मादज्वरहरवरं तथ्यपथ्यं त्रिलोक्याः । तापव्यापप्रशमनसुधाकुण्डमुद्दण्डलीला, दण्डं श्रीणां विमलमचलं भावयेऽलं मुदोत्कैः ॥ ११ ॥ यन्माहात्म्यं प्रकटयति सत्संसदि श्रीयुगादि, - यत्सेवायां स्वयमविरतत्वेन विद्यानवद्यः । मोक्षद्वारं यदसममहीं सेविनामाहैयानः, केषां न स्याद्विमलगिरिराट् कामितार्थप्रदोऽसौ ॥ १२ ॥ सिद्धक्षेत्रे विततमतिभिर्दृष्टिदृष्टे सतीष्टे, 'दीप्रे भावप्रकटनपदे दुर्गतिद्वैतबाधः । १ शत्रुञ्जये. २ यस्मादुत्तमसंगतिः । ३ संसार एव आमो रोगस्तस्य प्रमयो नाशस्तस्मिन् निरतं औषधं । ४ उत्सुकः । ५ आकारयन् भव्योत्साहप्रकर्ष करणेन । For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ___www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीशत्रुञ्जयमहातीर्थस्तोत्रम् सम्पद्येत स्वयमपि पुनर्मानुषस्वर्गमोक्ष, श्रेयः सौख्योदय इह सतां दर्शनं सम्पदे स्यात् ॥ १३ ॥ चिन्तामण्यादय इह फलैरैहिकैः किञ्चिदासन् , दातृत्वाख्यास्त्वयि तु सततं शैलमले प्रसर्पेत् । नानानन्तातुलफलकलादानशक्तिप्रभावः, किं तश्चित्रं ननु सुगुरवः सर्वशक्तिप्रयुक्ताः॥ १४॥ सद्भिः सेव्यः सुगुरुरिति या ख्यातिरास्ते यथार्था, चक्रे सैवं विमलगिरिणा भावना भावितानाम् । एतत्तीर्थोत्तम गुरुधियामिष्टशिष्टार्थदानैः, सर्व युक्तं सततसफलाः सेविनां स्युर्महान्तः ॥ १५ ॥ स्मारं स्मारं विशद शिवदं रूपरूपं तवात्म, स्वान्तं पूतं नयनसुभगच्छायशृङ्गप्रसङ्गम् ।। कारं कारं त्वयि नुतिरतं शैल वाकायशुद्धिं, । कुर्वे सन्तः खलु परिचितास्तान्तिशान्त्यै प्रसन्नाः ॥१६॥ सौभाग्यं तेऽनुपम महिमारम्यमान्याः क्षमः कः, शक्त्या वक्तुं शिखरिमुकुट त्वगुणध्यानधन्याः। सम्पत्प्राप्तिं भवभयभिदं भाग्यसौभाग्यभोगं, लब्ध्वा हृष्टप्रकृतय इहानन्दकन्दा हि सन्तः ॥ १७ ॥ वन्दे शत्रुञ्जयगिरिवरं विश्वसम्पद्विलासं श्रेयः श्रीणां ललनसदनं ब्रह्मलक्ष्मीविनोदम् । कर्मारीणां सरसविजयस्तम्भमिष्टधुरत्नं, सद्घोहित्थं भवभयजले सर्वसिद्धिप्रसिद्धिम् ॥ १८॥ इत्यानन्दमहोदयोज्वलकलालीलाविलासान्नुतः, श्रीशत्रुञ्जयनामतीर्थशिखरी सौभाग्यचूडामणिः । त्रैलोक्योदितहर्षहर्षविनयश्रीसूरितप्रौढिम, बोधि मे विदधातु कामितफलं श्रीधर्महंसश्रियम् ॥ १९ ॥ ॥ इति श्रीशत्रुञ्जयमहातीर्थस्तोत्रम् ॥ ३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः श्रीमण्डपाचलमण्डनश्रीसुपार्श्वेश्वरवर्णनस्तोत्रम्॥४॥ जयानन्द सम्पत्पदा पूर्वचिन्तामणिं मण्डपाहार्यवर्यप्रतिष्ठम् । जगजाग्रदुग्रप्रभावावतारं जिनं श्रीसुपार्श्व सुपार्श्व श्रयेऽहम् ॥१॥ सदानन्तसम्पत्प्रदं जात्यरत्नं स्वयं दर्शनं केन भव्या लभन्ते । यदङ्गाङ्गिपूजां विभाव्यानुभावैः स देयान्मुदं मेऽधिपः श्रीसुपार्श्वः॥२ प्रभो पादपद्मद्वयीहाक्षयाभाभयासंख्यसौख्यैकखानिर्गुणान्ते । भवाम्भोधिपारप्रदा स्वर्मणीजाकृतिः सारपूर्णावतीर्णा तरीव ॥ ३ ॥ जगदुर्गतत्वेन देवो द्रुतं यत्तदिष्टार्थवत्कर्तुमिष्टेऽह्रियुग्मम् । तवैवेव किं कल्पितं कल्पसारैर्दलैः सृष्टिकालेऽन्यथेर कथं तत् ॥४॥ व्रतस्वीकृतौ ते करस्पर्शमापन्मुदा यः स्वमौलौ स लेभे सुलब्धिम्। न किं नाथ सोव सिद्धिश्रियां सःशयः सिद्ध एवान्यथाज्ञः कथं स्यात् नखप्रेवदंशूपविद्धः शयस्ते न तं यच्छिर स्पर्शदीश प्रशस्यः । स एवोत्तमः सुश्रियां सद्मनीवावतीर्णास्तमोहाः प्रकाशाय दीपाः॥६॥ कियत् स्तौमि ते केवलज्ञानरूपं हृदिस्थं जगद्भावसौख्यप्रकाशम् । यदद्यापि जागर्ति नेतस्त्रिलोक्यामिवापूर्वभानूदयः किं सदासीत्॥ तवास्यं प्रशस्यं प्रभो विश्वतापापहं कस्य न स्यात् सुखावश्यसर्गम् । सुदृष्टं कृतेष्टं च नित्योदयश्रीरिवालक्ष्मणः पार्वणेन्दुत्रिलोके ॥ ८॥ सदानन्दसन्दोहदे लोचने तेऽधिप प्राणितां पाप हे सूः प्रशस्ते । इवैते सुधापूरपूर्णैककुण्डे जगन्मृत्युजन्मादितापोपशान्त्यै ॥ ९ ॥ प्रभो भ्रूयुगं ते नतानिष्टसृष्टिप्रणाशप्रतिशं कथं स्यान्न दृष्टम् । जितोन्नष्टमारस्य भीविभ्रमाभ्यां कराभ्यां पपातेव चापद्वयं किम् ॥१० कलाकल्पितानल्पलीलं ललाटं तवालङ्करिष्णूचितं विश्वमीश । जगत्पिण्डितैश्वर्यभोगस्य भाग्याधिपस्येव खेलालयाचित्रशाला ॥११ फणाटोपरोपस्तवास्तीश मौलौ न कस्य श्रिये भक्तभव्याङ्गभाजः। किमुद्वोदुमाढौकते मण्डपोऽसाविवाशेषशर्मश्रियामुत्सुकानाम् ॥१२ १ निष्कलंक. For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सकलश्रीजिनराजपचकल्याणकस्तोत्रम् वपुस्तेऽभवत् पुद्गलैः सुपार्श्व क्षमावीर्य संवित्सुखानन्त्यबद्धाः। सदासुधुवं तेऽन्यथैकान्तचित्तास्तदाराधनेऽभीष्टपुष्टाः कथं स्युः॥१३ सुपार्श्व त्वमेवासि सम्पत्सुपार्श्व यतस्तेन सान्वर्थगोत्रं पवित्रम् । तवैवाविरासीत्रिलोक्यां समस्तप्रशस्तेष्टदं किं श्रितानां सुपार्श्वम् १४ सदा स्वस्तरुस्त्वं श्रितानां सुपार्श्व श्रितोऽस्मीत्यहं त्वां ततः पूरयेश । मदिष्टानि पुष्टानि नाथे समर्थे न कां कां लभेत स्वभृत्यप्रतिष्ठाम् १५ महामण्डपग्रावसन्मण्डन त्वं स्वयं वर्त्तसे यद्यनोरस्यवश्यम् । सदा तत्र नित्योदयश्रीः कथं न द्युपत्यंशुयोगे कुतः स्युस्तमांसि॥१६॥ सुपार्श्वप्रभावानुभावेन भव्या भवेयुभवद्भरिभोगोपभोगाः। तवासंख्यसौख्यायुषो यत्सुयुक्तं यतोऽसि त्रिलोकैकचिन्तामणिस्त्वम् जगद्देवदेवोऽसि सत्यं यतस्त्वं जिनाष्टादशादीनवादुष्टशिष्टः। सदादेशमेदो दिनैः सत्तभङ्गैर्वचस्ते पराबाध्य साध्यं च सिद्धम् १८ भवद्गोत्रमन्त्रः शिवश्रेणिकोशः सुधन्वन्तरिः शंनिधिः सद्विधिश्रीः। सुपार्श्व श्रियां स्वस्तरुर्विश्वनेतःसदानन्दसन्दोहसम्पत्पदाप्तिः॥१९॥ ‘सुपार्श्वस्तुतोऽपीक्षितोऽपि श्रुतोऽप्यर्चितोऽपि प्रभूतप्रभावं स्वसंस्थं । यथेच्छं प्रयच्छेर्नृणां साम्प्रतं तत् प्रदत्ते यतः सुप्रभुः स्वप्रभुत्वम्॥२० एवं भक्तिसुयुक्तितः स्तुतिरतस्वान्तस्य मे स्याद्रुता, नन्दास्वादरसार्णवं गुणगणाकीर्ण सुपार्श्वप्रभो। विद्यातत्त्वनिधानहर्षविनयश्रीसूरिपूज्योदयं बोधिं वर्द्धय धर्महंस ललनाम्भोजं जयश्रीकरम् ॥२१॥ ॥ इति श्रीमण्डपाचलमण्डनश्रीसुपार्श्वेश्वरवर्णनस्तोत्रम् ॥ ४ ॥ सकलश्रीजिनराजपञ्चकल्याणकस्तोत्रम् ॥५॥ गर्भावासनिवास जन्मसमया समव्रतज्ञानिता, निर्वाणात्मकमङ्गलालयलसत्कल्याणकेषूत्सवाः । आराध्याः सुधियां प्रधानविधिना स्युः सिद्धये येऽर्हतां, .. स्तोष्येऽसंख्यविशेषसौख्यसुषमापोषप्रकर्षाय तान् ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १० www.kobatirth.org श्रीजिनस्तोत्रकोशः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ये पूर्व नरकत्रिविष्टपगतिस्थित्यादि भुक्त्वोचितं, द्रव्यार्हनिवहा विदेहभरतेष्वैरावतेषु क्रमात् । जायन्ते युगपत् ससप्ततिशतं स्वाम्बोदरे गर्भतां, बिभ्राणाः सरसैश्चतुर्दशमित स्वप्रप्रपञ्श्चेक्षणैः ॥ २ ॥ किं मन्ये भुवि भूर्भुवःस्थभविनां संदर्शनश्रीपद, - ज्ञयानन्तसुखाकरार्पणकलोल्लासं विधातुं स्वयम् । सर्वत्राद्भुतसर्व देशविरतिख्यात्यावतीर्णा इवो, - त्यो धर्मपथाच भावजिनपास्ते सन्तु भद्रङ्कराः ॥ ३ ॥ च्यवनम् - उच्चस्थानगतग्रहेषु समयादिष्टेष्टवेलावलो,लासे सत्यवदातजन्मसमयः शस्तप्रशस्तोत्सवः । येषां तत्क्षणमागता सुरसुरेशासाद्यमाद्याद्विधि, - स्नानः स्वर्णगिरी सुरीततिकृताम्बासूति कर्म्माजनि ॥ ४ ॥ सत्यानन्दपदप्रकाश इव किं सत्सिद्धिसौधोद्धुर, द्वारोद्घाटन कुञ्चिकेव भविनां सौख्यावकाशावधिः । मन्ये नारककर्मिणामपि कलाकोटी विलासालयप्रादुर्भाव इवानवद्यपदवीं तन्वन्तु ते मे जिनाः ॥ ५ ॥ जन्म राज्यं प्राज्यमभङ्गभोगसुभगं भुक्त्वा च सद्वार्थिकं, दत्त्वा दानममानमान मदस्त्यक्त्वाऽथ रागाङ्कुरान् । नत्वा सिद्धपदं सर्वविरतिं स्वीकृत्य सर्वात्मना, ममर्त्यनुता विहारपदवीं प्रापुः स्वयं ये भुवि ॥ ६ ॥ किं सोपानपरम्परामिव महादुर्गे तपःक्ष्म्याधरां, ह्यारोढुं विकटारिकर्मविजयावाध्यै प्रभानामिव । किं वा भावि महोदयप्रसविनीं श्री केवलालोकसद, भानोः सर्वतमोभिदो भवभयं भिन्दन्तु नस्ते जिनाः ॥ ७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सकलश्रीजिनराजपञ्चकल्याणकस्तोत्रम् निष्क्रमणम्षट्कायावनपूर्वतीव्रसुतपश्चारित्रपात्रव्रत, वातस्वान्तपदावधानविधिनाराध्य त्रिधा शुद्धितः । यैः श्रीकेवलसंविदुज्ज्वलकलालावण्यलीलाकला, ब्रह्मघ्नं घनघातिकर्मकषणं कृत्वार्जिता सर्वतः ॥ ८॥ देवानामिव भक्तिशक्तिघटनाद्वारं सुवर्णादिक, प्राकारैरिव वोदियाय किमपूर्वार्कप्रकाशं प्रथा । त्रैलोक्येऽपि शरीरिणां गुणिगुणस्वस्वार्थनिर्बाधतो,· द्वोधाय प्रथयन्तु तीर्थपतयस्ते सत्यमत्यङ्कुरान् ॥९॥ ज्ञानम्दुष्टानिष्टनिकृष्टकष्टघटनोपादानतासंस्थितं, कर्मोन्मूल्य समूलमुजवलगुणश्रेणीसुतीक्ष्णासिना । नित्यानन्तचतुष्टयाश्रयपदं यैः प्राप्य पूर्व शिवं, शैलेशीकरणाद्विशालधवलध्यानप्रपञ्चाञ्चितान् ॥ १०॥ किं लोकोत्तरसंपदा निधिरिवारोग्यप्रभुत्वाकर, स्फारश्रीप्रसवस्थलीव भवभीभेदौषधीवाद्भुता। आधिव्याधिविषप्रकर्षकषणे किं मन्त्रयन्त्रादिकं, सर्वे ते भयदा भवोद्भवभयं भिन्दन्तु भव्यात्मनाम् ॥११॥ निवाणम्यासु क्षोणिषु सद्विदेहभरतेष्वैरावतेषूदिता, राध्यत्वस्थितिषूद्धभूव भविनां कल्याणकानां विधिः । येषामेष विशेषभक्तिनिभृतो वन्देऽखिलास्तीर्थपां, स्तांस्तांस्तीर्थधिया च मङ्गलकुलाश्लिष्टप्रकृष्टश्रिये ॥ १२ ॥ भक्तिव्यक्तिजुषामयेति जिनपाः कल्याणकैकस्थिते, किश्चित् ख्यातिविशेषतः स्तुतिपथं नीताः प्रसन्नोज्वलाः । For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीज़िनस्तोत्रकोशः भूयासुः सकलाः सहर्षविनयश्रीसूरिपूज्यास्तथा शिष्टेष्टाकरधर्महंससरसो भव्यो भवेयं यथा ॥ १३ ॥ इति सकलश्रीजिनराजपञ्चकल्याणकस्तोत्रम् ॥ ५ ॥ श्रीअजितशान्तिस्तोत्रम् ॥ ६॥ अजितो जयदो जयाजितप्रभुशान्ते च नताङ्गिशान्तिकृत् । मुदितोऽहमुभावपि स्तुवे भयदौ तौ भवभीभिदोदितौ ॥१॥ भविकप्रकृतेः पुरो महाभविकप्रत्ययतः पदे पदे । सुपदस्थितिरद्भुता भवेद्भुवि सर्वाजितशान्तिसन्निधेः ॥ २ ॥ भवतां भविका भवाटवीविरतिर्ब्रह्मपदेषु चेद्रतिः। श्रयताजितशान्तिशासनं शरणं विश्वनृणां तदा मुदा ॥ ३ ॥ विजया विजयाश्रयाऽजिताश्रयणेऽन्तर्नृपतेरतावभूत् । प्रभुशान्तिरपीह शान्तिदो जननीगर्भगतोऽभितो जने ॥४॥ सकलारिजयानिजप्रसूविजयाजन्यजितेऽपि गर्भगे। जिनचक्रिपदद्वयश्रियोः प्रभुशान्तिः प्रभुताभुगद्भुतः ॥५॥ तरणीन्दुपुरन्दरादयः परिकर्माण इवार्भवोऽपि ये। सरसान्तरभक्तिनिर्भरा यदि यौ भेजुरिहानुयायिनः॥ ६ ॥ युवयोस्तनुरूपतेजसा लवमात्राश्रयिणोऽपि ते कथम् । रमणीयतया कदाचनाजितशान्ती विबुधा अपि स्वयम् ॥ ७ ॥ धुमणीरमणीयमाश्रयेऽजितशान्ते च भवत्सुशासनम् । भविनामिदमेव सम्पदा पदमत्रास्ति यतस्तु नापरम् ॥ ८ ॥ भविकाङ्गभृतोद्भुतो चमातिशयैश्वर्यमहार्यमेक्ष्य वाम् । परिहृत्य कुशासनं जिनाऽजितशान्ती भवदुक्तमाययुः ॥९॥ जितशत्रुसुतोऽजितो जितो भवभीभिर्भविनां समीहितम् । तनुतेऽपि च तान्तिशान्तिकृजिनशान्तिः श्रितशान्तिसागरः ॥१०॥ प्रसभं प्रभुतातिशायिताऽजितशान्ते च तवैव विद्यते । स्वपदप्रदताऽतिभक्तिसद्भविकानां भविकैककोशदा ॥ ११ ॥ For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीभजितशान्तिस्तोत्रम् शिवशर्मनिधी इवोदितौ भवभीभेदिधराविवोद्धरौ । जयशान्तिगुणाकराविवाजितशान्ती मुदितः स्तुवेऽम्वहम् ॥ १२ ॥ सुलभाः सकलाः कलाः कलाश्चरणं चापि सदर्शनं सविद् । विशदं भुवि तस्य यस्य साऽजितशान्त्योः शरणाप्तिसम्पदा ॥ १३ ॥ अजितो हृदि यस्य संवसेत् स कथं नैव जयश्रियां पदम् । भजतेऽजितशान्तिमत्र यस्त्रिजगद्वन्द्यपदः कथं न सः ॥ १४ ॥ अमृतं दिवि नामतोऽर्थतो न वचस्तेऽमृतमत्र सार्थकम् । अजितामृततामितं यतस्तव वाक्यं स्वदतां सदासताम् ॥ १५ ॥ भवतात्मसु चाश्रितेष्वहो बहिरन्तश्च सुशान्तिसम्पदा । प्रथितोचितमेव तद्यतस्तवशान्तेऽन्वयितोदिताभिधा ॥ १६ ॥ अजिते स दिने जयत्यहो बहिरन्तस्तमसां कुतः स्थितिः । कुमुदालिकलोदयः कथं जिनशान्तीन्दुमहस्सु सत्सु न ॥ १७ ॥ जितशत्रुभवो भवेजिनोऽजितशत्रुर्न कथं द्विधात्मना । प्रथमं भुवि शान्तिकृत्तयोदितशान्तिर्न कुतः सुशान्तिमान् ॥ १८ ॥ अजितः स्वयमीश तत्कथं त्वमयैः स्वैरचरैर्विलुप्यसे । यदि शान्तिमयः प्रभोऽसि तत् श्रितगेहेषु कुतोऽपि निःस्वता ॥ १२ ॥ अजितः सकलोऽपि सन्ततं विकलास्तत्तदुपासकाः कथम् । यदि शान्तिरसाकरः प्रभुर्न कथं शान्तिभृतास्तदाश्रिताः ॥ २० ॥ चरणं करणं हृदि स्मृतं करणं तेऽजित विश्वसंपदे । चरणौ मनसाऽपि भावितौ भुवि शान्तेश्वरणोन्नतिप्रदौ ॥ २१ ॥ वदनं सदनं महागिरां न मुदे कस्य तवाजितेक्षितम् । स्तुतयोऽपि न ते हितायते भुवि शान्ते प्रभवन्ति भाविताः ॥ २२ ॥ विजयाङ्गभवो विभुर्भजेद्र हिरन्तारिपुसद्यसजयम् । उचितं भुवि विश्वसेनजो लभतेऽहो अयि विश्वसेनताम् ॥ २३ ॥ घुमणीतरुकुम्भमुख्यजैः सुद लैर्निर्मितमूर्त्तिमानसि । अजितोत्तम शान्तिदेव चाश्रितशिष्टेष्टदतैव हेतुता ॥ २४ ॥ सकलातिशयातिशायितोपकृर्ति ते तनुतेऽजित क्षितौ । श्रितवत्सलतोचिताऽद्भुता तव शान्ते च तथैव विद्यते ॥ २५ ॥ For Private and Personal Use Only १३ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः इत्थं श्रीअजितेशशांतिभगवद्वैतं स्तुतेर्गोचरम् नीत्वा तत्त्वसतत्त्वसत्त्वविधिनां बोधिप्रथा प्रार्थनाम । कुर्वेऽहं सरसार्थहर्षविनयश्रीसूरिवौढिमारूढश्रीगुरुधर्महंसमहिमाम्भोज जयश्रीपदम् ॥ २६ ॥ इति श्रीअजितशान्तिस्तोत्रम् ॥ ६ ॥ श्रीयुगादिदेवस्तवनम् ॥ ७॥ जयदोदयसंयमधूर्धरणादिव यो वृषभायमाप परम् । प्रथितावितथव्यवहारपथं प्रणयामि नुतिं वृषभैकविभुम् ॥१॥ ऋषभ प्रभुताद्भुततेहनवा तब कापि चकास्ति यतः सततम् । मनसाऽपि विभावितभूतगुणः स्वपदप्रद एव भवान् भविनाम् ॥२॥ वदनं वदनं सदनन्तपदप्रथितार्थगिरां नतपथगम् । भवभीतिभिदे तव भद्रभरोद्भवनाय च संभवति प्रसभम् ॥ ३ ॥ तव मूर्तिरियति नतार्तिशमं चरणं करणं करणं शरणम् । समशिश्रियदाश्रमविश्रमणं जिनपादयुगेऽकलयत् कमला ॥४॥ इति हर्षविनयसूरिस्तुतिनुतपदपङ्कजः स्तुतस्त्वं मे। तव ऋषभदेव सेवां विरचय गुरुधर्महंसरसाम् ॥ ५॥ ॥ इति श्रीयुगादिदेवस्तवनम् ॥ ७ ॥ श्रीअजितनाथजिनस्तोत्रम् ॥ ८॥ श्रीपदशासनभासनभावोद्भासनदेशनयोदितधर्मम् । आश्रितकामितकल्पसधर्म नौम्यजितं जितरागरुषं तम् ॥ १ ॥ योजनगामिगिरं तव पीत्वा कर्णपुटैरिव लोहजधातुः । सिद्धरसं स्वसुवर्णतया स्यादिष्टफलो भविकः सकलोऽपि ॥ २ ॥ त्यक्तरसोऽपि च सत्यरसश्रीः शालिकला सकलो विकलोऽपि । कामितदोऽपि परिग्रहमुक्तः श्रीअजितो विजयी जयदः स्तात् ॥३॥ For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीअभिनन्दनदेवस्तोत्रम् श्रीजितशत्रुभवोऽपि कथं स्यास्त्वं जितशत्रुरसौ स्वयमाशु । श्रीविजयाङ्गभवोऽपि सुजातः सर्वसदोभयथा विजयात्मा ॥४॥ इति हर्षविनयगुरुहृद्भक्तिव्यक्त्या नुतोऽजितो विजयी । यच्छतु मे जयलक्ष्मी सलीलगुरुधर्महंसरतिम् ॥ ५॥ ॥ इति श्रीअजितदेवस्तोत्रम् ॥ ८ ॥ श्रीशम्भवनाथजिनस्तोत्रम् ॥९॥ भुवि शं भवतां दधत्स्वयं परशंभूत्युचितं पदं हि यः। विजितारिजितारिवंशजो जयदः स्ताद्भविनां स शम्भवः॥१॥ सहजातिशयाश्चतुर्मिता भुवने यस्य सुखाकराः स्मृताः। सुपवित्रचरित्रसंभवा भविकं नस्तनुतां स शम्भवः ॥ २॥ विततातिशयाः श्रिये सतां नवकैकादशकर्मघातजाः। भुवनोपकृतैकसत्फलाः प्रणुताश्चित्रपदानि शम्भवः ॥३॥ विशदातिशयाः सुरादिताजिनपैकोनकविंशतिस्तव । प्रभुतातिशयातिभाविनः प्रणुताः सौख्यविशेषपोषकाः ॥ ४ ॥ एवं शम्भवदेवः स्तुतः स्वरसतस्तनोतु जयराज्यम् । गुरुहर्षविनयसृरिह भविनां वरधर्महंसरसः ॥५॥ इति श्रीशम्भवनाथस्तोत्रम् ॥ ९॥ श्रीअभिनन्दनदेवस्तोत्रम् ॥ १० ॥ नृप संवर संवर सारकुलप्रकटीकृतमुक्तिपथप्रसरम् । अभिनन्दन सार्वमखर्वमुदा नुतिगोचरमाकलयामि कलौ ॥ १॥ सदशोकतरुस्त्वदुपर्यचकान्नतशोकहृतादिव देवरतः। हतमारशरा इव ते त्रिदशाः कुसुमानि किरन्त्युपदेशभुवि ।। २। जिनयोजनगामि गिरः प्रसरन्त्युचितं जनताररता इव ते । चमराण्युभपार्श्वगतानिव भूर्वदनानरतेव मरालततिः ॥ ३॥ For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः नृपलक्ष्मकलत्रिकमीशजगत्रयपूज्यपदं प्रवदत् किमु ते । मणिहेममयासन भाति भवानिव मेरुसुरदुरभीष्टनिधिः ॥४॥ तव दीधितिमण्डलमीश बभौ जितभानुरिवास्ति भजन प्रसभम् । शरणाय जनेष्विव किं हवकृद्दिवि दुन्दुभिरुश्चरवैः प्रसरेत् ।। ५॥ तोटकच्छन्दः । श्रीहर्षविनयसूरिपूज्यः श्रीअभिनन्दनः। इति स्तुतस्तनोतु श्रीधर्महंसमहःश्रियम् ॥ ६॥ ॥ इति श्रीअभिनन्दनदेवस्तोत्रम् ॥ १० ॥ __ श्रीसुमतिजिननाथस्तोत्रम् ॥ ११ ॥ क्षितिपुरन्दरमेघनृपान्वयोज्वलकुवेलविलासकलाधरम् । कमलकोमललोचनशालिनं सुमतितीर्थपतिं सुमतिं स्तुवे ॥१॥ वचनमुच्चमिदं मम यत्तव स्तुतिकरं करणं करणं श्रियाम् । यदिह सेवि मुदा तव मानसं शुचि तदीश यदह्रिविभावनम् ॥ २॥ षडसुमत्तनुवेषपरापरप्रकटनैर्नटनानि भवत्पुरः। अतनवं यदि मामथ वारय श्रमभृतं सुपते श्रितवत्सलः ॥ ३ ॥ भवपरम्परयाऽमितपुद्गलग्रहणपूरणजैभ्रमणश्रमैः। अतिविषण्णमथावतथात्र मां जिन यथा शिवसम्पदमाश्रये ॥४॥ इह हर्षविनयसुगुरुश्रीसूरिति संस्तुतः सुमतिदेवः । जयलक्ष्मीसुविलासं कलयतु मे धर्महंसकलाम् ॥ ५ ॥ ॥ इति श्रीसुमतिजिननाथस्तोत्रम् ॥ ११ ॥ श्रीपद्मप्रभजिनस्तोत्रम् ॥ १२॥ विश्वश्रीनयविधिशेवधिरश्रीभूभर्तुः सुकुलकृतावतारतारम् । भव्योरःसरसिजचञ्चरीककनं श्रीपद्मप्रभविभुमाश्रये मुदाहम् ॥१॥ स्वार्थानामभिगमकं प्रमाणमात्थ ज्ञानं त्वं परसमया वृथाऽन्यथाऽऽहुः। For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः विज्ञानं तव सकलार्थगोचरं __ यद्देवान्ये कुमतधियोंऽशवादिनः स्युः॥२॥ यत्पूर्वापरनिहतार्थतावकाशं त्वद्वाक्यं क्वचिदपि नास्ति साम्प्रतं तत् । सापेक्षंसकलनयावलम्बिभावाद्यन्नेतःपरसमया मिथो विपक्षाः ॥३॥ स्याद्वादाधिगतमशेषवस्तुजातं सार्व त्वं वदसि वरं प्रमाणवाक्यैः । एकांशोपगतगिरः परेऽर्थसाथै दुर्नीत्या तदिह बुधा भवद्वचःस्थाः४ प्रहर्षिणी छन्दः । धितहर्षविनयसूरितविनुतगुणस्त्वं जयप्रदो भव मे। श्रीपद्मप्रभचिन्तामणिरेष च धर्महंसजयः ॥५॥ इति श्रीपद्मप्रभस्तोत्रम् ॥ १२ ॥ श्रीसुपार्श्वनाथजिनस्तोत्रम् ॥ १३ ॥ सुप्रतिष्ठ प्रतिष्ठ क्षितीश प्रतिष्ठापिताऽभीष्टसाश्चर्यजन्मोत्सवम् । सम्पदानन्दसम्पन्नदेहोदयं श्रीसुपार्श्व सुपार्श्व जिनं संस्तुवे ॥१॥ चारुसारूप्यमानोऽपि नो दुर्नयी सौगतोऽपि स्थिरद्रव्यरूपार्थवित् सत्यतासंनिकर्षप्रमाणोऽप्यहो सन्मती श्रीसुपार्श्वेश्वरस्त्वं जय ॥२॥ देहकर्मादिशून्यः शिवः सर्वदा सोपदेशत्वमङ्गप्रयोगाद्भवेत् । कण्टकेष्वेवमन्योन्यविध्वंसिषु ध्येयते धृष्यमुद्दीप्यते शासनम् ॥ ३॥ पक्षपातं विनैवं द्वयस्य द्वयं चित्रकारि प्रतीमः परीक्षापदे । सत्यतार्थप्रधानं तवानुत्तरं विद्यते स्थाननिर्बन्धितावादिनाम् ॥ ४ ॥ स्रग्विणी। एवं सुपार्श्वदेवः स्तोत्रपथं प्रापितस्तनोतु मतिम् । श्रीहर्षविनयसूरितरूपो मे धर्महंसरुचिम् ॥ ५॥ ॥ इति श्रीसुपार्श्वनाथजिनस्तोत्रम् ॥ १३॥ For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीसुविधिनाथजिनस्तोत्रम् श्रीचन्द्रप्रभजिनस्तोत्रम् ॥ १४ ॥ सततं महसे नतोलसन्महसे नान्वयपावनस्थितिम् । विशदोदितसम्पदास्पदं प्रभुचन्द्रप्रभमानमाम्यहम् ॥१॥ सकलज्ञकृतेर्हितार्थनाप्रथनात् साधुपरिग्रहाग्रहात् । अविरोधिदयोदयात् प्रमा भवदुक्तागम एव धीमताम् ॥२॥ असिमशनरोपदेशतः कुपथात् घातमयाद्विरोधितः । कुनृशंसपरिग्रहाद्रुधा भवदन्यागममाहुरप्रमाम् ॥ ३॥ कुवादैरुदितं यदार्जवादमृतार्थ हि तदन्यथा परैः। विहितं तव गीषु विप्लवोऽजनि नायं तव शासनं महत् ॥४॥ ततहर्षविनयसूरिभिराश्रितसुवचाः स्तुतस्त्वमेवमिनव । तनु धर्महंस महसां मम विजयश्रीमहारूपम् ॥ ५॥ ॥ इति श्रीचन्द्रप्रभजिनस्तोत्रम् ॥ १४ ॥ श्रीसुविधिनाथजिनस्तोत्रम् ॥ १५॥ श्रीसुग्रीवक्षोणिपस्फारवंशा शास्याहार्यैश्वर्यद स्वावतारम् । धर्माधर्मारोपलोपैकवाक्यं शान्तं दान्तं पुष्पदन्तं तमीडे ॥१॥ शक्त्याऽशक्त्याऽधीश दोषानशेषान् यानेव त्वं बाधसे स्म प्रपश्चैः। त्वय्युद्यातासूययेवाश्रितास्ते चित्रं सर्वे तीर्थनाथैः परैस्तैः ॥ २॥ वस्तुस्तोमं त्वं यथार्थ प्रमाणैःसाध्यं बाधातीतमीशादिशन् स्त्राक् । येषांद्वेष्योऽस्यश्वशृङ्गाणि तेभ्यःशश्वजल्पद्यः परेभ्यो नमोऽस्तु ॥३ नित्यानित्यं स्यात् सनानं विरूपं वाच्यावाच्यं सत्तथाऽसत्तदेव । वस्तु शात्वाविष्कृतं सत्यतास्थं देवाबाधं सत्त्वयैवापरैर्न ॥४॥ शालिनी। सुखहर्षविनयसूरितविज्ञानः सुविधिदेवविधिसुनिधिः । स्तुत इति शुचितां चिनु मे त्वं शश्वद्धर्महंस विभो ॥ ५॥ ॥ इति श्रीसुविधिनाथजिनस्तोत्रम् ॥ १५॥ - - - For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अथ मालिनी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनस्तोत्रकोशः ॥ अथ श्रीशीतलदेवस्तोत्रम् ॥ १६ ॥ दृढरथनरनाथश्रीपृथूत्तंसवंशप्रसृमरजनिशोभाभासुरलोककान्तम् । सकलकलकलाभिः श्लाघ्यलीलाविहारं नमत भविकलोकाः ! शीतलं मङ्गलार्थम् ॥ १ ॥ परसमयनयेभ्योऽनन्तधर्मात्मकस्य प्रमितिविषयिणस्ते शासनस्यांश केभ्यः । यदयमतिकदाशा हेलिबिम्बस्य सेहे गण शिशुघृणिमालाऽऽडम्बरेभ्योऽवहेला ॥ २ ॥ परसमयकुनाथा दुःपथस्थाः स्वयं ये कुपथमपरलोकान् प्रापयन्ति स्वबुद्ध्या । सकलनयमयं स्याद्वादमात्थ त्वमर्ह, - स्तदपि नमति नस्ते मानिनोऽसूययाऽन्धाः ॥ ३ ॥ परमतपतयोऽमी सर्जिनो भेदिनो वा कथमपि भुवनानां वादिनामात्मबुद्ध्या । तदपि भवति निष्ठे शिष्टधर्मोपदेशे भवभयभिदि शून्यास्तेन तुभ्यं नमोऽस्तु ॥ ४ ॥ श्रीशीतलविमलफलां कलय कलामीडितस्त्वमिति हि मुदा । श्रितहर्षविनयसूरितगुणस्य मे धर्महंसवसो ॥ ५ ॥ wwwwww www ॥ इति श्री शीतल देवस्तोत्रम् ॥ १६ ॥ For Private and Personal Use Only १९ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीवासुपूज्यजिनस्तोत्रम् ॥ अथ श्रीश्रेयांसदेवस्तोत्रम् ॥१७॥ अथ शिखरिणीजगजिष्णूदामानुपमभुजधाम स्ववशिता खिलश्रीश्रीविष्णुक्षितिपतिकुलालंकृतिमणिम् । जगद्ध्येया देयानणुगुणमणीरोहणगिरि, स्तुमः श्रीश्रेयांसं भविकभविका लोककुशलम् ॥१॥ शरण्येऽलं पुण्ये नयगममये सत्प्रमितिभिः, प्रतिष्ठानिष्ठे ते पटुशिवपदे शासनपथे। विभो यः संदेग्धि प्रतिहरति वा दुर्नयधिया, __ सपथ्ये तथ्ये स्याद्धितकृतिकुधीः स्वादु सरसे ॥२॥ कुतीर्थ्या निष्णाताः सुखशयनपश्चाक्षविषय प्रभोगास्वादाद्यैः शिवपदसुखं मुग्धसुलभम् । सदाहुलीलाभिस्त्वमिति न जिनाख्यासि विबुधा, स्तथापि त्वन्मार्ग शिवपदधिया शिश्रियुरहो ॥३॥ परेशानां शिष्याः कुनयमतिभिर्दुस्तपतप, स्तुतिर्योगानन्यानपि विदधतां हायनशतम् । तथाऽप्येतेनाप्या वितथपथमप्राप्य न मनाक्, त्वदुक्तं तत्त्वार्थ शिवपथगमा मोक्तुमनसः ॥४॥ श्रीश्रेयांसजिनेशः स्तुत इति विजयप्रदोऽस्तु मे भगवान् । जय हर्षविनयसूरितपदकमलो धर्महंसशशिः ॥ ५ ॥ ॥ इति श्रीश्रेयांसदेवस्तोत्रम् ॥ १७ ॥ ॥ अथ श्रीवासुपूज्यजिनस्तोत्रम् ॥ १८॥ श्रीनरेशवसुपूज्यपूज्यसद्वंशभूषणमणिं कलालयम् । सर्वदैव जयसम्पदोदितं वासुपूज्यजिनमानमाम्यहम् ॥१॥ स्यादनेकमपि वाच्यमेककं वाचकद्वयमयं तथा दिशन् । विश्ववस्तुषु यथार्थवादितां सर्वदेश लभसे त्वमेव हि ॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः यस्य दर्शनबलाद्भवादृशां सम्प्रतीम उदिताप्तभावताम् । अन्यतीर्थिककुवासनाभिदे शासनाय भगवन्नमोऽस्तु ते ॥ ३ ॥ ज्ञानमुज्वलमनन्तधर्मतां स्यात् पदेन सकलेषु वस्तुषु । नाथ ते प्रकटयन् कुवादिनामागमस्य वितथत्वमादिशेत् ॥४॥ रथोद्धता। श्रीवासुपूज्य सार्वः स्तुत इति विजयप्रदोऽस्तु मे भगवान् । महहर्षविनयसूरितपदपद्मो धर्महंसमहः ॥ ५ ॥ ॥ इति श्रीवासुपूज्यजिनस्तोत्रम् ॥ १८ ॥ ॥ अथ श्रीविमलदेवस्तोत्रम् ॥१९॥ स्वागताछन्द:पुण्यपुण्य सगुणानणुवंशाशास्यमानकृतवर्म नृपोत्थम् । केवलोजवलकलाकलितार्थ वर्णयामि विमलं विमलेशम् ॥१॥ अन्यतीर्थिककृतागमबाधं स्वप्रमाणवचनोक्तनयोक्तिम् । दुर्नयोत्थकुपथस्थितिभङ्गं तीर्थनाथ भवदागममीड़े ॥२॥ ब्रह्मशून्यसकलक्षणनाशित्वादिवादिकुनयोन्नतिभङ्गैः। द्रव्यषट्कमवदस्त्वमधीश स्याद् विपत्तिभवनस्थितिरूपम् ॥ ३ ॥ दुर्नयस्थहयभङ्गविभङ्गैः सत्प्रमाणनयसम्भवभावैः । सप्तभङ्गविभवं हि तथाऽच्छाशेषवस्तु लभते स्वपदास्थाम् ॥४॥ सुविमलकेवलकमलः श्रीविमलः स्तुत इति श्रियं जगताम् । मतिहर्षविनयसूरितविशानो धर्महंसकलाम् ॥ ५॥ ॥ इति श्रीविमलदेवस्तोत्रम् ॥ १९ ॥ ॥ अथ श्रीअनन्तजिनस्तोत्रम् ॥ २० ॥ अथ पुनर्मालिनी छन्दः सुकृतसुकृतभोगाभोगवत् सिंहसेन, क्षितिपतिततवंशख्यातिवल्लीतवाब्दम् । सकलनयविशुद्धाचारचञ्चञ्चरित्रं, सहृदयनुतिपात्रं श्रीअनन्तं स्तुमस्तात् ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ श्रीधर्मनाथस्तोत्रम् परसमयनयशास्त्वय्यसूयां दधानाः, प्रलपनपरतन्त्राः कण्ठपीठे किरन्तु । सितकठिनकुठारं किंतु मेधाविनोऽमी, त्वयि सुजिन न रक्ता रागमात्रेण किंचित् ॥२॥ मदमदनविगातक्रोधलोभादिदोषै, रपहतमनसां स्यादन्यदेवावलीनाम् । त्वयि सति सुपते सन्मार्गदर्शिन्यवश्यं, वितथपथजुषां साम्राज्यरोगो वृथैव ॥ ३॥ वितथपथवदान्या दोषदुष्टाः सुरास्ते, क्वचिदपि न हि मान्याः सत्परीक्षाधिकारे । न हि सगुणसुरत्नस्थानमानं लभन्ते, निपुणमतिसदस्सूञ्चावचाः काचखण्डाः ॥४॥ श्रीमाननन्तनाथोऽनन्तचतुष्टयरमारतः सततम् । व्रतहर्षविनयसूरितनुतः श्रिये धर्महंससरः ॥५॥ ॥ इति श्रीमनन्तजिनस्तोत्रम् ॥ २०॥ ॥ अथ श्रीधर्मनाथस्तोत्रम् ॥२१॥ वंशस्थमिदं छन्दःभानुप्रमाभासुरभानुभूधवाऽवदातवंशप्रभुता प्रभाविनम् । सद्दर्शनं सर्वजनीनदर्शनं धर्म जिनं धर्मविदं मुदा श्रये ॥१॥ स्वलक्षणस्थं सकलं जगत्रयं वदन् प्रमाभिश्चतुरार्य सत्यवित् । बुधः स्वयं यो न कदापि दुर्नयी श्रीधर्ममर्मशमिनं सदा स्तुमः ॥२॥ पर्यङ्ककम्रासनसङ्गि सद्वपुः श्लथं च नासा नियते स्थिरे दृशौ । न शिक्षितेयं परतीर्थदैवतैर्मुद्रापिते देव किमन्यदुच्यते ॥ ३॥ For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीजिनस्तोत्रकोशः ૨૩ मुक्तवात्मवैरव्यसनानुबन्धितां यां नित्यवैरा अपि संश्रयन्त्यहो । परैरगम्यां सुलभां सुपुष्यिभिस्त्वद्देशनाभूमिमुपास्महे हि ताम् ॥ ४ ॥ धर्माधर्मपथज्ञः स्तुत इति धर्मप्रदोऽस्तु धर्मजिनः । महहर्षविनय सूरितरूपश्रीर्धर्महंस महाः ॥ ५॥ ॥ इति श्री धर्मनाथस्तोत्रम् ॥ २१ ॥ अथ वसन्ततिलका Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ अथ श्रीशान्तिदेवस्तोत्रम् ॥ २२ ॥ ---- विश्वातिशायि महिमा महिमाननीया श्रीविश्वसेननृपवंशसमृद्धिसिद्धिम् । सद्बुद्धिवृद्धिनिधिधर्मपथप्रकाशं शान्ति श्रये श्रितसुशान्तिपदं मुदेशम् ॥ १॥ अर्हत्पदप्रथितचत्रिविभुत्वसत्त्व, सङ्केतसद्मसरसागमसन्नयश्रीः । स्याद्वाद विद्वदनपद्मभवाविरोधि सद्देशना गतनयः शिवदोऽस्तु सार्वः ॥ २ ॥ सद्देशनाश्रितभवद्वचसां प्रभावः कोऽप्यद्भुतोऽस्ति युगपत्सहसा समेषाम् । सर्वेऽपि संशयपथाः सदसि स्थितानां नश्यन्ति यद्भुवि भियेव सहार्त्तिपूर्त्या ॥ ३ ॥ विश्वातिशायिविभुता तव यज्जिनेश त्वद्देशना स्थितिरियं मनसा स्मृताऽपि । भव्यात्मनां सुखकरी भवभीहरी तत् किं किं करोति न मुदा नयनेक्षिताऽसौ ॥ ४ ॥ श्रितशान्तिस्तव शान्तिस्तनोतु शान्ति स्तुत इति जिनशान्तिः । जिनद्दर्षविनय सूरिततस्वार्थो धर्महंसपदम् ॥ ५ ॥ ॥ इति श्री शान्तिदेवस्तोत्रम् ॥ २२ ॥ For Private and Personal Use Only ww Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीअरदेवस्तोत्रम् ॥ अथ श्रीकुन्थुदेवस्तोत्रम् ॥ २३ ॥ स्वमहाप्रभावजितसूररमाकरसूरभूपकुलवृद्धिकरम् । सरसोदितानणुगुणप्रगुणं मुदितः स्तवीमि जिनकुन्थुमहम् ॥१॥ प्रभुताद्भुतेह तव कापि तवात्रिपदी मिताक्षरमिताऽपि विभो। अमितार्थवाचकतया गणभृहृदये ततान नयकोटितटा ॥२॥ उचितं व्यमुञ्चदयि चक्रिरमां तृणवत् क्षणेन भुवि यः स विभुः। सदनन्तसम्पदतिरम्यचतुष्टयलुब्धहृत्सततमस्ति यतः॥३॥ उचितं वसेत्यनुदिनं कमला जिनपादपद्मा निलये विमले। कथमन्यथा श्रितवतां पुरतो लुठतीह सम्पदखिलाऽप्यमला॥४॥ प्रमिताक्षरा छन्दः । श्रीकुन्थो पृथुशिवपथदर्शीति नुतः सनातनं चिनु मे। वरहर्षविनयसूरितमहिमं बोधिधर्महंसगुरुः ॥५॥ ॥ इति श्रीकुन्थुदेवस्तोत्रम् ॥ २३ ॥ अथ श्रीअरदेवस्तोत्रम् ॥२४॥ प्रहर्षिणी छन्दःसम्यक्त्वोचितचितसान्वयार्थनामप्रख्यातिप्रथितसुदर्शनान्वयस्थम्। श्रीअर्हत्प्रसृमरचक्रिरमारमण्योः क्रीडाङ्गं तमरमरं जिनेशमीडे ॥१॥ त्वत्पादाम्बुरुहि जिनाभिषेकसेकः सद्गन्धोदकनिकरैः क्रियेत भव्यैः। कर्तृणांमलविगमो भवेत्तु चित्रं लोकानां तिमिरहतियथोदितेऽर्के॥२॥ यैः प्राप्ताः परसमयाऽभिमाननीयावेवास्ते समहिमतां गुणैरगण्यैः। सर्वे ते तव गुणसङ्कथासु हेत्वाभासौघा इव हसनीयतां जिनाऽगुः३ ध्यायन्ते गुणनिवहास्तवात्मचित्ते सद्भव्यैः प्रकटयतीह दर्शनादि । त्रैलोक्याभ्युदयतयाऽथ दृश्यसे त्वं ब्रह्मश्रीस्त्वरिततयैव सम्मुखा स्यात् श्रीअरजिनेश कृतनतविजयः स्तुत इति विधेहि मे जयदम् । मतिहर्षविनयसूरितभवभयतरो महंसरसम् ॥५॥ ॥ इति श्रीमरदेवस्तोत्रम् ॥ २४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः अथ श्रीमल्लिदेवस्तोत्रम् ॥ २५ ॥ जगतीजनमानसेप्सितप्रदकुम्भक्षितिपान्वयोद्भवम् । निजसित्रनृपप्रबोधिनं प्रणुमो मल्लिजिनं प्रमोदतः ॥ १॥ परशासनभासनैर्नयैर्वितथार्थ कुपथं प्रसृत्वरम् । अपनीय सदर्थदेशिनीं जिन ते शासनसम्पदं श्रये ॥२॥ कुसुरैः कुगुरूक्तिसेवनैः श्रितमिथ्यात्वविकारहारिणीम् । जगदद्भुतधर्मशेवधिं जिन ते शासनसम्पदं श्रये ॥३॥ भवभाविभवातुरच्छिदं विकटादृष्टनिकृष्टिपाटिनीम् । त्रिजगजनताप्रियङ्करी जिन ते शासनसम्पदं श्रये ॥४॥ श्रीमलिदेवनुत इति भविकानां भविकसम्पदं चिनु मे । जयहर्षविनयसूरितभवततियोद्धर्महंसततम् ॥ ५ ॥ इति श्रीमल्लिदेवस्तोत्रम् ॥ २५ ॥ अथ श्रीमुनिसुव्रतदेवस्तोत्रम् ॥२६॥ भुवनजन्तुसुमित्र सुमित्र सत्क्षितिपवंशविशेषविभूषणम् । बहुलकान्तिकलालय संवरं नमत भो भविका मुनिसुव्रतम् ॥ १॥ गतरुषाऽपि हि कर्मचमूस्त्वया हतवती सहसैव सुदुःसहा। द्रुमचयः सकलेऽपि न दह्यते सहजशीतलशीलहिमेन किम् ॥२॥ वचन तुष्यसि नैव न रुष्यसि त्वमसि सौख्यपदप्रद ईश यत् । इह नुतोऽपि धृतो मनसीक्षितः सुविभुता तव कापि नदद्रुता ॥३॥ त्वदुचितं तव पूजनतत्परस्त्वमिव भाति जगत्रयसेवनैः।। त्वदुपरीश सुभक्तिसंजुषस्त्वमिह यत्समपूज्यपदप्रदः ॥४॥ . द्रुतविलम्बितम् ॥ श्रीमुनिसुव्रतनाथो योगक्षेमाकरः करोतु वरम् । श्रुतहर्षविनयसूरिभिराशास्यो धर्महंस वसुम् ॥ ५॥ इति श्रीमुनिसुव्रतदेवस्तोत्रम् ॥ २६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीनमिदेव स्तोत्रम् अथ श्रीनमिदेवस्तोत्रम् ॥ २७ ॥ जगती विजयार्जिताह्वयक्षितिपश्रीविजयान्वयश्रियाम् । करुणाकरसारशासनं नमिमेनं शरणं श्रये जिनम् ॥ १ ॥ परशासनजागमस्थितिं ह्यपशब्दा इव नार्थसङ्गतिम् । श्रयते यशसेऽर्थसंविदे न तथा शासनमद्भुतं तव ॥ २ ॥ त्रिजगत्युपकारसारताऽस्त्यत एवेव जिनाङ्गिसम्पदे । श्रुतरूपमुपेत्य निर्मलं तव कैवल्यरमा प्रवर्त्तते ॥ ३ ॥ तव केवलसंविदंशतां मतिमुख्याश्चतुरार्यसंविदः । दधते कथमन्यथा यथातथरूपास्त्वमिवेह ताः प्रभोः ॥ ४ ॥ वैतालीयम् । श्रीनमिनेतस्त्वं तनु यथार्थवित्तामिति स्तुतो भविनाम् । wwwm श्रीहर्षविनय सूरितगुणोदयो धर्महंस विभो ॥ ५ ॥ M ॥ इति श्रीनमिदेवस्तोत्रम् ॥ २७ ॥ अथ श्रीनेमिदेवस्तोत्रम् ॥ २८ ॥ स्वागता छन्दःआसमुद्रविजयाप्तनि जाह्नश्रीसमुद्र विजयान्वयलक्ष्मीम् । श्रीमुकुन्दहृदयाम्बुजभृङ्गं संस्तवीमि जिननेमिमहं तम् ॥ १ ॥ त्वद्वचः सुपथ संत्यजनस्था अध्वगा इव महाटविभूषु । अन्यतीर्थ कपथेषु सुसक्ताः प्राप्नुवन्ति मनुजा अतिदुःखम् ॥ २ ॥ शासनं सुनयभासन सर्वैरागमोक्तविविधोक्तिगमस्थैः । तीर्थनाथ शरणं भववार्द्धा यानपात्रमिव ते भविकानाम् ॥ ३ ॥ नेमिदेव तव दर्शनसम्पत् कल्पवल्लिरिव कामितकर्त्री । सेवनं तव चरित्ररमेव ब्रह्मसंभव सुखोद्भवबीजम् ॥ ४ ॥ श्रीनेमिः स्याद्वादी सकलादेशस्थगीः स्तुत इतीशः । ततहर्षविनयसूरितजयदः स्ताद्धर्महंसततिः ॥ ५ ॥ इति श्रीमदेवस्तोत्रम् ॥ २८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः अथ श्रीपार्श्वदेवस्तोत्रम् ॥ २९ ॥ अथ भुजङ्गप्रयातम्सदा विश्वबंधानवद्याश्वसेनावनीशप्रशस्यैकवंशप्रकाशम् । लसत्केवलालोकलीलाविलासालयं स्तौमि पार्श्व सुपार्श्व सपार्श्वम् ॥१॥ त्वयि ध्यानलीलात्मनां पार्श्व विश्वेश्वरैश्वर्यवर्याः श्रियः स्युःप्रशस्याः न तत्कौतुकं यत्त्वमेव प्रतिज्ञापरो विश्वसिद्धिप्रदातेति विश्वे ॥२॥ भवन्नानिमाहात्म्यसीनि त्रिलोक्यां समेष्टश्रियोऽमूर्वसन्तीति मुष्टिः। अधीशान्यथा तजपैकवतानां पुरो नित्यमृद्धिः कथं स्यादशेषा ॥३॥ तवाद्वैव मन्त्रः पवित्रः सुसिद्धः सुयन्त्रं सुतन्त्रं प्रभो मात्ररूपम् । यतस्तजपासक्तचित्ताः समस्तं प्रभुत्वं लभन्तेऽत्र भव्याः सुभन्यम् ॥ श्रीपार्श्व विश्वनाथ त्वमिति नुतः सन्तनु श्रियं सततम् । गुरुहर्षविनयसूरितरूपो मे धर्महंसरसाम् ॥५॥ __ इति श्रीपार्श्वदेवस्तोत्रम् ॥ २९॥ अथ श्रीवर्द्धमानदेवस्तोत्रम् ॥३०॥ हर्षोत्कर्षातिपोषागतिगतिनिरतानां धरायां सुराणाम्, __ अङ्गज्योति प्रदीपैस्तिमिरभरहरैर्विश्वमानन्दपूर्णम् । यश्चके दीप्रदीपोत्सव इव महिमा मानमान्यः स जीयात्, श्रीमनिर्वाणकल्याणकदिवसरसः श्रीमहावीरभर्तुः॥१॥ या ग्लान्या देशनाढ्या भविकशुभसभा भाव्यमानप्रभावा, बाध्यावस्थास्थसभ्या परसमयमता पाति वप्रप्रकाशा। दृष्टाप्युद्धोधदा स्यात् शिवसुखसुकरज्ञानदृष्ट्यादिसृष्टेः, सेवे श्रीवीरतां ते समवसृतिमहीं पुण्यसंभारलभ्याम् ॥ २॥ या नासीत् कस्य शस्या श्रवणमुपगता संशयापोहवृत्त्या, __ पश्चत्रिंशगुणाली सुकलनविमला मङ्गललोल्लासिलीला । साहस्तान्तिशान्तिः सकलनयनमयस्यात्पदानन्तधर्मा, देशाऽसौ वीरवाणी तव दिशतु वरं श्रेयसामेकबीजम् ॥ ३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ श्रीसीमन्धरस्वामिस्तोत्रम् येषु स्वर्गादिसौख्यं तृणमिव विरसं मन्यमानाः सुरेन्द्रा, वैयावृत्त्यादिकृत्यान्यनुपमसुषमानन्दसन्दोहकन्दान् । प्रीत्याऽमन्यन्त सर्वे त्रिभुवनसुखदान् षष्ठगर्भापहारान्, सद्भक्त्या पश्वकल्याणकमहिमहाँस्तान स्तुमस्तेऽत्र वीर ॥४॥ तत्त्वातत्त्वविवेकहर्षविनयश्रीसूरिताशोदयः, ___श्रीमगौतमुख्यसेवितपदः श्रीवर्द्धमानप्रभुः । नीतः स्तोत्रपथं मुदेति तनुतां सद्बोधिबीजं सतां, धीशुझ्याश्रयधर्महंसमहिमं प्रष्ठप्रतिष्ठापदम् ॥ ५ ॥ इति श्रीवर्द्धमानदेवस्तोत्रम् ॥ ३०॥ इति प्रत्येकं पञ्चपञ्चवृत्तसंदर्भितचतुर्विंशतिश्रीजिनस्तोत्राणि । अथ श्रीसीमन्धरस्वामिस्तोत्रम् ॥ ३१ ॥ स्त्रग्विणीयस्य नामापि संपत्पदानन्ददं किं पुनदर्शनं दर्शनश्रीरसम् । विश्वविश्वातिशायि प्रभावाद्भुतं तं मुदा नौमि सीमन्धराधीश्वरम् ॥ स्फारमारज्वरोत्तारधन्वन्तरि दुस्तराऽपारसंसारनिस्तारकम् । तारहारस्फुरत्कीर्तिपूराकरं तं नमस्यामि सीमन्धरं स्वामिनम् ॥२॥ यस्य लोकोत्तरं विश्वसंशीतिहृत्केवलज्ञानमानन्ददं दर्शनम् । चारुचारित्रपावित्र्यमत्यद्भुतं संपुनीहीश सीमन्धर त्वं स माम् ॥३॥ अथ तोटकम्दिवसः स कदा भवितेश ममामितपुण्यमयः सुलभः सुकृतैः। तव यत्र लभे भविकप्रभवं शुभदर्शनमाश्रितदर्शनदम् ॥ ४ ॥ तव सेवनभावनया न भृतोऽस्म्ययमस्मि जितस्मितविस्मयितः। अथ सौम्यदृशेश विलोकय मां श्रितमाशु भवामि यथाविभवः ॥५॥ सुमनो जनमानसहंसवरस्तिमिरप्रसराऽपहहंसकरः। करुणारसपूरितदेशनया नयपोषपरो विजयस्व विभो ॥६॥ For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री जिनस्तोत्रकोशः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९ अथ शालिनीभिन्नादेशादिष्टसप्तैकभङ्गै भावाभावात्मार्थसार्थप्रधानम् । शुद्धं बुद्ध्यादिशत्वं प्रमाणैः साध्याबाधं साधु सीमन्धरान् ॥ ७ ॥ नित्यानित्यं द्रव्यपर्यायरूपापन्नं नुन्नं सन्नयैः स्यात् पदोत्तया । युक्तत्याऽवोचश्चारुवस्तुस्वरूपं नान्यैर्वाध्यं जातु सीमन्धरत्वम् ॥ ८ ॥ यस्यानन्तं पर्ययानन्त्यबोधादर्थानन्त्याद्वाऽस्ति विज्ञानरूपम् । सत्यासत्यं व्यक्तिजातिप्रकाशं पौनःपुन्यान्नौमि सीमन्धरं तम् ॥ ९ ॥ अथ प्रहर्षिणी श्रीसीमन्धरवचसां नयानुगानां सन्देहापहमहसां महार्हणानाम् । सेवाभिः : सरसतया कदा पुनीयामात्मानं भविकपदं यथा भवेयम् ॥ संसारप्रसरहरप्रकाररूपो दुस्ता पोपशममहामृतप्रवाहः । कल्याणोज्ज्वलसुकलालयोऽस्तु मेऽसौ श्रीसीमन्धरपदपद्मयोः प्रणामः आनन्दोदयविशदान्तरङ्गचेताः श्रीसीमन्धर तव सेवते न शश्वत् । चारित्रं चरणपवित्रसिष्टशिष्टश्रीसिद्ध्यै करणपदं कदा श्रयिष्ये ॥ १२ ॥ अथ दोधकम् - देवनिकायनिषेवितपादश्चेतसि यस्य जिनेश वशे त्वम् । भृङ्ग इवापदे सुपदव्या पूज्यपदं लभसे भविकोऽसौ ॥ १३ ॥ पावकनायक तावक कान्तानेकगुणस्तवनं सवनं स्यात् । कार्मणमान्तरमद्भुतशस्तश्रीपदराज्यमिति ततं यत् ॥ १४ ॥ दुर्मदमानमनोभवलोभक्रोधमुखाहितदुर्द्धरपूरैः । दत्तसुदुस्तरदुःखमथ त्वं मामव सौम्यदृशेश शरण्यम् ॥ १५ ॥ त्वदनं सदनन्तजय श्रीमन्महसां सदनं विशदाभम् । कस्य मुदं न निरीक्षितमेतत् यच्छति विच्छवि तुच्छविकारम् ॥ १६॥ अथ भुजङ्गप्रयातम् — कदाष्टादशांहःपदारब्ध कर्मप्रपञ्चाननन्तैर्भवैः सञ्चितांस्तान् । त्रिधा शुद्धमालोच्य पूतं करिष्ये स्वकात्मानमीश त्वदाशोक्तयुक्तया ॥ सदा दीप्य से पूर्व भानुप्रभावस्त्रिलोकीत मस्तोमहारि प्रचारः । प्रदीपप्रतापप्रदीपः प्रभुत्वोदितोविश्वविश्वेषु सीमन्धर त्वम् ॥ १८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीसीमन्धरस्वामिस्तोत्रम् अथ द्रुतविलम्बितम्भविककामितकल्पतरूपमं विजयपुण्डरीकिण्यवतारकम् । नमत दैवतसंमतसत्यकीसुतमणिं घुमणिभविनां जिनम् ॥ १९ ।। गुणवरेण्यकलालयरुक्मिणीहृदयपद्ममधुव्रतसद्वतम् । श्रयत भो भविका जिननायकं भविकमौक्तिकशर्मपदाप्तये ॥ २० ॥ अथ मालिनीनृपततिमुकुटश्रेयस्करो/शवंश प्रसृमरमहिमानं मान्यमूर्द्धन्यधर्मम् । सुवचनरचनाभिर्देशनाभिर्दिशन्तं निरुपम शिवमार्ग नौमि सीमन्धरं तम् ॥ २१ ॥ शमदमसरसश्रीसम्पदालिङ्गिताङ्गं नमदसुरसुरालीपूज्यपादाब्जलक्ष्मीम् । समवसरणसंस्थं शोभि सौभाग्यभोगं त्रिभुवनगुरुराजं नौमि सीमन्धराप्तम् ॥ २२ ॥ अथ शिखरिणीजगज्येष्ठश्रेष्ठः प्रकटितपटुप्रष्ठविभुतः, __ सदा कन्दः श्रीणां त्रिभुवनमुदां कार्मणपदम् । जयस्तम्भारम्भः प्रसभमशुभादृष्टविकट, द्विषां जीयात् सीमन्धरवरजिनः सर्वसुखदः ॥ २३ ॥ शार्दूलविक्रीडितम्इत्यानन्दपदोदितैकमनसा नीतः स्तुतेर्गोचरं, श्रीसीमन्धरतीर्थपः श्रितवतां सर्वार्थचिन्तामणिः । सौभाग्याभ्युदयस्थहर्षविनयश्रीसूरिताभ्युन्नतियान्मे वरधर्महंससरसक्रीडाब्जबोधिप्रथाम् ॥ २४ ॥ इति श्रीसीमन्धरस्वामिस्तोत्रम् ॥३१॥ For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीजिनस्तोत्रकोशः अथ श्रीशाश्वतजिननामस्तोत्रम् ॥ ३२ ॥ जयकारसुपदमृषभं चन्द्राननवारिषेणयुगल मलम् । संन्यस्य वर्द्धमानं शाश्वतजिननामसंनुतिं कुर्वे ॥ १ ॥ गीतिरियम् । अथ स्रग्धरा 61 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Leg पातालावाससंस्थैर्भवनपतिसुरख्यन्तरैज्र्ज्योतिरीशैः, स्वर्गीर्द्धस्थान तिर्यग हृदगिरिनगरद्वीपसुस्थैः सुराद्यैः । पूज्यन्ते यानि बिम्बान्यनुपम विधिना वर्द्धमानर्षभाद्यै, - नित्यैर्दिग्मेयगोत्रैरित्रजगति मुदितैरर्हता तानि वन्दे ॥२॥ ३१ अथ स्रग्विणी शाश्वता होदितं वर्द्धमानं जिनं सर्षभं वारिषेणं च चन्द्राननम् । आगमोक्तयैकवर्णप्रतीकाकृतिं देवविद्याधरेन्द्रादिपूज्यं भजे ॥ ३ ॥ वर्द्धमानं चतुःसंपदानन्त्यतः सर्षभं वारिषेणं सुधुर्यत्वतः । मन्दचन्द्राननं पापतापापहाप्याय कास्येक्षणात् सान्वयस्वाह्रयम् ॥४॥ अथ स्वागता वारिषेणमुख शाश्वतनामध्येयपूज्यजिनमण्डितमूर्त्तीः । पूजयन्ति विधिना मुदिता ये ते जयन्तु विभवा भवितोऽमी ॥५॥ वर्द्धमानमृषभं जिनचन्द्रं वारिषेणमिति शाश्वतनाम्ना । स्तौति पूजयति संस्मरतीशं यः सदा स लभतेऽभिमताभाम् ॥ ६ ॥ अथ रथोद्धता वारिषेणमथ सैन्यवारिणां वर्द्धमानमखिलर्द्धिवृद्धिदम् । शस्तशस्तमृषभं श्रियः पदं सार्वचन्द्रमभितः श्रये भृशम् ॥७॥ अथ शिखरिणी महीखण्डे खण्डे घटितघटितानामवहृतां, जिनानां मूर्तीनामपरभुवनस्थानसजुषाम् । पुनर्नित्यावस्थापरममहसां पूज्यपदवी,पदस्थानां तासां नवनमहनं चारु कुरुवे ॥ ८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ श्रीशाश्वतजिननामस्तोत्रम् शमाकाराः साराः किमिह सकलानन्दसदनो, दया किं साक्षात् किं शिवसुखरसास्वादनिधयः। त्रिलोक्यां श्रीअर्हत्प्रतिमितिततीः प्रेक्ष्य सुधियां, निजप्रासादस्थामतिविततिरुत्प्रेक्षत इति ॥९॥ अथ मन्दाक्रान्ता छन्दःमूर्तिस्फूर्ति त्रिभुवनगतोत्तुङ्गचैत्यप्रतिष्ठां, सर्वज्ञानां भवभयभिदां शाश्वताशाश्वतां ताम् । दृष्ट्वा के के चरणकरणज्ञानसहर्शनानां लब्धि लब्ध्वा शिवपदसुखाःसङ्गिनः स्युन भव्याः ॥१०॥ भव्याभव्यप्रकृतिनिकषानन्दखेदोदयेन, प्रोच्चैश्चिन्ताविषमविषयव्यापतापापही। श्रीसम्यक्त्वप्रभवविभवोहीपिनीयं त्रिलोक्यां, बिम्बश्रेणी जयतु जगदानन्दकन्दोज्झितानाम् ॥ ११ ॥ अथ हरिणीत्रिजगति ततामूर्तिस्फूर्तिर्जिनस्थितिसम्मता, प्रबलबहुलक्लेशश्रेणीनिवारणकारणम् । भवभवभयाऽपाराकूपारतारणतत्परा, प्रवहणमिवाविर्भूतं दीप्यते भुवनाद्भुतम् ॥ १२ ॥ त्रिभुवनजुषां बिम्बानामर्हतां सति दर्शने, सकलकुशलं स्वाङ्गच्छायोदयत्यनुवासरम् । धृतिमतिविभुत्वाद्यं सर्व परिच्छदतीहितं, तदिदमिह कि चित्रं येनार्हतं सुखदं पदम् ॥ १३ ॥ अथ तोटकम्ऋषभादिकशाश्वतनाममहास्तरूपविधेयसमस्तगुणम् । हृदये नु विधाय जिनप्रतिमा स्मरणकृल्लभतेऽभिमतार्थपदम् ॥१४॥ भुवनत्रयचैत्यजिनप्रतिमामहनस्मरणस्तवनप्रवणम् । भविकं भविकावलिकासकला श्रयति प्रसभं भुवनाभ्युदितम् ॥१५॥ For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीनेमिदेवस्तोत्रम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ शालिनीविद्यातत्त्वं वर्द्धमानस्वरूपं श्रीणां सौधं चर्षभं वारिषेणम् । विश्वाभीष्टश्रेयसामेकबीजं ध्यायामीशं चन्द्रमानन्दकन्दम् ॥ १६ ॥ श्रेयःश्रेणीवल्लयः संफलन्त्यानन्त्योपेतैः सत्फलैरुल्लसद्भिः । तेषां येषां शाश्वतश्री जिनाह्राह्वानध्यानं दीप्यते दीप्तिदीप्रम् ॥ १७ ॥ एवं शाश्वतसार्वनाममहिमस्तोत्रं पवित्रं मुदा, कृत्वा तत्त्वतत्त्वबोधिविधिदं याचे तथा तत्पुरः । विद्यानन्दविवेक हर्षविनयश्रीसूरितोजा यथा, त्रैलोक्यो दितधर्महं सललताभोगो भवेयं वरम् ॥ १८ ॥ ॥ इति श्रीशाश्वतजिननामस्तोत्रम् ॥ ३२ ॥ ३३ अथ पञ्चम्यां श्रीनेमिदेव स्तोत्रम् ॥ ३३ ॥ श्री समुद्रविजयान्वयोदयोर्वीध रोपरिवरासनोन्नतिम् । लोकलोचनचकोरकौमुदीं नौमि नेमिजिनमुन्मना मुदा ॥ १ ॥ पावकं तावकं दर्शनं दर्शनानन्दकन्दं सदा सम्पदां सन्निधिम् । वीक्ष्य नेमीश भव्या भवन्ति प्रभावैभवाभोगसद्भोगभाग्याद्भुताः ॥२॥ पूर्वधन्यादिपुण्यप्रसर्पद्भवश्रेणिषु ज्ञानचारित्रसद्दर्शनम् । पालितं लालितं येन शुद्धं त्रिधा संस्तुवे नेमितीर्थेश्वरं तं विभुम् ॥३॥ सर्वे भावा यस्य साक्षात् प्रभूताः श्रीकैवल्यालोकनेनावदाताः । स्याद्वादात्ते वाच्यरूपाः सुधीनां वन्दे भक्तिव्यक्तितस्तं जिनेशम् ॥४॥ पञ्चम्याद्या वासरा यस्य विश्वे कल्याणश्रीसिद्धिदा बुद्धिभाजाम् । वर्त्तन्ते ये सिद्धनामा रसोऽत्र प्रोज्जागर्त्ति श्रीजिनः स्तात्स सिधै ॥ विश्वाङ्गिसङ्गिकरुणारसशुद्धधर्म साभाव्यसत्यपशुवाटकभावनाभिः । वैराग्यरङ्गरसतः सरसां तपस्यां जग्राह यः शिवपदं स जिनः प्रदेयात् ॥ ६॥ प्राज्यं महाराज्यमपास्य शस्यसंवेगरङ्गेण महातपांसि । तीर्थात्मके रैवतके चकार चिराय यस्तत्सुखदः स सार्वः ॥ ७ ॥ ३ For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः अनन्तवीर्यत्वपदं यथातथं चकार यः स्वर्गिपतिप्रशंसने । अत्रागतैर्दैववरैः सहाजिभिर्जये कृते नेमिजिनः स सम्पदे ॥ ८ ॥ शैशवेऽपि प्रभुर्यः सुसत्यं दधौ सत्परीक्षाक्षमत्वं सुराणां हृदि । सन्ततानन्तवीर्यप्रशंसाविधौ वज्रिणोक्ते मुदा तं स्तुमः श्रीजिनम् ।। लक्षसङ्ख्याः क्षितीशाः क्षणाद् दुर्जया जिग्यिरे । दोर्भुजैकाकिनाऽप्युत्कटाः। युद्धमध्ये हरेः सैन्यवर्गे जराव्याहते येन नेमिः स जीयाजयी ॥१०॥ चरणयोगविजृम्भणविस्फुरत्करणशुद्धिविशोधितकार्मणम् । करणकोमलकान्तिकलोज्वलं विवृजिनं सुजिनश्रियमाश्रये ॥ ११ ॥ नयननिर्जितपार्वणकौमुदीरमणमण्डलभासनकौशलम् । पचनसश्चितचारुसुधारसं नमत नेमिजिनं भविका मुदा ॥ १२॥ यदीयः पदद्वैतसेवाप्रपञ्चः कलाकोटिसण्टङ्कनिष्टङ्किताङ्गान् । सनोत्यङ्गिनः सर्वसम्पन्मयश्रीजुषः सौख्यपोषप्रदः स्तात्स सार्वः१३ गुणश्रेणिपूर्ण वरेण्यं यशोभिर्यदीयं श्रियां भासनं शासनं सत् । अधृष्यं प्रवादैः परैः प्राज्ञसेव्यं सदा दीप्यते तं भजे नेमिदेवम् ॥१४॥ प्रणत कामितकल्पतरून्नतिं विशदकीर्तिपवित्रितविष्टपम् । सरसकोमलपादपयोरुहं श्रयत नेमिजिनं विजयाकरम् ॥ १५ ॥ एवं भक्तिविशेषपोषसजुषा योगेन पूतात्मना, नीतः संस्तुतिसत्पथं वितनु मे श्रीनेमिनाम्ना जिन!। सत्यानन्दनिधानहर्षविनयश्रीसूरिहाभीष्टदं, नित्यं बोधिधियं विशुद्धविधिनाश्रीधर्महंसप्रभाम् ॥१६॥ इति पञ्चम्यां श्रीनेमिदेवस्तोत्रम् ॥ ३३ ॥ अथ श्रीगौतमस्वामिस्तोत्रम् ॥ ३४ ॥ गौतम गोत्ररत्न पवित्रं यदनास्ति तत्रोद्भवं वीरसेवाव्रतम् । भाग्यसौभाग्यशोभोच्चभावाद्भुतं संस्तुवे गौतमस्वामिनं शानिनम् ॥ वीरसेवारसास्वादसम्पादितागाधचारित्रपावित्र्यलब्धिप्रथम् । सौवसदर्शनेनैव संदर्शितो दाससंदर्शनं नौम्यहं गौतमम् ।। २ ।। For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५ श्रीगौतमस्वामिस्तोत्रम् सगधेषु गोर्बर इति प्रथितं पदमस्ति तत्र सुभवं विभवम् । गुणरत्नरोहणगिरिं सुगिरं प्रणमामि गौतमगणप्रगुणम् ॥ ३॥ नतनाकिमौलिमुकुटप्रकटप्रसरन्मणीरुचिविधूतपदम् । भविकेक्षणमृतसदञ्जनभं गणधारणं श्रयत भो भविकाः ! ॥ ४॥ महाशालशालौ विशालौ यशोभिर्यदीयार्यचर्या विभाव्यातिभाव्याम् क्षणात् प्रापतुः केवलालोकलक्ष्मी स्तुमस्तं गुरुं गौतमं दीप्रधर्मम् ५ गणाधीश! पृथ्वीसुतोऽपि क्वचित्त्वं नधत्से गति वक्ररूपां कदाचित् । न रागाकृति तिचारोपचारी सुसौभाग्यभोगप्रतिष्ठानिधानम् ॥६॥ सदष्टापदारोहचर्येक्षणेनाश्रितास्तापसा विस्मिताः पायसान्नम् ।। स्वदन्तः सुभावेन कैवल्यमीयुर्यदेकप्रभावात्स जीयाद्गणेन्द्रः ॥ ७ ॥ चरित्रं पवित्रोरु केचिद्यदीय निरीक्ष्य प्रपन्ना हि कैवल्यलीलाम् । अयश्चातुरी केचिदास्यं च केचिद्गति केचिदस्तु श्रियेऽसौ मुनीशः ॥८॥ प्रथमगणधरोऽयं भाग्यसौभाग्यसम्प निधिरुचितमिहास्तु स्वस्तिभाजो भवेयुः। सुभविकनिकरा यदर्शनेनैव शश्व द्वचनसुरसपानात् किं पुनः सिद्धिसिद्धौ ॥९॥ जननमरणवेलालोलकल्लोलमाला हतिविरतिभूतानामात्मभान्तावतास्तु । भयदभवपयोधेीभरो व्याप्तलोकः, प्रथमगणपतेः सद्दर्शनं स्यान्न यावत् ॥ १० ॥ तदुचितमिह यच्छ्रीगौतमस्याभिधाने निवसति जगतीस्थाशेषसंपत्प्रभुत्वम् । कथमनुदिनमेतन्मन्त्रजापप्रभावात् श्रयति सकललक्ष्मीरन्यथा भक्तभव्यात् ॥ ११ ॥ गणधरवरलब्धिर्विश्वविश्वोपकारा जगति जयतु यस्या द्वादशाङ्गीप्रसूतिः। तदनु सकलदेशोदारसत्संयमश्रीः प्रभवति भविकानां मोक्षलक्ष्मी तु यस्याः ॥ १२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६ श्रीजिनस्तोत्रकोशः चरमजिनपसेवालब्धलब्धिप्रभाव श्चरणकरणतत्त्वाराधनैकान्तचित्तः। त्रिभुवनजननित्या नन्दिसद्देशनाभिः, प्रथयति गणराजः शुद्धधर्मप्रकाशम् ॥ १३ ॥ सेवते गणधरक्रमपङ्कजं यः सुधीः सरसभक्तिभावितः। ऐहिकं सकलकामितं फलं प्रेत्य चापि लभते तथैव तत् ॥१४॥ गौतमं सुभगमेव गोत्रकं यत्र गौतमगणेश्वरोऽजनि । वीरशासनमद्भुतं बभौ यत्र गौतमगुरुर्गुरोः पदे ॥१५॥ भक्तिव्यक्तिविशेषनुन्नमनसा श्रीगौतमः सत्तमः, स्तुत्यैवं प्रणुतस्त्रिलोकमहितश्रीद्वादशाङ्गीगुरुः । सौभाग्याद्भुतभाग्यहर्षविनयश्रीसूरितत्त्वश्रिया, निष्णातस्तनुतां ममोरुमहिमां श्रीधर्महंसोज्वलाम् ।। १६ ।। इति श्रीगौतमस्वामिस्तोत्रम् ॥ ३४ ॥ अथ पुण्डरीकगणधरस्तोत्रम् ॥ ३५ ॥ स्त्रग्विणीपुण्डरीकोजवलश्लोकलीलालयं पुण्डरीकाचलोपासनावासनम् । पुण्डरीकप्रतिष्ठं जिनाशोन्नती पुण्डरीकं क्षमाभारसम्पारणे ॥१॥ पुण्डरीकं महामारदर्पज्वरे पुण्डरीकं किल क्लेशवातायुषु । पुण्डरीकस्थितिः पङ्करूपे भवे पुण्डरीकं स्तुमः स्वामिनं ज्ञानिनम् ॥ चैत्रराकाप्रकाशाय सत्केवलालोकभानोर्न कस्य प्रशस्या मता। पञ्चकोटीवृतः पुण्डरीका शिवश्रीपदं पुण्डरीकेऽत्र यत्राश्रयत् ॥३॥ अथ तोटकम्भरताभिधभूपकुलाब्जवनोल्लसनोज्वलहेलिविशालकलम् । ऋषभप्रभुमुख्यविनेयवरं प्रणुमः प्रणतोदयदं गणपम् ॥ ४॥ जिनशासनभासनधनमणि विमलाचलमण्डनमौलिमणिम् । श्रुतभावविभावनसामणि गणपं प्रणुमः श्रितदेवमणिम् ॥ ५॥ For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्री पुण्डरीकगणधर स्तोत्रम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ गीतिः नवनवति पूर्ववारं गतागतैस्तेन मानितं क्षेत्रम् | वृषभप्रभुणा सैद्धं तन्माहात्म्यप्रकाशाय किम् ॥ ६ ॥ श्री पुण्डरीकगणभृद्गतागतैस्तत्प्रभावभाविगिरा । भक्त्याssरराध सिद्धिक्षेत्रं स्वस्त्येव सिद्धिपदसिद्ध्यै ॥ ७ ॥ अथ मालिनी विमलगिरिरशेषः सम्पदानन्त्यचिन्त्यः स्फटिकमणिसुवर्णद्योमणीमूर्त्तिमूर्त्तिः । अमित महदथौघालीढमूढाङ्गिशुध्या शिव सुखख निरूपस्तीर्थरूपस्वरूपः ॥ ८ ॥ इति चतुरवचोभिः पुण्डरीकप्रभाव प्रकटनपटुता यः पुण्डरीकः पिपर्ति । सरससदसि शश्वत् सेव्यमानः सुरौघैः कथमिह न भवेत् स सिद्धिदो दृष्टरूपः ॥ ९॥ अथ मन्दाक्रान्तासिद्धिक्षेत्रोपरि परिणतः संसदां देशनायां, मेरो कल्पद्रुम इव फलैरुज्वलैः पङ्कलीति । युक्तं यद्यत् प्रभुवृषभगुरुः सर्वसम्पत्प्रकाशी अथ भुजङ्गप्रयातम् — तच्छिष्योऽपि प्रभवति न किं विश्वविश्वार्थसिद्ध्ये १० सिद्धिक्षेत्रं परममहिमामात्रपात्रं पवित्रं, तत्रादीशः शमरसमयः सर्वदेवाधिदेवः । जीयाच्छ्रीमानणुगुणवान् श्रीगुरुः पुण्डरीकः, सर्वश्रीणां पदमिह जयत्वत्र योगत्रिकश्रीः ॥ ११ ॥ मुदायः सदा सेवते पुण्डरीकं कलाकोटिसण्टङ्कपुष्एं प्रकृष्टम् । ३७ सकामं सुखं कामितं कामरूपः परत्रेह वाचालचचुः प्रभुङ्क्ते ॥ १२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ૨૮ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः स्फुरत्पुण्डरीकप्रभुः श्रीयुगादिमुपास्य प्रशस्यश्रियामास्पदं यः । त्रिलोकोपकारप्रकाशार्थमासी जिनः कस्य न स्यात्स वन्द्योऽनवद्यः ॥ १३ ॥ पुण्डरीकजिनमानतबन्धुं सिन्धुमुद्यगुणरत्नततीनाम् । सेवते य इह कामितयोगं भोगदं स लभते भुवि भव्यः ॥ १४ ॥ श्रीयुगादिचरणाम्बुजभृङ्ग पुण्डरीक गुणभाविनमीडे । पुण्डरीकविशदोदितयोगं पुण्डरीकमिति सज्जयलक्ष्मीम् ॥ १५ ॥ एषा स्वागता । सारोदारविचारचारुरचनाऽऽनन्देन नीतः स्तुतिं साक्षादेवमधिष्ठिताऽनणुगुणः श्रीपुण्डरीको गुरुः । श्रीशत्रुञ्जयभाविहर्षविनय श्रीसूरिहाक्षोदिता नन्तान्तः प्रभुतोदयः प्रकुरुतां श्रीधर्महंसश्रियम् ॥ १६ ॥ इति श्रीपुण्डरीकगणधर स्तोत्रम् ॥ ३५ ॥ अथ समस्यामयं श्रीयुगादिदेवस्तवनम् ॥ ३६ ॥ हर्षोत्कर्षप्रणम्रत्रिदशपतिशिरः स्फार कोटीरकोटीस्फूर्जन्माणिक्यमालाशुचिरुचिल हरी धौतपादारविन्दम् । कल्याणाङ्करपूरप्रकटनपटुता पुष्करावर्त्ततोयं वन्दे देवाधिदेवं प्रथमजिनमिनं चीननिर्णिक् ( ? ) सुभक्त्या ॥ १ ॥ नाना नौवृषभत्वकेऽपि विभुतां ते देहि मे त्वगुणैरणस्य श्रितवत्सलोऽस्यमितसच्छक्तित्ववाँस्त्वं यतः । तेनार्थित्वमितस्त्वयीति तनुते यस्यांहिलक्ष्मोपधेः सेवामोक्षवरश्रिये स वृषभो भर्त्तार्त्तिहर्त्ता सताम् ॥ २ ॥ For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीयुगादिदेवस्तवनम् योगीन्द्रा अपि ते गुणान् कथमलं वक्तुं न तेषु प्रभुः स्तोतुं स्यात्तदहो तथापि न लघुर्मत्तुच्छनुत्या स्तुतः। नेतः सैनवनस्थितोऽपि रवणो नेभः कृतेतिः (?) स्नातस्याप्रतिमस्य मेरुशिखरे शच्या विभोः शैशवे ॥ ३ ॥ श्रीमन्नाभिनरेशवंशजविभो व्याख्यानभूम्यासने स्थालु मूर्तिचतुष्टयीं तव पृथगरूपां न मे मे मनाक् । यत्पर्षजनतोचितं तदनया भूतं यतस्तेपते रूपालोकनविस्मयाहतरसभ्रान्त्या भ्रमञ्चक्षुषा ॥ ४ ॥ सोऽस्तु श्रीवृषभप्रभुर्भवभृतां भूत्यै यदङ्गं पुरा दिव्यासन्युपवेश्य सौवतभुजस्नेहेन चीनांशुकैः । स्नानार्थ मरुदेवयाऽसकृदहो हर्षोद्धताझ्या स्वयं उन्मृष्टं नयनप्रभाधवलितं क्षीरोदकाशङ्कया ॥५॥ इन्द्रोपेन्द्रमुनीन्द्रचक्रिप्रमुखैरत्यद्भुतव्यक्तकैः स्तुत्यार्थोऽपि यथार्थसहुणगणो भक्तीरितान्तःकृतेः। गङ्गापूर इवान्तरैकसरसः किं नो पुनीतेऽत्र मे वक्त्रं यस्य पुनः पुनः स जयति श्रीवर्द्धमानो जिनः ॥ ६ ॥ श्रीमानादिजिनः श्रियेऽस्तु स वृषो लक्ष्मोपधेर्यत्पुरो विज्ञप्तिं कुरुते किमित्यनुदिनं षण्ढात्फलं सेवितात् । त्वं नुत्यक्षसुखप्रदो हि भवता मुक्ता इवाब्धिर्जने हंसांसाहतपद्मरेणुकपिशक्षीरार्णवाम्भोभृतैः ॥७॥ नेतस्तावकपावकोज्वलगुणश्रेणीमनन्ताक्षमा वक्तुं योगिवराः कथं स्ववचसा त्वं वाङ्मनोलक्ष्यताम् । प्राप्तो यत्कलयेन्महार्णवजले यत्नं नु किं कः प्रभुः कुम्भैरप्सरसां पयोधरभरप्रस्पर्द्धिभिः काञ्चनैः ॥ ८ ॥ स्वामिंस्त्वद्वरभक्तियोगवशतो देशप्रमत्तादिसगौणस्थानगतोत्तरोत्तरगुणश्रेणीमिताः साम्प्रतम् । For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४० श्रीजिनम्तोत्रकोशः तद् यत्तेऽत्र सुपर्वणामविरतानां मुक्तिबीजं ह्यभूद् येषां मन्दररत्नशैलशिखरे जन्माभिषेकः कृतः ॥९॥ श्रीआदीश तवैव भक्तिविभुनैश्वर्यं प्रलभ्यान्तरं ये भव्याः क्रमतश्चतुर्दशगुणस्थानक्रियारोहणैः। सान्द्रां रुद्रगुणावली शिवपदं प्रापुर्विधूत्यार्चितां सर्वैः सर्वसुरासुरेश्वरगणैस्तेषां नतोऽहं क्रमात् ॥ १० ॥ नानानन्तार्थभावं ह्यणुपरिणतिवञ्चिन्तितेष्टप्रवीणं चिन्तामण्यादिबद्धा तरणिरिव सतां स्पष्टिताशेषमार्गम् । ज्ञानीव व्यक्ततत्त्वप्रकटनपटुकं संश्रये भक्तियुक्तैरहद्वक्त्रप्रसूतं गणधररचितं द्वादशाङ्ग विशालम् ॥ ११ ॥ चक्रित्वं तीर्थकृत्त्वं सुरवरविभुतालब्धिलब्धिप्रकाशो यल्लब्ध्वा भव्यजीवैः शिवपदसपदं प्रापि कालत्रयेऽपि । पञ्चत्रिंशद्गुणोघं सुहृदि जिनवहे त्वद्वचोऽनन्तभावैश्चित्रं बह्वर्थयुक्तं मुनिगणवृषभैर्धारितं बुद्धिमद्भिः ॥ १२ ॥ ग्रन्थे दं विधायोपशमजमुखसंदर्शनोत्थस्वचेतोनिष्ठप्रष्ठेभ्यभक्तेर्जिनवचचरणोपासनं शासनं ते । सेवन्ते पूर्वरत्नत्रयचितिविततं भोगयोगीह येषां मोक्षानद्वारभूतं व्रतचरणफलं ज्ञेयभावप्रदीपम् ॥ १३ ॥ धर्मादिद्रव्यषदं चरणकरणगं...धर्मद्विभेदं सादेशं नन्दतत्त्वं प्रथयति यदहो मार्गणादिप्रपञ्चैः । मत्यादिज्ञानरूपं मिथ इह जिन ! तत्कालिकोत्कालिकं ते भक्त्या नित्यं प्रपद्ये श्रुतमहमखिलं सर्वलोकैकसारम् ॥ १४ ॥ मन्येऽहं मुक्तिकल्पाद्भुतमहिममयं रूपमाकर्ण्य सूनोयस्योद्वाहोचिता वेक्षणविधिकलया किं शिवं पूर्वमग्रे । प्राप्तामर्वादिदेवा सविभुरिह दधन्तं वृषाङ्क खुरागनिष्पङ्कव्योमनीलद्युतिमलसदृशं बालचन्द्राभदंष्ट्रम् ॥ १५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री पार्श्वनाथस्वामिस्तोत्रम् चित्ते ध्यायन्ति भव्या अहमहमिकया येऽनिशं नाममन्त्रं सिद्धान्ते सार्व तेषां भवजलधिरपारोऽप्यभून्नामशेषः । तत्तेऽतीयन्ति किं न ज्वलनमरिमेहिं स्तेनें सिंहानागं मत्तं घण्टारवेण प्रसृतमदजलं पूरयन्तं समन्तात् ॥ १६ ॥ त्वत्पादानप्रणामैर्यदि भुवि भविनां सम्भवन्ति क्षणेन यक्षैश्वर्याणि वर्याण्यपि न सुरशिवादीनि विश्वत्रयेऽपि । स्वामिस्ते वन्दनार्थ सपरिकरहरिः किं तदोको न नाकादारूढो दिव्यनागं विचरति गगने कामदः कामरूपी ॥ १७ ॥ यः श्रीशत्रुञ्जयाख्यक्षितिधरतिलकं तीर्थपं मारुदेवं निघ्नन् विघ्नानि कुर्वन् हितमुपनमतां प्राणिनां सं तनोति । सर्वाणष्टानि स श्रीजिनचरणचरणोपासको गोमुखाख्यो यक्षः सर्वानुभूतिर्दिशतु मम सदा सर्वकार्येषु सिद्धिम् ॥ १८ ॥ श्रीहर्ष विनयसूरितगुरुहर्षविनयसुधीभिरप्यद्रौ । श्रितहर्षविनयसूरिश्रीर्जयजयहर्षविनयगुरो ॥ १९ ॥ वन्दे त्वां वृषभैकहर्षविनयश्रीसूरिभं श्रीपदं श्रेयोमार्गविलासिहर्षविनयश्रीसूरितं सर्वतः मिथ्याज्ञानतमस्सु हर्षविनयश्रीसूरिभूपेष्वपि प्रष्टाशोदयदं च हर्षविनयश्रीसूरिपूज्यक्रमम् ॥ २० ॥ इत्थङ्कारमुदारसारसरसैर्निर्णिक्तभक्त्युक्तत्वांनृसुरादिराज्यविभवं याचे न किन्त्वस्तु मे । श्री आदीश तवेह हर्षविनयश्रीसूरि सेवापदोः श्रेयः श्रीस्तु ययाशयालयलयाश्रीधर्म हंसश्रिया ॥ २१ ॥ इति समस्यामयं श्रीयुगादिस्तवनम् ॥ ३६ ॥ wwwwwww For Private and Personal Use Only 89 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ श्रीजिनस्तोत्रकोशः अथ श्रीपार्श्वनाथस्वामिस्तवनम् ॥ ३७॥ श्रीवामेयजिनं निरस्तवृजिनं दुष्कर्ममाजिनं भोगीन्द्रध्वजिनं विगातस्वजिनं भामण्डलभ्राजिनम् । दुष्टारिष्टजिनं खजिगतिजिनं दुःखाङ्कुरोत्थंजिनं सेवे पार्श्वसुसेव्यपार्श्वमसकृत् श्रीपार्श्वविश्वेश्वरम् ॥१॥ अर्हद्भक्तिभृतात्मनः परिवृति कत्तु मुदा मन्त्रयन्त्येताः सप्त जगत् स्वसंपद इवोद्वीक्षत्यसौ वाञ् शयन् । यन्मूर्ध्नि स्फुटकूटतः प्रकटिताः साटोपमुत्कण्ठिताः स श्रीपार्श्वजिनस्तनोति हृदि सेवासं शिवाशाप्तिकृत् ॥ २॥ श्रीपार्श्वनामाम्बुधरोन्नतिः स्याद्यस्यान्तरेऽनन्तसुखाम्बुवृष्टिः । द्विधा भियस्ते स कथं बिभेति संसारदावानलदाहनीरम् ॥ ३ ॥ नाम्नाऽपि तेऽभूजिननामशेषा यां योगिनां संवरपूर्णयोगात् । त्वया सहाऽभ्येतु कथं जयं सा संमोहधूलीहरणे समीरम् ॥ ४॥ श्रियः पुरस्तस्य लुठेयुरिष्टाः सदोचितं स्वोरसि तेऽह्रिपद्मम् । श्रीपार्श्व ! यः श्रीसदनं धरेता मायारसादारणसारसीरम् ॥५॥ व्याघ्रादयः सद्गतिगामिनश्चे दाश्च यस्याः कुरुते कथं तत् । स्थिरैकभक्तिस्तव पार्श्व! तस्यां नमामि वीरं गिरिसारधीरम् ॥ ६॥ यद्वाङ्मनःकरणपावनतथ्यतीर्थ मन्तधृतं गुणभृतां मुदितं त्रिलोक्याम् । संस्मर्यते तव तदीश ! चिदाद्यनन्तभावावनामसुरदानवमानवेन ॥ ७ ॥ - v - ~ For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३ श्रीपार्श्वनाथस्वामिस्तोत्रम् विश्वेषु सङ्गत मिदं सदृशैः सहाति श्लाघ्यं किमित्युचिततोन्नति ये वितेनुः । त्वत्पादपयमुपदाने (?) सुरासुराद्रि चूलाविलोलकमलावलिमालितानि ॥ ८ ॥ दूरे स्तुतिः समवमृत्युपसारिणीयं छायाप्यनूद्दिशति तेऽभिमताधिताईन् । आमुष्मिकैहिकफलार्पणहेतुदेहि सम्पूरिताभिनतलोकसमीहितानि ॥ ९ ॥ यैर्दिश्यतेऽमितनयैः समयत्रयेऽपि श्रेयःपथः सुयतिनामनवद्ययोगैः । श्रीद्वादशाङ्गविहितानि तवाहितानि कामं नमामि जिनराजपदानि तानि ॥ १० ॥ श्रीपार्थास्यात् श्रुतिपथपथी सप्रभावोन्नदाद्यः काष्ठे स्थानोर्बलदहिपतेरैन्द्रमैश्वर्यमार्यम् । तं ब्रूमोऽब्धि सदमृतरसोद्वेजनैर्मन्त्रराजं बोध्यागाधं सुपदपदवीनीरपूराभिरामम् ॥ ११ ॥ यत्रोक्ताः स्यात्पदविशदितास्ते नया इष्टसम्पत् पुष्टा यद्वद्रससरसिता लोहधातुप्रयोगाः। सेवे पाद्मभयदसुवचोऽनन्तभावात्मकं ते जीवाहिंसाविरललहरीसङ्गमागाहदेहम् ॥ १२ ॥ द्रव्याकारप्रभृतिभगवद्भुषितोऽनन्तशो यो दिव्यादेशानिमिषगिरिमक्षोभ्यमेवोचितं तम् । अन्यादेशिप्रलयमरुता ते वदन्तीश- (?) श्थूलावेलं गुरुगममणीसंकुलं दूरपारम् ॥ १३ ॥ भांपव्यापप्रशमनपटुं संवरोदारचारं दिव्यादेशोदितहयभिदावीचिकं सर्ववित्ते । For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४ श्रीजिनस्तोत्रकोशः लोकद्रव्यव्रजमतभिदोत्सर्जनाव्यर्थरत्नं सारं वीरागमजलनिधिं सादरं साधु सेवे ॥ १४ ॥ देवाभासत्वमप्यनत्वभवदणुपराशेषदेवेषु यानारोपं तारस्य शुक्ताविव भविकमनःश्रेण्यसौ त्वत्पदाब्जम् । मुक्त्वान्यति तोषं क्षणमपि हि कथं नाथ ! सेवाऽन्जमाला आमूलालोलधूलीबहुलपरिमलालीढलोलालिमाला ॥ १५ ॥ स्वामिंस्त्वत्पादपने वसति जलधिजा सा प्रततत्प्रमाणे सिद्धत्वाञ्चेन्नतस्यार्चनतपनभृतामन्यथा श्रीः कुतः स्यात् । किन्त्वेषा रूढिरेवं कविवचसि लसद्यद्रमानूपुरोधाज्झंकारारावसारामलदलकमलागारभूमीनिवासे ॥ १६ ॥ त्रैलोक्याश्चर्यकार्यद्भुतसदृशपरस्याररूपात्यभावातावद्भिर्वीतरागैरणुभिरनणुभिजतिमत्राधिकेन । उत्पत्तौ तेऽङ्ग योगेऽतिशयिगुणिनि श्रेयसंसिद्धिबीजैश्छाया सम्भारसारे वरकमकरे तारहाराभिरामे ।। १७ ।। श्रावं श्रावं मुदा यं शिवपथपथिकां जज्ञिरे ज्ञानविज्ञाः शश्वत्कालत्रयेऽपि प्रशमरसदया खादसजस्क कत्के । श्रीसास्यप्रशस्यप्रसृतिसमुदिते शारदे द्वादशाङ्गी वाणी सन्दोहदेहे भवविरहवरं देहि मे देव ! सारम् ॥ १८ ॥ एवंकारमुदारहर्षविनयश्रीसूरिराजार्चितत्वं देहि प्रभुतादिहर्षविनयश्रीसूरितो मे स्तुतिम् । ज्ञानाद्वैतपदं सहर्षविनयश्रीसूरितानन्तवारब्रह्मागम्यसुधर्महंसकमलश्रीधर्महंसप्रभो ॥ १९ ॥ ॥ इति स्तुतिपदविनिर्मितसमस्यामयं श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥ ३७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनराजचतुर्विंशतिकास्तोत्रम् अथ श्रीजिनराजचतुर्विंशतिकास्तोत्रम् ॥ ३८ ॥ मेरोः किं शिखरस्थकल्पलतिकासर्वव्रताणुव्रतोद्घाटे वोद्भटकुञ्चिकोज्झितमहाराज्यश्रियोऽत्र च्छटाः । किं मुक्तेर्वरणस्रजेव सुजटां दृष्टेति शीर्षांसगां, यस्योत्प्रेक्षक कावदादिशतु मे श्रीआदिदेवः श्रियम् ॥ १ ॥ यत् पूर्व वृषभं क्षमाभरधरं सर्वसहं सर्वतः, स्वमेऽपश्यदसौ प्रसूरथ जिनोर्वकेकगोवृषः । यः स्वस्मिंस्तदलञ्चकार वृषभेत्याख्यां क्षितौ सार्थकां, स श्रीआदि जिनस्तनोतु नमतां शिष्टेष्टतुष्टिप्रथाम् ॥ २ ॥ यस्मिन् गर्भगते जितैव विजया मित्रैस्तथाऽक्षादिक, ४५ क्रीडायां जितशत्रुणाऽथ युवताराज्यव्रतावस्थया । यस्तिष्ठन् विषयैर्द्विषद्भिरजितो घोरोपसर्गैः क्रमा जज्ञे श्रीअजितः शिवाय स जिनः सान्वर्थनामा स्वयम् ॥३॥ पूर्णाशा जननी समस्तजनता शङ्खानिरारामभूः कल्पानल्परमानिधिः प्रतिपदं सत्संनिधिः सद्विधिः । आसीत् सत्यतमार्थनाम दधतो यस्यावतारेऽवनौ, भूयाच्छं भवनाय शम्भवजिनः सद्भावभव्यात्मनाम् ॥ ४ ॥ मुक्तात्माऽप्यविमुक्तकोऽक्षरमयव्यक्तिर्न लिप्यालयः, शश्वत् संवरजोऽपि संवरकरः श्रीदोऽप्यहोऽकिञ्चनः । विद्वानप्य गुरुर्हताहितपदः शान्तोऽपि यः सौस्तवो, दिव्यामन्दमुदेऽभिनन्दनजिनः सुत्रामदत्तायः ॥ ५ ॥ निःशेषार्थविनिश्चयेषु सुमतिनों केवलं मङ्गला - Sज्ञानम्लानितया नु विश्वजनता यस्यावतारेऽभवत् । न प्राच्येव यथार्कभाभिरमला शेषा अभि स्युर्दिशः, किन्तु श्री सुमतिस्तनोतु सुमतिं वोऽसौ यथार्थाह्वयः ॥ ६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ श्रीजिनस्तोत्रकोशः भावी स्वामिवरोऽयमुत्तमपदं लक्ष्म्या अमात्रैर्वृतः, __ पात्रैः पद्ममिवोपकारनिरतस्तापापनोदैरिति । किं प्रज्ञापयितुं यदीयजननी दर्तोऽब्जशय्योपरि, स्वापे दोहदमर्थगाह्वयवहः पद्मप्रभः स श्रिये ॥७॥ आरोग्याभ्युदयेन रूपमहिमेनैश्वर्यचातुर्यते, यस्मिन् गर्भगते न केवलमभूत् पृथ्वी सुपा/प्रसूः। नानादानदयादमोदयपथः पृथ्वी तु सर्वसहा, ऽपीष्टं पुष्यतु नः सुपार्श्वभगवान् सान्वर्थनामान्वयः ॥ ८ ॥ देवोऽयं कुमुदादरोऽखिलकलात्सालंकिलालादक, स्तापव्यापतमोहरोऽमृतपदं सा वा शशीवेति किम् । शंसन्ती विधुपानदोहदमधाद् यस्यागमे लक्ष्मणा, सल्लक्ष्म्यै सुयथार्थनामरचनश्चन्द्रप्रभः सोऽस्तु नः ॥ ९ ॥ अर्हत्सेवनभावनेन शिवदश्रीधर्ममर्मशता, विज्ञाः स्युर्न परोपक्लप्तकुमताधीशाद्यथाहं मता। एवं ज्ञप्तिकृतेऽखिलेषु विधिषु व्यक्तैव गर्भागतो, रामा यस्य बभूव सोऽस्तु सुविधिः सिध्यै यथार्थाभिधः॥१०॥ गर्भस्थं निशि यं दधार जननी नन्दा मुदा यावता, तावद्गर्भगतेश! सातिशयतामाहात्म्यतोऽङ्गे पितुः। दाहैः सार्द्धमशेषविष्टपमहातापोपशान्तिः क्षणा जाता शीतलताच शीतलजिनः सत्याभिधः स श्रिये ॥११॥ एतद्देवनिषेवणेन भविनः सम्भाविनोऽनन्तशं, भाजः संवरसत्समाधिसुखभृच्छय्याश्चतस्रः श्रिताः। आरुह्यामृतशेयमित्यति वदन् किं यत् प्रसूदोहदो, दिव्या शयनेऽयनाय समभूच्छ्रेयांससार्वोऽस्ति सः ॥१२॥ यद्गर्भागमनावधेर्भवरिपूञ्जित्वा जयायां तथा, स्वर्णादिद्रविणोदयेन वसुपूज्येशे च सौवात्मनि । For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७ श्रीजिनराजचतुर्विंशतिकास्तोत्रम् पौनःपुन्यसुरेशपूजननयैः सान्वर्थगोत्रत्रयं, यश्चक्रे विदधातु वाञ्छितफलं श्रीवासुपूज्यः स वः॥१३॥ यस्मिन् गर्भगतेऽपि सौवपदवीसौभाग्यदे संस्मृते, रप्यासीद्विमला न केवलमियं श्यामा धियांगेन च । विश्वस्थस्तु जनोऽपि पावनपदज्ञानादिसौन्दर्यतः, श्रीमन्तं विमलं नमामि तमहं सत्यीकृताह्वोदयम् ॥ १४॥ देवोऽयं भविनामनन्तसुखविद्वीयैकदृष्ट्यात्मकं, दिव्यं दास्यति दुर्लभं पदमितीवाशंसनायावनौ । स्वप्ने पश्यदनन्तमुजवलमणीन् यद्दाम गर्भागमे यस्यां वा सुयशाः स गच्छतु जिनोऽनन्तः सदाख्यः श्रियम् १५ सत्यार्थप्रभवप्रभावविभुताहो दृश्यतां येन यद् गर्भस्थेन जगत्रयेऽपि सुकृतोड्योतस्थितिं तन्वता । चक्रेऽम्बैव न सुव्रताखिलजनोऽप्येवं परं धर्मभाक् स श्रीधर्मजिनश्चिनोतु नमतां धर्म यथार्थाभिधः ॥ १६ ॥ नानाजातिकुयोनिदुर्गतिगतं दुःखं मयाऽनन्तशः, सोढं तच्छ्रितवत्सलः शिवपदं देहीश! मे शं पदम् । विज्ञप्तिं प्रथयन्नितीव भजते लक्ष्मोपधेर्य मृगो, गर्भस्थो शिवशान्तिकृत्सदभिधः शान्तिः स शान्तिप्रदः१७ तीर्णस्तार कमुक्तमोचकपदं बुद्धः स्वयम्बोधको, दर्शी दर्शक इत्यनन्तसुगुणी देवोऽयमेवास्ति भूः । नान्यः शंसक इत्यनुत्तरमणी कुन्थुः श्रियादर्शि यद्, गर्भे स्वप्ननिशीव सोऽस्तु शिवदः कुन्थुः पृथुस्वाह्वयः ॥१८॥ एकद्रव्यमनेकपर्यवचये नानन्तधर्मात्मकं, तत्स्थानेऽत्र निदर्शनं द्विपदयुक् देवोऽयमध्यक्षतः। ज्ञप्तिं कर्तुमितीव चक्रिजिनताह देव्यरंदीप्रभं, स्वप्नेऽपश्यदरः स्फुरत्वुरसि(?)मे सान्वर्थनामा जिनः॥१९॥ For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनस्तोत्रकोशः देवोऽयं विविधाऽतिशायि सुगुणैः सूनत्र जेवासृजन्, वासं सर्वदिशामयीह भवितेऽतीवाभवद्दोहदः । सौगन्ध्यातिशयैकमाल्यशयने यस्यावतारेऽवनौ, मातुर्मल्लिजिनः श्रियं दिशतु वः सोऽर्हन्निहार्हाहयः ॥२०॥ कूर्मोऽहं त्वमिव क्षमाभरधरो गुप्तेन्द्रियोऽप्यन्वह, तिर्यग्दुर्गतिदुःख दुर्गतहृदस्मीशेति शं मे चिनु । देहि श्रेय इतीव सोङ्कनिभतो विज्ञप्तिकां यं मुदा, कुर्यान्मातरि सुव्रतत्वकृदिति स्वाख्यः श्रिये सुव्रतः ॥ २१ ॥ यन्नामाऽपि समागतं हृदि सकृद्वाह्यान्तरारिक्षयं, चेत् कुर्यादथ मूर्तिदर्शनमिदं यत्तन्न विद्मो महत् । भीत्येतीव यदङ्गवीक्षणकृतः प्रत्यन्त भूपा नता, यत्पत्रोः स सुखाय मे सफलताभिख्यो नमिर्नायकः ॥ २२ ॥ जिग्ये येन महोर्जितं रणमुखे लक्षाङ्ककं राजकं, यश्वजितवीर्यकं सुरगणं वज्रिप्रशंसाऽसहम् । विष्णोरस्त्रगणं नय स्वकबलैमैने तृणायाप्यभूद्, यस्यारिष्टमणी जनेस्यनुभविन्यम्बा स नेमिः श्रिये ॥ २३ ॥ यस्यास्वा शयनीयपार्श्वसदहिध्वान्तेऽप्यपश्यच्च यः, पार्श्वार्द्धज्वलदग्निदग्धफणिनोऽदादेन्द्रराज्यं तु यः । पार्श्वोपासित पार्श्वभाग भविकदः पार्श्वे च यस्येष्टदं, सान्वर्थाभिधयान्वितः श्रितहितश्रीदः स पार्श्वप्रभुः ॥ २४ ॥ यश्व भुवि बर्द्धमानकलया सर्वोपधाभिर्यथा, पूर्ण ज्ञातकुलं निजावतरणैः सिद्ध्यापि विश्वं तथा । यः सिद्धार्थमपि व्यधादधिकलं मानेन मेरोरपि, श्रीभ्यः सोऽस्तु यथान्वयाह्वयवरः श्रीवर्द्धमानप्रभुः ॥ २५ ॥ ये पिण्डस्थपदस्थ सिद्धपदगावस्थात्रिकध्येयता, - निष्ठाः प्रष्ठपदस्थ हर्षविनयश्री सूरिराजार्चिताः । For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधारणजिनस्तोत्रम् धर्माधर्मपथप्रहर्षविनयश्रीसूरितादेशना, भूमौ श्रीऋषभादयोऽखिलजिनास्ते सन्तु भद्रङ्कराः॥२६॥ एवं श्रीगुरुराजहर्षविनयश्रीसूरितः सम्पदं, भक्तिव्यक्तिसुयुक्तितः स्तुतिपथं नीतो मया मायया। सर्वः सार्वकदम्बकः क्रमकजोपास्तिस्तदीयाऽस्तु मे, तन्नित्या गुरुधर्महंससरसक्रीडालिनीश्रीपदम् ॥ २७ ॥ इति सान्वर्थनाममयं श्रीजिनराजचतुर्विंशतिकास्तोत्रम् ॥ ३८ ॥ अथ साधारणजिनस्तोत्रम् ॥ ३९ ॥ जिनराज ! तवासनं बभौ निजधैर्जितमन्दरोऽत्र किम् । भुवनत्रयराज्यशंसिनी शिरसि च्छत्रततीव सम्पदा ॥ १॥ सदशोककलेव सेवते भगवन्तं स्वमशोकमूर्तिभृत् । उपदेशमहीषु कौसुमी रचनाकीर्तिरिवाघघातजा ॥ २ ॥ यशसी इव रागरोषयोर्विजयैश्चामरयुग्ममीश ! ते । भुवनत्रयतापहारिणी तव गीर्भाति मुधेव सङ्गता ॥ ३ ॥ इव निर्जितसर्वमन्महा इति भामण्डलमीशपृष्ठगम् । किमितीव बभाण दुन्दुभिस्त्रिजगत्तारणतारतेव ते ॥४॥ इत्युदारनुतिभावमागते मागतोरुवचनः प्रसीद मे । मेदुरां वितर सारसम्पदा सूरिहर्षविनयप्रभुत्वदाम् ॥ ५॥ ॥ इति साधारणजिनस्तोत्रम् ॥ ३९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः अथ साधारणजिनस्तुतिः ॥ ४०॥ सदयतादयतात्मपथप्रकाशकवचःकवचप्रणताङ्गिनाम् । तव पदानयुगं सुगुणावलीवनरसं नरसंश्रितमाश्रये ॥ १॥ जिनवरा नवरागहतोदराः कुनयदुर्मददुर्मदने हराः। सरसदर्शनदर्शनिनः श्रुतस्वरचयं रचयन्नु हदङ्गिनाम् ॥ २॥ गणधरैर्विहितं विहितं श्रितं रविमिताङ्गमिताङ्गभृतां मते । दिशतु संमृतिसंसृतिपारभृत् सकलया कलया कलितैरलम् ॥३॥ श्रीसुरी दिशतु कामितानि मे तानि मेरुरिव धीरदर्शना। दर्शनाद्भविकभावुकाकला शालहर्षविनयत्र ! भूजया ॥४॥ ॥ इति साधारणजिनस्तुतिः ॥ ४० ॥ अथ द्वितीयसाधारणजिनस्तुतिः ॥४१॥ कामितं कामितं दद्यात् परमेष्ठी परेष्टदः । सकलः सकलश्रीणां पारगः पारगत्वरः ॥ १॥ स्वयम्भुवो भुवो ज्ञानश्रीणां संवरसंवराः। मानसम्मानसंयुक्तसञ्चयं रचयन्तु नः ॥२॥ गुणाधीशैर्गणाधीशैर्विहितं विहितं वदत् । श्रुतं श्रुतं श्रियं दद्यात् सदक्षरं सदक्षरम् ॥ ३॥ शारदा शारदाभ्राङ्गी श्रीहर्षविनयश्रियम् । नित्यं नित्यं करोतूच्चं भवे भवे भवोद्भवम् ।। ४॥ इति द्वितीयसाधारणजिनस्तुतिः ॥ ४१ ॥ अथ शत्रुञ्जयस्तोत्रम् ॥ ४२॥ जय श्रीविमलाद्रीश जय श्रीविमलालय । महानन्दपदं देव महानन्दपदं ददा ॥ १ ॥ शत्रु शत्रुञ्जयाजय्य च्छिन्द्धि भिन्द्धि तमस्तमम् । ग्रन्थि ग्रन्थं च निर्ग्रन्थसेव्यसेव्यतमाह्वया ॥ २ ॥ For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समस्यापदास्पदं श्रीयुगादिदेवस्तोत्रम् सिद्धक्षेत्रं सुसेवध्वं सिद्धिक्षेत्रं सतां मतम् । भाविका भविकात्मानः पापपापवियत्पदाम् ॥ ३॥ पुण्डरीकाचलं वन्दे श्रीपदं पुण्डरीकवत् । सहसा सहसानेकदोषपोषविशोषकृत् ॥४॥ भक्तिभक्तिभरैरेवं स्तुतैः सिद्धगिरिगिरिः। स्थितः सुस्थितदो मेऽस्तु श्रीहर्षविनयश्रिया ॥५॥ ॥ इति श्रीशत्रुञ्जयस्तोत्रम् ॥ ४२ ॥ अथ समस्यापदास्पदं श्रीयुगादिदेवस्तोत्रम् ॥४३॥ मंतिरणुसममानामेतवादीशमेरू__ नतगुण®तिमाप्तो दुष्यमायांभवे । क्वचिदुदितमुदा यत्प्राहिणोत्तत्किमा तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥ १ ॥ तिलतुषितकुलस्था दुर्विधा स्वाङ्गजाशा भृदभयदतजं भक्तितस्ते श्रियोच!। यदलभत हि काचित् स्त्रीत्यथाख्या किमासी त्तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥२॥ ऋषभजिन ! वचस्ते वस्तु सम्यक् प्रतिष्ठं विशदिह भविकानां तन्वतां सौवचित्ते । मतिरतिकुमतं किं क्लिष्टमेतद्वचोव त्तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥ ३ ॥ जिनवर ! भवदीया योजना सारसारा मृतमयगुणखानिः शङ्करी गीर्जनानाम् । १ अनेन मतिपदेन कीटिकास्तवनं। २ अनेन उष्ट्रेति पदसूचनं । ३ अनेन तिलतुषेति सूचनम् । ४ अनेन तटसूचनं। ५ अनेन कोणेति सूचनं। ६ उच्चत्वेनोष्ट्रसमानं । ७ कीटिका समाना। ८ तटादि सूचनं ज्ञेयम् । For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२ श्रीजिनस्तोत्रकोशः क्वचिदपि हि कदा किं दोषपोषं यथैषा तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥४॥ तिलतुषवदसारान् सङ्घलान् क्वापि संस्थां___ स्तव जिन! वचनाब्धिप्रोत्थबिन्दूद्भवाभान् । पैरसमयपथस्थान्प्रेक्ष्य नाहेति कश्चि त्तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥५॥ समवसृतिमगुस्ते सार्वदेवा विधाय त्रिजगदभवि नाट्यं चित्रकृद्भक्तियुक्तेः। मरुदथ गुरुचेताः कश्चिदित्यात्तनृत्यं तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥ ६॥ प्रथमजिन! तवाज्ञा भव्य! भव्यात्मनां स्वः. सुखलवममृतत्वं साधिना साधु दत्ते । तदुचितमवनत्वान्नापगाः किं गतांह स्तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥ ७ ॥ तव जिन ! कुलजातस्यापि बुद्धौ मरीचेः स्वपितृनतिनुतस्याऽशस्तभावाणुभूतौ । कुलविषयमहाप्तिं वीक्ष्य नाहेति कः किं तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥ ८॥ तिलतुषसमवंशेऽनार्यभूमौ कचित्स्थां स्तव जिन ! पृथुधर्माज्ञादरानेक्ष्य साक्षात् । अदनजसुलसादीन् केन नावाद्यथैवं तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥९॥ अभयद ! भवदीयाऽचिन्त्यमाहात्म्यतश्चेत् क्षितिपतिभुवि रङ्कः प्रेक्ष्यतेऽन्धश्च पङ्गुः । गजगततितदानासम्भवीदं भवेत्किं तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥ १० ॥ १ परस्परापराहतं वेगवान् वर्षः परस्परार्थविरुद्धत्वेनासमंजसान् समाहारद्वंद्वः द्वितीयैकवचनं प्रवृत्तः । For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समस्यापदास्पदं श्रीयुगादिदेवस्तोत्रम् सभविक ! भविकाली सेवते ते वचो याs नृणगुणमपि धत्ते स्वोरसीष्टे क्रियासु । अणुलघुपदसृष्ट्या सा कथं वापि नीचै स्तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥ ११ ॥ समवसरणभित्तौ यानि चित्राणि लेखा लिलिखुरिन ! मुदा ते विस्मितं तान्यवेक्ष्य । बहुभिरमृततावाप्यत्र किं तेऽतिचित्रं तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्रं प्रसूता ॥ १२ ॥ जिनवृषभ ! यथाऽन्ये तीर्थिका लीलयाहुः शिवपदमिह तद्वत्त्वं न तेऽज्ञाः पथस्थाः। तदपि परमतं यन्म्लिष्टितार्थ यथेदं तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥ १३ ॥ समवसृतिभुवं ते प्राप्य के के न सिद्धाः सकलकलशमुक्तेरक्षयक्षायिकातेः । न भवततिमतीयश्चित्रमत्रैक्ष्य चैवं तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥ १४ ॥ जिनप! तव वचः स्यात्प(?)न्तिकास्थास्थितानां ___ भवति शिवरमायाः शंनिधेः किं न हिंसाम् । प्रतिकृतिविहितान्त्या भाविनी निर्जितांह स्तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥ १५ ॥ द्वयमनुपसमेतत् सम्प्रतीमो द्वयस्या भयद ! वरपरीक्षाप्रेक्षकाः सत्यवाक् त्वम् । त्वयि वितथपथेनार्थादरान्येष्विदंव त्तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥ १६ ॥ तव मतिविपरीताः क्लप्तहिंसादिदोषा जिन ! परसमयास्ते सर्वचिन्मूलतोत्थाः। For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिन स्तोत्रकोशः यदि परगिरिमान्याः किं तदेतन्न मिथ्या तिलतुषटकोणे कीटिकोष्ट्रं प्रसूता ॥ १७ ॥ परसमयरतस्था लक्षशः कोटिशो वा जिनप ! जपतपो वोपासतां योगमार्गम् । तदपि शिवपथेना यान्त्यदोऽर्थे यथाऽज्ञास्तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्टुं प्रसूता ॥ १८ ॥ यहजुहतमतिस्थैरुक्तमन्यैरयुक्तं तदरमितरथाऽत्राकारि शिष्यप्रशिष्यैः । वचसि हतिरियं तेऽभून्न सूरेरिवारिंस स्तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्रं प्रसूता ॥ १९ ॥ भविकततिमियन्ती कार्मणानन्तकाणु स्थितिभृतिमति सौवत्वेऽपि कैवल्यसूचिम् | वदति तव सुसूक्ष्मध्यानजां प्रेक्ष्य कश्चि तिलतुष तटकोणे कीटिकोष्ट्रं प्रसूता ॥ २० ॥ इत्थं श्रीगुरुपूज्यहर्षविनयश्रीसूरितः संस्तुतिं भक्तिव्यक्तितया ममेश विमलादीन्द्रश्रियां मण्डनम् । त्वं संयच्छ भवे भवे भवभवं बोधिं सुबोध्याङ्कुरं दिव्यानन्ददधर्म हंसललनाब्जप्राज्यराज्यश्रियम् ॥ २१ ॥ इति समस्यापदास्पदं श्रीयुगादिदेवस्तोत्रम् ॥ ४३ ॥ अथ समस्यामयं युगादिदेवस्तोत्रम् ॥ ४४ ॥ वन्दे श्रीआदिदेवं तमणुतममतिं स्तोतुमुद्धायमिन्द्रा दीनां षट्तर्करूपां समयपथपुरं युक्तिपाथोधिवीचिम् । सर्वार्थावायशैलश्रियमयि निपुणाः प्रेक्ष्य केनैवमूचुः सूच्य कृपपङ्कं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः ॥ १ ॥ स्वामिंस्ते पल्यकूपोपमममितगमैर्द्रव्यषङ्कं पराणौ गिर्यास्ते द्वादशाङ्गं शिवपदनगरं तत्र नैकोक्तियुक्तिः । For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समस्यामयं श्रीयुगादिदेवस्तोत्रम् वार्डीयेतात्र शैलत्यनणुगुणगणः स्थैर्यतश्चेत्तदाऽभूत् सूच्यग्रे कृपषटुं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः॥२॥ सूक्ष्म ! त्वद्देशनायां भविततिरिन ! षड्दर्शनागाधकूप स्थै रूप पूरिवाथैः पृथुसमयपथाम्भोधिभेजेव लभ्या। प्रत्येकं स्थैर्यशैलं जिनमतममृतं यत्ततोऽदः पदं किं सूच्यने कूपषटुं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः॥३॥ सूक्ष्म ! त्वच्छासनश्रीस्थितमतुलतपः षड्विधं बाह्यतो वा ऽऽभ्यन्तर्यात्पूर्णकूपोज्वलमलमधिपाराध्यसिद्धि न केऽगुः॥ श्रद्धादृगंशमाब्धिप्रबलहृदचलं चेत्ततो नेति किं स्या, सूच्यग्रे कूपषटुं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः॥४॥ यत्तज्जीवात्मवादाः परमतिन इनानन्तसङ्ख्यत्वमाख्यो दोषं पड्जीवकायं स्वगिरिगुणदया गाहकूपस्वरूपम् । यच्छ्रेयः श्रीपुराभं सुपदजलनिधिं धैर्यशैलं ततोऽभूत् सूच्यग्रे कृपषदं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः ॥५॥ नेतस्त्वद्गीर्भवाशाप्रमितिरमृतदानान्यतीर्थ्याप्तजोक्ति, स्तन्वी जात्विष्टशंकृत् षडसुवधमहाकूपरूपोरुदङ्ग दुष्टानां च दुःखाम्बुधिरधिकहठाद्रिर्वदेवेति सम्यक् सूच्यग्रे कूपषदं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः॥६॥ शश्वद्देहाद्ययोगैः शिवपदमुपदेष्ट्रत्वमङ्गादियोगा, दन्योन्यस्पर्धवोचुः परसमयगिरः स्वाधिदेवेषु यत्तत् । सिध्यै स्यात्किन्तु तेऽर्हत् स्वसमयरचनेऽवद्यधीरेतदर्थे सूच्यग्रे कूपषटुं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः॥७॥ भिन्दन्तूच्चैः सृजन्तु स्वयमुत जगतीं यत्तदुत्त्या स्वपुष्प प्रायोदन्तस्वरूपाः परसमयपथाधीश्वराः किन्तु नेतः। त्वन्निष्टिप्रोपदेशे शिवपथि कृपणा दुर्धियोऽर्थे यथास्मिन् सूच्यग्रे कूपषदं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः॥८॥ सार्वास्यन्ते प्रसन्नं प्रशमरसभरं दृग्युगं सुश्लथं सत्, पर्यङ्कास्थानसंस्थङ्करमुखमखिलं रागरोषादिवन्ध्यम् । For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६ श्रीजिनस्तोत्रकोशः मुद्रानाशेक्षितेऽन्यैः पतिभिरियमयीदम्पदार्थों यथाऽज्ञैः सूच्यग्रे कूपषदं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः ॥९॥ यत्सम्यक्त्वात्प्रतीमः शिवदमनुपमं त्वादृशामाप्तभावं, तस्मै ते शासनायामितकुमतमहापाशहर्त्रे नमोऽस्तु। पश्यामः सत्यभावं किमपि परमते नैतदर्थे यथाऽज्ञाः सूच्यग्रे कूपषदं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः॥ १० ॥ भव्यानां मोक्षसिद्ध्यै त्वदुदितचरणश्रीतटे षड्व्रतीष्टे कूपारोपागुणोधैर्नगरितसकलादेशभङ्गीमयोक्तिः। षट्कायाराधनाब्धिः सदवहितमनोद्रिस्ततोऽदो भवतिक सूच्यग्रे कूपषटुं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः ॥ ११ ॥ हेयादेयत्वतस्ते गिरि जिन ! भविनां बोधनायाविरासीत् षसिद्धान्तीह कूपप्रतिकृतिरखिलार्थाम्बुभिर्युक्तिदृङ्गा । सम्बन्धाब्धिः स्वतीर्थाधिपतिसदचलस्तेन जज्ञे किमेवं सूच्यग्रे कूपषटुं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः॥१२॥ भर्तस्ते द्वादशाङ्गीमयगिरि परितः पइरसीकूपरूपा दिव्यास्वादेन भव्योपकृतिकृतिपराऽजन्यसौ सत्यदृङ्गा । सौख्यानन्त्याधिरुच्चैः शिवपदमहिमाद्रिः किमेवं ततोऽभूत्, सूच्यने कूपषदं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः ॥ १३ ॥ श्रीवीरस्य प्रशस्यश्रमणपरिवृतस्याग्रतो लास्यपूजां कृत्वा सूर्याभदेवः सुलभशिवपदं सन्तनोति स्म यद्वत् । तद्वत् कश्चित्सुरस्ते पुर इन ! तनुते किं न नृत्यं तदेतत् सूच्यग्रे कूपषवं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः ॥१४॥ सिद्ध्यै ध्यायाम्यहं ते समवसृतिमहादुर्गभित्तिस्वरूपं, याता यास्यन्ति जग्मुः शिवपदपदवीं वीक्ष्य यत्रैकमव्याः। चित्रश्चित्रविचित्रं यदखिलसुखदं चाजनीदं यथास्मिन् सूच्यग्रे कूपषदं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः ॥ १५ ॥ भिन्नां भर्तः समूलं निजपरविषयां तीक्ष्णसंसारसंस्थां, षड्लेश्याकूपरूपां समविषमभवश्रेणिदृङ्गां त्वयेमाम् । For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७ श्रीयुगादिदेवजटाकूटवर्णनस्तोत्रम् दुष्टाऽष्टाचारवाद्धिं कुमतहठगिरिं वीक्ष्य नापूरि कोदः सूच्यग्रे कूपषदं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः ॥ १६ ॥ सूक्ष्माचारार्च्य सर्वेतरविरतितटे ते षडावश्यकश्रीः कूपारोपाधिपास्ते शुचिपदसुरसैः सम्पदर्थादिङ्गम् । सूत्रालापादिपाठोऽम्बुधिरवहिततेहाचलश्चेन्न किं तत् सूच्यग्रे कूपषवं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः॥ १७ ॥ पूज्या त्वच्छासनश्रीः परसमयगिरो नार्थतथ्या यदासां षड्भाषा अप्रशस्ताः पृथुभवपथदाः कूपरूपाः पुराख्याः। दौर्गत्यादेरनर्थाब्धय इह कुहठाधुन्नतास्तेन जज्ञे सूच्यने कूपषटुं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः ॥ १८ ॥ मोक्षस्त्वय्येव नैवानुचितपरसुरेष्वाप्तताधीनिधीनां, यत् द्विट् षड्वर्गकृपाः कुपथरसगता दुर्धियोऽसत्यदृङ्गाः। हिंसाः कर्माब्धयोऽमूः प्रतिभवमवचत्वाद्रयः किं न तत् स्यात् सूच्यग्रे कृपषटुं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः॥ १९ ॥ त्वन्माहात्म्येन मुक्तासहनमतिमता नित्यवैरा अपीय याँ हृष्टाः पर्युपास्यैर्वृषभजिन ! भवद्देशनाभूमिमीडे । तां दुष्प्रापां परेषां निखिलसुखखनि शिष्टमेतद्यथाथैः सूच्यग्रे कूपषदं तदुपरि नगरं तत्र वार्द्धिस्ततोऽद्रिः॥२०॥ इत्थं चन्द्रगणेन्द्रहर्षविनयश्रीसूरिराज्येश्वरः, स्तोत्रं मन्त्रपवित्रगोत्रमहिमाम्नायार्णवः प्रापितः । श्रीशत्रुञ्जयमौलिमण्डनमणेरीणप्रवीणोदयं, देहि त्वं गुरुधर्महंससहसक्रीडाल ! मे श्रीपदम् ॥ २१ ॥ ॥ इति समस्यामयं श्रीयुगादिदेवस्तोत्रम् ॥ ४४ ॥ अथ श्रीयुगादिदेवजटाकूटवर्णनस्तोत्रम् ॥४५॥ यस्यां सस्थलशालिनः किल तनोः श्रेयोलतानंतवो मूर्त्ताः किं त्रिजगत्परोपकृतये तापापनोदाय वा । For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः तत्तत्सौख्यफलोद्भवाय भुवि वा प्राविबभूवुर्जटा कूटेनेव पटूद्भटं समयिशं दद्याधुगादिर्जिनः ॥ १॥ यस्योच्चांसतटे जटाकपटतो नीलोत्पलश्यामला धूमाली प्रसरीसरीति सुतपोध्यानाग्निभिर्वालिते । किं कर्मेन्धनसञ्चये सति महासद्भाववातोद्धतैः स श्रीमान् वृषभप्रभुर्भवतु मे सद्भूतसद्भूतये ॥ २ ॥ शस्योत्पत्तिपराः सुसंवरधरास्तापापहाः शङ्करा युष्मद्वद्वयमप्यहो त्वथ चलत्वं नः पुनर्जन्मनाम् । दूरात्त्याजयतेति विज्ञपयतीव द्वादशाभ्रावली यं नाथं सुजयंगभृत् स शिवदःस्तादादिदेवः सताम् ॥३॥ यच्छीर्षोष्णीषपीठासनवसनरता भङ्गसौभाग्यभाग्य श्रीकान्तामौलिवेल्लद्विरलितकबरीद्वैतमद्वैतशोभम् । भेजे पार्श्वद्वयेऽपि प्रसभमुभकलालम्बिलम्बजटायाः कूटेनेवादिदेवः स विभुरभविता भावितानां तनोतु ॥४॥ याता यास्यति यान्त्यक्षयसुखमिह ये तेऽर्हदास्याजजोद्य, द्वाणी किअल्ककल्कस्वदनकृतिरतानान्यजैरेणुभावैः। तत्त्वं ज्ञात्वेति मुक्त्वा तदर्थ मधुकरश्रेण्यदोऽर्थ जटाङ्गं धृत्वोपास्ते किमेतां कलयतु सकलां शङ्कलां श्रीयुगादिः॥५॥ दिव्यश्रीद्वादशाङ्गीपुरिसुगुणमणीश्रेण्यरीणानणीयः सौधोदात्तैकसर्वेतरविरतियुगद्वारकोद्घाटशिष्टे । पार्श्वद्वैते जटायाः कपटत इव किं कुञ्चिके यस्य भात, स्तन्यान्न्यायाध्वगानामसमसमशिवश्रीपदब्रह्मनोऽर्हन्॥६॥ तीक्ष्णोष्णश्च खरः पिता मदनुजः कीनाशनाना द्विधा, कृष्णाहं प्लवनागताघ्र(?)निघसैस्तद्रव्यभावेन माम् । विश्वस्तुत्य पवित्रयात्मवदिति स्वार्थाप्तये यं श्रयेत् __ कालिन्दीवजटाङ्गसंधृतिरता सोऽर्हन् श्रियेस्तात्सताम् ॥७॥ देवाभासतयाक्योरनुचितं स्प्रष्टुं हरादीन् सुरान् नष्टाऽष्टादशदोषतादिभगवद्भावार्थतेऽष्टैर्गुणैः । For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीयुगादिदेवजटाकूटवर्णनस्तोत्रम् एषोऽर्हन्नुचितस्तु नाविति हृदास्थायां ससंसजटा कूटात्विरणस्रजे जिनशिवश्रीकान्तयोः स्वप्रभौ ॥ ८ ॥ भाग्याभोगतया स्वयं सहवृते ज्ञानादिकश्रीत्रिके न्यक्षक्षायिकभावगे क्षपककश्रेणीमणीमण्डपे । तन्वत्यद्भुतयत्पुरे विधिरिवापूर्वप्रवेशं जटा व्याजात्तोरणवल्लरी व्यरचयत्स श्रीजिनः पातु नः ॥९॥ कर्मोन्मूलननिर्मलाच्छमकलाकेलेल्यैकालया, द्यध्यानाद्वहिरेष किं प्रकटितः साक्षाजटालक्षतः। सम्यग्ज्ञानसमुत्थनिःस्पृहमतिः सद्वेषरागक्षयो लक्ष्यः शान्तरसःशिवाय स जिनः पायादपायाजनान्॥१०॥ पश्यामः किल निर्विकारसरसा निर्णिक्तभक्तीरिताः सेवन्ते भुवि के स्वनाथमथ तान् सर्वान् वृणीमो वयम् । इत्यालोकनहेतुतः किमु जटारूपं विधायाऽध्यगु, स्तत्तत्सिद्धिसमृद्धयः स्वयमिनं यं स श्रिये स्ताजिनः ॥११॥ पश्चाचारवसुप्रसूमयमहाहाश्रमी यत्पुरे संवेगोपशमवतैः परिवृतः श्रीधर्मसम्राट् स्वयम् । जग्राह स्वशयद्वयेऽसियुगली सर्वाघसेनाभिदे स्कन्धद्वन्द्वजटानुषङ्गमिषतः सोऽर्हनतानन्ददः॥ १२ ॥ ज्ञानं स्यात्सक्रियाभिर्विरहितमफलं सत्क्रियाज्ञानशून्या स्तद्वद्वन्ध्यास्ततो नावमितचितरसं मैत्र्यमन्योन्यमस्तु । सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यामिति हृदयधिया यजटाच्छद्मनाभ्यां सख्याङ्गुल्यो मिथः किं ततयुतविहिते सोऽस्तु देवो मुदेवः१३ साध्यांऽसः शुशुभेऽतिशोभिजटया यः कन्जलस्निग्धया पूर्व लालनपालनाकलनया सम्भुक्तसर्वस्वया । लीलोपेक्षितयाथ राज्यरमया निर्मुक्तबाष्पच्छटा श्रेण्येवायतया नतेषु स जिनस्तन्यादमन्दा मुदम् ॥ १४ ॥ यत्कल्याणमयाङ्गमेरुशिखरे सच्छायताच्छच्छविविश्वे सर्वजनीनतेहितफला स्वर्गापवर्गप्रदा। For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिन स्तोत्रकोशः भव्यानन्तसुखाय कल्पलतिका पूर्वावतीर्णेव स, - द्वन्द्याद्येहजटोपधेः स महिमा सार्वः स सर्वश्रिये ॥ १५ ॥ संसारस्फार एषः खलु जलधिरिहानन्तजन्मान्तदुःखान्यर्णासीहोग्रनकाः कटुकफलभवास्तजटाकूटतोयम् । तत्सर्वोद्धारपूर्व भविक सुखकरस्तार कस्तारतेज:पुजार्यः सेतुबन्धः किमसितमणिजः प्रादुरासीद्युगादेः ॥१६॥ श्रीआदीशसदंससद्मवसतिस्थानन्तवीर्यश्रियो द्ध बाहुलते निजे भवजले मन्ये निमज्जज्जनान् । ऊर्ध्वं किं विहिते जटाकपटतस्तत्रैव किं कज्जल स्निग्धाचिश्वितिकैतवान्मृगमदश्रीभङ्गिकाविर्वभौ ॥ १७ ॥ सर्वश्रेयः श्रियां किं ललनपृथुपथः सिद्धिवध्यावृतिस्त्र‍ किं मूर्त्तामूर्त्तिमत्यायततरणतरी किं भवाब्धेर्लते द्वे । स्कन्धद्वन्द्वे स्थिते शंफलफलनफले किन्नु देवं सदैवोत्प्रेक्षादक्षाः समीक्ष्य प्रद्धति सुधियां सज्जटामादिभर्त्तुः १८ अर्हत्कर्णगकुण्डलच्छलधरादित्येन्दुयुग्मं स्वयं नित्यास्तङ्गततादिदोष कलुषत्वालम्भनायेव किम् । शश्वद्वन्द्यतमोदयाय च मुदोपास्त्यालयं सजटा कूटेनोभयतः प्रभुं शिवलयं रोमालयं लोडयेत् ॥ १९ ॥ रागद्वेषभौ समुत्कट कटुप्राणप्रपञ्चोद्भटौ मिथ्यात्वाविरतोच्चटौ विघटितौ स्वस्मात्परस्मात्स्वयम् । मूलामूलविघात्यदृष्टकुनटौ येन र्षभेणोल्लसे तद्द्वयं सोच्चजटोपधेरिव जयश्रीणां पताकोभयी ॥ २० ॥ दिव्यश्री द्वादशाङ्गी परमतमरहस्यार्थपाथांसि वर्ष त्यत्यन्तै नेकान्तविश्वोपकृतिसुकृतये सत्यहो त्वद्वचोऽब्दे । नीलस्निग्धाङ्कुरालीवदिव सुविरतिः सर्वदेशप्रशस्या मन्ये मूर्त्ताविरासीदभयद ! सुजटाव्याजतः पार्श्वयुग्मे ॥२१॥ For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपार्श्वदेवशिरःस्थफणावलिवर्णनस्तोत्रम् नेतस्तेऽत्र पुरे सुवर्णमुकुटप्राकाररेखाङ्किता लीकावासनिवासिसर्वविजयिश्रीभाग्यसम्राट् स्वयम् । सर्वत्रापि जयं विधाय किमथ त्रैलोक्यलोकोत्तर श्रीसिद्ध्यै विदधे जटाकपटतः सौभाग्यमुद्रोन्नतिम् ॥ २२ ॥ साम्राज्यप्रदपूज्यहर्षविनयश्रीसूरिताशाशया दीशानन्यजराज्यहर्षविनयश्रीसूरितालोकने । यच्छातुच्छपथं सहर्षविनयश्रीसूरिपोपापद प्राज्याजय्यजयेशहर्षविनयश्रीसूरिसूरीज्य यः ॥ २३ ॥ इत्थङ्कारमुदारहर्षविनयश्रीसूरितस्वात्मनः श्रीशत्रुञ्जयमौलिमण्डनमणिभूयात्सदा मे स्तुतः । ब्रह्माद्वैतपदैकबोधिविधये श्रीधर्महंसप्रथाबीजायाद्भुतधर्महंससरसक्रीडाब्जिनी सम्पदे ॥ २४ ॥ ॥ इति श्रीयुगादिदेवजटाकूटवर्णनस्तवनम् ॥ ४५ ॥ अथ श्रीपार्श्वदेवशिरःस्थफणावलिवर्णनस्तोत्रम् ॥४६॥ सप्तद्वीपरमाश्रिता इव जगद्दारिद्यदावाकुलं वीक्ष्योद्धर्तुमिहेव किं नयरयाः सप्तापि तत्त्वानि वा । मूर्त्ताः स्वोन्नतिदर्शनाय निपुणा उत्प्रेक्षका यत्स्फटाः टोपारोपपरा इति श्रितहितं तन्यात्स पार्श्वप्रभुः ॥ १ ॥ मेरमहाव्रतोन्नतिपदान्युद्दामधर्माश्रमाः सप्तापीवनसपानपिण्डविषया हर्षादशेषैषणाः। सम्यग्लालनपालनादिकलयोद्वोढुं कलं यं स्वयं तेनुः सौवशयानमजनमनः पूयात्स पावॉ जिनः॥२॥ विश्वैश्वर्यमयस्य वन्द्यपदवीपूतस्य यद्भाग्यभू. पालस्य स्वतनूच्चसद्मनि महाभाले गवाक्षायिते । लीलाखेलनलालसस्य शिरसि छत्रावलीवोज्वला किं लक्ष्येत फणोपधेरिह बुधैःसोऽस्तु श्रियेऽर्हन् सताम्॥३॥ For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२ श्रीजिनस्तोत्रकोशः वेदाग्निप्रमितातिशाय्यतिशयश्रीभिः समं क्षायिका नन्तज्ञानसुदर्शनकचरणारीणेन्दिराणां मिथः। क्रीडामण्डपसम्पदेव शुशुभे किं यत् फटालीनिभात् शिष्टाशेषसुखाय शङ्खनिरसौ सार्वः शिवायास्तु वः॥४॥ श्रीपार्श्वेश्वरशीर्षखेलनवनेशस्यालये श्रीलये - स्थाणूष्णीषशिलोच्चयोऽखिलकलारामैकलीलास्पदम् । नो चेत्तत्र कथं कथञ्चन फणश्रेणीमिषाल्लक्ष्यते 'मुग्धस्निग्धतरप्रदीप्रसरसा वेणीलता धारणी ॥ ५॥ कर्पूरेऽपि न तादृशो मृगमदे नाब्जेषु नो चन्दने नैवाहद्वचनास्यशीर्षसरसश्वासेषु यादृग्गुरुः। आमोदः प्रभवेदितीव हृदि किं निश्चित्य तं सेवितुं प्रीत्याऽगान्मधुपावलीफणमणीश्रेणीघृणीच्छद्मना ॥६॥ श्रीवामेयविभो ! त्वमेव मलिनत्वं सर्वतापान प्रभु_ हेतु च क्षणभङ्गुरत्वमभितः स्वस्येव भव्यात्मनाम् । तन्मे तद्विपरीततां तनु तथा वन्द्यात्मतां चिन्वगा देवं किं शपनार्थमभ्रपट ली नेतुः स्फटालीच्छलात् ॥ ७ ॥ किञ्चित्कामितदा वयं न तु समाभीष्टार्थसिद्धिप्रदा स्तन्नोऽनन्तसुखप्रदानविभुतां त्वद्वत्प्रदेहि प्रभो!। विज्ञप्ति किमिवेति कर्तुमुचितां सम्भूय नीलं वनं कल्पानां सकलं फटोपधिधरं खं स्वामिन सेवते ॥ ८॥ स्वामिंस्त्वद्वचनामृतानुभविनां भव्यात्मनां दुर्दशां मा कुर्वन्तु कदाप्यदृष्टविकटाटोपाः परीपाकिनः। इत्युद्भाव्य तदेतदाह विधये सप्तार्चिरेव स्वयं सौवार्चिनिचयं ज्वलन्तमतनोत्कूटात् स्फटानामिव ॥९॥ लब्धालब्धिसुदर्शनकचरणज्ञानाद्यसत्सम्पदो धर्मध्यानतपःक्रियादिभिरिह स्वामिस्त्वयैकान्ततः । रक्तासक्ततया मिथः पृथुमुदा मैव्यङ्गुलीधोरणी वक्राश्चकुरिव स्वयं समरसास्वादाः फणालीमिषात् ॥१०॥ For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपार्श्वदेवशिरःस्थफणावलिवर्णनस्तोत्रम् किं विश्वासुमतां महार्तिशमनौषध्यः प्रतिष्ठाप्रथाः किं कारुण्यकलालयाः किमु सितध्यानाडुरश्रेणयः । किं किं ब्रह्ममहालयोन्नतदृढस्तम्भा भवाम्भोनिधौ __ द्वीपाः किं भविकात्मनां सुमनसां किं मूर्तिमसिद्धयः ॥११॥ किं लावण्यविशालकेलिकलनाः किं विश्वशर्माश्रमाः सर्वानन्दरसाकराः किमु किमु ज्योतिर्जटामण्डपाः । किं शोभानिधयः सुधोज्वलकलाः किं शानशालाः किमि त्युत्प्रेक्षेक्षणधीधनाः सहृदयाःप्रेक्ष्य प्रभोः स्युः फणान् १२ नानाजन्मजरामृतिप्रभृतिका घोरातिघोरापदः । पाथोवीचिचयाश्च तैरतितरां भीमो भवाब्धिर्भवेत् । तस्मिंस्तारणतत्परं प्रभुवपुर्बोहित्थमुजृम्भते नो चेदभ्रिपरम्परा कथमिह प्रेक्ष्या स्फटालीनिभात् ॥१३॥ सेवध्वं भुवि सार्वसत्यवचनं श्रीधर्ममर्माशया भव्याश्चेद्भविकोद्भवाभयसुखे हावोऽथ सेवामहे । किंकर्यः प्रति तान् वयं प्रमुदिता इत्याशयाऽऽवेदनं कुर्वन्त्यःस्फटकैतवादिव मुदा किं कल्पवेल्ल्यःस्थिताः॥१४॥ यन्मूर्ध्नि स्फटकूटतः प्रकटिताटोपाः स्फुटं सम्पदः सप्तद्वीपपथोद्भवा इव समुद्धर्तुं जगहुःखतः। सम्भूय स्थितिमीयुरद्भुतसुखास्वादं च कर्तुं स्वयं तं सेवे सुरपार्श्वसेवितपदं श्रीपार्श्वविश्वेश्वरम् ॥ १५॥ त्वज्ञानालयशालिनां सुविमलैर्भेदप्रभेदैर्वृता ङ्गानां तत्त्वनयात्मनां शुभवतां सप्ताख्यसङ्ख्याजुषाम् । श्रीपार्श्वेश्वरखेलनोज्वलकलालीलाविलासाय किं रेजे दिव्यगवाक्षसङ्गतिरिव स्फारस्फटाकूटतः ॥ १६ ॥ क्षारत्वं क्षणभङ्गुराङ्गलहरीदोलायमानस्थिति तत्तदोषविशेषपोषकलुषां स्वश्यामलत्वप्रथाम् । दोषैर्मुक्तगुणैः सयुक्तसततं नस्त्याजयाशु प्रभु विज्ञप्ति प्रथयन्ति किं स्फटतनूः कृत्वेति सप्ताब्धयः ॥१७॥ For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिन स्तोत्रकोशः सौभाग्यातिशयातिशायि चरितं ज्ञानं महादर्शनं चारित्रं सुपवित्रमद्भुतवचः श्लोकोऽपि रूपं परम् । आचारप्रचरिष्णुतोत्तरतरासप्तेति लोकोत्तरैश्वर्यावेदकृतः किमु स्फटमिषात्सौभाग्यरेखा इव ॥ १८ ॥ रागद्वेषमुखद्विषजय रयः पञ्चाक्षशिक्षाद्भुताSSनन्दब्रह्म सुगुप्तितस्त्रिभुवनोन्मथिस्मरारेहरः । जन्मादृष्टचतुर्गतिस्थितिसृतिकाथः पृथुश्चेति किं सप्तोरुस्फटकैतवेन सुयशः स्तम्भा इवेहोदिताः ॥ १९ ॥ सप्तानां नरकाख्यदुर्गतिमहा तिर्यग्गतीनां दृढद्वाद्वाट नियन्त्रणाय जिन ते वाक्यार्थसत्यार्थिनाम् । श्रेयः श्रीनिधिसंनिधिस्थितिगतीनां सन्मतीनामियं मन्ये किं हयमेयदुर्गपरिघश्रेणी फणालीनिभात् ॥ २० ॥ किं श्रेयः ः स रसालयः कलिमलप्रक्षाललीलासरः किं संसारजतापशापशमने पीयूषकुण्डोद्भवः । किं मूर्त्तः शमसद्रसः किमु कलाकेलीगृहं किं स्फटा,टोपं प्रेक्ष्य विभोर्मतिर्मतिमतामेवं स्फुरच्श्चेतसि ॥ २१ ॥ इत्थं श्रीगुरुराजहर्ष विनयश्रीसूरिपूज्योदयं www भक्तिव्यक्ति सुयुक्तियुक्तकरण ! श्रीपार्श्व ! विश्वेश्वर ! | स्तुत्वा त्वां स्वयमर्थये सुखनिधिं श्रीबोधिचिन्तामणि श्रेयः श्रीमय धर्महंस सुमहः सन्दोहशोभापदम् ॥ २२ ॥ ॥ इति श्रीपार्श्वदेव शिरः स्थफणावलिवर्णनस्तोत्रम् ॥ ४६ ॥ अथ श्री आदिदेवस्तवनम् ॥ ४७ ॥ सर्वैश्वर्यमयार्यवर्यमहिमं(?) यत्प्रातिहार्याष्टकं, दिष्ट्या दृष्टिपथेन दृष्टमतनोत्केषां न बोधिश्रियम् । श्रेयोऽनन्तसुखोदयं च तमहं सार्व युगादिं स्तुवे, मानुष्यैकभवावतार सफलीकारप्रकाराप्तये ॥ १ ॥ For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५ श्रीमादिदेवस्तवनम् स्वामिस्त्वं घनघातिकर्मकदनैर्जातोऽस्यशोको हि तत्, स्थाने शोकतरुर्बभूव यदिहाशोकः स्वयं किं त्वयम् । जज्ञे केवलसेवयेव जिन! ते नम्राङ्गिनां स्यद्धया, चैत्यद्रुः किमिवैष शोकहरणे बद्धप्रतिशोऽभवत् ॥२॥ जिग्ये येन हृषीकसेनमखिलं पञ्चप्रपञ्चं प्रभो ! मिथ्यात्वोदयमव्रतं च भवता दधे व्रताचारशम् । तेनानन्दविनोदमेदुरहृदस्ते देशनोामिवाs, स्वप्नाः किं किल पञ्चवर्णकुसुमश्रेणी ववर्षुर्विभो ! ॥३॥ स्वामिन्नस्मयविस्मयोदयिमुदासारप्रसारस्तव, व्याख्यानावनिवेददिक्षु दिशतो धर्म चतुर्धा ध्वनिः। दिव्यः श्रव्यरसश्चतुर्मुखजुषः संविस्तृतः सर्वतः, किं जेतुं चतुरः कषायविषयानिःशेषदोषप्रभून् ॥४॥ तत्त्वातत्त्वविवेकिवाक्यविभव ! त्वय्येव विश्रामिणी, सम्यग्ज्ञानचरित्रदर्शनमयी रत्नत्रयी त्रोकते । त्रैलोक्योन्नतिपारिणी शिवपदानन्दोदयिन्यद्भुता, नान्यत्रेव ततः किमस्ति शिरसि छत्रत्रयं ते विभो! ॥५॥ रागद्वेषमहाद्विषो विधिनिधिध्यानद्वयाद्वैततः, सर्वाजय्यमहौजसावपि सुखेनेश! त्वया निर्जितौ । येनानन्तभवावतारनिरतौ तेनेव किं तजयो भृते ते यशसी सुचामरमिषात्पार्श्वद्वये संस्थिते ॥६॥ कष्टारिष्टनिकृष्टपुष्टनिकटादृष्टादिदोषद्विपो न्मादोद्भेदभिदा त्वमेव पुरुषेष्वेकोऽसि सिंहः स्वयम् । त्रैलोक्ये भविनां शिवाध्वसुपथां येनेव तेनोन्नतं, दिव्यं किं शुशुभे शुभोदयमयं सिंहासनं सार्व! ते ॥७॥ त्वय्येवोदितमक्षयोदयजयं ज्ञानादिकं क्षायिकं, सर्वास्वप्रकृतिस्थितं भवभयच्छेदप्रदं बोधिदम् । तेन त्वं त्वरितं तदर्पणविधेर्भव्यात्मनस्तारये,ऽतीवाशप्तिपदं तनोति सुगिरा किं दुन्दुभिस्ते पुरः॥ ८॥ For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६ श्रीजिनस्तोत्रकोशः सार्वे सर्वतमोपहत्वपदवीसिद्ध्यै स्वयं सेवते, किं बिम्बं सवितुर्महोदयमयं तेजोऽत्र किं वाऽद्भुतम् । अष्टादृष्टमहेन्धनातिदहने वह्निः स्वशक्ति प्रभु, किं वा प्रार्थयते तवेति विवुधो वक्तीश ! भामण्डलम् ॥ ९॥ दिव्याशोकतरुं सुरैः प्रकटितं सूतप्रकाशं ध्वनि, नव्यश्रव्यपदार्थसार्थसुपथं सिंहासनं चामरम् । छत्रैकत्रितयं मनोहररवं सदुन्दुभिर्भासुर, ज्योतिर्मण्डलमित्यवेक्ष्य न मुदस्ते कस्य तेनुः प्रभो!॥१०॥ इत्थं स्तौति मुदा (?) मुदाररसभृद्यः सार्च ! सर्वोत्तरा मेयैश्वर्यमहार्यमार्यसुखदासंख्यश्रियामाश्रयम् । निष्णातः सविवेकहर्षविनयश्रीसूरिहस्वेहित, श्रेणी संश्रयते सुबोधिविधिना श्रीधर्महंसोदयात् ॥ ११ ॥ इति श्रीआदिदेवस्तवनं प्रातिहार्याष्टकस्तुतिरूपं समाप्तम् ॥ ४७ ॥ अथ श्रीयुगादिदेवस्तुतिः ॥ ४८॥ श्रीसूरिहर्षविनयप्रभुताप्रतिष्ठाश्रीसूरिहर्षविनयस्मयरीणरूपः । श्रीसूरिहर्षविनयध्वनिरत्नराशौ श्रीसूरिहर्षविनयः प्रथमः श्रियेऽर्हन् १ पूज्याः सहर्षविनयस्तुतपादपद्मास्तीर्थस्थहर्षविनयश्रियमाद्धानाः। सर्वत्र हर्षविनयस्वनसन्निधाना यच्छन्तु हर्षविनयप्रसृतं जिनास्ते॥२॥ सूरीशहर्षविनयद्विपदर्पपायी सूरीशहर्षविनयस्थितिकेसरश्रीः । सूरीशहर्षविनयप्रियकक्षशाली श्रीरागमो हरिरिवोत्तमधर्महंसः॥३॥ श्रीधर्महंसललने नलिनीसधर्मश्रीधर्महंसनमनाः कमला श्रुतेशा । पद्मा श्रियेऽस्तु भविनांगुरुधर्महंसश्रीधर्महंससुमहाविजयाजयाम्बा॥ ___ इति श्रीयुगादिदेवस्तुतिः ॥ ४८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्दशस्वमस्तुतिगर्भितयुगादिदेवस्तुतिः ६७ अथ चतुर्दशस्वमस्तुतिगर्भितयुगादिदेवस्तुतिः ॥ ४९ ॥ यदङ्गजोऽयं क्रमतश्चतुर्दशो,लसगुणस्थानरसोपभोगभाक् । प्राप्स्यत्यनन्तोदय ! शंपदं सतां दत्त्वा परेषाममृतं स्वयं ततः ॥ १ ॥ यस्यावतारे जननी जहर्ष किं चतुर्दशस्वनगुणेक्षणादिति । परोपकारप्रकृति तमादिमं सार्व सदानन्दपदाय संस्तुवे ॥ २ ॥ क्षमाक्षमात्मा शिवदर्शनास्पदं सर्वेसहः शस्यरमाकरोदयः । सुस्कन्धतोपार्जित सौख्यविस्तृतिः स्निग्धच्छविश्वारुपदप्रयोगगः ॥ ३ ॥ स्वमागतो गौरिव भाव्यही गुणैः सुतोऽस्मदीयोऽयमितीव सञ्ज्ञया । पित्रादिभिर्यो वृषभः प्रतिष्ठितः प्रष्ठः प्रभुः सोऽस्तु विभूतये भुवि ॥ ४ ॥ वृषभः ॥ सदुच्चतोच्चः सुकरस्थ विस्तरः स्फुरद्गतिर्दुर्द्धरवैरिवारकः । मुक्ताकर श्री स्थितिगः सदा जयी भावी गुणैः स्वैः प्रमदी करीव यः ॥ ५ ॥ इतीव यद्गर्भभवे सितं द्विपं स्वप्ने विशन्तं मुदिता ददर्श किम् । स्वास्ये प्रसूर्विष्टपपावनाय स श्रीआदिदेवः शिवसम्पदेऽस्तु वः ॥ ६ ॥ गजः ॥ महौजसाऽनेकपराजि दुर्मदं भिन्दन्नमन्दां नखविक्रियां दधत् । सदाऽवनीशः शिवदर्शनः स्फुरजयी सुतस्यानुकृर्ति कियगुणैः ॥ ७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८ श्रीजिनस्तोत्रकोशः कर्ताऽस्म्यहं तेऽम्ब ! गुणार्णवस्य त संसूचनायेव किमागतो हरिः। यस्यावतारे जननी सुसंलये स्वप्नस्थितौ तं सततं स्तुवे जिनम् ॥ ८ ॥ सिंहः ॥ अप्रत्नरत्नत्रितयेन्दिरादरी सत्प्रातिहार्यातिशयातिशायि सः। चतुस्ततानन्तरमारतीरतः । श्रेयः श्रियां यो भविताङ्गि शम्पदम् ॥९॥ लक्ष्मेत्यदादीवमुखाजवेशन व्याजाजनन्याः सुतभाविभाविना । स्वप्नस्थितौ सुस्थितिभावसम्भवा वनी स वोऽव्यात् परमेष्ठिपुङ्गवः ॥ १० ॥ लक्ष्मीः ॥ विश्वं स्वसौरभ्यभरेण भावय ननिन्द्यतानासुमनोमनोहरः। वदन्महानन्दपदं सदोदितः स्त्रजेव भावी शिवदो यदङ्गजः ॥ ११॥ इतीव सद्वाच्यविवेचनाय यद् गर्भावतारेऽवततार किं स्वयम् । स्वप्ने सवित्र्या स्त्रगियं श्रिता गुणैः सार्वः सवः सर्वविभूतिभूतये ॥ १२ ॥ दाम ॥ जगत स्वगोभिर्गुरुतां नयनयं कलालयस्तापतमःस्मयक्षयः। सुदक्षजातिप्रियतामृतप्रसू मत्तोऽप्यनन्तैर्भविताऽधिको गुणैः ॥ १३ ॥ तवाङ्गजोऽम्बेति शशंस शीतगु तुर्यदुत्पत्तिमहे महायतिम् । स्वप्ने किमास्योदयकैतवादिवा ऽवताद्भवाद्वः स जिनो भवातिगः ॥ १४ ॥ शशी ॥ भास्वत्स्वरूपप्रकृतिस्तमोहताहतं शुचित्वं कमलोदयं तथा । For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्दशस्वमस्तुतिगर्भितयुगादिदेवस्तुतिः चिन्वन्नृणां गोरचनाञ्चितो गुणै, रीषत्तुलां येन सहाहमादधौ ॥ १५ ॥ सर्वात्मनाऽनन्तगुणेन नेति किं व्यजिज्ञपत् स्वप्नदशास्वहपतिः। मातुः स्वरूपस्य निदर्शनोपधे, रपाधिराधि द्यतु वः स सार्वराट् ॥ १६॥ दिनकरः॥ सम्पत्पदं दिव्यमहं यथा तथा सुधमहर्म्यस्थपथप्रपञ्चनैः। उच्चाश्रयस्थायितयोत्तमात्मनां तवाम्ब ! सूनुर्भवितेत्ययं ध्वजः ॥ १७ ॥ स्वप्रप्रकाशे निजरूपभावन, व्याजादिवाऽसूचयदद्भुतोदयम् । यस्यावतारे भुवनोपकारकम् सुकारकः सोऽस्तु जिनः क्रियोदये ॥ १८ ॥ ध्वजः॥ सुवर्णवर्ण्यः कमलामलालयः पूर्णामृतात्मा सुमनोमनोहरः। दृष्टोऽपि शिष्टोदयतामितोऽम्ब ! ते सुतोऽधिकोऽनन्तगुणैर्मदात्मतः ॥१९॥ भावीत्यहो पूर्णनिपोऽवदद्यदै, श्वर्य प्रसूस्वप्नदशास्वयं स्वयम् । तत्साम्प्रतं यहुरुताऽखिलोच्चसत्, पदप्रदा सोऽभयदः श्रियेऽस्तु वः॥२०॥ पूर्णकुम्भः॥ सारस्यशस्यं कमलामलालयं मरीचिरुच्यालिकताकलोज्वलम् । तापापहं पुण्यपदं जडात्मकं यथा भवेयं न भवत्समं मनाक् ॥२१॥ तथा विधेहीश ! ममेति गर्भगं यं विश्वपं पद्मसरः किमु स्वयम् । स्वप्नोपधेर्विज्ञपयत्ययं चिदामन्दप्रतिष्ठास्थितिदोऽस्तु सर्ववित् ॥ २२ ॥ पद्मसरः॥ For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः पृथुप्रथाथैः प्रथितस्तु संवरां लावण्यलीलां सकलक्षमावधिम् । सन्तः कुतस्त्वामिति मत्समं वद त्यनन्तमाधुर्यरसोज्वलोऽसि यत् ॥ २३ ॥ अहं तु नास्मीश! तथेति यं विभुं। वक्तुं मुदाधिः किमियाय सन्निधौ । प्रसूद्भवत्स्वप्नमिषादिवास्तु सः सार्वः शिवास्वादपदोदयप्रदः ॥ २४ ॥ सागरः॥ स्वाम्येष सेवास्पदमात्मनां सता, मेतद्भवे भाव्यमृते पदेऽनुगः। तत्राथ यामीनमिमं श्रये पुन, भवं पुनर्दक्पथदुर्लभम्भुवि ॥२५॥ चित्ते विचिन्त्येत्युचितं दिवीव किं ततोऽत्र सेवाविधये समागमत् । दम्भाद्विभोः स्वप्नमयान्मरुद्गृहं भूयादसौ वोऽभयदो विभूतये ॥ २६ ॥ विमानम् ॥ रङ्गहुणग्रामगुरुर्जगजना नन्दप्रदः पादपदं सदोदितः। मुखं सुखानां त्वमितोदयैः समान् , मनागिहाऽनन्तगुणाधिकोऽसि मत् ॥ २७ ॥ ममापि तत्तादृशवैभवं विभो ! देहीति यं स्वप्नदशासु याचितुम् । रत्नोत्करो मातृसुखेऽविशन्नु किं स बोधिदः स्तात्सुधियां सुबोधये ॥ २८ ॥ रत्नाकरः । यन्मां बृहद्भानुमहारवं वदा वदन्ति तत्त्वं परमार्थतादृशः। विधेहि मे तत्त्वभवावतारतः पुण्यं पदं भानुरिहासि यद्धृहत् ॥ २९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१ श्रीस्तम्भनपार्श्वदेवस्तोत्रम् इतीव विज्ञप्तिपरः पुरः स्फुरन् यस्य प्रसूवक्त्रवरेऽगमच्छिखी। विधाय किं स्वप्नमिषं सुखाय स । प्रणेमुषां श्रीवृषभप्रभुर्भुवि ॥ ३०॥ शिखी ॥ चतुर्दशस्वप्नमवेक्ष्यमेति तद्, गुणोचितं तं नु जनन्यजीजनत् । सुतं गुणानन्त्यपदं तु साम्प्रतं तयेन लोकोत्तररूपभृद्विभुः॥ ३१ ॥ एवं श्रीगुरुराजहर्षविनयश्रीसूरितस्त्वं स्तुति स्वामिन् ! मन्त्रपवित्रगोत्रमहिमाम्नातप्रमेयप्रमः। सारोदारनिजक्रमालसरसोपास्ति प्रदेहीश ! मे पूज्यश्रीगुरुधर्महंसललनस्फारस्फुरन्मानसम् ॥ ३२ ॥ इति चतुर्दशस्वमस्तुतिगर्भितश्रीयुगादिदेववर्णनस्तोत्रम् ॥ ४९ ॥ अथ श्रीस्तम्भनपार्श्वदेवस्तोत्रम् ॥ ५० ॥ श्रेयः श्रीपदसम्पदोज्वलकलालीलाविलासालय,__ श्लोकानेकसुखैकपोषचपलीभावं च कर्मोन्नतिम् । योऽस्तम्भद्भविनां द्विधैव परितस्तेनेव किं स्तम्भन,ख्याति प्रापस पार्श्व इष्टफलदःश्रीस्तम्भनःस्तात् सताम् ॥१॥ यः स्याद्वादमसाधयत् स्वमहिमाऽसाधर्म्यदृष्टान्ततो, ऽनन्तार्थेष्वपि नैकधर्मविधिनाऽऽज्ञाराधकान्याङ्गिनाम् । श्रेयः श्रीसुखितेतराद्यमिततत्पर्यायतः सन्नयै, रादेशोन्नयनैर्जिनः स वृजिनं श्रीस्तम्भनोऽपास्यताम् ॥२॥ सप्तद्वीपजयश्रियः किमुदिताः सप्तव्रती किं हया, तङ्कत्यक्तसुखाकराः किमु शमावासैषणाः सप्त किम् । ध्यादेशस्थितसप्तभङ्गसुभगाः सप्ताप्यमी किं नया दक्षाः प्रेक्ष्य फणावलीमितिमतिं तन्वन्ति तेऽहनिजाम् ॥३॥ For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः नित्योहयोतवती महामणिसुवर्णालङ्कतिज्योतिषा वर्यैश्वर्यमयप्रभुत्वपदवीसम्पादचिन्तामणिः। सर्वांहःशमिनी गुणोद्यदवनी नेत्रामृतस्यन्दिनी मूर्तिः स्तम्भनपार्श्व ! ते न तनुते किं किं सतां शं श्रिता ॥४॥ यस्याम्बा शयनीयपार्श्वसदहिं ध्वान्तेऽप्यपश्यञ्च यः पार्वार्द्धज्वलदग्निदग्धफणिनोऽदादैन्द्रराज्ये तु यः। पाोपासितपार्श्वभाग भविकदः पार्था च यस्येष्टदं सान्वर्थाभिधयाऽन्वितः श्रितहितश्रीदः स पार्श्वप्रभुः॥५॥ यस्यांही हयभीभिदौ सिमरमावासौ शयौ हृच्छमा मेयौ निवृतिनेयरूपसुभुजावास्यं प्रसन्नोजवलम् । नेत्रं विश्वकृपाकरश्च करणं सारोपकारोत्करं स्तम्भंस्तम्भनपार्श्व! पार्श्वमहित! त्वं मेऽस्य शस्यश्रुतैः॥६॥ तत्तजातिभवावतारविसरक्लेशैरनन्ताणुका वृत्त्या पूरणतोऽथ नाथ! सुपथं प्राप्तं भवच्छासनम् । तन्निर्मापय मे तथोत्तममतिं भव्यो भवेयं यथा याथातथ्यपथस्थबोधिसुयशाः श्रीस्तम्भनाईनहम् ॥ ७ ॥ चित्स्वार्थव्यवसायिनी प्रमितिगा नान्येति किं ज्ञापयत् षट्तर्केष्विव यस्य जानदुभयानन्तात्मकत्वं स्वयम् । स्वाधारं च परान्निजनकलया ज्ञानं तथाऽतीतरत् तत्रानन्तसुखोदयोऽजनि यथा स स्तम्भनेशः श्रिये ॥ ८॥ यस्य ध्यानमिदं महोरग १ मृगेन्द्रा२न्या ३ म४ सङ्ग्राम ५वाद दस्यु ७स्त्येन ८ भयं भिनत्यहिभयं चाजन्यजन्मान्वयम्। भोगाभोगसुयोगरङ्गगरिमागारर्द्धिवृद्धिप्रथां दत्ते मेदुरतोदितां च स मुदं दद्याजिनः स्तम्भनः ॥ ९॥ प्रत्यक्षं १ च परोक्ष २ मित्युचिततां मानद्वयस्येव किं तन्वन्नैकनताङ्गिनामजनि यत्स्पष्टेतराभीष्टदः। यन्माहात्म्यगुणस्तदेतदुचितं शक्त्येह सोऽयं यतो,ऽनन्तेष्टानि तनोति सन्ततमयं जीयात्प्रभुः स्तम्भनः॥१०॥ For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीस्तम्भनपार्श्वदेवस्तोत्रम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देव ! त्वं श्रितवत्सलः कलिमलप्रक्षालनप्रत्यलः सर्वापत्पददुर्यशः परभवाऽऽध्यति प्रभेदी यतः । तेनार्याः प्रणतास्त्वदेकशरणाः स्वामीशमात्मेशताम् तन्वन्तं श्रयिणामनन्त सुखदां पार्श्वप्रभो ! स्तम्भन ! ॥ ११ ॥ बुद्धस्त्वं स्वयमेव शङ्करमयो जिष्णुश्च सर्वात्मना ७३ लक्ष्यस्त्वं परमेष्ठ्यपीष्टपरमैश्वर्यात्मकस्त्वं यतः । तेनार्थित्वमितोऽर्थयेऽर्थद ! भवन्तं यन्मयि प्रापया, ऽनन्तानन्दपदं यशोमयमिह श्रीस्तम्भन ! त्वं विभो ! ॥१२॥ किं लावण्यविशालकेलिलहरी किं ज्ञानशालास्थितिः किं कारुण्यनिधिः सुधोज्ज्वलकलामालाकृतिः किं किल । सम्यग् ब्रह्मरसः किमुत्तममुदा साराकरः किं स्फुरन् मूर्त्तिक्पथमागतेष्टफलदा क्व क्व प्रभो ! स्यान्न ते ॥ १३ ॥ एवं सद्यजयश्रिहर्षविनयश्रीसूरिपूज्योन्नता, नन्तज्ञान सुदर्शनः स्तुतिपथं नीतः स नः स्तम्भनः । श्रीपार्श्वः स्वपदाब्जसेवन रसास्वादप्रदः स्ताद्यतः सिद्धिश्रीपदधर्महंसलसनं स्याच्चेत सीष्टोदयम् ॥ १४ ॥ इति श्रीस्तम्भनपार्श्वदेवस्तोत्रम् ॥ ५० ॥ श्रीस्तम्भनपार्श्वदेवस्तोत्रम् ॥ ५१ ॥ यः सार्वज्ञमतव्रतैकमनसां देहेषु गेहेषु वा श्रीही धीधृतिकीर्त्तिकान्तिसततस्थित्यन्तता स्तम्भनैः । सान्वर्थे प्रथयन् स्वनाम भविनां हृद्वेश्मवासं व्यधानित्यानन्दपदोदयाय सुखदः स स्तम्भनः स्ताजिनः ॥१ ॥ कस्तूरी तिलकं त्रिलोकविजयश्रीसम्पदः स्वस्तरु श्विन्तातीत सुखाकरस्य महिमाम्नायस्य दिव्यश्रुतम् । विश्वोदयोतमहामहो हि विविधाऽऽधिव्याधिधन्वन्तरिः सोsस्तु स्वस्तिपदं समस्तजगतां पार्श्वप्रभुः स्तम्भनः ॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः देवाभासतया परे हरिहराद्या दोषपोषाकर, स्त्रीशस्त्रादिकुदेवलक्षणजुषो दारिद्रयमुद्रोदिताः। ते नष्टाः स्वयमन्यनाशनपरास्तीर्णाः स्वयं तारका, स्त्वं देवत्वगुणार्णवस्तु शिवदः सेव्यःसतां सार्व! सः॥३॥ दृष्ट्वाऽनन्तगुणात्मकं निजमिनं यं स्पर्द्धयेवाजनि ज्ञानं दर्शनवीर्यसौख्यमुदितानन्त्यं प्रति स्वक्रियम् । यन्माहात्म्यमथो तथैव भविनामद्यापि तेनेव किं दत्तेऽनन्तचतुष्टयं श्रितवतां सोऽहन्मुदे स्तम्भनः ॥४॥ स्वामिंस्त्वं श्रितसर्वदोऽस्म्यहमिति त्वत्ख्यातिमाधाय यत् त्वां सन्नाथमशिश्रियं कुरु तथा सत्यप्रतिज्ञस्ततः । नित्यानन्दपदोदयास्तव पदद्वन्द्वप्रभावैर्यथा । मय्याशु स्युरनन्तसौख्यविषयाः प्रष्ठप्रतिष्ठाद्भुताः ॥५॥ मूर्तिस्तम्भनपार्श्व ! पार्श्वमहितालङ्कारसारार्हणा ऽरीणां तेऽतिशयातिशायिमहिमा (?) जाग्रहणग्रामणीम् । दृष्ट्वाऽदृष्टजदुष्टकष्टकटुकानिष्टप्रपञ्चासुखं पेषम्पेषमशेषसौख्यपदवीं के नाश्रयंते श्रिताः ॥ ६॥ यन्माहात्म्यवशेन नृत्यति सपाद पङ्गुर्वदेवादिव न्मूकोऽप्युन्नतिमानिवोदितसदानन्दः पठन् कीकटः। आम्यारोग्यपदं यशस्यपि यशःशून्यः किमत्राद्भुतं स त्वं स्तम्भनपार्थ ! कामितकरोऽनन्तार्थचिन्तामणिः॥७॥ .. यः पादौ घुमणीगुणाणुरचनो धत्ते सपुण्योदयैः शश्वत्स्वस्तरुवारसारदलजी पाणी गिरं स्वर्गवीं। तत्तत्कामिततीर्थपुद्गलभवं सर्वाङ्गमत्यद्भुतं स त्वं स्तम्भनपार्श्व! विश्वसुखभूर्यत्तत्र किं कौतुकम् ॥८॥ त्वद्ध्यानस्थहृदामुदारसरसश्रीसम्पदः स्युः सदा, हादाली तु पदे पदेऽधिपतिता सौभाग्यभाग्यप्रभाः। आरोग्याभ्युदयोऽत्र यत्तदुचितं विश्वेऽपि येन स्वयम् सर्वैश्वर्यविधानशक्तिविभुताभोक्ता त्वमेव प्रभो ! ॥ ९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीस्तम्भनपार्श्वदेवस्तोत्रम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५ स्वामिंस्त्वद्वचनामृतानुभविनां भव्यात्मनां दुर्दशाम् मा कुर्वन्तु कदाप्यदृष्टविकटाटोपाः परपाकिनः । क्रोधाध्माततयेत्युदीर्य हृदि तन्मूलेऽद्य दग्धौ निजम् सप्तार्चिर्ज्वलदर्चिरालिमिव किं तेने स्फटोपाधिना ॥ १० ॥ तत्तजातिजरामृतिप्रभृतिका दुःखप्रकर्षाः पय चञ्चद्वीचिचयाश्च तैरतितरां भीमो भवाब्धिर्भवेत् । तत्र स्तम्भन पार्श्वविश्वपवपुर्बोहित्थमुत्तारकम् नो चेदपिरम्पराऽस्त्यथ कथं लक्ष्या स्फटच्छद्मना ॥११॥ शश्वत्स्तम्भन पार्श्व विश्वपपुरे वासं व्यधुः सद्विधिम् न्यक्षक्षायिकदर्शनैकचरणज्ञानादिकोच्चश्रियः । तास्तास्तत्र ततश्चकास्ति किमिव क्रीडारस प्राप्तये सौभाग्योन्नतमण्डपः प्रकटितस्तासां स्फटव्याजतः ॥ १२ ॥ सप्तद्वीपभुवां द्विधापि विपुला लक्ष्म्यः प्रभुस्तम्भनम् सम्भूयोचितसौववास सुपदं मत्वेव किं शिश्रियः । नो चेदत्र कथं मिथः स्वसरसप्रीत्युन्नतिप्राप्तये मैत्र्यङ्गुल्य इमाः स्फुटं स्फटमिषाल्लक्ष्या अमूषां खलु ॥ १३ ॥ क्रीडन्तीव मुखोत्कराः किमु शमास्वादा इव स्युः किमु ज्ञानानन्दपदानि किं प्रसृमरज्योतिर्जटामण्डपाः । किं लावण्य विशालकेलिरिव किं किं विश्वशोभाकरा इत्युत्प्रेक्षकधीधनाः प्रभुफणान्प्रेक्ष्य स्युरुज्जृम्भकाः ॥ १४ ॥ ईशोऽलक्ष्यगुणः शुचिर्गणपतिः स्वामी सदा सद्विधिविश्वे जिष्णुरनेकदैवतमयत्वेनैव वन्द्योऽखिलैः । नाथ ! त्वं प्रणुतोऽपि सद्गुणगणैरिप्रार्थसम्पत्प्रदश्वेत्तत्साम्प्रतमेक एव सुखदस्त्वं देवदेवोऽसि यत् ॥ १५ ॥ जागर्त्ति यदीयदिव्यमहिमा सर्वत्र रोगादिभीनिर्भेदे सुभगत्वभोगविभुता श्रेयो यशःस्पर्शने । स त्वं स्तम्भनपार्श्व ! विश्वप ! तदा सत्यप्रतिज्ञोदितः सर्वेभ्युदयार्पणेष्वसि जगज्जन्तोस्तदत्रोचितम् ॥ १६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः पार्श्व ! त्वं भुवनेषु सर्वद इति ख्याति प्रपन्नोऽसि वा__ऽनन्तैश्वर्यसुसम्पदा पदमसि त्वं शक्त्यनन्तत्वभुक् । यत्तत्प्रीणय सेवकं श्रितमिमं सत्यार्थदानैस्तथा, ऽनन्तश्रीविभवाकरस्त्वमिव सोभक्तो यथा स्यात्प्रभुः॥१७॥ इत्थं श्रीगुरुराजहर्षविनयश्रीसूरिहस्तम्भन ! श्रीपार्श्वेश्वर विश्वहर्षविनयश्रीसूरिपूज्यक्रमः । नीतः स्तोत्रपथं विधेहि विधिना बोधिप्रबोधोदयम् त्रैलोक्योदितधर्महंससरसक्रीडासरः श्रीपदम् ॥ १८ ॥ इति श्रीस्तम्भनश्रीपार्श्वदेवस्तोत्रम् ॥ ५१ ।। अथ श्रीचिन्तामणिपार्श्वदेवाधिदेवस्तोत्रम् ॥५२॥ दानैः पूर्ण इहापरः सुरमणि वास्ति किञ्चिन्मनो___ऽभीष्टप्रापणतो विचिन्त्य किमिवेत्यानन्त्यसहयोचितैः। सौख्यैः पुष्टमनिष्ठमुक्तमखिलं कुर्वन् स्वयं यो जग, चिन्तामण्यभिधां व्यधात्स भविना पार्श्वप्रभुर्भूतये ॥१॥ स्वामिस्तेऽद्भुतमूर्तिरतिशमिनी नेत्रामृतस्यन्दिनी दृष्टानिष्टनिकृष्टकष्टदलिनी शिष्टेष्टशन्मृष्टिकृत्। स्याञ्चेच्चित्रमिदं किमत्र यदियं सत्यामृताणूदिता नन्तानन्तपदप्रदैः सुखदलैः सृष्टैकतीर्थप्रथा ॥२॥ अस्मत्स्वाम्ययमर्थसार्थमखिलं सर्वात्मनोहयोतयं, त्रैलोक्यस्थतमोपहत्वकलया नैते तथा किं मुधा। विश्वोहयोतमदा इमे तदिति किं क्रोधादिवोर्ल्डङ्गता __ जेतुं पूषकरान् यदह्रिनखभा पार्श्वः स दद्यान्मुदम् ॥ ३ ॥ श्रेयः श्रीसरसद्रवेशसमये किं तोरणालीवर स्रक्श्रेणी किमु सम्पदां किमु भवाब्धौ सेतुबन्धोद्भवः। आपत्कूपपतजनोद्धृतिवटीपतिः किमेवं लसेत् यत्पादाब्जनखप्रभासु सुधियां बुद्धिः स पार्श्वः श्रिये ॥४॥ For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री चिन्तामणिपार्श्वदेवाधिदेवस्तोत्रम् राजाऽमात्यमुखाऽप्यशेषजनता मित्रत्यवश्यं श्रियः संक्रीडन्ति पदे पदे सरसता सर्वत्र सम्पन्निधिः । यद्येवं कलिरप्यहो कृतयुगत्याज्ञाजुषां ते तदा किं चित्रं समयत्रयेऽपि जिन ! यच्चिन्तामणिस्त्वं प्रभुः ॥५॥ यत्प्राणिप्रभवप्रभावविभवैर्दानं व्रतादानिता पूर्व सम्प्रति यस्य पूजनमनोध्यानादि चेद्भाविनाम् । सत्यानन्दपदप्रदश्रियमदाद्दत्ते च तत्साम्प्रतम् यच्चिन्तामणिपार्श्वविश्वप इहास्ते सर्वदः स्वस्तरुः ॥ ६ ॥ पार्श्वज्ञानमनन्तपर्ययमयं स्वार्थावबोधक्षमम् प्रत्यक्षं सदहो परोक्षगमतामादाय भव्यात्मनाम् । भावोदयोतकृतेः परोपकृतिकृत्सौख्याय यज्जातवत् तत्स्थाने महतां विभूतिरखिलाऽप्यन्योपकाराय यत् ॥ ७ ॥ श्री चिन्तामणिपार्श्व विश्वप ! तवात्मारामिता दानिता सम्यक्त्वं चरणव्रतस्थितिगतिव्याख्याद्यभूत्सम्पदे । पूर्व स्वस्य परस्य सम्प्रति भवन्मूर्त्तिर्भवेद्भूतये युक्तियुतं यदत्र विधिना पूर्णाः क्रियाः सिद्धिदाः ॥ ८ ॥ भव्यात्मोरसि जाग्रति त्वयि सति त्रस्ता इव स्युः कथम् त्राता रोगवियोगभङ्गभयदुः श्लोकोपसर्गेतयः । सम्पत्तिस्तु पदे पदे भुवि सदानन्दोदिता चेत्तदा किं यत्कि न भवेत्तमोभरहरोद्द्योतः सतीनोदये ॥ ९ ॥ स्वामिस्ते भवभीभिदौ भुवि सदानन्दौ पदौ सत्करौ सारोदारपरोपकार सुकरौ कारुण्य पुण्यं सुहृत् । नेत्रं शान्तरसार्णवः सुवदनं नित्यं प्रसन्नोज्वलम् यत्तद्युक्तमिहोदितं त्वयि विभो ! पुण्यप्रकृत्यैव यत् ॥ १० ॥ जातिव्यक्तिमयं 'जगद् यदि तदा नेतः स्तुतिस्ते तथा किं न स्यादुचितेव जातिभिदि तत्सार्वादृशां मादृशाम् । नो चेत्स्युर्भगवंस्त्वदीयसुगुणग्रामानुवादं विना केनोपायवशेन सौववचसां साफल्यभाजो जनाः ॥ ११ ॥ For Private and Personal Use Only ७७ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः श्रीचिन्तामणिपार्श्व विश्वजयद ! त्वन्नाममन्त्रेण चेत् सर्वाः कामितसिद्धयस्तव नुतेः किं तर्हि सार्वोच्यते । किं त्वेषा भवदीयभक्तिवशतः स्यादाप्तभक्तीरितो यत्त्वां स्तौमि जडोऽप्यहं तदुचितं यद्वाक्फलं सन्नुतेः ॥१२॥ सर्वेषामपि सर्वदोऽस्ययमिति प्रष्ठप्रतिज्ञा प्रभो ! शश्वत्पारयसि प्रभुत्वपदवीशिक्षापरीक्षाक्षमः। सर्वाभीष्टपदानि सम्प्रति तथा शिष्टेषु यत्पूरय, स्येतत्तूचितमत्र पार्श्व ! यदहो त्वं विश्वचिन्तामणिः ॥१३॥ श्रीपार्श्वप्रभुमश्वसेननृपसद्वंशेष्टचिन्तामार्ण तत्त्वातत्त्वसतत्त्वसुस्थितवृषानायस्थितियोमणिम् । सेवे भक्तिसुयुक्तितोऽखिलकलोल्लासत्रियामामणिं वामाकुक्षिमाण तमोगृहमणि नाम्नैकचिन्तामणिम् ॥ १४ ॥ इत्थङ्कारमुदारसारसरसात्मारामभक्त्या स्तुत, स्त्वं चिन्तामणिपार्श्व ! हर्षविनयश्रीसूरितानन्दया त्रैलोक्योदितधर्महंसपदवीमान्यं तथा देहि मे बोधि बुद्धिनिधिं यथातथपथश्रीणां प्रतिष्ठा यथा ॥ १५ ॥ इति श्रीचिन्तामणिपार्श्वदेवाधिदेवस्तोत्रम् ॥ ५२ ॥ अथ श्रीनारङ्गश्रीपार्श्वदेवाधिदेवस्तोत्रम् ॥ ५३॥ यः स्वामित्वपदोचितस्त्रिभुवने सर्वात्मनाऽऽर्यात्मनाम् नित्यानन्ददभोगराविधिना हत्वा कुरङ्गस्थितिम् । कुर्वन् सान्वयसौवनामसुसुखाकर्षीव किं स्वं वपु, र्धत्ते धाविसुधामभिः स तनुतां नारङ्गपार्श्वेश्वरः ॥१॥ स्वामिस्ते सरसामियति जगतां नारङ्गपार्श्व ! प्रभो ! दृष्टाभीष्टविशिष्टशिष्टपदवीदानैः सदादेयताम् । नाश्चर्य तदिदं विनिर्मितवती सा पूर्वचिन्तामणे,श्चिन्तातीतफलप्रदानणुगुणैः सत्पुद्गलैरस्ति यत् ॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७ श्रीनारङ्गपार्श्वदेवाधिदेवस्तोत्रम् जीरापल्यभिधाभिधेयमहिमाऽऽमान्यः स पार्यक्रमः पार्श्वः पार्श्वगसम्पदः समसुखं दत्ते यथा सर्वतः । श्रीपञ्चासरसञ्ज्ञकः कलियुगे पायो यथा सिद्धिदः सौभाग्याभ्युदयप्रदोऽपि च यथा पार्हो भटेवाभिधः॥३॥ भाभाको नवपल्लवश्च गउडी भर्त्तान्तरीकाधिपः। श्रीसंखीसर इत्यनेककलनोल्लासीह पार्थो यथा। सर्वाशापरिपूरकोऽस्ति परितस्तद्वजगच्छंपदै स्त्वं सम्प्रीणय सम्प्रति प्रतिपदं नारङ्गपार्बोत्तमः॥४॥ यस्यात्यद्भुतजात्यसहुणगणोऽनन्तत्वसङ्ख्याश्रयं शिश्रायामितदुस्तराम्भवभवां दुष्कर्ममर्मस्थितिम् । पेषम्पेषमनन्तसङ्ख्यभविनां किं योगपद्यादिव श्रेयःपूतगतिं विधातुमिह सःसार्वोऽस्तु सिध्यै सताम् ॥५॥ श्रीधर्मावनिपो वसन् वरपुरे यस्य प्रशस्यस्थितीन् पत्राकारयतीव किं स्वककरैः स्थातुं स्फटव्याजतः। सप्तद्वीपमहीमहामहरमां मान्यां वदान्यैरिमां श्रीनारङ्गविभुः प्रभूतविभुताभूत्यै स भूयाद्भुवि ॥ ६ ॥ पादौ पादतरौ करौ सुखकरौ नेत्रे प्रसन्नोज्वले चेतः शान्तकृपारसप्रसरणं वक्त्रं प्रसन्नप्रभम् । भालं भाग्यकलाकलं गुणमयाकारप्रतीकेति ते ___ दृष्टा मूर्तिरमूर्तमौक्तिकसुखं केषां न दत्ते विभो! ॥७॥ देवाः केचन दूरदर्शिन इमे नो केचन स्त्रीरताः शस्त्रव्यग्रकराश्च केचन पुनर्नानावतारादराः। केचित्केचन सृष्टिसंहृतिपराः केचित्स्वयं नर्तिनो मिथ्यैताः सुरजातयस्तु सुगुणैस्त्वं सत्यदेवः प्रभो !॥८॥ यन्माहात्म्यमहाद्भुतातिशयतः सर्वोपतापापदो दृष्टादृष्टभियो भियेव भविनां नश्यन्ति रिष्टेतयः। तन्नाश्चर्यमनन्तमङ्गलसुखास्वादप्रदानात्मकः स श्रीपार्श्व ! जगत्रयावनपदव्येकवती त्वं हि यत् ॥९॥ For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः देवत्वोदितलक्षलक्षणकलालङ्कारचूडामणि ज्ञात्वा त्वां भविनः श्रयन्ति जिन ! यत्तेषां तथा सिद्धयः। सर्वाः स्युश्च तदत्र युक्तमपरे देवा मृषालक्षणै, लक्ष्यास्त्वं तु यथातथपृथुगुणैः स्वस्थं पदं प्रापयन् ॥ १०॥ रागद्वेषमहाद्विषद्वति भवारण्येऽतिभीतात्मनाम् त्वत्पादौ शरणं हारीणमहिमौ (?) नारङ्गपार्श्वप्रभो!। यत्तत्साम्प्रतमत्र वक्त्रभिदुराभेद्यासिलेखाधनु मुख्यास्त्राणि जयावहानि वहतस्तौ शस्तसिद्ध्यै यतः॥११॥ त्वद्रूपं जितकामरूपमुपमातीतस्वरूपं तपो, रूपव्यापनिषेवरूपमहिमाटोपं च तापापहम् । दृष्टं दुष्टनिकृष्टकष्टघटनां केषां पिनष्टीश! न त्रैलोक्ये विशिनष्टि शिष्टसुषमास्वादं च नाशाजुषाम् ॥१२॥ पञ्चत्रिंशदुदारसगुणगणां वाणी तवाकर्ण्य के नन्दस्वर्णमयाब्जमण्डितपदाष्टप्रातिहार्यश्रियम् । सञ्चिन्त्यातिशयान्निभाल्य च चतुस्त्रिंशन्मितान् देशना भूः संसेव्य सुदर्शनं शिवपदं नाऽऽर्याः प्रभो! भुञ्जते ॥१३॥ त्वद्ध्यानामृतपूरपानवशिनां किं किं करस्थं सुखम् न स्यादतिरुदेति कापि हृदि किं भाग्योदयः किं न कः। सर्वाशा न फलेग्रहिः किमखिलैश्वर्याणि किं नाश्रय त्यानन्त्येन शिवावहानि भुवने नारङ्गपार्श्वेशितः!॥१४॥ इत्थं श्रीगुरुराजहर्षविनयश्रीसूरिपूज्यक्रमा म्भोजः प्राज्यगुणैः स्तुतः स्तुतिपदज्ञानादिरत्नोदयः। चम्बा दुर्जयकर्मणां मयि तनु त्वं पार्श्व ! विश्वेश्वर! श्रेयः श्रीनिधिधर्महंसमहिमाऽऽराज्यं जयश्रीवरम् ॥ १५ ॥ इति श्रीनारङ्गश्रीपार्श्वदेवाधिदेवस्तोत्रम् ॥ ५३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजीरापल्लीयपार्श्वनाथस्तोत्रम् अथ श्रीजीरापल्लीयपार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥ ५४॥ विश्वानन्दसुखोदयाय महिमा यस्योदगात्सर्वत स्त्रैलोक्येऽपि नवीनभानुवदिवाधातुं प्रतिज्ञां निजाम् । भक्तप्राण्यखिलेहितार्पणतया भाव्यं मयेत्यादृताम् ___जीरापल्यधिवासवासितनवस्वाख्यः स पार्श्वः श्रिये ॥१॥ त्वयानप्रभवप्रभावविभया सर्वाङ्गसङ्गिक्षय.. श्वासस्फोटककासकुष्ठखसजाऽसाध्याधिबाध्याङ्गगाः। शोच्यास्तेऽपि भवन्त्यमङ्गविभुताऽऽरोग्यातिभाग्याद्भुता, स्वादाः साम्प्रतमत्र तत्सुखनिधिर्यत्त्वं प्रभो! प्राणिनाम् ॥२॥ मानामेयकुवातवातलहरीरङ्गत्तरङ्गक्षरत्, क्षुब्धक्षोणिधराहतिस्थपुटिते मना इवाब्धाविमे । बोहित्थस्थितयः स्वयं स्युरभयाभन्याभवन्नामस, न्मन्त्रैः पार्श्व! तवोचितं समभयातीतात्मकस्त्वं यतः ॥३॥ कल्पान्तोद्धतवह्निवत्प्रस्मरज्वालावलीढावनी(?) भावः सर्वमिवाजिघत्सुरभितः श्रीपार्श्वदावानलः। जीरापल्यधिपाऽमृतायत इह त्वद्ध्यानालीनात्मनाम् किं चित्रं यदशेषतापशमनं सत्यं त्वमेवामृतम् ॥ ४॥ क्रोधाध्माततयापतत्फणिपतिर्दन्दश्यमानाशया शोणाक्ष्णेव दिदंशिषुर्जगदिदं हालाहलैः स्वैः स्वयम् । त्वद्भक्त्यैव तनूसतां सुमनसां मालायते सार्व यत् तत्स्थाने त्वदुपासनामितफलं दत्ते न किं यत्सुखम् ॥५॥ नो विद्मस्तव पार्श्व ! सेह महिमा कीहक् किमेषौषधी भीमेत्री भविनां सुलब्धिलहरी किं तेजसा वा निधिः । किं विश्वेष्टदवल्लरीति कलनां पाटचरारातयः सर्वस्वापहृतोऽपि यद्धितहृदो मित्रन्त्यहो यद्वशात् ॥६॥ For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः नेतर्नाद्भुतमेतदत्र यदमी पुच्छच्छटाच्छोटनै, मत्तेभादिमदज्वरप्रशमिनः पारीन्द्रका द्वीपिनः । अन्येऽपीदृशराशयः शमरसैः शान्तास्त्वयीशे स्थिते - भव्यानां हृदि यच्छमोदयमयस्तत्त्वप्रभुस्त्वं भुवि ॥ ७ ॥ मातुः स्वप्नदशासु चेच्छुभतयाऽभूवं त्वयीशाऽऽगते गर्भेऽथाहतसत्पथस्थितिमिमां भुञ्जीय भक्तेऽपि ते । स्वाङ्गीकारमितीव वोढुमसमस्थामोत्सुकः स्वक्रुधा भेत्तुं विश्वमपि द्विपोऽपि शिवतां तेने भयं नाहते ॥ ८॥ दृष्टादृष्टभयं द्विषन्नृपहयोन्मत्तद्विपस्पन्दना, ऽऽरावैर्वीरभुजोर्जितैः प्रतिभयं सङ्ख्यातिगं सङ्ख्यगम् । तेषां षाटकुरुते न किन्तु विजितं सत्तजयश्रीकर येषां चेतसि पार्श्वविश्वभयभित्त्वं सिद्धिदः संवसेः ॥९॥ रोगाद्याधिशमः समाधिविधयः सल्लब्धिधीसिद्धयो विश्वैश्वर्यमहार्यधैर्यसुयशःश्लाघानचं स्वात्मसात् । स्थानस्थाननिधिः प्रतापपरतेत्याशाजुषां किं न ते जीरापल्यमिधाभिधेयभगवन्माहात्म्यतः सर्वतः ॥१०॥ स्वोपास्यः सुकृतैः कृतायतिशया वेदाग्नयो वाग्गुणाः __ पश्चत्रिंशदनिन्द्यदानलहरीज्ञानादिकं तारकम् । प्राकारत्रिकमङ्गिमोदकमिति श्रेयोमयोभूर्यतः स्वामिन्नादित एव मद्रनिधयस्तेनेव किं ते श्रिताः ॥ ११ ॥ प्राचीनेषु भवेष्विहापि च जयश्रीकारमभ्यासिता, भ्यस्ताङ्ग ! व्यतनोरतीव विविधोपायप्रपञ्चैर्द्विधा । स्वात्मन्याश्रितभावुकेषु च विभो! भव्याजयश्रीपदा,स्मानं त्वत्पदसेवितस्तत इवाभूवन्नवश्यं किमु ॥ १२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीवरकाणकश्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् एवं श्रीगुरुराजहर्षविनयश्रीसूरिपूज्यश्रियम् नीतं स्तोत्रपथं भवन्तमसकृत् याचे विधि बोधिजम् । सौख्यासल्यविशेषपोषमहिमं श्लोकप्रकाशाद्भुतम् श्रीपााधिपधर्महंससरसाम्भोजं जयश्रीपदम् ॥ १३ ॥ . ॥ इति श्रीजीरापल्लीयश्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥ ५४ ॥ अथ श्रीवरकाणकश्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥ ५५ ॥ सर्वानन्दजयश्रियां वरवदः सर्वत्र सेवाजुषाम् योऽभूद्वा वरसौख्यवाच्युत महावाक्यप्रकाशो वरम् । यस्यासीद्वरकाणकः किमिति सत्ख्यातिस्त्रिधार्थेव तत् स श्रीपार्श्व विभुः प्रभावविभुताभावाय भूयाद्भुवि ॥१॥ यन्माहात्म्यमहोदयैर्हयभयाभावाद्विभूतिप्रभा भाजो भव्यतरा भवन्ति भविका भोगप्रभावाद्धताः। दुष्टारिष्टजकष्टकोटिघटनां पिष्ठा तथातथ्यशम् स्थानस्थस्थितयः क्षणात्स्युरशिवं पार्श्वः स वः संस्थतु ॥२॥ यन्मौलौ मुकुटः स्फुटं प्रकटितस्त्रैलोक्यरक्षाकरः प्राकारः किमिवान्यथा कथमयं दुःखोपसर्गान्वयः। नश्यत्येतदुदारभक्तिसुहृदां जागर्ति सर्वत्र च श्रीसम्पत्पदवी ददातु स मुदं विद्यामवद्यां विभुः ॥३॥ त्रैलोक्याखिलसौख्यपोषकमभीभावाद्भुतं मे मनाङ्, माहात्म्योदयमात्मनः स्वपददस्त्वं देहि दीप्त्यै प्रभो!। इत्यर्केन्दुयुगं निजेहितमिनं याचेत यत्कुण्डला,काराङ्ग किमिव श्रुतिस्थितमसौ पार्श्वः श्रियेस्तान् मयि ॥४॥ For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८४ श्रीजिनस्तोत्रकोशः यङ्यानानुभवाद्भवन्ति भविनां सौभाग्यभाग्यप्रभा, भोगाभीष्टसुसम्पदोऽपि विपदां नाशः शिवश्री स्वसात् । भातीतीव यशःप्रतापमहिमासम्पन्मयं मूर्तिमद् यद्भाले तिलकं किमुज्वलमलं लाभाय स स्तात्प्रभुः ॥५॥ यस्योरःस्थललम्बिहारलतिकाभीष्टैः फलैः किं फल त्येषाऽद्यापि नगोलतेव(?) च भुजद्वन्द्वोङ्गदश्रीरपि। तद्वद्भक्तिमतां न दृक्पथरता किं किं फलं तन्तनी, त्यानन्त्येन किमुत्तमं स जयतु श्रीपार्श्वविश्वेश्वरः ॥ ६ ॥ यत्पद्मासनसंस्थितिस्थसुमहापर्यस्तिकालङ्कृति, र्भास्वद्रूपमुखग्रहासुरसुराङ्गाकारदिव्यस्थितिः । किं वक्तीव समस्तदैवतमयत्वं सार्वपादाजगं पूज्यत्वं च जगत्रयेऽपि तनुतां पार्श्वः स वः सम्पदम् ॥७॥ तत्तल्लक्षणलक्षितांतियुगलं यस्योञ्चजानूजनु हीजचोरुकटीकरोदरसुहृद्भूभालवक्त्रादिकम् । प्रत्येकं भवभीहरं वरकर चातः परं किं स्तुवे माहात्म्यं वरकाणकेति सुयशाः पार्श्वः स नः श्रीपदम् ॥८॥ एवं श्रीवरकाणकं वरकरं श्रीपार्श्व विश्वेश्वरम् नीत्वा स्तोत्रपथं सहर्षविनयश्रीसूरिसंसद्गुणम् । स्वःकुम्भद्रुगवीमणीप्रभृतिसन्माहात्म्यत्रोदयम् याचे श्रीगुरुधर्महंसमहिमं श्रीबोधिरत्नाकरम् ॥९॥ ॥ इति श्रीवरकाणकपार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥ ५५ ॥ अथ श्रीगौडिकश्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥५६॥ यन्मूर्तेः श्रितशन्निधेर्विधिविदः प्राहुर्मुधाऽमी कुत, श्चिन्तारत्नतुलां यदैहिकमिदं दत्ते कियश्चिन्तितम् । चिन्तातीतमनन्तमिष्टमुपमेयार्थस्तनोत्यङ्गिनाम् स श्रीगौडिकपार्श्वपार्श्वमहित त्वं मे प्रसीदोदयैः ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीगौडिक श्री पार्श्वनाथस्तोत्रम् क्षेत्रं १ - वास्तु२- हिरण्य३- दास४- पशवः५ पञ्चेन्द्रियार्था६ यथा, - ऽभीष्टं शिष्टगृहस्थनैकविभवः८ सर्वाङ्गभोगप्रदः । यत्सेवा तिशयप्रभावविभयाऽवश्यं भवेद्भाविनाम् नुर्जन्मन्यभयप्रदोऽस्त्वभयदः पार्श्वः सुपार्श्वः स नः ॥ २ ॥ स्वामिंस्तावकपावकेक्षणगुणाकर्णार्हणाध्यानतः सत्वा भक्तिभृतः स्युरिन्द्र सुरताराज्यादिभावाकराः । सुश्लोका यदि तत्किमद्भुतमिह त्वं यस्वदेकप्रभो, - र्दाताऽसि स्वपदस्य शस्यविभुता भोगस्य सल्लीलया ॥ ३ ॥ पङ्गुर्नृत्यति भक्तिमांस्त्वयि विभो तारां दिवा वीक्षते, starai धन्यधनt च दुर्विधविधः सम्पत्पदी किङ्करः । विश्वैश्वर्यवरो वरोऽपि यदहो निष्णो जडो गौडिक ! ८५ त्वद्ध्यानप्रभवप्रभावविभुता किं किं न कुर्यान्नृणाम् ॥ ४ ॥ साक्षादेव भवोऽर्णवोभय मयस्तत्रोर्म्मयः पाथसाम् तत्तदुःखजनुर्विपत्तिविपदो नक्रादियादः स्थितिः । तत्रारङ्गवियोग रोगगतयस्तत्र त्वदेकक्रमो पास्तिः पोतदेतदुद्धृतिपदं नृणामरीणं प्रभो ! ॥ ५ ॥ श्रीमद्रौडिकपार्श्व !! विश्वप भवन्माहात्म्यशक्त्यैव यत् पारीन्द्रा अपि सज्जनन्ति फणिनो माल्यन्त्यमित्रा अपि । मित्रन्त्यत्र पराजयोsपि विजयत्यापच्च सम्पत्पद, - त्येतत्साम्प्रतमाश्रितेषु यदसि त्वं सौख्य पोषाकरः ॥ ६ ॥ तत्तद्दोषविशेषपोषकलुषात्मानः कुदेवाः परे देवाभासतया स्थिता हरिहरब्रह्मादयः किं तु मे । हृद्येकस्त्वमशेषलक्षणसखः सत्यः सुसेव्यः स्फुरन् देवत्वेन जिनः श्रितेषु शिवदः श्रीपार्श्वदृश्योऽसि यत् ॥७॥ त्वद्रूपं महिमैकरूपपरमं दृष्टं सदेकान्तहृद् भक्तीनां बहिरामयादिविपदं नो हन्त्यमूं केवलम् । अन्तः कर्ममया ममाप्यथ पृथुस्पष्टेष्टशिष्टोन्नतिम् दत्ते केवलमत्र नापि तु विभो ! स्वर्गापवर्गश्रियम् ॥ ८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६ श्रीजिनस्तोत्रकोशः श्रीसम्यक्त्वमिदं यदुक्तमसमं भव्यात्मनां सेवितम् किं किं कामितमातनोति न यथा ज्ञानं चरित्रं तथा । युक्तं तद्यदिहास्ति सत्यमयतां सर्वात्मना सन्दधत् यः स्वस्मिंश्च परेषु गौडिकविभुर्दद्यात्स मे सम्पदम् ॥ ९ ॥ षड्द्रव्यं नयभावनाभिमतसत्तं नन्दतत्त्वं जग, नित्यानित्यमयं प्रमाणयुगलीमेयं महायुक्तिभिः। आदेशद्वयसप्तभङ्गरचनावाच्यं विभो ! दीदिशो यत्त्वं युक्तमिदं यथास्थितविदः सत्यार्थवाक् त्वं यतः ॥१०॥ इत्थं पूज्यपदस्थहर्षविनयश्रीसूरिसेवोचितम् नीत्वा स्तोत्रपथं भवन्तमुदितानन्दोदयादन्वहम् । याचेऽहं वरबोधिबीजपदवीलब्धि प्रभो! गौडिक ! श्रीपार्श्व!श्रितधर्महंसमहिमां सौभाग्यभाग्याकरम् ॥११॥ ॥ इति श्रीगौडिकश्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥ ५६ ॥ अथ श्रीबम्भणवाटकश्रीमहावीरस्तोत्रम् ॥ ५७॥ कम्रानम्रसुरासुरेश्वरशिरःकोटीरकोटीतटी, निष्ठानेकमणीघृणीनपितवत्पादानशोभोत्सवम् । सर्वानन्दपदार्पणेऽमिततयाऽपूर्वैकचिन्तामणि तं श्रीबम्भणवाटकायततख्यातिस्थवीरं स्तुवे ॥१॥ यः सिंहं जयति स्म सर्वविजयिस्वोजःश्रिया किं ध्वज,___ व्याजेनेव ततस्तदुत्तमतरः सम्पत्पदात्याऽप्ययम् । यत्सेवां तनुते हृदुन्नतमुदा स्पष्टैकशिष्टेष्टदाम् श्रीमद्वम्भणवाटकाबविजयी वीरः स वोऽव्याद्विभुः॥२॥ यन्माहात्म्यमहो! महामयजलव्यालानलेभद्विषत्, सिंहस्त्येनरणादिभीभिदभयानन्दप्रदं प्राणिनाम् । यजागर्ति किमद्भुतं तदसि यत्त्वं सार्व! सर्वात्मना भित्त्वा भीतिपदानि शम्पद निधिः शश्वत्त्वदेकप्रभोः ॥३॥ For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ . श्रीबम्भणवाटकश्रीमहावीरस्तोत्रम् विश्वं विश्वमनाथमस्त्यभयद ! त्वन्नाथसाथै ! विना सर्वापन्निधिजन्मजातिनिधनक्लेशावलीसंकुलम् । त्रैलोक्येऽसि च यत्त्वमेव शरणं सत्यं च शंशेवधि, स्तेनार्थित्वमितो भवन्तमधिपं याचे यश श्रीपदम् ॥ ४॥ मूर्तिस्फूर्तिरतीव शंनिधिरियं यस्य प्रशस्यं यशः सौभाग्यं शिवभोगयोगसुभगं माहात्म्यसद्माह्वयः । शानं ज्ञेयमनन्तवस्तुविषयं ध्यानं मनः पावनम् स श्रीबम्भणवाटकः पटुपदं दद्यान्मुदां सर्ववित् ॥५॥ किं सौभाग्यमयं महोदयमयं किं सर्वसम्पन्मयम् किं विद्यात्ममयं किमुज्वलकलालीलामयं किं स्फुरत् । विश्वानन्दमयं किमद्भुतशमश्रीशम्मयं किं सित,___ ध्यानाद्वैतमयं किमित्यधिप! नस्तेऽस्तु श्रिये दर्शनम् ॥६॥ यः पूर्णः करुणागुणेन समदृक् शक्रेऽप्यहो कौशिके पादस्पर्शिनि सङ्गमादिषु तथा दुष्टेष्वनिष्टायिषु । सर्वाङ्गक्षमिताक्षमप्रकृतिमत् ख्यात्युत्सवायेव किं वीरः सोऽस्तु मुदे जगजयपदं सान्वर्थसज्ञां दधत् ॥७॥ तत्सत्यं यदचिन्त्यमन्त्रमहिमैश्वर्यं वसत्यद्भुतम् त्वन्नाम्येव कलावपीश! भविनां तद्ध्यायिनां स्युर्यतः। स्थानस्थाननवीनपीनपदवीसम्पन्महः श्रीयशः श्रेयः श्रव्यगुणोदया जयमया निर्वाणशंसश्चयाः ॥ ८ ॥ नाथः सार्थक एव यः शिवपथप्रस्थानसंस्थाङ्गिनाम् योगक्षेमकरत्वतोऽयमजनि स्वामीह सत्यं स्वयम् । निर्नाथ त्रिजगन्निरीक्ष्य विषमं दुःखैः कृपापूरतः सौख्योपायसमर्पणैरिव किमाधातुं सनाथप्रथम् ॥ ९॥ यन्नामापि पवित्रमन्त्रमहिमारूपं परं पावनम् . चिन्तामण्यधिकं त्रिलोकहितकृत् ध्यातं भवोत्तारकम् । शुद्धः सिद्धरसः सुवर्णवरणे पुण्यात्मनां स्तान्मुदे स श्रीबम्भणवाटकाह्वयमयः श्रीवर्द्धमानप्रभुः ॥१०॥ For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८८ www.kobatirth.org श्रीजिनस्तोत्रकोशः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हेयादेयतया चतुर्विधभिदं सज्ञाकपायाश्रयम् दुस्त...... चतुधर्म संवर समाध्या सेव्यशय्याश्रमम् । किं वक्तुं युगपद्भिरेव भविनां व्याख्यावनीस्थश्चतूरूपं यः स्वयमाश्रयच्छ्रितहितं तन्यात्स वीरप्रभुः ॥ ११ ॥ त्वं श्रीबम्भणवाटका भगवन्नाथोऽसि मे त्वं गुरु स्त्वं देवद्रमणीगवी निपमहाभावोऽपि विश्वार्थदः । त्वं सेव्योऽसि जगत्रयेऽपि सुखकृत्त्वं सगुणस्त्वं भवात् त्राता त्वं भविनो महोदयपदं त्वं सर्वबन्धुः प्रभो ! ॥ १२ ॥ यः स्वैश्वर्यनिधिः श्रितेषु सुभगारोग्यादिसम्पत्प्रदो राज्यप्राज्य कुटुम्बसन्ततिपदप्रष्ठप्रतिष्ठापटुः । कीर्तिस्फूर्तिकलाविलासकलनः कैवल्यशालं यतः स श्रीबम्भणवाट कातसफलः सद्भिस्ततस्त्वं श्रितः ॥ १३ ॥ यस्त्रैलोक्यविलोकि केवलकलाशाली सुरा यं श्रिता येनाख्यायि सुशासनं त्रिजगती यस्मै नमस्येद्यतः । सिद्र्यध्वाऽजनि यस्य चारु चरणं यस्मिन्ननन्ताः श्रियः श्रीबम्भणवाट काहविजयी जीयात्स वीरश्चिरम् ॥ १४॥ इत्थं भक्तिसुयुक्ति हर्षविनयश्रीसूरिपूज्यस्थिति, - नतः स्तोत्रपथं पथं शिवपुरस्त्वं मे प्रसीद प्रभो ! स श्रीबम्भणवाट काह्रसुयशः श्रीवीर शश्वद्यथा, - नन्तश्री पदधर्महंसम हिमः स्याद्बोधिबीजोदयः ॥ १५ ॥ ॥ इत्यष्टम्यां श्रीबम्भणवाटकश्री महावीरस्तोत्रम् ॥ ५७ ॥ अथ श्रीतीर्थराजाधिराजपूजातिशयस्तोत्रम् ॥ ५८ ॥ यस्यां वश्या विशदविधिना वन्दनप्रत्ययाद्यैः कायोत्सर्गप्रकटितपटुद्रव्यपूजानुमोदैः । भव्याभव्याभिमतसुफलान्यामुवन्त्यद्भुता नि श्री सार्वानां वपुषि सुषमापोषिपूजां श्रये ताम् ॥ १ ॥ For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीतीर्थराजाधिराजपूजातिशयस्तोत्रम् अर्हतामर्हणा गर्हणीया कदाप्यस्ति नैवाहणीयागमैराहतैः । येन पूजैव पूज्यत्वभावोद्भवे विद्यते सत्यकल्कस्वभावोद्गमा ॥२॥ द्रव्यभावस्तवद्योतिनी देशतः सर्वतः सद्विरत्यादृतिः सङ्गता। अन्यथा तथ्यपथ्यप्रथा संस्थिता, स्ताः क्रिया निष्फलास्तेन पूजा जयेत् ॥३॥ द्रौपद्याद्या सदयविशदा दर्शनोहयोतदीप्रा, स्तत्त्वातत्त्वव्यतिकररसाः स्वादलुब्धस्वचित्ताः । भक्तिव्यक्त्या महिमसुभगां जैनचैत्योचितार्चाम् यामाकार्षुः शिवसुखखनि तां न कः श्रद्दधीत ॥ ४ ॥ विद्याजवाचारणश्रीमुनीशै, नित्यस्थानस्थायिचैत्यावलीनाम् । सेवां कृत्वा वन्दनादिप्रयोगैः सौवाचाराश्चारु शौचीक्रियन्ते ॥ ५॥ पूजाद्वैतोदारसारानुमोदो, पास्तिभ्यां श्रीआशया सङ्घसङ्घः । श्रीसम्यक्त्वं ज्ञानचारित्ररत्नम् मोक्षश्रीदं संविधीयेत शुद्ध्या ॥६॥ कल्याणाली ललनमभितः सर्वसम्पद्विलासा निष्प्रत्यूहं महिमपदवीसौख्यपोषप्रकर्षाः । स्थाने स्थाने सरससुभगाभोगभोगप्रयोगाः सम्पद्यन्तेऽभयद ! विशदार्चाप्रचारेण पुंसाम् ॥ ७ ॥ श्रीजिनपूजनमद्भुतसम्पत्__ सौख्यविशेषनिषेचककल्कम् । नौमि कलाकलताकलनाभम् शुद्धविधेः शिवदं विहितं सत् ॥ ८॥ For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनस्तोत्रकोशः शासनं द्रव्यभावस्तवालङ्कतं देशतः सर्वतः संयमोपासनम् । साम्प्रतं स्यात्तदैवार्हता!चितो द्रव्यतोऽङ्गीक्रियेत प्रधानो विधिः९ यामाराध्याभ्यधिकविधिना श्रेणिकाद्या नरेन्द्राः प्रापुः पूज्याभयदपदवीमक्षयक्षायिकाख्याः। श्रीदेवार्यक्रमणकमलोपासनावासनाक्ताः - संसेवन्ते सुकृतरसिकाः केऽहतामहणां ताम् ॥ १०॥ त्रिशराष्टविधा तथा बहूचितभेदा विविधाधिकारिभिः। विहिता सकलांहसां हतिं तनुतेऽर्चाऽभय देषु सर्वदा ॥ ११ ॥ भुवनत्रयनित्यचैत्यगाः प्रतिमा अप्रतिमप्रभावकाः। प्रणमामि मुदार्चनादिभिः करणैर्निर्वृतिशर्मसम्पदे ॥ १२ ॥ श्रीवैकुण्ठः सुगुरुयतिनां वन्दनैर्दुर्गतीस्ता, श्चिच्छेद श्रीजिनबलिविधेरादधौ क्षायिकाद्यम् । श्रीश्रेयांसः सरसमनसा पात्रदानं व्यपाद्यत् तस्य श्रेयः सुखपदमभूत्तत्र पूजानुभावः ॥ १३ ॥ श्रीसूर्याभः स्वर्गिमुख्यः सुरा वीरस्याग्रे साधुराजीवृतस्य । दिव्यं लास्यं भूरिभङ्गीप्रभेदै श्चके कारीशेन तस्यैककृत्यम् ॥ १४ ॥ अर्हत्पूजा जयति जयदाबाधमाराध्यसाध्या नानाभेदोदितविधिधिया शुद्धबोधिप्रबोधा। दुष्टादृष्टप्रकृतिविकृति प्रत्यहं संक्षिपन्ती त्रैलोक्यस्थासुरसुरनरैः सर्वदा सेव्यमाना ॥ १५ ॥ अर्हणाऽऽर्हतमतेऽहतां द्विधा सङ्गतागमविवेकलोकनैः। साधिताधिकृतसजनैर्मुदा भुक्तिमुक्तिसुखसम्पदे जयेत् ॥ १६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रन्थप्रशस्तिः त्रैलोक्ये लोककोकप्रकटसरसतापुष्टिसृष्टिप्रकृष्टा दिव्यश्री सत्यजात्यामृतरसलहरी पापतापोपशान्तौ । मुक्तिस्त्रीसन्धिदूतीहितनिखिलसुखाकर्षणस्वर्गिरत्नम् देयादानन्दसम्पत्पदमुदिततमं सा सपर्या जिनानाम्॥१७॥ यस्तनोत्युदितसम्पदे मुदा सर्वसार्वचरणार्च(?)मम्बुजैः। तन्तनीति सततं ततां श्रियम् स्वात्मनीह स नरो भवे भवे ॥ १८ ॥ यः श्रीसार्वसपर्ययेति तु तयाऽऽत्मानं पुनात्याहता, नन्ता हितसम्पदर्पणतया पूर्वधुरत्नाभया। सेवन्ते तमुदारहर्षविनयश्रीसूरितं सर्वदा नन्दस्पन्दमहोदयाः समुदिताः श्रीधर्महंसश्रियः॥ १९ ॥ ॥ इति श्रीतीर्थराजाधिराजपूजातिशयस्तोत्रम् ॥ ५८ ॥ अथ ग्रन्थप्रशस्तिः॥ यथातथार्थसद्भावविभावनैः सतां पुरः। जिनोक्ततत्त्वसुश्रद्धाधानराधनसाधनैः॥१॥ शब्दापशब्दसंशब्दैर्लक्ष्यलक्षणलक्षणैः । शुद्धधीनिधिभिः साध्यः पवित्रो यः समुद्भवेत्॥२॥ युग्मम्॥ यश्च सर्वार्थसंसिद्धिं कल्पवल्लीव यच्छति । स्वर्गापवर्गसद्भोगारोग्यसौभाग्यभाग्यदः ॥ ३ ॥ तर्कलक्षणसाहित्यसिद्धान्तार्थानुवादिताम् । यः संवदेत्सदाचारविचारविदुषां पुरः॥ ४॥ मुख्यपलाक्षणिकरव्यङ्ग्यव्यञ्जक३ध्वनिभावनैः । भरतादिचक्रिर्भूपैः केशवैः प्रतिकेशवैः ॥ ५॥ यद्विधानावधानस्थैर्निर्जरार्जनजम्पदम् । निर्जरं निर्जनिज्यायोऽर्जितं जितद्विधारिभिः ॥६॥ युग्मम् ॥ For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीनेमिविज्ञानग्रन्थमालाना अपूर्व प्रकाशनो कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितः श्रीअभिधानचिन्तामणिकोशः चन्द्रोदयाभिधगूर्जरभाषाटीकासंकलितः संस्कृतना बाल तेमज प्रौढ विद्वानोने सहायभूत अनेकपरिशिष्टयुक्त तथा अनेक विद्वानोना आ प्रकाशन अंगेना विपुल अभिप्रायोथी भरपूर आ प्रकाशन आजेज वसावी ल्यो. मूल्यम् रू.१० आयरिअविजयकत्थूरसूरिविरइआ पाइअविन्नाणकहा दान शाल Serving JinShasan सद्गुणोनी रक्षा काजे करेल तथा मज बाल प्रौढ पाइअ अ पूर्वक जीवन096978 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