Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवर्द्धमानाय नमः। भाग १५ • अंक ११ जैनहितैषी भाद्रपद सं० २४४७ । सितम्बर सन् १६२१ विषय-सूची। ३२५ ३२९ ३३५ १. डाक्टर गौर और जैनसमाज लेखक-बाबू अजित प्रसादजी २. भूभ्रमण सिद्धान्त और जैनधर्म-लेखक बाबू निहालकरणजी सेठी ... ३. पुरानी बातोंकी खोज ... ... ४. जैनहितैषी पर विद्वानों के विचार ... ५. आधुनिक भूगोल और भारतवर्ष के प्राचीन ज्योतिषी ... ६. 'मेरीभावना'की लोकप्रियता ... ... ... . ३४५ ३५३ गतांक का संशोधन । पिछले अंक नं. ६-१० में, असावधानीसे. जहाँ प्रथम पृष्ठपर महीनोंके नाम छापनेमें ही भूल हुई है-वे टाइटिल पेजके समान नहीं छापे गये वहाँ कई ऐतिहासिक लेखोंके छपने में भी कुछ अशुद्धियाँ हो गई हैं जिनका हमें खेद है। साधारण अशुद्धियाँको छोड़कर दं। एकका संशोधन नीचे दिया जाता है। पाठकोंको चाहिये • कि वे अपने अंकोंमें उनका सुधार कर लें पृष्ठ २५६ की ६ठी पंक्तिके शुरूमें 'संकृत' की जगह 'प्राकृत' पढ़ना चाहिये। पृष्ठ २६१ के दितीय कालमकी १५वीं पंक्तिमें 'पद्यसेन' की जगह 'पद्मसेन' समझना चाहिये । और पृष्ठ ३११ के द्वितीय कालमकी १६वीं पंक्तिमें 'नवकोटि विशुद्ध के बाद "न होकर षट कोटिविशुद्ध" ये अक्षर और बढ़ा लेने चाहिये। इसके सिवाय पृष्ठ ३१८ में 'उपमंत्री के पहले 'भूनपूर्व' शब्द और जोड़ लीजिये; परंतु यह प्रसकी भूल न होकर स्वयं उपमंत्री साहबकी ही लिखनेकी भूल है। उन्हीं की प्रेरणासे अब यह संशोधन किया जाता है। सम्पादक, बाबू जुगुलकिशोर मुख्तार । श्रीलक्ष्मीनारायण प्रेस, काशीर COMSO --- For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमावली | १ जैन हितैषीका वार्षिक मूल्य ३) तीन रुपया पेशगी है । २ ग्राहक वर्ष के श्रारम्भसे किये जाते है और बीचमें वें श्रंकसे । श्राधे वर्षका मल्य १) ३ प्रत्येक अंक का मूल्य || चार आने । ४ लेख, बदलेके पत्र, समालोचनार्थ पुस्तक आदि 'बाबू जुगुल किशोरजी मुख्तार सरसावा (सहारनपुर ) " के पास भेजना चाहिए। सिर्फ प्रबन्ध और मूल्य आदि सम्बन्धी पत्रव्यवहार इस पतेसे किया जायः मैनेजर जैन ग्रंथ-रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई । 1 राणा प्रतापसिंह मेवाड़के प्रसिद्ध राणाके चरित्र के आधारपर लिखा हुआ अपूर्व नाटक । मूल लेखक - स्वर्गीय द्विजेन्द्रलाल राय । वीरता, देशभक्ति और अटल प्रतिक्षाकी जीती जागती तसवीरें । पढ़कर तबियत फड़क उठती है । मू० १॥) सजिल्दका २) अन्तस्तल । हृदयके भीतरी भाव द्वेष, हिंसा, प्रेम, भय आदिके अपूर्वचित्र लेखक, सुकवि पं० चतुरसेन शास्त्री | |= नये नये ग्रन्थ | कालिदास और भवभूति । महाकवि कालिदासके अभिज्ञान शा कुन्तलकी और भवभूति के उत्तररामचरितकी अपूर्व, अद्भुत और मर्मस्पर्शी समालोचना । मूल लेखक, स्वर्गीय नाटक कार द्विजेन्द्रलाल राय । साहित्यप्रेमी और संस्कृतशको यह ग्रन्थ पढ़ना चाहिए। मूल्य (॥), सजिल्दका २) साहित्य-मीमांसा । 3 पूर्वीय और पाश्चात्य साहित्यकी, काव्यों और नाटकोंकी मार्मिक और तुलनात्मक पद्धतिसे की हुई आलोचना । इसमें श्रार्यसाहित्य की जो महत्ता, उपका रिता और विशेषता दिखलाई गई है. उसे पढ़कर पाठक फड़क उठेंगे। हिन्दी में इस विषयका यह सबसे पहला ग्रन्थ है । मूल्य १ ॥ अरबी काव्यदर्शन । अरबी साहित्यका इतिहास, उसकी विशेषतायें और नामी नामी कवियोंकी कविताओंके नमूने | हिन्दी में बिलकुल नई चीज | लेखक, पं० महेशप्रसाद साधु, मौलवी श्रालिम-फाजिल | मू० १) सुखदास - जार्ज ईलियट के सुप्र सिद्ध उपन्यास 'साइलस मारनर' का हिन्दी रूपान्तर । इस पुस्तकको हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ उपन्यास-लेखक श्रीयुत् प्रेमचन्दजीने लिखा है । बढ़िया परिटक पेपर पर बड़ी ही सुन्दरतासे छुपाया गया है । उपन्यास बहुत ही अच्छा और भावपूर्ण है। मूल्य ॥ =) स्वाधीनता - जान स्टुअर्ट मिलकी 'लिबर्टी'का अनुवाद | यह ग्रन्थ बहुत दिनों से मिलता नहीं था, इसलिये फिरसे छपाया गया है । 'स्वाधीनता की इतनी अच्छी तात्विक श्रालोचना श्रापको कहीं न मिलेगी । प्रत्येक विचारशीलको यह ग्रन्थ पढ़ना चाहिए । मूल्य २) सजिल्दका २ || ) For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ भाग अंक ११ ran हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । जैनहितैषी स डाक्टर गौर और जैन समाज | Rese (ले० -श्रीयुत बाबू अजितप्रसादजी वकील लखनऊ । ) गत माससे डाकूर गौरका नाम जैन • समाजमे सब ओर फैल गया है और उसके साथ ही एक खलबली तथा उद्विग्नता भारत जैन समाजमें व्याप गई है । डाकर गौर भारतवर्षीय मध्य प्रान्त के बैरिस्टर हैं । आपने कानूनकी कितनी ही पुस्तकें टीका-टिप्पणी रूपमें लिखी हैं, और उनका बहुत ही प्रचार हुआ है । कानून इन्तकाल जायदाद पर आपने तीन जिल्दोंकी मोटी पुस्तक रची है, और पिनल कोड पर भी एक बृहद् भाग्य लिखा है | अगस्त १६१६ में आपने “हिन्दू कोड" नामकी एक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें, आपका कथन है कि, सम्पूर्ण न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी 'हितैषी' ।। भाद्रपद २४४७ सितंबर १६२९ Sicer wa S हिन्दू धर्म शास्त्र संकोच तथा विस्तार करके रख दिया गया है । यह भी पक भारी पुस्तक है और इसमें आपने हिन्दू धर्म शास्त्रको धारा प्रणालीसे लिखा है । For Personal & Private Use Only नये रिफ़ार्म ऐकृके अनुसार जो लेजिस्लेटिव असेम्बली ( कानून बनानेवाली सभा) संगठित हुई, उसके आप मध्य प्रान्तकी ओरसे सदस्य निर्वाचित हुए हैं। उस सभा के प्रथम अधिवेशन में ही, २६ मार्च १६२१ को, दिल्लीमें, मिस्टर के. जी. बागदे ने यह प्रस्ताव उपस्थित किया कि, हिन्दू धर्म शास्त्र को धाराप्रणाली रूप एक कोड बनानेके विषयमें विचार करने और यदि हो सके तो बना डालने के वास्ते एक कमेटी नियत की जाय । मिस्टर टी. वी. शेषगिरि अय्यरने इस प्रस्तावका अनुमोदन करते हुए कहा कि उनके कौन्सिल में सम्मिलित होने और मदरास से दिल्ली तक आनेका, बल्कि यो कहिये कि Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ जैनहितैषी। [भाग १५ उनके जीवनका उद्देश्य यह है कि हिन्दू बलीयसी" के सिद्धान्तको मानते हुए धर्मशास्त्र एकत्र होकर कोडके रूपमें यह असम्भव सा है कि भारतवर्षीय धाराबद्ध हो जाय। डाकृर. एच. एस. समस्त जातियों और धम्मौके वास्ते एक गौरने इसका समर्थन किया और राय हिन्दू कोड बन सके। सर पी. एस.शिवबहादुर पण्डित जवाहरलाल भार्गव स्वामी अय्यरकी सम्मतिमें भी ऐसा एक (पंजाब) ने भी समर्थन किया। बाबू जे. कोड बनाना कष्टसाध्य प्रतीत हुआ। उन्होंने एन. मुकरजी (बंगाल) इस प्रस्तावके कहा कि अभी ऐसा समय नहीं पाया है विरोधमें खड़े हुए । आपने यह दिखलाते कि कोई नया मनु सर्व हिन्दू कानूनको हुए कि हिन्दू धर्मशास्त्र हिन्दू धर्मका बनाकर तय्यार कर दे । बल्कि खटका अवयव है, ऋषिप्रणीत है, और यह बात इस बातका है कि शीघ्रगामी सुधारक हिन्दू धर्मके दृढ़ श्रद्धानीके लिए हृदयविदा- दल कहीं हिन्दू धर्म शास्त्रको ही उलट रक होती है कि, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यीय, पुलट न कर दे। हाँ, यह सम्भव है कि मिताक्षरा, दाय भाग, मयूख, भादि जिन विषयों में मत भेद नहीं है, उनका ऋषिप्रणीत .प्राचीन धर्मग्रन्थों पर ऐक बना दिया जाय । इन सात कुठाराघात करके, हिन्दू धर्म-शास्त्र भाषणोंके पश्चात् डाकृर तेज बहादुर सपू अंग्रेजी भाषामें, इस कौन्सिलके भिन्न भिन्न (सरकारी मेम्बर कानूनी) ने कहा कि धर्मके अनुयायी सदस्योंकी सम्मतिसे ऐसी दशामें सरकार यह उचित समझती बनाया जाय, यह भी कहा कि यदि हमारे है कि प्रान्तीय शासकों, हाई कोर्टी, विद्वत् मुसलमान भाइयोंसे यह कहा जाय कि परिषदों, वकीलोंकी लाइब्रेरियों और "आपके-कानूनको बने हुए बहुत वर्ष हो सभाओं आदिकी सम्मतियाँ इस विषयमें गए । जो कुछ कि कुरान या हदीसमें प्राप्त की जायँ कि उनकी सम्मतिमें सारे लिखा है, अब उसका अंग्रेज़ी कोड रूपमें या किसी विशेष विषय-सम्बन्धी हिन्दू बना डालना उचित है” तो उनके हृदयकी कानूनका कोड बनाना समयानुकूल क्या दशा होगी। इन शब्दोंके सुनते ही होगा अथवा नहीं, और यदि होगा तो मिस्टर अमजद अली बोले कि कुरानकी क्योंकर काम किया जाय । और इस पर बात और है। इस पर बाबू जे. एन. मिस्टर के. जी. वाग्देने अपना प्रस्ताव मुकरजी ने कहा कि "यदि यह कल्पना वापस ले लिया। कर लें कि कोई ऐसा प्रस्ताव करे, तो क्या जैन-धर्म या जैन रीति-रिवाज अथवा आप उसको एक क्षण भर भी सह धर्म नीतिक सम्बन्धमें एक अक्षर भी सकेंगे?" मिस्टर अमजद अली बोले कि उक्त अधिवेशनमें नहीं कहा गया। यह "हम एक क्षण भरके वास्ते भी ऐसी भी खयालमें नहीं आता कि जैन समाजके कल्पना नहीं कर सकते ।" बाबू जे. एन. प्रतिष्ठित व्यक्तियों, उसकी संस्थाओं और मुकरजी ने कहा कि जैला हृदयोद्वार पंचायतीयोंको अपने अपने विचारोंके हमारे माननीय मित्रने प्रकट किया, वैसा प्रकट करनेका अवसर दिये बिना कोई ही उद्वेग हिन्दू जातिमें बहुधा करके इस कानून जैनियों के विरुद्ध पास हो जाय । प्रस्ताव से फैल रहा है। बम्बई के मिस्टर, अब रही गौर साहबके "हिन्दू कोड" एन. एम. समर्थ ने भी प्रस्तावका की बात। यह पुस्तक सन् १६१६ की छपी विरोध किया और कहा “शास्त्रात् रुढ़ि- हुई है। आश्चर्य है कि अब तक किसी For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक ११] डाकर गौर और जैन समाज । ३२७ जैन व्यक्ति या समाजके पत्रकी ओरसे लिखा है कि हिन्दु धर्मसे विरोध करनेइसकी समालोचना नहीं हुई। कारण भी वाले सम्प्रदायोंमेंसे एक जैनधर्मावलम्बी स्पष्ट है, और वह यह कि जैन जातिमें भी हैं जिनपर हिन्दू कानून लागू होता जो कुछ जागृति हुई, उसका परिणाम है । सन् १८७१ ईसवीमें लाला शिवसिंहगत ५-६. वर्षों से प्रायः यही हो गया है रायने, जो हमारे रायबहादुर लाला कि जैन जाति का धन, बल और समय सुल्तानसिंहजी रईस देहलीके दादा थे, मापसी झगड़ों में नष्ट किया जाता है। अदालत सबजजी मेरठमें बयान किया तीर्थक्षेत्रोंके सम्बन्ध दिगम्बर-श्वेता- था कि उनके मुकदमेका फैसला हिन्दू म्बरोंकी मुकदमेबाज़ी, दिगम्बर सम्प्र- कानूनसे होना चाहिए, जैन रीतिसे नहीं। दायमें १३-२० पन्थी बैंचतान, अन्त. यह मुकदमा लन्दनमें प्रीवी कौंसिलतक आंतीय महासभाओं तथा मुखपत्रोंकी लड़ा (१ इलाहाबाद, ६८%) और यह स्थापना, उनकी आपसकी नोक झोंक, फैसला हा कि जब जैनियोका कोई दलबन्दी, और स्वतंत्र विचारोंकी रोक विशेष रीति या रिवाज गवाहोंसे निश्चित थामने जैन जातिको इस योग्य ही नहीं हो जाय तो वह माना जाय, और नहीं तो रक्खा कि वह अजैन संसारके आक्रमणों जैनियोंके मुकदमोंका फैसला हिन्दू कानून तथा आक्षेपोंसे अपने को बचानेका अथवा से होगा। इस मुकदमे में यह निश्चित हुश्रा जैन धर्मकी सच्ची प्रभावना करने और कि जैन विधवा अपने पतिकी जायदादजैन जातिका गौरव बढ़ानेका कोई काम की मालिक है और स्वतः लड़का गोद ले कर सके। सकती है। हाईकोर्ट के जजोंने अपनी तज. ____ जो कुछ मिस्टर गौरने अपनी पुस्तकमें वीजमें लिखा कि ११-१२ शताब्दियोंसे जैन धर्म या जैन जातिके विषयमें लिखा जैनियोंने वैदिक धर्म छोड़ दिया है, उनके है, वह अन्य आधार पर लिखा है। और धार्मिक सिद्धान्त बौद्धोंसे ज़्यादा मिलते उन अन्य आधारोंका निराकरण तथा हैं। वे हिन्दुओं के चार वर्णाश्रमोंको मामते खंडन करना जैनियों का कर्तव्य है । परन्तु ---- वह छोटा काम नहीं है । यह तभी हो 296 The Jains are another sect of सकता है जब कि जैन जाति की ओरसे dissenters, who still remain Hindus एक ख़ास समिति इस कामके वास्ते and to whom the Hindu Law applies. नियत हो। उसका एक कार्यालय हो और The sect is now a well known sub division of the Vaishya caste which सच श्रेणीका एक यन्त्रालय (प्रेस) उसके is divided into Aggarwalas, Mahesris पास हो।साथ ही एक बृहत् पुस्तकालय Jains. the two former being orthodox उसके अधिकारमें हो और दो चार अंग्रेज़ी, Hindus while the last being classed संस्कृत तथा प्राकृत भाषाओंके विद्वान् as Hindu heretics. They are again और जैन धर्मके ज्ञाता पुरुष आनरेरी या sub-divided into Digambris and Sweसवैतनिक रूपसे उसमें अनन्य-चित्त tambris, the former worshipping their होकर काम करनेवाले हों। god stripped of all attires, while the latter worship him clothed in costly मिस्टर गौर ने धारा नं० २६६* में raiments. The hostility between the इस धाराकी जो नकल 'जैनमित्रमण्डल' देहलीने two sects is as great as theologicum हमारे पास भेजी हैं, वह निम्न प्रकार है-संपादक। odium can reach. For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ हैं और गृहस्थीके काय्यों में ब्राह्मणोंसे सहायता लेते हैं । अन्तर इतना है कि वे मृतक संस्कार नहीं करते, पुत्रोत्पत्ति से पिता के आगामी जन्मपर कुछ प्रभाव पड़ना नहीं मानते और गोद लेना उनके यहाँ एक सांसारिक कार्य है, जिससे कुछ पारलौकिक लाभ नहीं है" (6. N. W. P. HCR.382). शिवसिंहराय बनाम दाखो । भगवानदास तेजपाल बनाम राजमल (10. B. H. C. R. 241 ) में बम्बई हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस वेस्ट्रापने लिखा है कि “जैनी हिन्दूधर्मले मतभेद रखनेवाले हैं । और जब कोई ऐसी रीति, जो देश के साधारण हिन्दू कानूनले विभिन्न हो, उपस्थित की जाय तो उसको सिद्ध करनेका भार उसपर होगा जो ऐसी रीतिको उपस्थित करे । " Jains are Hindu dissenters" ये शब्द इसी • तजवीज़ से गौर साहबने लिये होंगे ।, जैनहितैषी । मिस्टर गौर जैनधर्म और जैनजातिके वास्तविक स्वरूपसे अनभिज्ञ हैं । उन्होंने अङ्गरेज़ी किताबों में जो देखा पढ़ा, सो लिख दिया । उनको जैनधर्मले विशेष प्रेम तथा सहानुभूति न होनेके कारण उनके शब्दों तथा लेखनशैलीमें कठोरता ज़रूर आ गई है । परन्तु मेरी समझ में उन्होंने जो कुछ लिखा, वह द्वेष भाव से नहीं किन्तु अनभिज्ञताके कारण लिखा है । धारा नं० २६७* के विषयमें तो * जैनमित्रमण्डल देहली द्वारा प्राप्त हुई इस धाराकी नकल इस प्रकार है - सम्पादक । 297. The Jains differ from the Hindus not only in their tenets but in their practices in consequence. They perform no obseqeies after the corpse is buried They regard the birth of a son as having no effect on the future state of his progenitor, and conseque [ भाग १५ (3. A 55; 8 A. 319; 16 B. 347; 22 B. 416; 23 B. 257; 17. C. 518; 2. C. W, N. 154; 27. C. 379; 30. A 197; 32 A. 247; 8 C. 302.) यह स्पष्ट है कि जो कुछ लिखा गया है, वह ठीक ही है । धारा ३३१* Bengal Census ntly adoption is a merely temporal arrangement and has no spritual object. The Jain widow has consequently an absolute right of adoption and requires no express or implied authority of her husband or his kinsmen. Her adoption is nor controlled by the sacred texts. She may adopt her daughter's son and in fact any one of any age in accordance with the usage of the sect. " * इस धाराकी जो कापी जैनमित्रमण्डल देहलीने हमारे पास भेजी है, उसे हम पाठकोंके अवलोकनार्थ नीचे उधृत करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि इस धारामें जो कुछ लिखा है वह प्रायः बहुत ही आपत्ति के योग्य है । और उससे गौर साहब की निरी अज्ञानता पाई जाती है। मालूम होता है, उन्हें जैनियों तथा जैनधर्म के विषय में निजी अनुभव कुछ भी नहीं है और न उन्होंने अब तक के ऐतिहासिक अनुसन्धानों का अच्छा अध्ययन किया है। -सम्पादक । 331. Jainism claims to be the precursor of Buddhism, but it is only its child. It is in reality a compromise between Buddhism and Hinduism, an adaptation made by those who could not receive the new faith. but who neverthless found refuge in a creed, which while retaining its traditional connection with Hinduism, has borr owed from Buddhisn its doctrines and religious practice. In caurse of tlme as Buddhism lost its hold in India, its waning influence continued in Jainism till it relapsed into a form of Hinduism into which it individually became eventually merged and practically lost. For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / अङ्क ११ ] Report, Volume I, Paras 215, 216. pages 87 88 के आधारपर लिखी गई है। इसका खण्डन जैनियोंका कर्तव्य है । • भूभ्रमणसिद्धान्त और जैनधर्म । धारा ५६४ और ७७ में वही लिखा है जो धारा २६६, २६७ में है । शेष जो कुछ बढ़ाकर लिखा है वह उन्हीं फ़ैसलोंके आधारपर है जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है। धारा ७५६. में मिस्टर गौरने लिख दिया है कि जैनधर्मावलम्बी भद्रवाहुसंहिता को, जिसका निर्माणकाल ईलवी लन् से ३०० वर्ष पहले बतलाया जाता है, मानते हैं, और साथ ही मिस्टर जुग मन्दिरलाल जैनीकी बनाई हुई "जैनलॉ" पुस्तककी धारा ३६ से ४६ तकका उल्लेख किया है । यदि जैनियों में कोई और पुस्तक कानून सम्बन्धी अङ्गरेजीमें छुपी होती, अदालत हाईकोर्ट में पेश हुई होती और तजवीज़ में उसका उल्लेख होता, तो हमें आशा है कि मिस्टर गौर उसकी भी चर्चा अपनी पुस्तक में ज़रूर करते । आवश्यकता इस बातकी है कि एक बृहत् सभा करके भारतवर्षीय जैन-दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानकवासी एक कमेटी पfesोंकी नियत करें, जो जैनियोंके सम्बन्धर्मे जितनी कानूनी व्यवस्थाएँ हैं उन सबको एकत्र कर दें । और फिर वकीलोंकी एक कमेटी ऐसे संग्रहके श्राधारपर "जैननीति” तय्यार करके सरकार में पास होने को भेज दे । हिन्दू कानूनकी तरह जैन कानून कोई नहीं माना गया है। जहाँ हिन्दूधर्म लागू नहीं है, वहाँ जैनियोंको रीति सिद्ध करनी पड़ती है । इसे सिद्ध करनेमें बड़ा व्यय और परिश्रम उठाना पड़ता है। और फिर भी उसकी सिद्धिमें सन्देह ही रहता है । ३२६ इस कारण हिन्दू धर्मशास्त्र कोड रूपमें हो या न हो, परन्तु "जैनियोंका कानून स्थिर हो जाना तो अति श्रावश्यक और लाभदायक है । इसके बिना जैन जातिकी जो अत्यन्त हानि हो रही है वह बराबर होती रहेगी । I भूभ्रमणसिद्धान्त और जैनधर्म | [ लेखक - बाबू निहालकरणजी सेठी एम. एस सी. । ] श्रीयुत पण्डित रघुनाथदासजी सरनौके लिखे हुए " भूगोल भ्रमण मीमांसा" नामक लेख में जिन कल्पित सिद्धान्तोंको आधुनिक वैज्ञानिकों के सिद्धान्त बतलाकर उनके खण्डन करने की बहादुरी दिखलाई गई है, उनका उल्लेख पिछले लेख में किया जा चुका है। और पृथ्वी के आकार और उसके भ्रमणके विपक्षमें जिन युक्तियोंका प्रयोग उक्त मीमांसा में किया गया था, उनकी निर्बलताका दिग्दर्शन भी वहाँ कराया जा चुका है । परन्तु इन्हीं प्रश्नोंसे सम्बन्ध रखनेवाली कुछ अन्य बातोंका भी ज़िक्र मीमांसा-लेखकने किया है । अतः यह आवश्यक है कि उन बातों के विषयमें भी जो भ्रम फैल जानेका डर है, उसको दूर कर देनेका प्रयत्न किया जाय । पृथ्वी की आकर्षण शक्ति । यद्यपि भूभ्रमण सिद्धान्त की पुष्टिके लिए पृथ्वी की आकर्षण शक्तिकी इतनी अधिक आवश्यकता नहीं है, तब भी न जाने क्यों साधारणतः हमारे पण्डितगब इसके खण्डनको भूभ्रमण सिद्धान्तके खण्डनका एक मुख्य अङ्ग समझते हैं । पर खेद इस बातका है कि इस विषय के ज्ञानका जनता में उतना भी प्रचार नहीं For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० है जितना कि पृथ्वीके आकार सम्बन्धी बातों का। और जिन लोगोंने भौतिक विज्ञानका विशेष रूपसे अध्ययन नहीं किया है, उनको इस श्राकर्षण शक्तिका यथार्थ ज्ञान तो एक ओर रहा, श्रभासं मात्र भी नहीं होता। यही कारण है कि जब कभी इसकी चर्चा सुनाई देती है तब अनेक अद्भुत बातोंके साथ इसका सम्बन्ध जोड़ने की चेष्टाका सामना करना पड़ता है। जैनहितैषी । इस सम्बन्ध में सबसे पहली बात जो स्मरण रखनी चाहिए वह यह है कि यह शक्ति जिसे 'गुरुत्वाकर्षण शक्ति' कहते हैं, केवल पृथ्वी में ही नहीं है किन्तु संसारके जितने पुल परमाणु हैं, उन सबमे समभाव से विद्यमान है । सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र भी इसी श्राकर्षण शक्तिकी सहायता से अपना कार्य करते हैं। पृथ्वी गोल हो या चपटी, वह घूमती हो अथवा स्थिर, इन बातोंपर इस शक्तिका होना न होना निर्भर नहीं है । यह सच है कि इस शक्तिके ज्ञानकी सहायता से पृथ्वी सम्बन्धी बातोंके समझने में कुछ कष्ट कम हो जाता है, किन्तु इसलिये यह श्रावश्यक नहीं है कि भूगोल सम्बन्धी श्राधुनिक सिद्धान्तोंका खण्डन करते समय इस शक्तिके अस्तित्वका भी खण्डन किया जाय। विशेषकर जब जैनशास्त्रोंमें श्राकर्षण शक्तिका नाम भी नहीं लिया गया, उसके विपरीत किसी सिद्धान्तका प्रतिपादन भी नहीं किया गया, तब व्यर्थ ही हम लोग जैनधर्म की श्रोरसे इसका खण्डन करनेका प्रयत्न क्यों करें ? हाँ, यदि केवल साधारण वैज्ञानिक दृष्टि से इस शक्तिके सम्बन्धमें भी युक्ति और प्रमाणका प्रयोग करनेकी इच्छा हो तो उसमें कोई हानि नहीं । जिस प्रकार भूभ्रमण से भिन्न सहस्रों अन्य बातोंको समझने और माननेके लिये [ भाग १५ प्रमाणोंकी आवश्यकता होती है, उसी प्रकार इस विषय में भी होना चाहिए । फिर भी मीमांसा-लेखक और उन्होंके मतके अन्य महाशयोंके सन्तोषके लिये गुरुत्वाकर्षण सम्बन्धी कुछ श्राक्षेपका संक्षेप में उत्तर दे देना उचित होगा । सब से बड़ी आपत्ति जो पृथ्वी की आकर्षण शक्तिको माननेमें होती है, वह यह है कि पत्थर या मिट्टीके एक टुकड़े के द्वारा वस्तुओंको आकर्षित होते हुए साधारण तौरपर कोई नहीं देखता । किन्तु वैज्ञानिक ज्ञानकी अभिलाषा रखनेवाले अनेक कष्ट उठाकर भी कठिन से कठिन कार्यको कर डालने का साहस रखते हैं और उन्होंने सचमुच ही पुद्गल के छोटे छोटे टुकड़ोंका आकर्षण प्रत्यक्ष देखा है। तराजूके एक पलड़े के नीचे धातु या अन्य किसी भारी वस्तुका टुकड़ा रखने से वह पलड़ा भारी हो जाता है, इत्यादि बातें कई वैज्ञानिकों (बथा Cavendish, Joly, Poynting श्रादि) ने स्वयं देखी हैं और अनेक अन्य पुरुषों को दिखलाई हैं । अब भी जो कोई महाशय उतना कष्ट उठाना चाहें, वे अवश्य ही प्रकृतिका यह तमाशा स्वयं देख सकते हैं । इस सम्बन्धमें क्या क्या प्रबन्ध करना होगा और किन किन वस्तुओं और यंत्रोंको संग्रह करना होगा, इसका उल्लेख करना अनावश्यक है । क्योंकि ये बातें भौतिक विज्ञानकी साधारण पुस्तकों में श्रासानी से मिल सकती हैं। हाँ, यह बता देना आवश्यक है कि इतने प्रबन्धकी ज़रूरत क्यों होती है । सेर भर वस्तुको पृथ्वी पर से ऊपर उठाने में जो बल लगता है वह ८००० मील व्यासवाली प्रकाण्ड पृथ्वी के प्रत्येक परमाणुकी श्राकर्षण शक्तिका एकत्र परिणाम है और पृथ्वीका वज़न साधारण हिसाब से इसने मन है कि For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११] भूभ्रमणसिद्धान्त और जैनधर्म । जिसकी संख्या लिखने के लिये १ के पीछे तो दुसरे प्रकारकी शक्ति लगाकर वस्तुओं२३ बिन्दियाँ लगानी पड़ती हैं। इसीसे को पृथ्वीसे ऊपर खींच लेता है। अन्दाज़ा कर लीजिये कि उसी सेर भर (२) “खींचना, घूमना, चलना ये धर्म वस्तुको एक मनका टुकड़ा कितने बलसे विरुद्ध हैं। अर्थात् ये कार्य एक साथ स्त्रींचेगा। दरी आदिका हिसाब लगानेसे नहीं हो सकते। जैसे चुम्बक लोहेको ज्ञात होता है कि यदि दोनों वस्तुओंमें अपनी तरफ खींच तो लेता है, परन्तु वह एक फुटका फासला हो तो यह बल प्रायः खुद या सुईको घुमाता चलाता नहीं है। एक रत्ती के ४०.१०वे भागके बराबर भतः पृथ्वीमें आकर्षण शक्ति और उसका होगा। इसको नापना कितना कठिन है, घूमना चलना एक साथ नहीं माने जा यह प्रकट है। फिर यह कैसे आशा की सकते।" ऐसा लिखना केवल अनुभवकी जा सकती है कि साधारण तौर पर हम कमीको जतलाता है। चुम्बकको घूमते लोग इस आकर्षण शक्तिका अनुभव और चलते बहुतोंने देखा होगा। यदि न कर सकें? देखा हो तो. लकड़ीके एक टुकड़े पर इस वास्तविक कठिनाईके अतिरिक्त रखके चुम्बकको पानी में तैराने पर आकर्षण शक्तिका कार्य समझने में कोई प्रासानीसे देख सकते हैं । लोहे के टुकड़ेको विशेष कठिनाई नहीं है । प्रायः जितने चुम्बकके समीप लाने पर वह तैरता, दूसरे आक्षेप हैं, उनमें केवल पक्षपातके हुआ चुम्बक स्वयं लोहेकी ओर चलेगा। अतिरिक्त कोई बात नहीं समझमें चुम्बकके लिये आकर्षण और चलना ये पाती । इसके कुछ उदाहरण नीचे दिये धर्म विरोधी नहीं हैं । घोड़ा जब गाडीको : जाते हैं। खींचता है तब चलता भी है। खींचना १-"चुम्बक पत्थरकी पटिया छतमें और चलना ये कार्य किसी प्रकार । लगा देते हैं तब लोहेकी सुई आकाशमें विरोधी नहीं माने जा सकते। ठहरी रहती है। यदि इंट पत्थर आदिमें (३) “हवाई जहाजको यन्त्रसे हवा तभी यह थक्ति होती तो कमरेकी छत ही भर कर आकाशमें चलाते हैं। तब जाने बिना चुम्बककी सहायताके उसे खींच आकर्षणकी ताकत कि हवा निकाल लेने लेती।" इसका उत्तर सरल है। छत तो पर उसे एक घंटे भी आकाशमें ठहरा सुईको अवश्य खींच लेती, परन्तु नीचेकी सकें।" पंडितजीके इस लिखने में पहले धरती क्या करती ? उसको आकर्षण शक्ति तो यही गलत है कि एयरोप्लेन आदि जो छतसे करोड़ों गुणा बलवान है, वह हवा भर कर चलाये जाते हैं । खैर, इससे कहाँ चली जाती? चुम्बक भी उस सुईको हमें यहाँ कुछ मतलब नहीं। परन्तु बेचारी भी खींच सकता है जब उसका बल पृथ्वीकी आकर्षण शक्तिसे यह आशा पृथ्वीको आकर्षण शक्तिसे अधिक हो। क्यों की जाती है कि वह जहाजको आकाश अन्यथा चुम्बक होनेपर भी वस्तु भूमिपर में ठहरा रक्खे ? आकर्षण शक्तिका कार्य गिर पड़ती है। यदि आप कहें कि छोटे पृथ्वीकी ओर खीचनेका है या आकाशकी से चुम्बकमें पृथ्वीसे अधिक बल कहाँसे मोर उठानेका ? आकर्षण शक्ति तो आया, तो उसका उत्तर यह है कि चुम्बक- अपना कार्य पूरा करती है। ज्यों ही की शक्ति गुरुत्वाकर्षण नहीं है। वह दूसरे जहाज़के इंजिनका बल घटा कि इस प्रकारकी शक्ति है । छोटा सा मनुष्य भी शक्तिके प्रभाषसे जहाज़ गिरा। For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जैनहितैषी। . [भाग १५ इन व्यर्थकी शंकाओंके विपरित यदि. सकता है । आश्चर्य है कि जिस थालीको इस बात पर विचार करिये कि इस पार करके सूर्य की धूप और चन्द्रमाकी माकर्षणके नियमको जान लेनेके कारण चांदनी नहीं जा सकती, उसी थालीकी ज्योतिष शास्त्र के नियम कितने सरल हो आड़से चुम्बक अपना कार्य खूब सरलगये हैं, और इस पृथ्वी पर होनेवाले ताले कर लेता है ! क्या इस उदाहरणसे कार्योंके समझने में विज्ञानको कितनी यह स्पष्ट नहीं होता कि वैज्ञानिक विषयोसहायता मिली है तब अवश्य ही इसके में तनिक सा अनभव तकिये के सहारे बैठे अविस्कर्ता न्यूटनके प्रति श्रद्धा और पाद- बैठे ज़मीन पासमानके कुलाबे मिलानेसे रका भाव उत्पन्न होता है। कहीं अधिक लाभदायक होता है। आकर्षण शक्ति पर आक्षेप करने के लिये एक और अद्भुतं युक्तिका प्रयोग ___चन्द्रमा सम्बन्धी कुछ प्रश्न । भूगोल भ्रमण मीमांसामें किया गया है। चन्द्रमाके सम्बन्धमें एक बड़ी शंका पहले तो एक बिलकुल नई कल्पना की यह उत्पन्न हुई है कि वैज्ञानिक लोग गई है कि उत्तर और दक्षिणमें दो ध्रुव तारे उसे प्रकशहीन बतलाते हैं और उसकी हैं जिनमें चुम्बककी शक्ति है। और कुतुब- चांदनी को सूर्य ही की रोशनी कहते हैं । उमाकी सुई इन्हीं तारोंकी शक्ति से उत्तर- इस शंकाके जो कारण बतलाये गये हैं। दक्षिणकी ओर अपना मुख रखती है। उनमें सूर्यका अन्य तारों और ग्रहोंके तब शंका की गई है कि यदि ऐसा है तो प्रकाशका तिरस्कार करनेवाले होने रात्रिमें और कमरेके भीतर कुतुबनुमा और इस कारण उसका अपने विरोधीको अपना कार्य नहीं कर सकता; क्योंकि प्रकाश न दे सकने की जो बात है वह : आकर्षण शक्ति दीवारकोअथवा पृथ्वीको अवश्य कवित्वपूर्ण है। किन्तु दुर्भाग्यवश पार कर कैसे जा सकती है। सूर्य की धूप कविताकी कल्पनाओंका विज्ञानसे बहुत भी तो मकानमें प्रवेश नहीं कर सकती। ही थोड़ा सम्बन्ध है। फोटोके केमरेके यह समझमें न आया कि यह युक्ति पृथ्वी काँच पर जो प्रकाश ( तस्वीर ) दिखलाई ही की आकर्षण शक्तिके विषयमें क्यों न देता है वह भी सूर्य ही का प्रकाश तो है। लगाई गई। क्योंकि तब कमरेके अन्दरकी किन्तु सूर्य उसका भी तिरस्कार करता वस्तुओं पर उसका असर होता ही नहीं है। उसे देखने के लिये काले कपड़ेसे और आकर्षण शक्ति जड़से ही कट जाती। सिरको और केमरेको ढक लेना पड़ता विचित्र तारोंकी बात तो जाने दीजिये, है ताकि सूर्यको वहाँ तक पहुँचनेका और किन्तु खेद इतना ही है कि कुछ साधारण तिरस्कार करनेका अवसर ही न मिले । परीक्षा द्वारा भी यह न देखा गया कि दूसरी बात यह है कि जब सूर्य, ग्रह, उपग्रह चुम्बक अन्य वस्तुओंकी पाड़मेंसे भी और तारे सभी अपने अपने प्रकाशसे लोहेको वास्तवमें खींच सकता है। काफी प्रकाशमान हैं, तब बेचारे चन्द्रमा ही ने मोटी पीतल की थाली में एक सुई रख कर क्या अपराध किया है कि जो उसका थालीके नीचे चुम्बक रखनेसे सुई चुम्ब- मैंह काला समझा जाय? इसके उत्तरमें ककी तरफ खिंच जाती है। उस समय निवेदन यह है कि प्रथम तो ग्रह . और थालीको उलट देने पर भी सुई गिर नहीं उपग्रह भी स्वयं प्रकाशमान नहीं हैं। वे पड़ती । यह प्रत्येक मनुष्य अपने आप देख भी सूर्यकी ही कृपासे प्रकाशित हैं । हाँ, For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११ ] अन्य स्थिर तारे अवश्य सूर्य से पृथक अपना प्रकाश रखते हैं और वे हैं भी सूर्य से बहुत बड़े बड़े । इसके अतिरिक्त जैसे अन्य सब ग्रह आदि चलते हुए देखकर भी पृथ्वीको चलायमान माननेमें श्रापको आपत्ति है, उसी प्रकार श्रौरोको प्रकाशमान देखकर चन्द्रमाको भी प्रकाशवाला माननेमें हमें आपत्ति है । ख़ैर इन बातों को छोड़कर उस शंका पर विचार कीजिये जो वास्तवमें कुछ fe शंका है। "जब सूर्य और चन्द्रमा के प्रकाश भिन्न गुणवाले हैं, एक गर्म, एक शीतल, एक नेत्रोंको पीड़ा देता है और दूसरा आनन्द, तब कैसे माना जाय कि दोनों प्रकाश सूर्यके ही हैं ?" इसका उत्तर एक उदाहरण द्वारा ही ठीक होगा । यह स्पष्ट है कि पृथ्वी परकी वस्तुएँ मनुष्य, शेत, पेड़, पत्ते आदि स्वयँ प्रकाशवाले नहीं हैं। अंधेरी रात्रिमें वे दिखलाई नहीं देते। किन्तु दिनमें सूर्य के प्रकाशसे प्रकाशित होकर वे हमें दिखलाई देते हैं। उनका जो प्रकाश हमारे नेत्रों में पहुँचता है, वह उनका अपना नहीं है किन्तु सूर्य का है । परन्तु क्या हरे हरे तौका, मनोहर फूल पत्तों का प्रकाश भी सूर्य के प्रकाशकी भाँति गर्म और नेत्रोंको पीड़ा देनेवाला है? या उससे नेत्रोंको शीतलता और श्रानन्द प्राप्त होता है ? यदि यंत्रों द्वारा परीक्षा की जाय तो इसमें भी गर्मी अवश्य मिलेगी । चन्द्रमा के हलके प्रकाश में चांदनी में भी जो गर्मी है वह भी नापी जा चुकी है। किन्तु इज दोनोंमें गर्मी इतनी थोड़ी है कि हम उसका बिना यन्त्र के अनुभव नहीं कर सकते । श्रतः इस गर्मी और पीड़ा आदिसे यह कहना असंभव है कि दोनों प्रकाश एक ही स्थानले उत्पन्न नहीं हुए थे । एक और अद्भुत आपत्ति भी इस २ भूभ्रमण सिद्धान्त और जैनधर्म । ३३३ सम्बन्ध में मीमांसा - लेखकने की है। वे कहते हैं कि "जब सूर्य चन्द्रमाकी अपेक्षा पृथ्वी से अधिक दूरी पर है, अर्थात् अधिक ऊंचे पर है तो उसका प्रकाश चन्द्रमाके ऊपरी भाग ही को प्रकाशित कर सकता है। और हम पृथ्वीवाली उसके नीचे के भाग हीको देख सकते हैं । इस कारण यह संभव नहीं कि चन्द्रमाका जो भाग हमें दिखलाई दे उस पर सूर्यका प्रकाश पड़ सके ।" ऐसी आपत्तियों का निराकरण बिना प्रत्यक्ष अनुभव के होना कठिन है । अतः एक अत्यन्त सरल उपाय बताया जाता है जिसके द्वारा आप स्वयं प्रत्यक्ष देख सकेंगे कि इस आपत्ति में भूल कहाँ पर है । मान लीजिये कि कमरे की छत से एक लैम्प करीब १० फुट ऊँचाई पर लटक रहा है । और कमरे की दीवारों पर तस्वीरें प्रायः ७ फुट ऊंचाई पर लगी हैं। प्रश्न यह है कि क्या पांच फुट ऊंचा मनुष्य उन तस्वीरोंको देख सकता है ? जिस न्याय का प्रयोग चन्द्रमाके सम्बन्धमें किया गया है, उसके अनुसार तो यह असंभव है; क्योंकि तस्वीरोंके ऊपरी भाग पर लैम्पका प्रकाश पड़ेगा और हम उनके निचले भागहीको देख सकते हैं। वहां लैम्पका प्रकाश कहांले आावे ? - किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण में न्याय की क्या आवश्यकता । नित्य प्रति हम ऐसी तस्वीरों को देखते ही हैं। तब भूल कहाँ है ? थोड़ा भी विचार करने पर ज्ञात होगा कि भूभ्रमण मीमांसा में यह मान लिया गया है कि चन्द्रमा सदैव ठीक सूर्यके नीचे रहता है । अर्थात् हमें दोनों सदा एक सीधर्मे दिखलाई देते हैं। श्रमावस्याके दिन सूर्य ग्रहण के समय के अतिरिक्त और किसी दिन तो ऐसा देखने में आया नहीं । और उस समय अवश्य ही हम चन्द्रमाके प्रकाशित भागको देखने में For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [भाग १५ सर्वथा असमर्थ हैं। किन्तु स्पष्ट है कि उन्होंने अपने गणितशानका अच्छा परिसाधारणतया जब सूर्य और चन्द्रमा चय संसारको दे डाला है। उनकी उपर्युक्त एक सीधमें नहीं हैं, तब चन्द्रमाके टिप्पणी में छोटी छोटी भूलोंके अतिरिक्त प्रकाशित भागेका कुछ भी अंश न देख दो बहुत बड़ी भूलें हैं । पहली तो यह कि सकनेका कोई उपयुक्त कारण नहीं है। उन्होंने समझ लिया कि सौर जगत्में __ चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है, चन्द्रमा गर्भित होने के कारण चन्द्रमा इस विषयमें कुछ गणित सम्बन्धी शंका- पृथ्वीकी परिक्रमा सौर जगत्के वेग ४ एँ की गई हैं। लिखा है कि "आधुनिक मील प्रति सैंकड़े के वेगसे करता है। मतके अनुसार चन्द्रमा पृथ्वीसे २४०००० अर्थात् सौर जगत्में की किसी वस्तुका मील की दूरी पर है। अतः उसे पृथ्वीको वेग ४ मील प्रति सेकण्डसे कम या परिक्रमा करनेमें १५३३७१५ मील चलना अधिक हो ही नहीं सकता। हमारी रेलहोगा। सौर जगत् प्रति सेकंड ४ मील गाड़ी भी सौर जगत्में गर्भित है। अतः चलता है। और सौर जगत्में चन्द्रमा वह भी ४ मील प्रति सेकण्ड अर्थात् २४० भी गर्मित है। अतः उसका वेग भी ४ मील प्रति मिनट या १४४०० मील प्रति मील प्रति सेकंड हुआ। इस हिसाबसे घण्टेके वेगसे ही चल सकती है ! कम साढ़े तीन दिनके करीब चन्द्रमा पृथ्वीकी हरगिज़ नहीं चल सकती ! यही क्यों, एक परिक्रमा कर सकेगा। अर्थात् १२ सौर जगत् आखिर किसी निश्चित दिशामें घंटे में वह माधी पृथ्वी पर प्रकाश न कर तो चलता होगा। रेलगाड़ी भी उसी केवल साढ़े तीन हज़ार मोल परिधिमें दिशामें उतने वेगसे चलेगी। और तब प्रकाश कर सकता है। अथवा यो कहिये उसे अंजनकी भी कोई आवश्यकता नहीं। कि मस्त हो जानेके बाद हमें वह पौने किन्तु सौर जगत्के वेगको जाने दीजिये। दो दिन तक दिखलाई नहीं दे सकता। रेलगाड़ीमें मनुष्य बैठा है। रेल ४० मील सो विरोध प्रत्यक्ष प्राता है ।" । प्रति घण्टा चल । मनुष्य अपने इस सम्बन्धमें पहले तो यह सोचना कम्पार्टमेंटमें एक जगहसे उठकर दूसरी चाहिए था कि इतने सीधे गणितमें आधु- जगह जाना चाहता है। उसका वेग भी निक वैज्ञानिक लोग ग़लती कर जायँगे, यह उपर्युक्त न्यायके अनुसार ४० मील प्रति कहां तक संभव है। इतने इतने अद्भुत घण्टा ही होगा, और वह अपने अभीष्ट माविष्कार करनेवाले लोग जब केवल गुण स्थानपर उसी वेगसे अवश्य पहुँच भागके हिसाबमें गलती करने लगे तब तो जायगा। फिर चाहे कितनी ही भीड़ हो, महा अनर्थ हो जाय । इसका यह अर्थ नहीं चाहे वह कितना ही अशक्त हो, उसे कि ग़लती कभी हो ही नहीं सकती। किन्तु कुछ कोशिश करनी ही क्यों पड़े। उसका यह कि ऐसी अवस्थामै ग़लती बतलानेवा- वेग तो वह खड़ा ही रहे, तब भी४० मील लेकोबड़ी सावधानी रखनी चाहिए। कहीं प्रति घण्टा है। और यदि वह रेलके वेगऐसा न हो कि दूसरोकी गलती बतलाने से विपरीत दिशामें जाना चाहे तो में स्वयं ऐसी ग़लती कर बैठे कि सारा असंभव । यदि प्रकृतिका यह कायदा संसार हँसी उड़ावे। मुझे खेद है कि होता तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रस्तुत विषयमें मीमांसा लेखकने यह संसारमें आनन्द तो बहुत आता। किन्तु सावधानी नहीं की और इस कारण हमारे दुर्भाग्यवश हमें यह कौतुक देखने For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११ ] का अवसर प्राप्त नहीं । इसी कारण चन्द्रमाको पृथ्वी परिक्रमामें साढ़े तीन दिनके स्थान में पूरा एक चान्द्र मास लग जाता है। पुरानी बातोंकी खोज । दूसरी ग़लती यह हुई है कि हमारे मीमांसा लेखकने यह समझा कि चन्द्रमाका नित्य प्रति जो दर्शन होता है, वह इस कारण है कि चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है । इससे नतीजा यह निकला कि चन्द्रमाको प्रायः २४ घंटे में पृथ्वी की परिक्रमा कर डालनी चाहिए । परन्तु लिखते समय उन्हें यह न भूल जाना चाहिए था कि जो सिद्धान्त चन्द्रमाको पृथ्वी की परिक्रमा करता बतलाता है, वही सूर्यको पृथ्वी की अपेक्षा स्थिर बतलाता हैं । अतः जो कारण सूर्यके नित्य प्रति दर्शनका है, वही तो चन्द्रमाका भी होगा । उसके लिए चन्द्रमाको २४ घंटे में पृथ्वी प्रदक्षिणा की क्या आवश्यकता । चन्द्रमा की प्रदक्षिणा से तो केवल उसके आकार में अन्तर होता है, शुक्ल और कृष्णपक्षोंकी उत्पत्ति होती है, ज्वारभाटा आता है और कभी कभी सूर्य-चन्द्र ग्रहण देखनेका . मिलते हैं । अन्तमें मीमांसा लेखक से और पाठकोंसे मेरा पुनः निवेदन है कि यदि वे किसी वैज्ञानिक विषयका निर्णय करना चाहते हो तो पहले निष्पक्ष भावसे जो सिद्धान्त स्थिर किये गये हैं, उनका और उनके प्रमाणका खूब मनन करें। केवल मज़ाक करनेसे काम न चलेगा। वैसा करनेसे जो इस विषयके जाननेवाले हैं अथवा जिनको संसारका कुछ भी ज्ञान है, उनके हृदय में अवश्य अरुचि पैदा होती है और यदि यह मजाक जैनधर्म की ओरसे किया जाय तो जैनधर्मके प्रति भी श्रश्रद्धा उत्पन्न होती है। यदि आपका यह अभीष्ट नहीं है तो इस विषयकी चर्चा तबतक ३३५ बन्द रहनी चाहिए जबतक कि आपके धर्मशास्त्रवेत्ता पण्डित लोग वैज्ञानिक सिद्धान्तों को समझकर उनकी समालोचना करने की योग्यता न प्राप्त कर लें । पुरानी बातों की खोज । ८- स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी टीकाका रचनाकाल । 'स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा' नामका एक प्राकृत ग्रंथ जैनसमाजमें सर्वत्र प्रसिद्ध है। इसकी एक संस्कृत टोका विजय कीर्तिके पट्ट- शिष्य श्रीशुभचन्द्राचार्य की बनाई हुई है। सेठ पद्मराज जीने 'जैन सिद्धान्त भास्कर' की ४ थी किरणमें. पाण्डव पुराणके कर्ता श्रीशुभचंद्राचार्यका परिचय देते हुए, लिखा था कि उन्होंने यह टीका वि० सं० १६०० में बनाई है और इसकी पुष्टिमें टीकाकी प्रशस्तिका निम्न वाक्य प्रमाण रूपसे उधृत किया था श्रीमद्विक्रम भूपतेः परिमिते वर्षे शते षोडशे । श्रीमच्छ्रीशुभ चंद्र देवरचिता टीका सदानन्दतु ॥ साथ ही, यह नतीजा भी निकाला था कि यह टीका पाण्डव पुराणकी रचनासे आठ वर्ष पहलेकी बनी हुई है; क्योंकि उक्त पुराण वि० सं० १६०८ में बनकर समाप्त हुआ है । इस परसे बहुत से लोग उस वक्त से यही समझ रहे होंगे कि स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी इस टीकाका रचनाकाल वि० सं० १६०० है । परन्तु बात ऐसी नहीं है। प्रोफेसर पिटर्सन साहबने, अपनी ४ थी रिपोर्ट में, For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ हो जैनहितैषी। [भाग १५ इस टीकाकी जो पूरी प्रशस्ति दी है ® चरित्र' 'सन्मति चरित' या 'महावीर उसमें उक्त वाक्य निम्न प्रकारले दिया चरित्र' नामका एक संस्कृत काव्य ग्रंथ है। हुआ है-- पं० खूबचंदजी शास्त्रीने उसका हिन्दी श्रीमद्विक्रम भूपतेः परिमिते अनुवाद किया है और वह तीन वर्ष हुए, - वर्षे शते षोडशे। ... सूरतसे प्रकाशित भी हो चुका है। परन्तु माघे मासि दशावह्निसहिते मूल संस्कृत ग्रंथ, जहाँ तक हमें मालूम ख्याते दशम्यां तिथौ। है, अभी तक छपा नहीं है। इसकी दो श्रीमच्छीमहिसार सार नगरे प्रतियाँ पाराके जैनसिद्धान्त भवनमें चैत्यालये श्रीगुरोः ताडपत्रों पर मौजूद हैं, जिनमेंसे एक आदि-अन्त दोनों ओरसे खंडित है और श्रीमच्छीशुभचंद्रदेवविहिता दूसरीमें सिर्फ पहला सर्ग नहीं है। टीका सदानन्दतु ॥६॥ बम्बईके मंदिर में भी इस ग्रंथकी एक प्रति और इससे यह साफ़ मालूम होता है है और उली परसे हिन्दी अनुवाद किया कि यह टीका वि० सं० १६१३ के माघ- गया है। श्राराकी प्रतिमें इस अन्तिम* मासकी दशमीको बनकर समाप्त हुई ग्रंथका भाग इस प्रकारसे दिया हुमा हैहै। जान पड़ता है, सेठजीको टीकाकी जो "कृतं महीवार चरित्रमेतन्मया प्रति देखनेको मिली है, उसमें लेखक परस्व प्रतिबोधनार्थ । महाराजकी कृपासे इस पद्यके मध्यके दो - सप्ताधिकं त्रिंशभवप्रबंधं चरण लिखनेसे छूट गये हैं और सेठ पुरूरवाद्यन्तिम वीरनाथं ।। जीने मादि अन्तके दो चरणोंको ही पूरा पच समझकर उसे प्रमाणमें उद्धृत वर्धमानचरित्रं यः कर दिया है । अतः सर्वसाधारणको प्रव्याख्याति श्रुणोति च । अब यह समझ लेना चाहिए कि इस तस्येह परलोकेऽपि टीकाका रचनाकाल वि० सं० १६०० सौख्यं संजायते तराम् ॥ नहीं, बल्कि १६१३ है। और इसलिये यह संवत्सरे दशनवोत्तरवर्षयुक्ते टीका पाण्डव पुराणकी रचनासे पहलेकी भावादिकीर्तिमुनिनायकपादमूले । नहीं किन्तु बादकी बनी हुई है । लेखकों की मौद्गल्यपर्वतनिवासव्रतस्थसंपकृपासे कैसा कैसा उलटफेर हो जाता है सच्छावकप्रजनिते सति निर्ममत्वे ॥१०५॥ इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। विद्या मया प्रपठितेत्यसगाह्वकेन ह-असगकृत वर्धमानचरित्रकी श्रीनाथराज्यमखिलं जनतोपकारि।। दो विभिन्न प्रशस्तियाँ। प्रापे च चौडविषये वरलान यो 'असग' कविका बनाया हुआ 'वर्धमान ग्रंथाष्टकं च समकारि जिनोपदिष्टं ॥१०६।। - इत्यसगकृते वर्द्धमानचरिते महाकाव्ये • देखो रायल एशियाटिक सोसायटी बम्बई ब्रांचके ___ महापुराणोपनिषदि भगवनिर्वाणगमनोअर्नलका ऐक्स्टरा (Extra) नम्बर, सन् १८६४ का छपा हुआ। नामाष्टादशः सर्गः ॥" +आराके जैनसिद्धान्त भवनकी प्रतिसे भी यही • यह भाग हमें भवनके पुस्तकाध्यक्ष पं० शांतिराज मालूम होता है। जीके द्वारा प्राप्त हुआ है। For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११] पुरानी बातोंकी खोज। ३३७ बम्बईकी प्रतिमें भी अन्तिम भाग अब हम अपने पाठकों के सामने इसी . प्रायः वही है, सिर्फ दो एक जगह उसमें ग्रंथकी एक दूसरी प्रशस्ति रखते हैं जो कुछ अशुद्धियाँ पाई जाती हैं तथा पाठभेद पिटर्सन साहबकी चौथी रिपोर्ट में प्रकाउपलब्ध होते हैं। जैसे कि १०५ वें पद्यमें शित हुई है * और वह इस प्रकार है'व्रतस्थ' की जगह 'वनस्थ', सच्छावक की मुनिचरणरजोभिः सर्वदा भूतधात्र्यां जगह 'सच्छाविका' और, निर्ममत्वे के स्थानमें 'वा ममत्वे लिखा है। और १०६ प्रणतिसमयलग्नः पावनीभूतमूर्धा । ठे पद्म में 'प्रापे च' की जगह 'प्राय्यैव' और उपशम इव मूर्तः शुद्धसम्यक्त्वयुक्तः 'वरला' के स्थानमें 'विरला' पाठ दिया पटुमतिरिति नाम्ना विश्रुतः श्रावकोऽभूत् ॥१॥ है। इस प्रकारकी अशुद्धियों तथा पाठ- तनुमपि तनुतां यः सर्वपर्वोपवासैभेदोंके सिवाय उसमें पहले पद्य पर नं० __ स्तनुमनुपमधीः स प्रापयन्संचिनोति । १०२, दूसरे पर १०३ और शेष दोनों सततमपि विभूतिं भूयसीमन्नदानपधों पर नं० १०४ डाला है। अस्तु । इस अन्तिम भागमें पहले दो पद्य तो ग्रंथकी प्रभृतिभिरुपपुण्यं कुंदशुभ्रं यशश्च ॥२॥ समाप्ति और उसके कथन श्रवणके फल- भक्तिं परामविरतां समपक्षपातासूचक हैं। शेष दो पद्य ऐसे हैं जिन्हें मातन्वती मुनिनिकाय चतुष्टयेऽपि । . ग्रंथकी प्रशस्ति कहा जाता है। इन दोनो वेरित्तिरित्यनुपमा भुवि तस्य भायों पद्यों में ग्रंथकर्ता कवि असग अपना सम्यक्त्वशुद्धिरिव मूर्तिमती सदाभूत् ।।३।। परिचय इस प्रकार देते हैं कि मैंने संवत् ११० में भावकीर्ति' मुनिनायकके चरणोंके पुत्रस्तयोरसग इत्यवदात कीयो. समीप, मौद्गल्य पर्वतपर रहकर और रासीन्मनीषिनिवहप्रमुखस्य शिष्यः श्रावकीय व्रतोके अनुष्ठानपूर्वक सत्- चंद्रांशुशुभ्रयशसो भुवि नागनंद्याश्रावक बनकर तथा निर्ममत्व होकर चार्यस्य शब्दसमयार्णवपारगस्य ॥४॥ विद्याका अध्ययन किया है; बादको चौड (चोल ?) देशमें जनताका उपकार करने- सद्वृत्तं दधता स्वभावमृदुना निःश्रेय• वाले श्रीनाथके राज्यको प्राप्त हुआ हूँ सप्रार्थिना । साधूनां हृदयोपमेन शुचिना और वहाँ 'वरला' नगरीमें रहकर मैंने संप्रेरितः प्रेयसा। जिनोपदिष्ट ग्रंथाष्टककी रचना की है। ___एतत्सादरमार्यनंदिगुरुणा सिद्ध्यैइस परिचयसे इतना मालूम होता है कि असग कवि भावकीर्ति मुनिके शिष्य । ___ व्यधत्तासगः कीयुत्कीर्तनमात्र चारु चरितं थे। उन्होंने मौद्गल्य पर्वतपर रहनेके श्रीसन्मतेः सन्मते ॥५॥ बाद कुछ अर्से तक चौड देशकी वरला इति वर्धमानचरित्रं समाप्तम् ।” नगरीमें निवास किया है, ग्रंथाष्टककी इस प्रशस्तिके पहले और "कल्पाः (आठ ग्रंथोंकी) रचना की है और उनका कल्याणमुच्चैः सपदि जिनपदे पंचमं तस्य मस्तित्व समय विक्रमकी १०वीं शताब्दी है। --- *देखो रायल एशियाटिक सोमायटी बम्बई प्रांचके - इस प्रतिका अन्तिम भाग हमें श्रीयुत पं० नाथूराम ' जर्नलका ऐक्स्ट्रा (Extra) नम्बर सन १८६४ का नी प्रेमीके द्वारा प्राप्त हुआ है। छपा हुआ। For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [भाग १५ कृत्वा" इत्यादि पद्य नं. १०१ के बाद * अपने कृश ( दुबले पतले तथा कोमल) ग्रंथकी अन्तिम संधि इस प्रकार दी है- शरीरको और भी कृश किया था, हमेशा . "इत्यसगकृते श्रीवर्धमानचरिते महा. अन्नदानादिकके द्वारा बहुत कुछ पुण्य काव्ये भगवनिर्वाणगमनो नामाष्टादशः तथा निर्मल यशका संचय किया करते थे सर्गः ॥१८॥" और उनकी स्त्री (असगकी माता) पिटर्सन साहबने जिस प्रति परसे वेरत्ति भी उन्हींके जैसी धर्मपरायणा, इस प्रशस्तिको उतारा है, वह तीन सौ यशस्विनी तथा भक्तिमती थी। वर्षकी लिस्त्री हुई है। वह प्रति किसी इस प्रशस्तिका दूसरी प्रशस्तिके साथ समय हर्षकीर्ति मुनिकी थी और संभ. यद्यपि कोई मेल नहीं है, परन्तु जहाँ तक हम देखते हैं, विरोध भी कुछ वतः उन्हीकी लिखी हुई जान पड़ती है; क्योंकि ग्रन्थकी समाप्तिके बाद उसमें पाया नहीं जाता। यह कहा जा सकता ग्रन्थके स्वामित्वादि विषयकी सूचना इस है कि पहली प्रशस्तिसे असगके गुरु प्रकारसे लगी हुई है _ 'भावकीर्ति 'मालूम होते हैं और यहाँ उन्होंने साफ़ तौरसे अपनेको 'नाग. - "संवत् १६७९ वर्षे आश्विनमासे नंद्याचार्य का शिष्य लिखा है, यही नवमीदिने सोमवासरे श्रीमूलसंघे सर. विरोध है और इसलिये दोनोमेसे किसी स्वंतीगच्छे बलात्कारगणे नंद्याम्नाये भट्टा- एकको ही ठीक कहना होगा। परन्तु इस रक श्रीप्रभाचन्द्र धर्मचन्द्र ललितकीर्ति- प्रकारके विरोधको विरोध नहीं कहते । चन्द्रकीर्त्यादीनां पदे श्रीमद्देवेन्द्र कीर्ति- अथवा यह कोई ऐसा विरोध नहीं है स्तत्प्रियांतेवासिनो मन्दीकृतमिथ्यावादिनो जिससे दोनों का एकत्रीकरण न हो सके। हर्षकीर्तिनानो मुनेरिदं पुस्तकं चिरं एक मनुष्यके अनेक गुरु हो सकते हैं स्थेयात् ॥" और अक्सर हुआ करते हैं। वह उनमेसे, पिटर्सन साहबकी इस प्रशस्तिसे यथावश्यकता, चाहे जिसका उल्लेख कर सकता है। भावकीर्तिसे असगने विद्या मालूम होता है कि असगके पिताका पढ़ी थी । कौन सी. विद्या, यह कुछ नाम 'पटुमति' और माताका नाम मालूम नहीं। परतु वह विद्या कोई हो, 'धेरत्ति' था । वे शब्दसमयार्णवके असग उस विषय में उनके शिष्य ज़रूर थे पारगामी 'नागनन्दी' प्राचार्य के शिष्य थे और नागनंद्याचार्यके शिष्य उन्हें किसी और उन्होंने 'आर्यनन्दी' गुरुकी प्रेरणासे दूसरे विषय में समझना चाहिए । वे इसी इस ग्रन्थकी रचना की है। साथ ही, यह भी मालूम होता है कि उनके पिता (पिछली) प्रशस्ति में 'आर्यनंदी' को भी अपना गुरु लिखते हैं। मालूम नहीं, यह पटुमति बहुत ही शांत स्वभावके धर्मात्मा, लिखना उनका किस दृष्टिसे है-पूज्य या शुद्ध, सम्यग्दृष्टि, बुद्धिमान् और महती विभूतिके खामी एक प्रसिद्ध श्रावक थे। बड़े होने की दृष्टिसे अथवा उनसे भी उन्होंने संम्पूर्ण पोंमें उपवास करके उन्होंने कुछ सीखा था। गरज़ यह कि दोनों प्रशस्तियों में परस्पर ऐसा कोई • बम्बईकी प्रतिमें इसी पद्य नं० १०१ के बादसे विरोध नहीं पाया जाता जिससे वे, बिना उसके अन्तिम भागका प्रारंभ हुआ है, ऐसा अनुवाद परसे किस किसी विशेष अनुसंधानके, 'असग' नामपाया जाता है। के दो विभिन्न व्यक्तियोंकी वाचक समझ For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११] पुरानी बातोंकी खोज। ली जायँ-खासकर ऐसी सूरतमें जब कि निकलती है कि वह परिचय उस वक्त वे एक ही ग्रन्थकी दो प्रतियों में पाई लिखा गया है जबकि आठ ग्रन्थ (कौन जाती हैं। परन्तु अब प्रश्न यह होता है कौन, यह कुछ पता नहीं ) बन चुके थे कि एक ही ग्रन्थकी दो विभिन्न प्रशस्तियाँ और कवि महाशय वरला नगरीको होने की वजह क्या है । समाज के विद्वानों छोड़कर किसी दूसरे स्थानको जानेके को हल करने का यत्न करना चाहिए लिये प्रस्तुत थे अथवा जा चुके थे। और और इस बातको खोज निकालना चाहिए उन्होंने अपनी याददाश्तके तौर पर इन कि ग्रन्थ की प्रशस्तिके सम्बन्धमें यथार्थ पद्योंको कहीं लिख रक्खा था, जिन्हें वस्तुस्थिति क्या है। यद्यपि इस विषय- बादको किसी तरह पर प्रशस्तिका यह का हम अभीतक कोई ठीक निर्णय नहीं रूप प्राप्त हुआ है। अन्यथा, वर्धमानकर सके, तो भी इन प्रशस्तियों पर विचार चरित्रकी समाप्तिके बाद कविका प्रशस्ति करते हुए हमारे नोटिस तथा ध्यानमें जो रूपसे अपना केवल इतना ही और इसी जो बातें आई हैं, उन्हें हम विचारकोंके प्रकारका परिचय देना बहुत ही कम उपयोगार्थ सूचना रूपसे नीचे देते हैं- संभव जान पड़ता है। ऐसी हालतमें यह १-पिटर्सन साहबकी रिपोर्ट में प्रका- बात कुछ जीको नहीं लगती कि एक कवि शित प्रशस्ति प्रायः उसी ढङ्गकी है जिस अपने विद्याभ्यासका तो संवत् दे, परन्तु . ढङ्गकी प्रशस्तियाँ धर्मशर्माभ्युदय, चन्द्र- जिस ग्रन्थकी प्रशस्ति लिख रहा हो, प्रभ और पार्श्वनाथचरित (वादिराजकृत) उसकी समाप्तिके संवत्का ज़िकर तक जैसे महाकाव्य ग्रन्थों में पाई जाती हैं। न करे और न जिस व्यक्तिकी खास अर्थात् , जिस प्रकार इन काव्य ग्रन्थों में प्रेरणासे वह ग्रन्थ लिखा गया हो उसका अन्तिम सर्ग (सन्धि) के बाद जुदा नम्बर ही कोई नामोल्लेख करे । यदि कवि डालकर प्रशस्तिके पद्य दिये गये हैं, उसी महाशयका पाठ ग्रन्थों के निर्माणके बाद प्रकार यहाँ भी भन्तिम सर्गके बाद जुदा भी और अधिक समय तक उसी नगरीमें नम्बरोंके साथ वे पद्य पाये जाते हैं। रहना होता, तो उस अर्से में उनके द्वारा साथ ही, अन्तिम सन्धिसे पहले के पद्यों और भी नये ग्रंथोंके रचे जाने की संभामें देवोंका पंचम कल्याणक करके अपने वना थी और इसलिये वे कभी इस अपने स्थानको जानेका जो आशय है, वह बातको न लिखते कि वरला नगरीमें भी इन ग्रन्थों में परस्पर समान है। इससे उन्होंने आठ ग्रन्थोकी रचना की है। यह प्रशस्ति ग्रन्थके साथ बहुत कुछ और यदि ऐसा लिखना ही होता तो वे सुसम्बद्ध और क्रमबद्ध मालूम होती है। उसके साथ उस समयका भी ज़रूर २-भाग और बम्बई की प्रतियों- उल्लेख करते जिस समब तक उन्होंने उक्त में अन्तिम सन्धिके पहले जो चार पद्य ग्रन्थाष्टककी रचना की थी। बिना ऐसा पाये जाते हैं, उनमें पहले दो पद्य तो किये और बिना उस नगरीको छोड़कर प्रन्थकी समाप्ति तथा फल के सूचक किसी दूसरी जगह गये या जानेका हैं। शेष दो पद्यों में ग्रन्थकर्ताने अपने निश्चय हुए उक्त प्रकारके लिखनेकी ओर विद्या पढ़ने और वरला नगरी में बुद्धिमानोंकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। रहकर ग्रन्थाष्टककी रचना करने का जो ३-ग्रन्थों की प्राचीन तथा अर्वाचीन परिचय दिया है, उससे ऐसी ध्वनि प्रतियोंके अवलोकन करनेसे बहुधा यह For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [ भाग १५ बात देखने में आई है और कितनी ही बार ग्रन्थकी भूमिकामें प्रकाशित की जायगी। हमने उसका हितैषी में नोट भी किया है प्रशस्तियों की ऐसी हालत होते हुए, कि लेखक लोग अक्सर प्रशस्तियाँ सम्भव है कि पिटर्सन साहबकी रिपोर्ट. उतारना छोड़ जाते हैं, चाहे उनका यह वाली प्रशस्ति ऐसी ही किसी वजहसे छोड़ना अपनी रायके मुताबिक अनुप- किसी प्रतिमें छूट गई हो या न उतारी योगी समझकर हो, प्रमादसे हो और गई हो और जिस विद्वान्के अधिकारमें या समझकी किसी गलती तथा भूलके वह प्रति हो; उसे असग कविका कहींसे कारण हो। कितने ही शास्त्रबंडल, गुटके वह परिचय मिला हो जो श्रारा आदिकी तथा पोथे ऐसे पाये जाते हैं जिनमें एक प्रतियों में पाया जाता है और उसने उसे एकमें कई कई ग्रन्थ लगातार लिखे हुए उपयोगी समझकर अपनी प्रतिमें लिख • हैं और किसी किसी ग्रन्थमें ग्रंथकी लिया हो। बादको जब उस प्रतिपरसे समाप्ति लिख देने के बाद प्रशस्ति लगी दूसरी प्रतियाँ हुई हो तब वह परिचय हुई होती है । लेखक लोग बहुधा उस ग्रन्थका ही एक अङ्ग बन गया हो और समाप्ति परसे ग्रंथका होना वहीं तक उसने प्रशस्तिका रूप धारण किया हो । समझकर उसी हद तक उसकी कापी अथवा यह भी सम्मव है कि असग कर देते हैं और आगे प्रशस्तिको पढ़कर कवि ने, पहले इस ग्रन्थकी कोई प्रशस्ति देखनेका कष्ट नहीं उठाते-यह समझ ही न लिखी हो, सिर्फ ग्रन्थकी समाप्ति लेते हैं कि अब इसके आगे दूसरा आदिके सूचक वे दो पद्य (कृत महावीर 'प्रन्थ है। इस तरह पर बहुत कुछ चरित्रमित्यादि) लिखे हो जो पारा प्रशस्तियाँ छूट जाया करती हैं और यही आदि की प्रतियों में पाये जाते हैं। साथ वजह है कि एक ही ग्रन्थकी कुछ प्रतियों में ही, ग्रन्थकर्ताने अपनी प्रतिमें याददाश्तके उसकी प्रशस्ति पाई जाती है और तौरपर उन दो पद्योंको भी लिख रक्खा कुछमें वह बिलकुल ही देखनेको नहीं हो जिसमें उन्होंने अपने विद्याध्ययन और मिलती। उदाहरण के लिये श्रारा जैन- वरला नगरी में ग्रन्थाष्टकके रचने का ज़िकर सिद्धान्त-भवनकी श्रुति मुनिकृत 'भाव- किया है । उस वक्त पाठकों की माँगकी संग्रह' की एक ताड़पत्रांकित प्रतिको वजहसे जो प्रतियाँ हुई हो उनमें वे चारों लीजिये । इसमें अन्तिम गाथा 'इदिगुण' ही पद्य ग्रन्थके एक अङ्ग रूपसे नकल हो के बाद “इति भावसंग्रहः समाप्तः" यह गये हो। बादको ग्रन्थकर्ताने इस ग्रन्थकी प्रन्धकी समाप्तिसूचक वाक्य देकर सात वह प्रशस्ति लिखी हो जो पिटर्सन गाथाओं में ग्रन्थकी प्रशस्ति दी है और साहबकी रिपोर्ट में पाई जाती है और उसके बाद फिर वही समाप्तिका वाक्य उसके लिखे जाने पर फिर उन दों पद्योंकी दिया गया है । ग्रन्थकी यह प्रशस्ति और कोई ज़रूरत न समझी गई हो जो पहले कितनी ही प्रतियों में नहीं पाई जाती। समाप्ति आदिके सूचक लिने थे और इसहाल में यह ग्रन्थ माणिकचन्द ग्रन्थमाला• लिए उन्हें ग्रन्थकर्ताने स्वयं निकाल दिया में भी बिना प्रशस्तिके ही छपा है, यह हो । और तबसे जो प्रतियाँ प्रन्थकर्ताकी खबर पाकर हमने इस प्रन्थकी प्रशस्ति • अपने जीवन में हर एक ग्रन्थकत को अपने ग्रन्थ के को ग्रन्थमालाके मन्त्री साहबके पास घटाने बढ़ानेका अधिकार रहता है, और इससे भी ग्रन्थों में भेजा है और इसलिये अब वह शायद पाठभेद हो जाया करते है। For Personal & Private Use Only ___ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११ ] पुरानी बातोंकी खोज। ३४१ उस संशोधित प्रतिपरसे उतारी गई हों असग कविका कोई दूसरा ग्रन्थ मिले तो उनमें पिटर्सन साहबकी रिपोर्टवाली उस ग्रन्थकी प्रशस्तिको प्रकाशित करावे। प्रशस्ति ही पाई जाती हो। आरा और और जिन्हें ऊपर दी हुई जानने योग्य बम्बईकी प्रतियों में ग्रन्थका विशेषण बातों से किसी की भी बाबत कुछ मालूम अन्तिम संधिमे, 'महापुराणोपनिषद्' भी हो वे उसे सूचित करें। जब तक ऐसा दिया है.परन्त वह उस प्रतिमें नहीं पाया नहीं होगा तब तक पूरा अनुसन्धान जाता जिस परसे पिटर्सन साहबने होना कठिन है। प्रशस्ति उतारी है। सम्भव है कि यह इस प्रकारके प्रसङ्गोसे पाठक स्वयं भी ग्रन्थकर्ता द्वारा संशोधनका ही परि- समझ सकते हैं कि जैनियों के लिए ऐतिणाम हो। हासिक क्षेत्रमें काम करनेकी, सम्पूर्ण कुछ भी हो, हमारी राय में इन विभिन्न ग्रन्थादिकोंकी जाँच करके उनसे ऐति. प्रशस्तियोंका कारण लेखकोंकी कुछ गड़. हासिक कर्तृत्व खोज निकालनेकी कितनी बड़ी ज़रूर है, और उसको मालूम करने- अधिक जरूरत है। परन्तु हमें दुःखके के लिए विद्वानोंके प्राचीन प्रतियोंके साथ लिखना पड़ता है कि जैनियों में टटोलनेकी जरूरत है। साथ ही, उन्हें ऐतिहासिक प्रेमका प्रायः बिलकुल ही मौद्गल्य पर्वत, वरला नगरी, श्रीनाथ प्रभाव पाया जाता है। कितनी ही बार राजा और असगके बनाये हुए दूसरे हम प्रेरणा करते करते और चेतावनी ग्रन्थोंका पता लगाना होगा और इस देते देते थक गये, परन्तु किसी भी भाईके बातकी खोज करनी होगी कि भावकीर्ति कानपर अभी जूं तक नहीं रगी । वे मुनि, नागनन्दी प्राचार्य और आर्यनन्दी* अपनेको प्राचीनता और पूर्वजोंका भक्त गुरुका समयादिपूर्वक विशेष परिचय कहते जरूर हैं, लेकिन प्राचीनता और क्या है, जिससे दोनों प्रशस्तियोंके सामं- पूर्वजोकी भक्तिका सचा भाव उनमें प्रायः जस्यकी जाँच हो सके। ऐसा होने पर जरा भी दृष्टिगोचर नहीं होता। उन्हें सब गुलझड़ी खुल जायगी और इन अपने पूर्वजोंके नामों तककी खबर नहीं प्रशस्तियोंके सम्बन्धमें यथार्थ वस्तुस्थिति और न यह मालूम है कि वे किस सन् बहुत कुछ सामने आ जायगी। इसके सम्वत्में हुए हैं और उन्होंने क्या क्या लिए हमारे जैनी भाइयोंको चाहिए कि काम किये हैं । मालूम करना शायद वे वे अपने अपने यहाँके शास्त्रभाण्डारोंको चाहते भी नहीं-यही वजह है कि वे टटोलें और जहाँ कहीं उक्त वर्धमान अपने इतिहासकी ओर बिलकुल ही पीठ चरित्रकी प्रशस्तिमें कोई विशेषता पाई दिये हुए हैं और सिर्फ दो एक विद्वान् जाय, उस विशेषताको और यदि कहीं ही, सो भी अपनी रुचिसे और टूटे - हालों, ऐतिहासिक क्षेत्रमें कुछ काम • आयनन्दी नामके एक प्राचार्य धवला और जय करते आए नजर आ रहे है। साई धवला टीकाओंके कर्ता श्रीवीरसेन प्राचार्य के गुरु थे और आर तथा पारसी आदि जातियाँ इतिहासके वे विक्रमकी हवीं शताब्दीके मध्यकालीन विद्वान् है । परन्तु असगका समय भारा आदिकी प्रशस्तियोंसे १० वों शताब्दी तु पीछे कितना अधिक खर्च कर रही हैं पाया जाता है, इसलिए जिन आर्यनन्दी गुरुको प्रेरणासे और कितनी भारी भारी तनख्वाहे देकर उन्होंने वर्धमान चरितकी रचना की है, वे उस नामके कोई विद्वानोंसे काम कराती हैं, परन्तु वहाँ दूसरे ही आचार्य होने चाहिएँ। पर अफसोस है कि हमारे जैनी भाई २ For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३४२ जैनहितैषी। [भाग १५ अपने निःस्वार्थ भावसे आनरेरी तौरपर प्रकारकी सहायता प्रदान करेंगे, उनके हम काम करनेवाले सेवकों को साधन-सामग्री. बहुत आभारी होंगे। की सहायता पहुँचाना तक भी अपना विशेष सूचना-इस नोटकी समाप्तिकर्तव्य नहीं समझते ! उनसे जब कभी के बाद हमें जयपुरके एक मित्र महाशवकोई बात दरियाफ्त की जाती है या की कृपासे सग कविके 'शान्तिनाथ अपने यहाँके शास्त्र-भण्डारोंमें किसी पराण' की एक प्रशस्ति प्राप्त हुई है, जो विषयको खोज करके सूचित करनेकी इस प्रकार हैप्रेरणा की जाती है, तो वे प्रायः चुप लगा जाते हैं और कोई उत्तर नहीं देते। इससे "मुनिचरणरजोभिः सर्वदा भूतधाभ्यां वे इतिहासके महत्वको कितना समझते प्रणतिसमयलग्नैः पावनीभूतमूर्द्धा । हैं, उन्हें अपने इतिहाससे कितना प्रेम है उपशमइव मूर्तः शुद्धसम्यत्क्वयुक्तः और उसकी कितनी अधिक फिकर तथा पटुमतिरिति नाम्ना विश्रुतः श्रावकोभूत्।२४२ चिन्ता है, इन सब बातोंका सहृदय तनमपि तनुतां यः सर्वपर्वोपदासैपाठक सहजहीमे अनुभव कर सकते हैं। यदि जैनियों की यही लापर्वाहीकी स्तनुमनुपमधीः स्म प्रापयत्संचिनोति । हालत रही तो वे शीघ्र ही दिन दिन क्षीण सततमपि विभूतिं भूयसीमन्नदानहोनेवाला अपना रहा सहा इतिहास भी प्रभृतिभिरुरुपुण्यं कुंदशुभ्रं यशश्च ॥२४३॥ खो बैठेगे और तब उन्हें इस युगमें भक्तिं परामविरतं समपक्षपाता. संसारमें अपना अस्तित्व बनाये रखना मातन्वती मुनिनिकायचतुष्टयेऽपि । भी कठिन हो जायगा। इसलिए जैनियों. वेरोतिर्षि को शीघ्र ही सावधान होनेकी जरूरत सम्यत्क्वशुद्धिरिव मूर्तिमतीपराऽभूत्॥२४४ . . है। यदि वे इस वक्त भी चेत जायें और ऐतिहासिक क्षेत्रमें उतरकर पुरानी पुत्रस्तयोरसग इत्यवदातकीयोबातोकी खोज करने करानेकी तरफ लग रासीन्मनीषिनिवह प्रमुखस्य शिष्यः । जायँ, इतिहासका एक जुदा ही विभाग चंद्रांशुशुभ्रयशसो भुवि नागनंद्यास्थापित करके नियमानुसार उसका काम चार्यस्य शब्द समयाणवपारगस्य ॥२४५॥ चलावें तो अब भी उनके पास इतनी तस्याभवदव्यजनस्य सेव्यः सामग्री मौजूद है कि वे उसके आधार सखा जिनाप्यो जिनधर्मसक्तः । पर अपना बहुत कुछ सुश्रृंखलित और क्रमबद्ध इतिहास तैयार कर सकते। ख्याताऽपि शोयोत्परलोकभीरु और उसके द्वारा फिर अपने को ही नहीं र्द्विजातिनाथोऽपि विपक्षपातः ॥२४॥ बल्कि देश भर को लाभ पहुँचा सकते हैं। व्याख्यानशीलत्वमवेक्ष्य तस्य प्राशा है, सहृदय पाठक हमारी इस श्रद्धां पुराणेषु च पुण्यबुद्धेः। बार बार की पुकार पर अब जरूर ध्यान औचित्यहीनोऽपि गुरौ निबंधे देंगे, इसीसे प्रसंग पाकर हमें इतना तस्मिन्नहासीदखगः प्रबंधम् ॥२४॥ लिखने की जरूरत पड़ी है। जो भाई ऐतिहासिक क्षेत्रमें अवतीर्ण होकर हमारा चरितं विरचय्य सन्मतीयं. हाथ बटावेंगे अथवा हमें किसी सदलंकारविचित्र वृत्तवंधम् । For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११ ] स पुराणमिदं व्यधत्त शांते रसगः साधुजनप्रमोहशांत्यै ॥ २४८ ॥ इत्यगकृतौ शांतिपुराणे भगवतो निर्वाणगमनो नाम षोडशः सर्गः । " पुरानी बातोंकी खोज । जयपुर की जिस प्रतिपरसे यह प्रशस्ति उतारी गई है, वह भाषाढ़ सुदी ११ भौमवार संवत् १५६१ की ( क़रीब चार सौ वर्षकी लिखी हुई है, ऐसा मित्र महाशय सूचित करते हैं । अस्तु; इस प्रशस्तिका वर्धमान चरित्रको ऊपर उद्घृत की हुई प्रशस्तियों के साथ मिलान करने से मालूम होता है कि इसका कोई पद्य आरा श्रादिकी प्रतियोवाली प्रशस्तिके साथ नहीं मिलता । प्रत्युत् इसके प्रशस्तिके पहले चार पद्य वही हैं जो पिटर्सन साहबकी रिपोर्टवाली प्रशस्तिके शुरूमें पाये जाते हैं। और एह ही ग्रंथकर्ताकी दो कृतियोंमें ऐसा अक्सर हुआ करता है। उदाहरण के लिये पं० श्राशाधर जीके ग्रन्थोंमें उनकी प्रशस्तियोंको देखना चाहिए जिनके शुरू में कितने ही पद्य समान रूपले पाये जाते हैं। इस प्रशस्तिके अन्तिम पद्यसे वह भी मालूम होता है कि वर्धमानचरित्र ( सन्मतिचरित) 'को रचने के बाद ही कविने इस शांति नाथ पुराणकी रचना की है। और वर्धमान चरित्र की रचना के इस उल्लेख से ऐसा ध्वनित होता है कि शायद वर्धमान चरित्र ही उनकी पहली ख़ास कृति है । यदि उससे पहले भी उन्होंने किसी दूसरे उल्लेख योग्य ग्रंथका निर्माण किया होता तो वे इसी तरह उसका भी यहाँ तथा पिटर्सन लाइबकी रिपोर्टवाली प्रशस्ति में जरूर उल्लेख करते जैसा कि पं० आशाधर ने अपने ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोमै उस उस ग्रन्थसे पूर्व पूर्वके रचे हुए प्रन्थोंका उल्लेख किया है । परन्तु ३४३ ऐसा नहीं किया गया; इसलिये धारा श्रादिकी प्रतियोंवाली प्रशस्तिमें आठ ग्रंथोके रचे जानेकी जो बात है, वह वर्धमान चरित्रके रचे जानेके वक्त तककी नहीं बल्कि उससे बहुत पीछेकी मालूम होती है उस वक्तकी जब कि शांतिनाथ पुराणके बाद संभवतः छः ग्रन्थोंकी रचना और हो चुकी थी और इसलिये श्रारा श्रादिकी प्रतियोवाली प्रशस्ति बहुत कुछ आपत्तिजनक जान पड़ती है। शांतिनाथ पुराणकी इस प्रशस्ति से हमारा विचार तो अब यही दृढ़ होता है कि वर्धमानचरित्रकी वास्तविक प्रशस्ति वही है, और श्रारा श्रादिकी प्रतियोंवाली प्रशस्ति किसी ऐसी ही घटनाका परिणाम है जिसकी संभावनाका हमने ऊपर नं० ३ में उल्लेख किया है। और यदि यह साबित हो जाय कि विक्रमकी १० वीं शताब्दी में 'नागनंदी' और 'आनंदी' नामके कोई आचार्य नहीं हुए हैं, तो उस समय शायद हमें यह कहने में भी कुछ आपत्ति नहीं होगी कि आरा आदिकी प्रतियों के वे अन्तिम दो पद्य 'अलग' नामके किसी दूसरे ही कविले सम्बन्ध रखते हैं और किसी तरह पर वर्धमानचरित्रकी किसी प्रतिमें प्रक्षिप्त हो गये हैं। और उसी प्रति परसे श्रागेकी प्रतियों में फिर उनका सिलसिला चल निकला है। खोज होने पर यह सब कुछ पता चल जाने की संभावना है। शांतिनाथ पुराणकी इस प्रशस्तिसे. एक बात और भी मालूम होती है; और वह यह कि अलग कविके एक सेव्य मित्रका नाम 'जिनाप्य' था, जो जातिसे ब्राह्मण होने पर भी जैनधर्मानुयायी था, पक्षपात रहित था, बहादुर था और साथ ही परलोक भीरु था । उसकी व्याख्यानशीलता और पुराण For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी । ३४४ श्रद्धा को देखकर ही यह पुराण रचा गया है । जैनहितैषीपर विद्वानोंके विचार | ( गतांक से आगे । ) १३- श्रीयुत बाबू निहालकरणजी सेठी, एम. एस-सी, बनारस सिटी । ता० ११-१०-२१ "इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि जैनहितैषी उन उच्च कोटिके मालिक पत्रों मेसे है जिनके द्वारा सत्यका निर्णय और प्रचार करने में संसारको सहायता मिलती है। अन्य जैन पत्रोंकी भाँति उसमें संकी ता और पक्षपात नहीं देख पड़ता और वैज्ञानिक दृष्टिसे सत्यकी खोजमें जिस स्वतन्त्रता और निर्भीकताकी श्रावश्यकता है, वह इस पत्रके संचालनमें यथेष्ट मात्रामें पाई जाती है । प्रचलित लोक- रूढ़ि के विरुद्ध मतका प्रकाश करना बड़े साहसका काम है और ऐसा करनेमें पत्र-संचा कोंको अपमान के अतिरिक्त बहुत आर्थिक हानि भी उठानी पड़ती है। किन्तु जैनसमाजके और समस्त सत्यमें भी संसारके लिए गौरव की बात है कि जैनहितैषी में वह साहस है । इसके लेख बड़े गवेषणापूर्ण होते हैं और जैन समाजका उपकार और उन्नति स्पष्ट रीतिले उनका उद्देश्य रहता है । जैनशास्त्रोंमेंसे कूड़ा करकट निकालकर उनका यथार्थ स्वरूप प्रकट करनेका जो प्रशंसनीय प्रयत्न जैनहितैषी कर रहा है, उससे विश्वास है कि कभी जैनधर्मकी वास्तविक पवित्रता संसार में प्रकाशित हो जायगी और उसपर जो मिथ्या दोष लगाये जाते हैं, उनसे वह मुक्तिलाभ कर लेगा। यह बड़े दुःखको 1 [ भाग १५ बात है कि इसके लेखों का विरोध करनेवाले अपने पांडित्य से काम न लेकर बहिकार आदि दुष्ट उपायोंका अवलम्बन करते हैं । यदि वे भी इतनी ही खोजपूर्वक अपने मतकी पुष्टि करते तो कितना अच्छा होता । जो हो, समाज-सुधार, धर्मप्रचार, सत्य-निर्णय, इतिहास श्रादि किसी भी दृष्टि से देखिये, जैनहितैषी वास्तव में हमारे गर्वकी वस्तु है और इसके लिए उसके संचालक अवश्य ही प्रशंसा के पात्र हैं । १४ – श्रीयुत मुनिविजयजी, सम्पा दक 'महावीर', पूना । महावीर श्रंक १२७, आश्विन शु० १ "इस पत्रको प्रकाशित होते हुए १५ वर्ष पूरे हो गये। कई वर्षतक इसका संपादन श्रीयुत पण्डित नाथूरामजी प्रेमी करते रहे और उन्हींके अनुरोधसे गत वर्ष से यह काम श्रीयुत बाबू जुगुल किशोरजीने अपने हाथमें लिया है। प्रेमीजीके सम्पादकत्वमें जितना सहकार बाबूजीका था, उतना ही सहकार प्रेमीजीका अब बाबूजीके सम्पादकत्व में है । अर्थात् पिछले कई वर्षोंले यह पत्र इन दोनोंकी समान सहकारितासे संचालित होता चला आ रहा है । यह पत्र, जैसा कि इसके मुखपृष्ठ पर लिखा रहता है, लममुच ही “किसी स्वार्थबुद्धि से प्रेरित होकर निजी लाभके लिए नहीं निकाला जाता है। इसके लिए समय, शक्ति और धनका जो व्यय किया जाता है, वह केवल निष्पक्ष और ऊँचे विचारोंके प्रचार के लिए ।" जैनसमाजमें यह एक ही ऐसा हिन्दी मालिक पत्र है जो भाव और भाषा दोनोंकी दृष्टिसे प्रतिष्ठित गिना जाता है। इस पत्र की नीति हमेशा उदार और उच्च प्रकारकी रही है । इसके लेख संस्कारी और मध्यस्थ भाव से भरे होते For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक ११] आधुनिक भूगोल और भारतवर्ष के प्राचीन ज्योतिषी । हैं । जैनसाहित्य और इतिहासकी सुन्दर चर्चा करनेवाला सबसे पहले यही एक पत्र था। इसमें आजतक उत्तम कोटिके ऐसे अनेक ऐतिहासिक लेख प्रकट हो चुके हैं, जिनसे विद्वानोंको बड़ा लाभ पहुँचा है। जैनसमाजकी वर्तमान परिस्थितिपर भी प्रकाश डालनेवाले अच्छे अच्छे मार्मिक और विचारणीय लेख इसमें समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं । इसलिए प्रत्येक विचारशील जैनीको इस पत्रको अपनाकर अपने ज्ञानकी वृद्धि करते रहनेका हम साग्रह निवेदन करना अपना कर्तव्य समझते हैं ।" एक पत्र में आपने लिखा था - " हितैषी पढ़ गया हूँ । 'जैनाचार्योंका शासनभेद' बहुत अच्छा लिखा गया है ।" 1 आधुनिक भूगोल और भारत वर्षके प्राचीन ज्योतिषी । (ले० - श्रीयुक्त बाबू निहाल करणजी सेठी एम. एस.सी.) भूगोल सम्बन्धी जिन सिद्धान्तोंको आजकलका वैज्ञानिक संसार मानता है, उनका खंडन जैन समाजमें कुछ ऐसे 'ढंग से किया जाता है कि जिससे साधारण लोगोंको यह भ्रम हो गया है कि ये सिद्धान्त केवल यूरोपके ही विद्वानोंके हैं। और बहुत लोग समझते हैं कि भारतवर्ष के ज्योतिषी गए इन सिद्धान्तोंसे विपरीत जैन शास्त्रोक्त सिद्धान्तोंको ही मानते थे और उनके ही द्वारा वे अपनी समस्त गणनाएँ किया करते थे । किन्तु यदि वे आर्यभट्ट, बराहमिहिर, लल्ल, श्रीपति, भास्कराचार्य श्रादि किसी भी प्रख्यात ज्योतिषीके ग्रंथोंको पढ़े तो उन्हें वह समझने में देर न लगेगी कि जिस ज्योतिष ज्ञान के कारण भारतका समस्त ३४५ संसार में आदर था और अब भी है, तथा जिसकी सहायता से पंचांगादि बनाये जाते हैं, सूर्य चन्द्रमा के ग्रहणोंका समय ठीक ठीक निर्णय कर लिया जाता है, वह मूलमें आधुनिक यूरोपीय सिद्धान्तोंसे भिन्न न था । यह सच है कि उस समय के पश्चात् बहुतसे नये श्राविष्कार हो चुके हैं, और प्राचीन सिद्धान्तों में बहुत कुछ सुधार भी हुए हैं ।. यूरोपीय विद्वान् भी इस बातको मानते हैं कि आधुनिक ज्योतिष इन्हीं भारतीय ज्योतिषियों की रखी हुई नींव पर श्रवलम्बित है । यह लज्जाका विषय है कि जिस ज्ञानके कारण हमारा गौरव है, उसीमें हम आज इतने पिछड़ गये हैं कि स्वयं अपनी वस्तुको पहचान भी नहीं सकते और दूसरों की समझकर उसका तिरस्कार करते हैं। इस मिथ्या भ्रमको दूर करनेके लिये पाठकों म मैं सूर्य सिद्धान्त और सिद्धान्त शिरोमणि नामक दो प्रख्यात ग्रन्थोंसे पृथ्वीके आकार, आकर्षण शक्ति, सूर्य चन्द्रग्रहण आदि कुछ साधारण बार्तोसे सम्बन्ध रखनेवाले श्लोकोंको रखना चाहता हूँ ताकि इस विषयका अनुचित भ्रम दूर हो जाय । परन्तु ऐसा करने से पहले यह श्रावश्मक और मुनासिंघ मालूम होता है कि इन दोना ग्रन्थोंका कुछ परिचय दे दिया जाय । ज्योतिष शास्त्र के १० प्राचीन सिद्धान्त ग्रन्थ माने जाते हैं । उनमें 'सूर्य' सिद्धान्त' कुछ लोगोंके मत से सबसे प्राचीन, और कुछ लोगोंके मतसे एक दोको छोड़कर प्रायः सबसे प्राचीन है । यह ठीक ठीक ज्ञात नहीं है कि किसने और कब इस ग्रंथकी रचना की, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि इस ग्रन्थका बहुत श्रादर है और यह प्राचीन ग्रंथोंमें सर्वश्रेष्ठ For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ जैनहितैषी। [ भाग १५ माना जाता है । भारतवर्ष के अधिकांश · पृथ्वीकी आकृति । पंचांग इसी ग्रंथले बनते हैं और इसीके . इस विषय में सूर्य सिद्धान्तमें "भूगोल" अनुसार हिन्दुओंके प्रायः सारे व्यवहार शब्दका प्रयोग हुअा है; यथाहुमा करते हैं । 'सिद्धान्तशिरोमणि' ___मध्ये समन्तादण्डस्य भास्कराचार्य का लिखा हुमा ग्रंथ है। भूगोलो व्योंम्नि तिष्ठति । यही बात इस ग्रंथकी महत्ता प्रगट भास्कराचार्यने तो अपने ग्रन्थके दो करने के लिये पर्याप्त है; क्योंकि भास्क भाग किये हैं और उनमेंसे एकका नाम राचार्यका नाम संसारके प्रख्यात ज्योतिषियों में सर्वमान्य है। उनके लीला ही "गोलाध्याय" रक्खा है। भूमिका स्वरूप कहते समय वे "पिण्ड" शब्दका वती आदि ग्रन्थोंको कौन नहीं जानता । प्रयोग करते हैं। भारतवर्ष के जिन स्थानों और पाठशालाओंमें ज्योतिःशास्त्रके पठन पाठनका भूमेः पिण्डः शशाङ्कज्ञ कविरवि प्रचार है, वहाँ सिद्धान्तशिरोमणिको कुजज्यार्कि नक्षत्रकक्षा । इत्यादि ॥२॥ मुख्य ग्रन्थ मानकर प्रायः सभी पढ़ते . भुवनकोशः पढ़ाते हैं। इसके समयका निर्णय ग्रन्थके और स्वकृत वासन भाष्य में वे 'पिण्ड' प्रश्नाध्यायके अंतमें भास्कराचार्यने स्वयं शब्दकी व्याख्या "पिण्डो वर्तुलाकारः" कर दिया है: इस वाक्य द्वारा करते हैं। __प्रश्न होता है कि यदि पिण्डाकार है रसगुण पूर्ण मही (१०३६) है तो फिर चपटी दिखलाई क्यों देती है ? : समशक समयेऽभवन्ममोत्पत्तिः। इसका उत्तर यों दिया गया हैरसगुण (३६) वर्षेणमया सिद्धान्त- अल्पकायतया लोकाः शिरोमणी रचितः ।। . ___ स्वास्थानात्सर्वतो मुखम् । पश्यन्ति वृत्तामप्यता अर्थात् मेरा जन्म १०३६ शक ( या १११५ ई.) में हुआ और छत्तीस वर्षकी चक्राकार वसुन्धराम् ॥५४॥ अवस्थामें मैंने सिद्धान्तशिरोमणिको सू० सि० अ० १२ बनाया है। छोटे शरीरवाले होनेके कारण ही गोलाकार पृथ्वीको चपटी चक्राकार यह न समझना चाहिए कि यही दो देखते हैं। प्रन्थ हैं जिनमें ऐसे माधुनिक सिद्धान्तोंसे मिलते जुलते सिद्धान्त लिखे हैं। प्रायः समो यतः स्यात्परिधेः शतांशः समस्त ज्योतिष ग्रंथों में यही सिद्धान्त हैं । पृथ्वी च पृथ्वी नितरांतनीयान् । मैंने इन दोको इस वास्ते पसन्द किया नरश्च तत्पृष्ठगतस्य कृत्स्ना है कि ये दोनों ग्रन्थ विशेष मान्य हैं। समेव तस्य प्रतिभात्यतः सा ॥१३॥ साधारण लोगोंमें इन सिद्धान्तोके सि०शि० भुवनकोशः विपरीत जो विश्वास फैला हुआ है वह जैसे परिधिका शतांश अर्थात् सूक्ष्म किसी ज्योतिष ग्रन्थके आधार पर नहीं भाग सम या सीधा मालूम होता है टेढ़ा है किन्तु पुराणादि ग्रन्थोंसे उस मिथ्या नहीं, वैसे ही इस बड़ी भारी भूमिकी विश्वासकी उत्पत्ति है। . तुलनासे मनुष्य अत्यन्त क्षुद्र होनेके कारण For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११ ] भूमिके ऊपर उसकी दृष्टि जहां तक जाती है वह सब सम, चपटी हो ज्ञात होती है । भास्कराचार्य कहते हैं कि पृथ्वी चपटी कदापि नहीं है । इदानीं भूगोलस्य समतां निराकुर्वन्नाह यदि समा मुकुरोदर सन्निभा भगवती धरणी तरणिः क्षितेः । उपरि दूर गतोऽपि परिभ्रमन् किमु नरैरमरैरिव नेक्ष्यते ॥ ११ ॥ सि० शि० भुवनकोश: यदि भूमि दर्पणकी भाँति सम या चपटी है तो सूर्य पृथ्वी के ऊपर बहूत दूरी पर भ्रमण करता हुआ जैसे देवताओंको दिखता है, वैसे ही मनुष्यों को क्यों नहीं दिखलाई देता ? ये देवता सुमेरु पर रहते हुए माने गए हैं। यथा वसन्ति मेरौ सुरसिद्ध सङ्घाः और्वे च सर्वे नरकाः सदैत्या ||१९|| सि० शि० भुवनकोश: धुनिक भूगोल और भारतवर्ष के प्राचीन ज्योतिषी । और सुमेरु पृथ्वीके उत्तरी ध्रुव पर स्थित बतलाया गया हैलङ्काकुमध्ये यम कोटिरस्याः प्राक् पश्चिमे रोमकपत्तनं च । अधः स्ततः सिद्ध पुरं सुमेरु: सौम्येऽथ याम्ये वडवानलश्च ॥१७॥ सि० शि० भुवनकोश: इन उत्तरी ध्रुववासी देवताओंको सूर्य किस प्रकार घूमता हुआ दिखलाई देता है, इस विषय कहते हैं कि. निरक्षदेशे क्षिति मण्डलोपगौ ध्रुवौ नरः पश्यति दक्षिणोत्तरौ । तदाश्रितं खे जल यन्त्रवत्तथा भ्रमद्भचक्रं निज मस्तकोपरि ||४०|| सि० शि० भुवनकोश: "निरक्षदेश में मनुष्य दक्षिण और ३४७ उत्तर ध्रुवोंको क्षितिजवृत्त में लगा देखता है । और ध्रुवालक्क ( देवता और दैत्य ) भचक्रको अपने सिरके ऊपर जलयंत्र ( श्ररहट ) की भाँति भ्रमण करता हुश्रा देखते हैं । यदि पृथ्वी गोल है तो उसके नीचे की श्रर रहनेवाले मनुष्यों का सिर नीचेको और पैर ऊपरको रहते होंगे। इस प्रकार अधोमुख रहने से उन्हें बड़ा कष्ट होता होगा । इसका उत्तर यो दिया गया हैसर्वत्रैव महीगोले स्वस्थानमुपरिस्थितम् । मन्यन्ते खेयतोगोलस्तस्य कोर्ध्वं कवाप्यधः ॥ ५३ ॥ सू० स०अ० १२ पृथ्वी के गोल होने से सर्वत्र अपने अपने स्थानको ऊपर स्थित हुआ समझते हैं । शून्यमध्यस्थित गोलमें नीचा कहाँ है ? और ऊँचा कहा है ? यो यत्र तिष्ठत्यवनी तलस्था मात्मानमस्या उपरिस्थितं च । स मन्यतेऽतः कु चतुर्थ संस्था मिथच ये तिर्यगिवामनन्ति ||१९|| अधः शिरस्का: कुदलान्तरस्था श्छाया मनुष्या इव नीरतीरे । अनाकुलास्तिर्यगधः स्थिताश्च तिष्ठन्ति ते तत्र वयं यथात्र ||२०|| सि० शि० भुवनकोश: जो मनुष्य जहाँ रहता है, वह पृथ्वीको अपने नीचे मानता है और अपनेको उसके ऊपर मानता है । और जो लोग पृथ्वीके चौथे भाग ( अर्थात् ६० अंश ) पर रहते हैं वे परस्परमें अपनेको तिरछा मानते हैं । और अपनेसे ठीक नीचे ( अर्थात् १८० अंश पर ) रहनेवालों को मानो सिर नोचा और पैर ऊंचा हो गया For Personal & Private Use Only * Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १५ है, ऐसा मालूम होता है; जैसे जममें यदि मेरु रात्रिका कारण है तो मनुष्यकी छाया उलटी मालूम होती है। मनुष्योंको वह उनके और सूर्यके बीच किन्तु ऊपर किंवा नीचे रहनेवाले सब में क्यों नहीं दीखता है ? और मेरु पर्वत मानन्दसे निवास करते हैं जैसे हम लोग उत्तर में है फिर सूर्य दक्षिण गोलमें क्यों यहाँ पर रहते हैं। उदय होता है ? पृथ्वी परसे वस्तुएँ गिर क्यों नहीं सूर्योदयका समय भिन्न होता है, पड़तीं, इसका उत्तर शिद्धान्तशिरोमणि- इसका वर्णन उन्होंने यों किया हैमें यों दिया है: .. लङ्कापुरेऽस्य यदोदयः । * आकृष्टशक्तिश्च मही तया यत् __ स्यात्तदा दिनार्द्ध यमकोटिपुर्याम् । खस्थं गुरु स्वाभिमुखं स्वशक्त्या । ___ अधस्तदा सिद्धपुरेस्तकालः आकृष्यते तत्पततीव भाति स्याद्रोमके रात्रिदलं तदैव ॥४४॥ ' . समे समन्तात् क पतत्वियं खे ॥६॥ ... -सि० शि० भुवनकोशः । . भुवनकोशः पृथ्वीमें आकर्षणशक्ति है । उससे जब लंका सूर्योदय होगा, उस समय यम कोटिमें दिनार्द्ध और नीचे सिद्धपुरमें आकाशमें फेंकी हुई भारी वस्तुको पृथ्वी अस्तकाल एवं रोमकपत्तनमें आधी रात अपनी तरफ खींचती है। और वह भारी होगी। वस्तु पृथ्वीकी ओर गिरती हुई मालूम . ' ___ लंकापुरी आदि पृथ्वी पर किस स्थान होती है। पृथ्वी स्वयं कहाँ गिर सकती है क्योंकि आकाश सब तरफ समान है। ' पर स्थित हैं, यह बात ऊपर "लङ्का कुमध्ये" आदि द्वारा बतलाई जा चुकी जिस आकर्षणशक्तिका आविष्कार है । भूगोलसे परिचित पाठक सूर्योदय यूरोपमें न्यूटनने १७ वीं शताब्दीमें किया कालके इस वर्णनमें और आधुनिक था, उसी आकर्षणशक्तिका १२ वीं वर्णनमें किसी भी प्रकारका अन्तर न शताब्दीके रचित इस भारतीय ग्रन्थमें पावेगे। इतना स्पष्ट वर्णन पढ़कर विचारवान् पाठकों को अवश्य गर्व होना चाहिए कि पृथ्वी पर कहीं दिन बड़ा और कहीं छोटा, इसका कारण बतलाकर ध्रुवोंके भारतके प्राचीन ज्योतिषी किसीसे इस समीप दिन कितना बड़ा होता है, इस विद्यामें कम न थे। विषयमें भास्कराचार्य कहते हैंजो लोग चपटी पृथ्वीपर मेरुकी प्रदक्षिणा करता हुआ सूर्यको मानते हैं लम्बधिका क्रान्तिरुदक् च यावत् और दिन और रात होनेका कारण सूर्यका ___ तावहिनं सन्ततमेव तत्र । मेरुकी प्रोटमें आ जाना समझते हैं, उनसे यावञ्च याम्या सततं तमिस्रा भास्कराचार्य पूछते हैं ततश्च मेरौ सततं समाधम् ॥७॥ यदिनिशाजनकः कनकाचलः -त्रिप्रश्नवासना। .. किमुतदन्तरगः सन दृश्यते । सूर्यकी उत्तर क्रान्ति जब तक लम्बांशउदगयं ननु मेरुरथांशुमा. से अधिक रहेगी तब तक वहाँ सदा दिन कथमुदेति च दक्षिणभागके ॥१२॥ ही रहेगा। और उसी प्रकार जब तक सि०शि० भुवनकोशः दक्षिण क्रान्ति अधिक रहेगी तब तक For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक ११] आधुनिक भूगोल और भारतवर्षके प्राचीन ज्योतिषी । ३४६ सदा रात्रि ही रहेगी। इस प्रकार मेरु ठीक ठीक शान था। सिद्धान्त शिरोमणिमें प्रदेश ६ मासका दिन होता है। लिखा है वासना भाग्यमें “मेरो सततं समा- प्रोक्तो योजनसंख्यया धेम्" की व्याख्या करते समय भास्करा- कुपरिधिः सप्ताङ्ग नन्दाब्धयः(४९६७) चार्यने स्पष्ट लिखा है कि "मेरी षण्मासं स्तव्यासः कुभुजङ्गसायकदिनम्" मेरु पर ६ मासका दिन होता है। भुवः सिद्धांशकेनाधिकः (१८५११) सूर्य सिद्धान्तमें भी यही बात लिखी है पृष्ठक्षेत्रफलं तथा मेरौ मेषादि चकार्धे युगगुणनिशेच्छराष्टाद्रयो(७८५३०३४) देवाः पश्यन्ति भास्करम् । भूमेः कन्दुकजालवत्कुसकृदेवोदितं तद्वद. परिधि व्यासाहते प्रस्फुटम् ॥५२॥ सुराश्चतुलादिगम् ॥६७॥अध्याय।।१२॥ सि० शि० भुवनकोश मेरु-स्थित. देवता लोग सूर्यको जब भूमिकी परिधि ४६६७ योजन कही तक मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या गई है। उसका व्यास १५८१४योजन और इन ६ राशियों में रहता है, बराबर देखते उसका पृष्ठ क्षेत्रफल ७८५३०३५ योजन रहते हैं। और असुर लोग तुलादि शेष है। यह क्षेत्रफल गेंदके जालके समान ६ राशियों के अन्तर्गत सूर्यको बराबर ऊपरका होता है और भूपरिधि और देखते हैं। और भी व्यासके गुणनसे सिद्ध होता है। सकृदुद्गतमब्दार्ध इसमें योजनकी लम्बाईका ठीक पश्यन्त्यक सुरासुराः। ठीक पता लगना कठिन है; क्योंकि भिन्न पितरः शशिगाः पक्षं भिन्न प्राचार्योंने योजनकी भिन्न भिन्न व्याख्या दी है। अतः भास्कराचार्य के स्वदिनं च नराभुवि ।।७५।। अध्याय१२ भूव्यासकी आधुनिक ७६१२ मीलसे - देवता और असुर लोग एक बार तुलना करना कठिन है। किन्तु क्षेत्रफल उदय हुए सूर्यको बराबर आधे वर्ष तक और व्यासका जो सम्बन्ध उपर्युक्त श्लोक. देखते रहते हैं। पितगण चन्टस्थित में दिखाया गया है, उससे निर्विवाद सिद्ध होनेके कारण पन्द्रह दिन तक और है कि पृथ्वी गेंदके समान गोल मानी पृथ्वीके मनुष्य एक दिन तक ही उसे 'गई थी। और योजन ४ मीलका हो या ५ देखते हैं। मीलका, यह भी स्पष्ट है कि पृथ्वीके ध्रुव देशोंके ६ मास लम्बे दिनकी व्यासमें उन्होंने बहुत ग़लती नहीं की थी। जिस बातको लेकर लोग आधुनिक सम्भव है कि वे उसे ठीक ठीक जानते भूगोलका मज़ाक उड़ानेकी चेष्टा किया हो । सूर्यसिद्धान्तमें भी व्याल १६०० करते हैं, उसके विषयमें हमारे प्राचीन योजन बताया गया है। जो हो, वे पृथ्वी. ज्योतिषियों को कितना सूक्ष्म ज्ञान था, को एक लाख योजन लम्बी चौड़ी तो यह ऊपरके अवतरणोंसे स्पष्ट है। नहीं समझते थे, यह निश्चय है। ___ यही नहीं, इन ज्योतिषियोंको पृथ्वीके पृथ्वीका भ्रमण । व्यास और उसके क्षेत्रफलका भी प्रायः लगभग सभी प्राचीन ज्योतिषियोंका 8 For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी । ३५० 1 विश्वास था कि पृथ्वी स्थिर है और सूर्यादि उसके चारों ओर भ्रमण करते हैं । किन्तु यह कहना श्रयुक्त होगा कि ऐसा एक भी ज्योतिषी न था जो पृथ्वीको घूमती हुई मानता हो । श्रार्यभट एक बहुत विख्यात ज्योतिषी हो गये हैं और वे सूर्यकेन्द्रक ज्योतिषके प्रचारक वृद्धार्यभटके नाम से विख्यात हैं। उनका समय ४७६ ई० निश्चित किया गया है। उन्होंने अपने श्रर्यभटीय, श्रार्यभट सिद्धान्त, अथवा श्रार्यसिद्धान्त नामक ग्रन्थ में पृथ्वी के भ्रमणका सिद्धान्त प्रतिपादित किया है । अनेक पाठकों को यह जानकर श्राश्चर्य होगा कि यूरोप में तो कोपर्निकसने यह सिद्धान्त १५ वीं शताब्दी में प्रचलित किया था, किन्तु इस भारतवर्ष में उसके एक हज़ार वर्ष पहले ही आर्यभट इस सिद्धान्तको स्पष्ट भाषामें लिख गये हैं । वे लिखते हैं: अनुलोम गतिनौस्थ: पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत् । अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लङ्कायाम् ॥ इसका भाव यो है - " जैसे नाव पर चढ़े हुए मनुष्यको तीरके अचल वृक्ष आदि नाव से विपरीत दिशामें चलते हुए जान पड़ते हैं, उसी प्रकार अचल नक्षत्र पृथ्वी पर से पूर्व से पश्चिम दिशामें जाते हुए प्रतीत होते हैं।" अर्थात् पृथ्वी पश्चिमसे पूर्व दिशामें गमन करती है । आर्यभटीयके टीकाकार परमेश्वर इस श्लोक की टीकाके अन्तमें लिखते हैं "परमार्थतस्तु स्थिरैव भूमिः” । और भी भूमेः प्राग्गमनं नक्षत्राणां गत्यभावं. चेच्छन्ति केचित्तन्मिथ्याज्ञान वशात् । इस टीकासे इसमें तनिक भी सन्देह [ भाग १५ में नहीं रह जाता कि आर्यभटका वास्तवयह मत था कि पृथ्वी घूमती है । किन्तु दुर्भाग्यवश श्रार्यभट के बाद के प्रायः समस्त ज्योतिषियोंने इस मतका खण्डन किया है । किन्तु उस खण्डनसे भी प्रकट है कि उस समय यद्यपि वह सर्वमान्य न हो सका, तब भी वह मत ज्ञात श्रवश्य था । ग्रहण होनेका कारण । ग्रहण के समय सूर्य और चन्द्रमाके बिम्बको कौन ढकता है, इस प्रश्न के उत्तरमें सूर्यसिद्धान्त कहता है छादको भास्करस्येन्दुरधः स्थोघनवद्भवत् । भूच्छायां प्राङ्मुखश्चन्द्रो विशत्यस्य भवेदसौ ||९|| अध्याय ४ मेघ के समान चन्द्रमा नीचे आकर सूर्य को ढक लेता है। पूर्व की ओर चलता हुआ चन्द्रमा जब पृथ्वीकी छायामें प्रवेश करता है, तब उसका ग्रहण होता है । सिद्धान्तशिरोमणिमें भी इसी आशयका वृत्तान्त है पश्चाद्भागाज्जलदुवदधः संस्थितोऽभ्येत्य चन्द्रो । भानोर्बिम्बं स्फुरदसितया छादयत्यात्ममूर्त्या ॥१॥ सि० शि० ग्रहणवासना मेघ के समान नीचे स्थित चन्द्रमा पीछे से आकर सूर्यबिम्बको अपनी श्याममूर्त्तिसे ढक लेता है । समकलकाले भूभालगति मृगाङ्के यतस्तया म्लानम् । इ० [ ३ ग्रहणवासना ] जिस समय सूर्य और चन्द्रकी स्फुट कला समान होती हैं, उस समय भूभा For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L अंक ११] आधुनिक भूगोल और भारतवर्ष के प्राचीन ज्योतिषी । अर्थात् पृथ्वी की छाया चन्द्रमापर पड़ने से चन्द्रबिम्ब मलिन या निस्तेज हो जाता है । वेद-पुराण ग्रन्थोंमें जो राहुको ग्रहणो त्पादक बताया है, उसका भास्काराचार्यने बड़े कौशलले समर्थन और खण्डन एक ही साथ कर दिया है और उपर्युक्त सिद्धान्तकी पुष्टि भी की है। यथा दिग्देशकालावरणादिभेदान्नछादको राहुरिति ब्रुवन्ति । यन्मानिन: केवल गोलविद्यास्तत्संहिता वेदपुराणबाह्यम् ॥२॥ राहु कुभामण्डलगः शशाङ्कं शशाङ्कगश्छादयतीन बिम्बम् । तमोमयः शम्भुवर प्रदानात् सर्वागमानामविरुद्धमेतत् ॥ १०॥ [ सि० शि० ग्रहणवासना ] दिशा, प्रदेश, काल और आवरणके परस्पर भेद होने से बहुतसे मानी और केवल गोल विद्याके ज्ञाता राहुको छादक नहीं कहते। यह मत वेद पुराणादिसे विरुद्ध है । इस विषय में सर्वसम्मत मत यह है कि ब्रह्मा के वरदानसे तमोमय राहु चन्द्र मण्डल में प्रविष्ट होकर सूर्यका और पृथ्वीकी छाया में प्रविष्ट होकर चन्द्रमाका आच्छादन करता है । " ऊपरके दोनों अवतरणोंसे यह भी स्पष्ट है कि भास्कराचार्य चन्द्रमाको प्रकाशवाला नहीं समझते थे । उसके लिए " असितया श्रात्ममूर्त्या ” पदका प्रयोग किया है। उसका वर्ण उन्होंने श्याम बतलाया है । सूर्यसिद्धान्त के "चनवत्" से भी चन्द्रमा प्रकाशरहित ही बोध होता है। किन्तु इससे भी अधिक स्पष्ट रीतिले एक और स्थान पर यह कहा है कि ३५१ तरणि किरण सङ्गादेष पीयूषपिण्डो दिनकरदिशि चन्द्रश्चन्द्रिकाभिश्चकास्ति । तदितरदिशिबाला कुन्तलश्यामल श्रीर्घटइत्र निजमूर्त्तिच्छाययै वातयस्थः॥ १ ॥ सूर्यादधस्थस्य विधोरधस्थं म नृदृश्यं सकलासितं स्यात् दर्शेऽथ भार्घान्तरितस्य शुक्लं तत्पौर्णमास्यां परिवर्तनेन ||२|| सि० शि० शृङ्गोनांतवासना । अर्थात् सूर्य की किरणों के संयोग से इस अमृतपिड चन्द्रमाका सूर्य की ओरवाला भाग चाँदनी से चमकता है और दूसरी ओरका भाग नवीन स्त्रीके श्याम केशोंके तुल्य काला रहता है; क्योंकि वह धूपमें र हुए घड़ेकी भाँति अपनी ही छायासे ढका रहता है । अर्थात् जैसे धूपमें रक्खे हुए घड़ेका सूर्यके सम्मुखवाला भाग प्रकाशित और दूसरी तरफवाला भाग प्रकाशहीन रहता है, वैसे ही चन्द्रमाका एक भाग प्रकाशित और दूसरा प्रकाशहीन होता है । अमावस्याको सूर्यके नीचे स्थित चन्द्रमाका उससे नीचे स्थित मनुष्योंको दिखलाई देनेवाला नीचे का भाग काला हो जाता है और अमावस्या के बाद ६ राशि भ्रमण करनेके अनन्तर पूर्णिमाको चन्द्रमाका वह भाग चमकीला हो जाता है । इससे न केवल यह प्रकट है कि चन्द्रमा स्वयं प्रकाशहीन है, किन्तु यह भी असंदिग्ध है कि भास्कराचार्य के मतसे चन्द्रमाकी चाँदनी सूर्य ही का दिया हुआ प्रकाश है । साथ ही यह भी स्पष्ट है कि चन्द्रमा सूर्य की अपेक्षा पृथ्वी के बहुत निकट माना जाता था । अन्यथा सूर्य और पृथ्वीके बीचमें श्राकर उसका सूर्य-बिम्बको ढक लेना कैसे सम्भव होता ? यही क्यों, जब For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जैनहितैषी। [भाग १५ पृथ्वीको छायामें प्रवेश करनेके कारण साधारणकी समझमें आसानीसे आ चन्द्रमाका ग्रहण होता है, तब तो चन्द्रमा सकती हैं, ऊपर लिखी गई हैं। विशेष पृथ्वीके बहुत ही निकट होना चाहिए, जाननेके लिए मूल-ग्रन्थों का अध्ययन क्योंकि करना आवश्यक है। ऊपर दिये हुए प्रव. दीर्घतया शशिकक्षामतीत्य तरणोपर टीका टिप्पणी करनेकी भी कोई ज़रूरत नहीं है। विक्ष पाठक स्वयं __दूरं बहिर्याता। भानोर्बिम्बपृथुत्वादपृथुपृथिव्याः आधुनिक भूगोलसे इन सिद्धान्तोंका मिलान कर लें। और यदि उन्हें विश्वास प्रभा हि सूच्या ॥५।। सि० शि०. हो जाय कि इनमें वैज्ञानिक दृष्टिसे अन्तर ग्रहणवासना नहीं है, तो मेरी विनीत प्रार्थना यह है कि सूर्यका बिम्ब बहुत बड़ा है और पृथ्वी भविष्यमें वेइन भूगोल संबन्धी सिद्धान्तोंअपेक्षाकृत बहुत छोटी । इस कारण को पाश्चात्य कहकर मातृभूमिका और पृथ्वीकी छाया सुईकी नोकके समान अपने इन प्राचीन ज्योतिषियोंका अनादर सूक्ष्मान होती है। (तिसपर भी) वह इतनी न किया करें। लम्बी है कि चन्द्रकक्षाको उल्लंघन कर बहुत सम्पादकीय नोट । दूरतक चली जाती है। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है जो लोग उन बातोको, जिनका इस कि सूर्यको पृथ्वीको अपेक्षा बहुत बड़ा लेखमें भारतीय प्राचीन ग्रन्थोंसे समर्थन माना है और चन्द्रमाको पृथ्वीसे बहुत किया गया है, 'पश्चिमी विचार', 'पा. ही छोटा बतलाया है। क्योंकि श्वात्य सिद्धान्त अथवा प्राधुनिक विज्ञानछादकः पृथुतरस्ततोविधो की अनोखी बाते' ही समझ रहे थे और रर्धखंडित तनोर्विषाणयोः। ऐसा समझकर ही प्रायः हँसी उड़ाया कुण्ठता च महती स्थितिय॑तो करते थे, उनके लिए यह लेख बहुत कुछ लक्ष्यते हरिण लक्षण आहे ।। ॥सि०शि० शिक्षाप्रद तथा कामकी चीज़ जान पड़ता है और इससे उनका तद्विषयक (समझ . ग्रहणवासना . सम्बन्धी) बहुत कुछ समाधान होना चन्द्रग्रहणमें चन्द्र के दोनो शृङ्ग मन्द संभव है। उन्हें इस लेखको खूब गौरसे और ग्रहण-काल दीर्घ होता है । इसका पढ़ना तथा जाँचना चाहिए और ऐसा कारण यह है कि चन्द्रमाका छादक उससे करनेपर लेखक महाशयकी यदि कोई बड़ा होता है। जब पृथ्वीकी सूच्यग्र छाया ही भूल मालूम हो तो उसे प्रेमके साथ प्रकट चन्द्रमासे बड़ी है, तब पृथ्वी स्वयं तो करना चाहिए। बहुत बड़ी अवश्य होगी। सूर्यसिद्धान्तमें चन्द्रमाका व्यास ४८० योजन बताया गया है "इन्दोः सहाशीत्या चतुःशतम्" । और अधिक विस्तार करनेकी आवश्यकता नहीं। खास खास बातें जो सर्व For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी भावनाकी लोक-प्रियता । अङ्क ११ ] मेरी भावनाकी लोक-प्रियता । 'मेरी भावना' नामकी कविता सबसे पहले – सन् १६१६ में - जैनहितैषी में प्रकाशित हुई थी। उसके बाद श्राराके सद्गत कुमार देवेन्द्रप्रसादजीने उसे पुस्तकाकार छुपाने की इजाज़त माँगी और 'भावना लहरी' नामक पुस्तकमें, जिसमें दो कविताएँ और भी थीं, सन् १६२७ में उसे प्रकाशित किया । सन् १६१८ के भादों मासमें, जब इस कविताका परि चय साहु जुगमंदरदासजी जैन रईस व आनरेरी मजिस्ट्रेस नजीबाबादको मिला, तब आपने इसे बहुत ही पसन्द किया और इसे 'सत्पुरुषोचित भावकी शिक्षिका बतलाया । साथ ही आपकी . यह राय हुई कि यह कविता एक छोटी सो सुन्दर पुस्तिकाके आकार में, जिसे हर शख़्स हर दम अपने पास रखकर नित्य पाठके काममें ला सके, बिलकुल अलग छपाई जाय; इसके साथमें आम पुस्तकोंके सदृश किसी प्रकारका कोई विज्ञापन न रहे और जैन श्रजैन सभीमें इसका लागतके दामों अथवा बिना मूल्य ही इस ढंगले प्रचार किया जाय कि जिससे यह सभी घरोंमें पहुँच जाय और वहाँ इसका सदुपयोग हो सके। आपने केवल अपनी यह राय ही कायम नहीं की, बल्कि उसे कार्य में परिणत करने का समारंभ भी कर दिया। श्रर्थात्, कविताकी पाँच हज़ार कापियाँ अभिलषित रूपमें छपाकर उन्हें अपनी ओरसे बिना मूल्य वितरण करने की परवानगी दी । तदनुसार सन् १६१६ में, श्रीयुत कुमार देवेंद्र प्रसाद तथा पं० नाथूरामजी प्रेमीकी कृपासे बम्बई के 'कर्णाटक प्रेस' में छपकर, यह कविता पहली बार एक स्वतंत्र पुस्तिकाके रूपमें प्रकाशित हुई। और } ३५३ आरा, सरलावा, बम्बई तथा नजीबाबाद इन चार प्रधान स्थानों से इसका वितरण प्रारंभ हुआ । इस संस्करण के प्रकाशित होते ही पुस्तककी माँग चारों ओरसे इतनी श्रई कि हम और देवेंद्रप्रसादजी आदि हाथमें थोड़ा सा हज़ार डेढ़ हज़ार कापियों का स्टॉक होनेकी वजहसे, उसके दशांशकी भी पूर्ति नहीं कर सके। कितने ही भाईयोंने सौ सौ, दो दो सौ और चार चार सौ तक कापियाँ माँगीं, मूल्यसे भेजने तथा लागतके दामका वी. पी. कर लेनेको लिखा, बहुत कुछ ज़रूरत ज़ाहिर की और किसी किसीने तार तक भी भेजा, परन्तु ऐसे भाइयोंको भी बीस बीस, दस दस या पाँच पाँच कापियोंसे अधिक हम नहीं भेज सके । पुस्तकोंकी प्रायः समाप्ति और कमी स्टाककी वजहसे इस प्रकार के संकोचको मालूम करके, श्रीयुत मुनि तिलक विजयजी (पंजाबी) ने, जिन्होंने इस पुस्तकको बहुत ज्यादा पसंद किया, अपनी आत्मतिलक ग्रन्थ सोसायटीकी श्रोरसे पाँच हज़ार कापियोंके उसी रंग रूपमें छापकर बिना मूल्य वितरण करने की मंजूरी दी। इधर श्रीश्रात्मानंद जैन ट्रैकृ सोसायटी अम्बाला शहर, ला० चिम्मनलाल दलीपसिंहजी कागजी देहली और ला० उम्मेदसिंह मुखद्दीलालजी अमृतलरने एक एक हजार कापियाँ अपनी अपनी ओर से बिना मूल्य बाँटनेके लिए छुपानेको लिखा । और हिन्दी ग्रंथरत्नाकर कार्यालय बम्बईकी ओरसे भाई छगनमलजीने लिखा कि हम भी दो तीन हज़ार कापियाँ छुपाना चाहते हैं, क्योंकि लोग इस पुस्तकको मूल्यसे बहुत माँगते हैं । दुर्भाग्यले मुनि तिलकविजयजीवाली पाँच हज़ार कापियोंके छपनेमें बहुत ज्यादा विलम्ब For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Le ला० हो गया और इसलिए मुनीजीने जिस श्रावकको रकम देने के लिए तय्यार किया था, उसकी वह रकम उन्होंने किसी दूसरी पुस्तक के प्रकाशित कराने में लगानी पड़ी। इसी विलम्बके कारण लोगोंकी माँग से तंग आकर कुमार देवेंद्रप्रसाद - जीने सन १६२० में, इस पुस्तककी दो हज़ार कापियाँ क़ाशीके 'ज्ञानमंडल यंत्रालय में' तय्यार कराईं, और उन्हें कुछ मूल्यसे और कुछ बिना मूल्य वितरण किया। उधर बम्बई में भी एक हज़ार कापियाँ आत्मानंद जैन ट्रैकृ सोसायटीकी ओोरसे, एक हज़ार ला० चिम्मनलाल कागजी व महावीरप्रसाद ठेकेदार देह लीकी तरफ से, और एक हज़ार कापियाँ उम्मेदसिंह मुसद्दीलालजी की ओरसे छुपकर तय्यार हो गई, और उनका वितरण प्रारंभ हुआ। साथ ही तीन हज़ार के करीब कापियाँ हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कर्यालय ने अपने लिए छपाई । इसके बाद बिना मूल्य वितरण करनेके लिए गणदेवीके भाई मगनलाल हरजीवनशाहने एक हजार, बम्बई के ला मंगतरावजीने एक हज़ार और जयपुर के भाई संघई मोतीलालजी मास्टर शिवपोल स्कूलने दो हज़ार कापियोंके छपाने की मंजूरी माँगी, जो उन्हें दी गई। इनमें से ला० मंगतरायजीकी बाबत खं० जैनहितेच्छुसे, जिसमें पुस्तकको 'प्रातःकाल पाठ करनेके लिए श्रतीव उपयोगी' बतलाया गया है, हमें यह मालूम हुआ है कि उन्होंने एक हज़ार कापियाँ छपाकर वितरण की हैं। शेषकी बाबत अभी तक कुछ मालूम नहीं हो सका। इसी अर्से में रावलपिंडीके 'जैन सुमति मित्रमंडल' की प्रेरणा से इस पुस्तक. का एक उर्दू संस्करण भी निकाला गया, , जिसमें फुट नोटके तौर पर हिन्दी के जैनहितैषी । [ भाग १५ ख़ास ख़ास शब्दोंका उर्दूमें अर्थ दिया गया है । इस संस्करणकी संपूर्ण कापियाँ मेसर्स काकुशाह ऐंड सन्स रावलपिंडी की श्रोरसे बिना मूल्य बाँटी गई हैं। इस तरह पुस्तिका के सात आठ ( कविताके १० - ११) संस्करण हो चुके हैं और लगभग पंद्रह हज़ार कापियाँ उसकी वितरण की जा चुकी हैं। इस वर्ष यह भावना 'वीर पुष्पांजलि' में भी प्रकाशित हुई हैं और मिस्टर चम्पतराय साहब बैरिस्टर हरदोईने इसे अंग्रजी अनुवाद सहित अपनी एक नई अंग्रेजी पुस्तकर्मे भी लगाना पसंद किया है । इस भावनाकी प्रशंसा और पुस्तिकाकी उपयोगिता के सम्बंधर्मे हमारे पास सैंकड़ों भाइयोंने पत्र भेजने की कृपा की है, जिनमें से कुछ पत्रका सारभाग, हितैषीके पाठकों के अवलोकनार्थ, नीचे दिया जाता है। भाई देवेंद्रप्रसादजीने कितने ही पत्रोंको भी यह पुस्तक समालोचनार्थ भेजी थी और उनमें इसकी अच्छी समालोचना हुई है; परन्तु उनकी फाइलें हमारे सामने नहीं हैं । अस्तु | इस सब कथन अथवा संक्षिप्त इतिहास के साथ नीचेके विचारावतर लौको पढ़नेसे पाठक इस भावनाकी 'लोकप्रियता' का अच्छा अनुभव कर सकते हैं और इस बात को जान सकते हैं कि यह भावना जनताको कितनी रुचिकर हुई तथा कितनी पसंद आई है; श्रौर इसने लोकमें अपनी उपयोगिताको कहाँ तक सिद्ध किया है । इस समय इस पुस्तक के सभी संस्करणोंकी प्रायः संपूर्ण कापियाँ समाप्त हो चुकी हैं-थोड़ीसी हमारे पास बाक़ी हैं और माँगें बराबर आ रही हैं। पिछले श्रावण मासमें देहलीके भाई दलीपसिंहजी कागज़ीने ५००-७०० कापियोंके मँगा देने अथवा आधे भादों तक उनकी भोरसे For Personal & Private Use Only By Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११] मेरी भावनाकी लोक-प्रियता। ३५५ एक हजार कापियोंके फिरसे छपा देनेके कापियाँ वितरण करनेवालोका नाम, लिए लिखा था और कई पत्रों द्वारा बहुत वितरणकी उस सूचनाके साथ, पुस्तकमें कुछ ज़रूरत जाहिर की थी। परन्तु हिन्दी छपादिया जायगा। एक हजार कापियोंकी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय बम्बई में भी लागतका तख़मीना तीससे चालीस कापियोंके समाप्त हो जाने और प्रेससे रुपये तक होगा-अर्थात् थोड़ी (५-७ नियत समय पर छाप देने का वादा न हज़ारकी) संख्यामें छपने पर ४०) मिलने की वजहसे हम उनकी उस इच्छाको रुपये के करीब और अधिक संख्यामें पूरा नहीं कर सके। इसी तरह और भी छपने पर ३०) रुपये के करीब लागत कितने ही भाइयोंकी इच्छाको हम पूरा बैठेगी। बहुत से भाई पीछेसे अधिक नहीं कर सके। हाथमें थोड़ा स्टाक होनेकी कापियों के लिए लिखा करते हैं । उन्हें वजहसे पुस्तके बहुत संकोचके साथ चाहिए कि वे अब अपने यहाँ अथवा वितरण की जाती हैं । प्रायः सभी जगहों दूसरी जगह मेले ठेले आदिमें वितरण पर अभी तक इस पुस्तककी कापियाँ करने के लिए जितनी कापियों की ज़रूरत यथेष्ट संख्यामें नहीं पहुँच सकी हैं और समझे, उनसे दिल खोलकर सूचित करें। बहुत सी जगहें ऐसी भी हैं जहाँके एक नगर या ग्रामके कई भाई मिलकर भाइयोंको इस पुस्तकका परिचय तक भी अपने नगर तथा ग्रामका नाम नहीं मिला। अजैनों में तो अभी तक पुस्तक वितरणकर्ताकी जगह छपवा इसका प्रचार नहींके बराबर हुआ है। सकते हैं। पुस्तकके छप छपाकर तय्यार घे लोग जब कभी इसे पाते हैं, तो बड़े होने में भी कई महीने लग जायँगे। इसलिए • प्रेमके साथ पढ़ते हैं। कितनोंहीने इस जिन भाइयोंका जितनी कापियों के लिए पर अपने बड़े उत्तम विचार भी प्रकट उत्साह हो, उन्हें उससे शीघ्र सूचित करना किये हैं। उनमें इस पस्तकके अधिक प्रकाशित प्रचारकी बहुत बड़ी ज़रूरत बतलाई है। की जाती है। हमारी रायमें इस पुस्तककी कमसे कम 'मेरी भावना' के सम्बन्ध प्राप्त एक लाख नहीं तो पचास हजार कापियाँ हुए जनताके पत्रोंमेसे कुछका सारभाग ज़रूर वितरण होनी चाहिएँ । अभी सिर्फ इस प्रकार है१५ हज़ार कापियाँ ही वितरण हुई हैं। १-श्रीयुत जुगमंदरदासजी, नजीबा. इसलिए हम चाहते हैं कि अबकी बार बाद । यह पुस्तक आधक सख्याम छपाइजाय "सत्पुरुषोचित भावोंको शिक्षिका यह भावना प्रत्येक . और हिन्दी जाननेवाली संपूर्ण जैन स्त्रीपुरुषके कण्ठमें ही नहीं किन्तु हृदयमन्दिर में विराजे, भजैन जनतामें इसका, निःसंकोच और वे सब नित्य ही, सामायिक पाठा देके साथ, इसका भावसे, प्रचार किया जाय। जो परोपकारी पाठ करते हुए तदनुकूल अपने भावों तथा चरित्रको भाई पुस्तककी उपयोगिताको समझकर बनानेकी चेष्टा किया करें, यही मेरी भावना है।" अपनी ओरसे जितनी संख्यामें इसकी २-श्रीयुत मुनि तिलकविजयजी पंजाबी। . कापियाँ वितरण करना चाहे, उन्हें शीघ्र ..."मेरी भावना, आपने अद्वितीय पुस्तक रची है। उससे सूचित करना चाहिए, ताकि उनके मेरी राय है कि इस पुस्तकका स्त्री-पुरुष प्रतिदिन दो लिए उतनी कापियोंका प्रबंध कर दिया दफा पाठ किया करें तो उनके जीवनमें बहुत कुछ सुधार जाय । एक हजार और उससे अधिक हो सकता है। मेरी भावनाको मैं प्रेमपूर्वक स्वीकार करता यह सूचना For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जैनहितैषी। [भाग १५ हूँ। इतना ही नहीं किन्तु सदैव पास रखकर प्रति दिन -श्रीयुत मुनि जिनविजयजी, पूना। पाठ करता हूँ। इस बनाके लिए मैं आपको अन्तःकरण- 'मेरी भावना' ने मेरे हृदयमें बड़ा ऊँचा स्थान से धन्यवाद देता हूँ और इच्छता हूँ कि मेरी भावनाका पाया है। मैं आज उसकी एक प्रति म० गान्धीजोके नित्य पाठके समान घर घर स्त्री-पुरुष प्रति दिन सुबह सत्याग्रह आश्रममें भेजता हूँ । वहाँपर इसको बड़ा आदर शाम मनन करें" । "ता०३१-८-१६. 'मिलेगा। आप इसकी २५-५० कापियाँ म० गान्धीजीके ... "आपकी भावनाका यहाँपर (पनारमें) बड़ा ही प्रभाव नामपर अहमदाबाद सत्याग्रह आश्रममें अवश्य भिजपड़ा है। प्रति दिन पाठ करनेके कारण तो कण्ठप्राय हो वाइये । मेरे पास भी १०-१२ कापियाँ यदि सुलभ हों तो गई है । इस भावनाको सुनकर और पढ़कर विद्वान् लोग और भिजवाइये।" मुक्तकण्ठसे प्रशंसा करते हैं। इतना ही नहीं किन्तु मेरी श्रीयत मनि वल्लभविजयजीप्रादि भावनाने कितने एक मनुष्योंके कण्टकाकीण हृदयको पाँच साध सादडी। सरल बनाया है, इसके लिए हम आपको जितना धन्य "दो प्रतियें मिलीं, योग्य सदुपयोग किया गया है। वाद दें,थोड़ा है।" ता०११-१०-१६ श्रापकी भावनानसार ही आचरण होना सम्भव कर .".."यहाँ (पनार) से मेरी मावनाकी दो चार कापी आनन्द प्राप्त होता है। यदि एक सौ प्रतिये और श्रा पूना भेजी गई थीं। आप जानते हैं, पूना विद्याका जावे तो कुछ साधु साध्वियोंको दी जावें, कुछ योग्य केन्द्र स्थल है। वहाँपर मेरी भावनाकी बड़ी ही कदर हुई . गृहस्थियों को दी जावें और शेष एक एक प्रति आजू बाजू. है। मेरे मित्र चारों तरफसे मुझे ही लिखते हैं। आपने के गाँवों में श्रीजिनमन्दिरमें स्थापन कर दी जावें ताकि मेरी भावनामें विचित्र जादू भरा है।" पूजा दर्शनार्थ आनेवाले श्रावक श्राविकाओंके भी उप ता० १६-१०-१६ योगमें आवें। यदि आप भेजनी मुनासिब समझे तो निम्न पुस्तककी द्वितीयावृत्तिमें छपने के लिखित पते पर वी० पी० मेज देवें या अपनी तरफसे भेंट लिए 'मेरा विश्वास' नामसे जो विचार डाक महसूलका बी० पी० करके भेज देवें ।" . आपने भेजा था, वह इस प्रकार है-] ७-श्रीयुत पं० दुर्गादत्तजी शास्त्री "सच्चे हृदयसे लिखी हुई यह छोटी सी भावना . न्यायतीर्थ व व्याकरणाचार्य, हिन्द बोर्डिंग. मनुष्यके चरित्रको उन्नत और उदार बनानेके लिए बड़े हाउस, लाहौर। ही कामकी चीज है । इसके अधिक प्रचार पर मानव ___ "आपकी किताब बड़ी शिक्षाप्रद है। उसके पढ़नेसे समाजका अधिक हित अवलम्बित है. ऐसा मेरा दृढ विश्वास दिलमें अत्यन्त भक्तिका उदय होता है। हिन्दी संसारमें है। अतः भारतके प्रत्येक स्त्री-पुरुषको दिनकृत्यके समान ऐसी पुस्तकोंकी अत्यन्त आवश्यकता है। आपने इस सुबह शाम इसका अध्ययन और मनन करते हुए जीवन पुस्तकको बनाकर लोगोंके हृदयको परमात्माकी भक्तिका को पवित्र बनानेका यत्न करना चाहिए।" ता०६-२-२१ सीधा रास्ता बता दिया ।" - E-बाबा भगीरथजी वर्णी । ३-श्रीयुत मुनि विचक्षणविजयजी ___ "आपको श्रीजी चिरंजीवी करें, आपकी कविता मनोलुधियाना। हर सार भरी है। एक प्रति ज्ञानानन्दजीको, एक ठाकुर"भापकी भावना तो भावना ही है साक्षात् हृदया. दास वर्णीको भेट कर दई, तोन मेरे पास हैं। मेज सको न्धकारको दूर करनेके लिए 'भा' प्रकाश 'वना' हुआ तो औरोंको भी आनन्द आवेगा प्रति २०।" है। तिमिराच्छादित बहुत से जनोंके हृदयमें इसे प्राप्त -श्रीयुत राजवैद्य शीतलप्रसादजी, करनेकी इच्छा हुई है। अगर इन लोगोंकी इच्छा देहली। पूर्ण करनेकी भावना हो तो २५ कापी, और भेजनेकी "मेरी भावना अति कृपाकर तकलीफ लें, खर्च की वी० पी० कर दें।" जो तुमने भिजवाई है। ४-श्रीयुत मुनि तरुणविजयजी। पढ़कर चित्त प्रसन्न हुआ इम जिम निर्धन निधि पाई है। (कुछ कापियोंके पूना भेजनेकी प्रेरणा कविता सरस ललित मित अक्षर करते हुए लिखते हैं अद्भुतता दर्शाई. है । मेरी भावनाको मैं डेली (प्रति दिन) नित्य स्मरण इन शुभ भावनसह चिरजीवो स्तोत्रके साथ पढ़ता हूँ।" - शीतल देत बधाई है ॥१॥ For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्क ११ ] 'मेरी भावना' की लोकप्रियता। ३५७ . .१०–श्रीयुत ला० गनेशरामजी, बिल- कर बिना मूल्य वितीर्ण कर दें। इस तरहसे छपा हुआ राम जि. एटा। यदि कोई सज्जन इसे शीशेमें जड़वाकर अपने मकानमें या "हमने आपकी बनाई हुई 'मेरी भावना' नामकी श्रीमन्दिरजीमें लटकाना चाहें तो उसके लिए सुभीता हो। पुस्तिका कई जगह देखी है। वह बहुत ही उच्च कोटिकी हम आपको लिखी भावनाका प्रचार करना चाहते हैं।" और सारगर्भित है उसमें बाँटने के लिए कई अच्छे अच्छे १५-श्रीयुत ला० उम्मेदसिंह मुसद्दी. महाशयोने हमें अनुमति दी है-अतः हम आपसे यह लालजी, अमृतसर। जानना चाहते हैं कि हमें उसकी २०० प्रतियाँ किस "बाबू देवेन्द्रप्रसादजीने कुछ पुस्तकें मेरी भावना प्रकार प्राप्त हो सकती हैं ?" बाँटनेके वास्ते दी थीं सो यहाँपर बाँटी गई और वह ११-श्रीयुत ला चिम्मनलाल दलीप बहुत पसन्द आई इस वास्ते अभी बहुतसे आदमी माँगते सिंह काग़ज़ी, देहली। हैं, जैनियोंके सिवाय अन्य मती आर्यसमाजी और सना___ "यह पुस्तक यहाँ बहुतसे आदमियोने पसन्द की तनी तक भी माँगते हैं...."इस वास्ते आपसे प्रार्थना है है-खास कर अजैन आदमियोंको ज्यादा पसन्द आई। अगर आप जितनी भी भेज सकें, भेज दें।" आपको धन्यवाद है जो आप इस तरह निःस्वार्थ सेवा कर १६-श्रीयुत ला० हरनामसिंह मंगत. रहे हैं।" "वाकई यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी है।" रायजी, बम्बई। १२-श्रीयुत ला० रघुनन्दनप्रसादजी 'आपकी लिखी हुई 'मेरी भावना' नामकी पुस्तक जैन, अमरोहा। श्रीमात्मानन्द जैन टक सोसायटी, अम्बाला द्वारा प्रका. "आपकी बनाई हुई 'मेरी भावना' कई भाइयोंको शित मिलो। पढ़कर अतीव आनन्द प्राप्त हुआ। मेरे यहाँ बहुत पसन्द आई । मेरे पास जो तीन प्रति थीं वे मैंने विचारमें इसका नित्य प्रति हर एक गृहस्थको पाठ करना । औरोंको दे दी शब और भाइयोंकी माँग है । अतः आपसे चाहिर तथा बालकों को पाठशालामें यह मौखिक याद ते है कि कमसे कम पन्दह बीस प्रति 'मेरी कराई जावे । अतः मेरा विचार हुआ है कि इसकी १००० भावनाकी' अवश्य अवश्य भेज दीजिए।....."मैंने एक प्रति छपवा कर पाठशालाओं में वतीर्ण की जायें। आपकी प्रति अजैन विद्वान् ब्राह्मण को दी थी जो उन्होंने बहुत . स्वीकृति आनेपर इस कार्यका प्रारम्भ किया जावेगा।" पसन्द किया है तथा नित्य प्रति पाठ करते हैं।" ___१७-श्रीयुत संघई मोतीलालजी, (३०-६-२१) मास्टर शिवपोल स्कूल, जयपुर । १३--श्रीयुत ला. मगनलालजी जैन, "आपने जो 'मेरी भावना' लिखी है वह बहुत ही 'सीपरी केम्प (ग्वालियर)। उपयोगी है। मेरे हाथमें श्रीसन्मति नामका पुस्तकालय है ___ "कृपाकर 'मेरी भावना' की पुस्तकें एक सौ हमारे जिससे प्रतिमास करीव ५०० पुस्तकें Issue हो जाती पते पर वी० पी० से या रजिस्ट्री से जैसे भी आप हैं......." आज यह इच्छा हुई है कि आपको उपर्युक्त मुनासिब समझे भेज दीजिएगा, क्योंकि उक्त नामकी एक पुस्तकका प्रचार जैनी और वैष्णव तथा मुसलमानों तकमें पुस्तक हमारे ( यहाँ) बम्बईसे आई थी सो हमारे यहाँ के हो तो बहुत उपकार हो-इसलिए आपसे प्रार्थना है कि जैन व अजैन भाइयोंने सबोंने पसन्द को। इसी वास्ते __यदि आपकी आज्ञा हो जाय तो इस पुस्तकालयकी ओरसे या उनको वितरण करनेके लिए हमने एक टेलीग्राम-तार २००० पुस्तक छपवाकर लोगो २००० पुस्तकें छपवाकर लोगों में प्रचार किया जाय।" श्रीयुत बाबू कुमार देवेन्द्रप्रसादजी श्राराको दिया था, ता०२३-३-१९२१ उत्तरमें उन्होंने ३ कापी भेजी और लिखा......" १-श्रीयुत बाबू दीवानचन्दजी, १४-मन्त्री श्रीवात्मानन्द जैन सभा', सेक्रेटरी 'जैनसुमति मित्रमण्डल', रावलअम्बाला शहर। पिएडी। "आपकी लिखी 'मेरी भावना' पढ़कर बहुत आनन्द ..."उन्होंने (एडीटर जैन प्रदीपने) 'मेरी भावना' आया, उसके अन्दर जो भाव आपने रखे हैं वे बहुत ही नामकी छोटी सी मगर बड़ी सुन्दर छपी हुई और बड़ी सत्तम है। हम चाहते हैं कि इससे और सज्जन भी कीमती नसीहतोंसे भरपूर-जिसमें एक एक भावना लाभ उठावें, इसलिए हमारा विचार है कि फुलस्केप अमे- सैंकड़ोंकी नहीं, हजारोंकी नहीं बल्कि लाखों करोड़ोंकी। रिकन कागजपर एक ही सरफ इश्तिहारकी सरह छपवा- कीमतकी है-इरसाल फर्माई (भेजी) है। मैं बड़े जोर For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५% जैनहितैषी। [भाग १५ से यह कहूगा कि.......' तमाम जैन कौमपर ही नहीं उपयोगी पुस्तक..."हर एक स्त्री-पुरुषको अवश्य मँगा बल्कि तमाम हिन्दुस्तान भरपर एक महान् उपकार किया लेनी चाहिए । इसकी पद्यरचना और उसके भाव मनुष्यहैं। यह कीमती किताब एक ऐसी पुस्तक है जिसको को सुमार्ग पर ले जानेवाले हैं।"-दिगम्बर जैन । सुबह सबेरे उठकर सच्चे दिलसे पढ़ना चाहिए। बाबू २३-श्रीयुत स्व. कुमार देवेन्द्रज्योतिप्रसाद साहबने मुझे चार अदद भेजी थी मगर दफ्तर में ही हाथों हाथ बाँटो गई। अब मण्डल हाजाके प्रसादजी जैन, प्रारा। प्रेसिडेन्ट और वाइस प्रेसिडेन्ट साहबानके अलावा सब [भापके कितने ही पत्र इस विषयमें मेम्बर ऐसी किताब लेनेके ख्वाहिशमन्द (इच्छुक) हैं। हमारे पास आये हैं। उनमेंसे तीन पत्रोंका कमजकम यकसद (सौ) पुस्तक हों तो काम चल सकता कळ अंश नीचे दिया जाता है जिससे है। नीज़ (इसके अतिरिक्त) मेरी यह बड़ी ख्वाहिश है कि इसी साइजमें 'मेरी भावना' उर्दू में छपाई जावे और पाठक यह समझ सकेंगे कि देवेन्द्रप्रसादमुशकिल अल्फाफ (शब्दों) के मानी Foot note (फुट जीके पास, जो कि इस भावनाके कई नोट) में आ जावें। फिलहाल एक हजार किताब मैं अपनी संस्करणोंके प्रकाशक थे, जनताके कितने तरफ़से छपवाना चाहता हूँ।" पत्र पाये होंगे और उनमें लोगोंने अपने ___१६--श्रीयुत मिस्टर चम्पैतरायजी, कैसे हार्दिक भाव प्रकट किये होंगे।] बैरिस्टर, हरदोई। "I am pressed from all sides for ___ "आपकी 'मेरी भावना' नामी पुस्तकको मैंने अपनी free copies of मेरी भावना. I am sending एक नई किताबमें जो अब अंग्रेजीमें तैयार हो रही है। copies everywhere as far as possible. शामिल कर लिया है और इसका अंग्रेजी तर्जुमा (अनु तजुमा (अनु. People want 100 and 200 copies, वाद) भी उसमें दे दिया है। मैं उम्मीद करता हूँ कि रता कि even for cost They send wire for the । मामले ऐसा करने की इजाजत देवेगे; क्योंकि मुझको hook. Let me know how to handle the इस किसमका दूसरा मजमून मिलना बहुत मुशकिल होगा।" situation." 28-8-19 २०--श्रीयुत पं० फौंदीलाल शाह, दालाल शाह, “The enclosure will speak for महकमा निजामत, भरतपुर । itself. Your lofty thoughts (मेरी भावना) ता०२०-१०-२१ is being universally recognised as a . "आपने जो पुस्तक 'मेरी भावना' की बनाई है वह precious elixir. The gentleman wants अत्यन्त प्यारी माधुरी भाषा (में है) और सदुपयोगी है। to publish 1000 Urdu edition." इसमें मनुष्यके कर्म क्रमसे लिखे गये हैं। ऐसी पुस्तककी 18-12-19 हमारी पार्टी यानी तमाम अर्जीनवीसान तथा मुख्तारान "I am getting every day orders पसन्द करते है और कहते हैं कि एक एक पुस्तक और for मेरी भावना, Hindi edition. Have you हमको चाहिए क्योंकि हम सबों पर एक ही किताब है। or Bombay got more copies ? kindly कृपाकर १५ प्रति किताब भेज दो". supply me a lot of 2000 copies." .. २१-श्रीयुत बा. भैयालालजी जैन, 2-6-20 सेक्रेटरी कांग्रेस कमेटी, कटनी। अर्थात्-"मेरी भावनाकी" को कापि____ "मेरा अनुभव है कि 'मेरी भावना का पाठ करनेसे मोके लिए मैं चारों ओरसे मजबूर किया प्रत्येक धर्म के लोगोंमें पवित्र विचारोंका संचार होने जाता हूँ। मैं हर एक जगह जहाँ तक हो लगता है।" ता०२०-१०-२१ २२-श्रीयुत ला० मूलचन्द किसन- सकता है कापियाँ भेजता हूँ। परन्तु लोग दासजी कापडिया, सम्पादक 'दिगम्बर - सौ सौ और दो दो सौ कापियाँ मांगते हैं, यहाँ तक कि कीमतसे भेजने को जैन', सूरत। "यह छोटी सी परन्तु सुन्दर और प्रति दिन के लिए लिखते हैं । वे पुस्तकके लिए तार भेजते • यहाँ अमुकने बनाकर, अमुकने छपवाकर और हैं। मुझे बतलाइए कि मैं इस खितिसे अमुकने प्रकाशित करके, ऐसा लिखा है। कैसे पार पाऊँ।" For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११ ] 'इस पत्र के साथ जो पत्र भेजा जाता है वह अपना हाल स्वयं बयान करेगा । आपके उच्च विचारोंकी समष्टि- अर्थात् 'मेरी भावना' - सर्वत्र एक बहुमूल्य रसायनके तौरपर स्वीकृत होती जाती है । यह सज्जन उर्दूमें एक हजार कापियाँ प्रकाशित करना चाहते हैं ।" थकावट । 'मेरे पास प्रति दिन 'मेरी भावना' हिन्दी संस्करण की माँगें श्रा रही हैं । क्या आपके पास अथवा बम्बई में कुछ और कापियाँ हैं ? कृपाकर मुझे दो हजार कापियोंका एक बण्डल और भिजवाइये ।" X x Xx X आशा है जिन भाइयोंका भाव अब इस पुस्तकको वितरण करके संसारका उपकार करनेका हो, वे उससे शीघ्र सूचित करेंगे । सम्पादक । थकावट । ( लेखक - महात्मा गान्धी । ) जब मुझसे कोई कहता है कि लोग अब थकने लगे हैं, कोई नई बात बताइये तब मैं हैरान हो जाता हूँ । तब मैं समझता हूँ कि लोग स्वराज्यका रहस्य नहीं जानते, धर्म-युद्धका अर्थ नहीं समझते । स्वराज्य अगर नित्य नया होनेवाला हो तो उसके उपाय भी नये हों। मैं तो स्वदेशीके सिवा दूसरा उपाय नहीं बतला सकता; और अगर हम स्वदेशीसे थक गये हो तो हमें स्वराज्यसे भी थक जाना होगा । * जो मनुष्य साँस लेते हुए थकता है वह मरनेकी तैयारी में है । तन्दुरुस्त आदमीकी साँस चला करती है, नाड़ी ३५६ चलती है, आँख भी अपना काम करती है, पर इसकी खबर तक उसको नहीं रहती । जरूरी क्रियाओंको करते हुए वह कभी नहीं थकता । कवि कभी अपनी शक्तिके उपयोगसे नहीं थकता, और जो थक जाता है वह कवि हई नहीं । जो सारङ्गीकी धुन में मस्त है वह कभी नहीं थकता । इसी प्रकार अगर हमपर स्वदेशीका गाढा रङ्ग चढ़ा होगा तो हम नहीं थक सकते, बल्कि हम देख सकेंगे कि जितनी सीढ़ियाँ हम स्वदेशीकी चढ़े हैं, उतनी ही स्वराज्य की भी चढ़े हैं और जिस प्रकार हम स्वराज्यका रास्ता तय करते हुए कभी थक नहीं सकते, उसी प्रकार स्वदेशीका मार्ग आक्रमण करते हुए भी हम नहीं थक सकते। ज्यों ज्यों मनुष्य उत्तम और पोषक हवामें आगे बढ़ता है, त्यो त्यों वह अधिक शक्तिमान होता जाता है; ऐसा ही अनुभव हमें भी होना चाहिए । ज्यों ज्यों हम स्वदेशीकी मंजिल अधिकाधिक तय करते हैं, त्यों त्यों हमारा बल अधिक बढ़ता जाता है । एक साल के पहले जो लोग चरखेका मजाक उड़ाया करते थे, आज वे कहाँ हैं ? श्रीयुत प्रफुल्लचन्द्र राय हमारे एक महान् विज्ञानाचार्य हैं। वे श्रीयुत वसुकी जोड़के हैं.! सूक्ष्म शास्त्रोंके पर खैया हैं । स्वयं कितनी ही कम्पनियोंसे सम्बन्ध रखते हैं। पर उन्हें भी कुबूल करना पड़ा है कि बङ्गालके साढ़े चार करोड़ स्त्री-पुरुषोंका एकमात्र आधार चरखा ही है । ऐसी हलचल से जो थक जाता है, वास्तवमें वह उसका रहस्य जानता ही नहीं है । भला थका हुआ योद्धा क्या कर सकता है ? जो योद्धा हमेशा अपनी लड़ाईकी गतिको बदला करता है उसकी हार हुए बिना नहीं रहने की। हम तो उत्तरोत्तर आगे ही बढ़ते गये हैं । धारा For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जैनहितैषी । सभा, खिताब, वकील और विद्यार्थियोंके किलोंमेंसे तो जो कुछ थोड़ा बहुत हमारे हाथ लगा, उससे हमारा काम चल गया, परन्तु इस विदेशी कपड़ेने तो हमारा रास्ता ही रोक रखा है। इस किलेको हम जब तक मिट्टी में नहीं मिला सकते तबतक हम स्वराज्यकी श्राशा नहीं रख सकते। उसके समूल नाश पर ही स्वराज्य सम्भवनीय है । इसलिए, चाहे एक मास लगे या अनेक, विदेशी कपड़े की चट्टानके टुकड़े किये बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते । दूसरी चट्टानोंमेंसे तो हम छेद करके भी पार हो सके हैं। स्वराज्य तो ऐसी वस्तु है जिसका अनुभव हमें अनुभवसे हो सकता है। रोगीका रोग दूर हुआ या नहीं, इसका अन्तिम निर्णय तो स्वयं रोगी ही कर सकता है । जो रोगो बिछौनेपर ही पड़ा रहता था, जो उठ बैठ ही नहीं सकता था, उसके चेहरेपर सुर्खी छिटने लगे चरबी बढ़ जाय और वैद्य कह दे कि हाँ अब तो तुम चंगे हो गये तो भी रोगी इस बातको नहीं मान सकता । इस बातका साक्षी कि स्वराज्य मिला है या नहीं, तो प्रत्येक मनुष्य स्वयं ही अपने लिए हो सकता है। इससे जो यह सिद्ध हो कि चरखे से धुनकने से करघे से और खादी से लोगोंका जी ऊब उठा है तो उसका अर्थ मैं यह करता हूँ कि लोगोंको स्वराज्यकी ज़रूरत ही नहीं है । जो रोज लंघन करता है अथवा चावल को छोड़कर भूसी खाता है, उसे हम कहते हैं कि यह तो आत्मघात करना चाहता है । उसी प्रकार जो स्वदेशीका लंघन करता है उसके विषय में कहा जा सकता है कि इसे स्वराज्यकी इच्छा नहीं है । क्या कार्यकर्त्ता धोने और उनके कुटुम्बियने पूरी तरह स्वदेशीका श्रंगी. [ भाग १५ कार कर लिया है जो वे अब उससे उता उठे हैं ? जबतक एक भी सहयोगी स्वयं तथा उसके परिवार के लोग स्वदेशी मय नहीं हो गये हैं, तबतक उन्हें थक जानेका या निराश होनेका कोई कारण नहीं है और जिस दिन तमाम असहयोगी अपना कर्तव्य समझकर सच्चे स्वदेशी हो जायँगे उस दिन मुझे विश्वास है कि सारा हिन्दुस्तान स्वदेशी हो जायगा । श्राजकी हमारी थकावट तो बालकोंकी थकावट जैसी है । बालकको जो सवाल कठिम मालूम होता है, उसको वह छोड़ देता है और कहता है-दूसरा सवाल दीजिए। जो शिक्षक इस प्रकार बालकको थकने और हारने देता है वह उसका शत्रु है । दिया हुआ सवाल लगाने पर ही बालकका छुटकारा हो सकता है । उसी प्रकार स्वदेशीका जो यज्ञ हमने आरम्भ किया है, उसके पूर्ण करनेपर ही काम चल सकता है। हमारी यह थकावट अपनी अपूर्णता और अज्ञानके कारण है। हम स्वराज्य की कीमत जानते नहीं हैं और अगर जानते हैं तो उतनी देना नहीं चाहते। हमारा खिलाफत सम्बन्धी प्रेम सभायें करने और चन्दा देने में ही समझा जाता है। अगर ऐसी ही स्थिति रहे तो स्वराज्य कभी नहीं मिल सकता । स्वराज्य प्राप्त करने के लिए पहले हमको उद्योगी बनना होगा, सभाओं का, जुलूसोंका, व्याख्यानोंका शौक हमें छोड़ना होगा; या यदि ऐसा मालूम होता हो कि अभी हमें खेल-तमाशों की ज़रूर 1 है तो कुबूल करना होगा कि अभी स्वराज्य दूर है । ( नवजीवन) For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वानुभव दर्पण सटीक । . उत्तमोत्तम जैन ग्रन्थ । भाचार्य योगीन्द्रदेवकृत प्राकृत दोहाबद्ध योगसारका मुंशी नाथूराम लमेचू कृत नीचे लिखी आलोचनात्मक पुस्तक पद्यानुवाद और भाषा टीका। अध्यात्म- विचारशीलोको अवश्य पढ़नी चाहिएँ । का अपूव ग्रन्थ है। हमारे पास थोडीसी साधारण बुद्धिके गतानुगतिक लोग इन्हें प्रतियों एक जगहसे आ गई है। मू.) न मँगावें। जैन द्वितीय पुस्तक। यह भी उक्त मुंशीजीकी लिखी हुई १ ग्रंथपरीक्षा प्रथम भाग । इस. बड़े काम की पुस्तक है। इसमें करणानु में कुन्दकुन्द श्रावकाचार, उमास्वातियोगकी सैकड़ों उपयोगी बातोंका संग्रह. श्रावकाचार और जिनसेन त्रिवर्णाचार इन किया गया है। १६० पृष्ठकी पुस्तकका तीन ग्रन्थोंकी समालोचना है । अनेक मू. केवल ॥) प्रमाणोंसे सिद्ध किया है कि ये असली जैनहितैषीके फाइल। जैनग्रन्थ नहीं हैं-भेषियोंके बनाये हुए पिछले पाँच छः वर्षों के कुछ फाइल हैं। मूल्य -) मल्या जिल्द बँधे हुए तैयार हैं। जो भाई चाहे २ ग्रंथपरीक्षा द्वितीय भाग । मँगा लेवे। पीछे न मिलेंगे। मू• वार्षिक यह भद्रबाहुसंहिता नामक ग्रन्थकी मूल्यसे आठ आने ज्यादा । विस्तृत समालोचना है। इसमें बतलाया नया सूचीपत्र। उत्तमोत्तम हिन्दी पुस्तकोंका १२ है कि यह परमपूज्य भद्रबाहु श्रुतकेवलीपृष्ठोंका नया सूचीपत्र छपकर तैयार है। का बनाया हुआ ग्रन्थ नहीं है, किन्तु पुस्तक-प्रेमियों को इसकी एक कापी मँगा। ग्वालियरके किसी धूर्त भट्टारकने १६-१७ कर रखनी चाहिए। मैनेजर, वीं शताब्दिमें इस जाली ग्रन्थको उनके हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कायालय, नामसे बनाया है और इसमें जैनधर्मके हीराबाग, पो. गिरगाँव, बम्बई। विरुद्ध सैंकड़ों बातें लिखी गई हैं। इन निता बिना मूल्य । । दोनों पुस्तकों के लेखक श्रीयुक्त बाबू - 'वीर पुष्पांजलि' नामकी एक चार जुगुलकिशोरजी मुख्तार हैं । मूल्य ।) पाना मूल्यकी सुन्दर पुस्तक हमारे पास. ३ दर्शनसार । श्राचाय देवसेनका से बिना मूल्य मिलती है। यह पुस्तक मूल प्राकृत ग्रन्थ, संस्कृतच्छाया, हिन्दी अभी नई छपी है और हमने उसकी ६०० अनुवाद और विस्तृत विवेचना। इतिकापियाँ वितरणार्थ खरीद की हैं, जिनमें हासका एक महत्वका ग्रन्थ है। इसमें से दो सौसे ऊपर वितरण हो चुकी हैं श्वेताम्बर, यापनीय, काष्ठासंघ; माथुरऔर शेष सभी बाकी हैं। जन हितैषीके संघ, द्राविडसंघ श्राजीवक (अज्ञानमत) जिन. पाठकोंको ज़रूरत हो वे डाकखर्चके और वैनेयिक श्रादि अनेक मतोंकी उत्पत्ति लिये प्राधानेका टिकट भेजकर एक २ कापी मगा सकते हैं। 'मेरी भावना' नाम और उनका स्वरूप बतलाया गया है। बड़ी की पुस्तक भी हमारे पास बिना मूल्य खोज और परिश्रमसे इसकी रचना हुई है। मिलती है। इनके सिवाय कुछ कापियाँ आत्मानुशासन । हमारे पाम विधवा कर्तव्य, की भी भगवान् गुणभद्राचार्यका बनाया हुआ रक्खी हुई हैं। जिन विधवा बहनों को इस यह ग्रन्थ प्रत्येक जैनीके स्वाध्याय करने पुस्तककी ज़रूरत हो उन्हें डाक खर्चके योग्य है। इसमें जैनधर्मके असली उद्दश्य लिये एक मानेका टिकट भेजकर मँगा लेना चाहिये और अपना पूरा पता साफ़ शान्तिसुखकी ओर आकर्षित किया गया अक्षरों में लिखना चाहिए। है। बहुत ही सुन्दर रचना है । अाजकल. जुगल किशोर मुख्तार, की शुद्ध हिन्दीमें हमने न्यायतीर्थ न्यायसरसावा जि० सहारनपुर शास्त्री पं० वंशीधरजी शास्त्रीसे इसकी For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rep. No. A. 1050. टीका लिखवाई है और मूलसहित छप- समझना हो और एक बढ़िया काव्यका वाया है। जो जैनधर्मके जाननेकी इच्छा आनन्द लेना हो तो आचार्य सिद्धर्षि के रखते हैं, उन अजैन मित्रोंको भेटमें देने बनाये हुए 'उपमितिभवप्रपंचाकथा' योग्य भी यह ग्रन्थ है / मूल्य 2) नामक संस्कृत ग्रन्थ के हिन्दी अनुवादको प्रायश्चित्त संग्रह। अवश्य पढ़िये। अनुवादक श्रीयुत नाथूराम संस्कृत और प्राकृतके इस अपूर्व प्रेमी / मूल्य प्रथम भागका // ) और द्वितीय संग्रहमें चार प्राचीन और नवीन प्राय- भागका / -) जैन साहित्य में अपने ढंगका श्चित्त ग्रन्थ छापे गये हैं। अभी तक ये यही एक ग्रन्थ है।। कहीं भी नहीं छपे थे। मुनियों, आर्यिकाओं संस्कृत ग्रंथ / और श्रावक श्राविकाओके सभीके प्रायः 1 जीवन्धर चम्पू-कवि हरिचन्द्रकृत 11) श्चित्तोका वर्णन है। मू०१) 2 गद्यचिन्तामणि-वादीभसिंहकृत / 2) मूलाचार सटीक। 3 जीवन्धरचरित-गुणभद्राचार्यकृत / 1) मूल प्राकृत और वसुनन्दि प्राचार्यः 4 क्षत्रचूड़ामणि-वादीभसिंहकृत। मू०१) कृत संस्कृत टीका पूर्वार्ध। मू. 2 // 5 यशोधरचरित-वादिराजकृत। मू०॥) उत्तरार्ध छप रहा है। चरचा समाधान / पं० नियमसार। कृत / भाषाका नया ग्रन्थ / हालही में छपा भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यका यह बिलकुर है। मूल्य 2 // -). ही अप्रसिद्ध ग्रन्थ है। लोग इसका नाम "जैन ग्रन्थोंका सूचीपत्र भी नहीं जानते थे। बड़ी मुश्किलसे प्राप्त ___ अभी हाल में ही छपकर तैयार हुआ करके यह छपाया गया है / नाटक समय है। मिलनेवाले तमाम ग्रन्थों की सूची है। सार श्रादिके समान ही इसका भी प्रचार जिन सज्जनौको चाहिए वे एक कार्ड होना चाहिए / मूल प्राकृत,संस्कृतच्छाया, लिखकर मँगा ले। मैनेजरप्राचार्य पद्मप्रभमलधारि देवकी संस्कृत जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, टीका और श्रीयुत शीतल प्रसादजी ब्रा?. हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई / चारीकृत सरल भाषाटीकासहित यह श्राविका। छपाया गया है। अध्यात्मप्रेमियों को अवश्य काअवश्य स्त्रीधर्म, गृह उद्योग प्रारोग्य और शिस्वाध्याय करना चाहिए। मूल्य 2) दो रु। क्षण सम्बन्धी उत्तम लेखोसे स्त्रीवर्गमें ण भाषा। अच्छी प्रसिद्धिको प्राप्त हुई यह गुजराती कविवर भूधरदासजीका यह अपृवं विका मासिक रूपसे प्रकाशित होती है। ग्रन्थ दूसरी बार छपाया गया है। इसी प्रत्येक अङ्कमें विषयामुसार खास चित्र कविता बड़ी ही मनोहारिणी है। जैनियों * भी रहते हैं / वार्षिक मूल्य तीन रुपये। के कथाग्रन्थों में इससे अच्छी और सुन्दर . पता-श्राविका आफिस-भावनगर / कविता आपको और कहीं न मिलेगी। विद्यार्थियों के लिये भी बहुत उपयोगी है। जैन नामका यह गुजराती पत्र बिना शास्त्रसभाओंमें बाँचने के योग्य है / बहुत पंथभेदके हर एक घरमें पढ़ा जाना चामुन्दरतासे छपा है / मू० सिर्फ 1) रु.। हिये / अढाई रुपये की 'जैग ऐतिहासिक कथामें जैनसिद्धान्त / वार्ता, भेटमें दिये जानेपर भी वार्षिक .. एक मनोरंजक कथाके द्वारा जैनधर्म- मल्य डाक खर्च सहित् पाँच रुपये है / की गूढ़ कर्म फिलासफीको सरलतासे मैनेजर 'जैन'-भावनगर। Printed & Published by G.K. Gurjar at Sri Lakshmi Narayan Press. Jatanbar, Benares City, for the Proprietor Nathuram Premi of Bombay 319-21. - For Persondra Private Use Only