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अङ्क ११ ]
का अवसर प्राप्त नहीं । इसी कारण चन्द्रमाको पृथ्वी परिक्रमामें साढ़े तीन दिनके स्थान में पूरा एक चान्द्र मास लग जाता है।
पुरानी बातोंकी खोज ।
दूसरी ग़लती यह हुई है कि हमारे मीमांसा लेखकने यह समझा कि चन्द्रमाका नित्य प्रति जो दर्शन होता है, वह इस कारण है कि चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है । इससे नतीजा यह निकला कि चन्द्रमाको प्रायः २४ घंटे में पृथ्वी की परिक्रमा कर डालनी चाहिए । परन्तु लिखते समय उन्हें यह न भूल जाना चाहिए था कि जो सिद्धान्त चन्द्रमाको पृथ्वी की परिक्रमा करता बतलाता है, वही सूर्यको पृथ्वी की अपेक्षा स्थिर बतलाता हैं । अतः जो कारण सूर्यके नित्य प्रति दर्शनका है, वही तो चन्द्रमाका भी होगा । उसके लिए चन्द्रमाको २४ घंटे में पृथ्वी प्रदक्षिणा की क्या आवश्यकता । चन्द्रमा की प्रदक्षिणा से तो केवल उसके आकार में अन्तर होता है, शुक्ल और कृष्णपक्षोंकी उत्पत्ति होती है, ज्वारभाटा आता है और कभी कभी सूर्य-चन्द्र ग्रहण देखनेका . मिलते हैं ।
अन्तमें मीमांसा लेखक से और पाठकोंसे मेरा पुनः निवेदन है कि यदि वे किसी वैज्ञानिक विषयका निर्णय करना चाहते हो तो पहले निष्पक्ष भावसे जो सिद्धान्त स्थिर किये गये हैं, उनका और उनके प्रमाणका खूब मनन करें। केवल मज़ाक करनेसे काम न चलेगा। वैसा करनेसे जो इस विषयके जाननेवाले हैं अथवा जिनको संसारका कुछ भी ज्ञान है, उनके हृदय में अवश्य अरुचि पैदा होती है और यदि यह मजाक जैनधर्म की ओरसे किया जाय तो जैनधर्मके प्रति भी श्रश्रद्धा उत्पन्न होती है। यदि आपका यह अभीष्ट नहीं है तो इस विषयकी चर्चा तबतक
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बन्द रहनी चाहिए जबतक कि आपके धर्मशास्त्रवेत्ता पण्डित लोग वैज्ञानिक सिद्धान्तों को समझकर उनकी समालोचना करने की योग्यता न प्राप्त कर लें ।
पुरानी बातों की खोज । ८- स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी टीकाका रचनाकाल । 'स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा'
नामका
एक प्राकृत ग्रंथ जैनसमाजमें सर्वत्र प्रसिद्ध है। इसकी एक संस्कृत टोका विजय कीर्तिके पट्ट- शिष्य श्रीशुभचन्द्राचार्य की बनाई हुई है। सेठ पद्मराज जीने 'जैन सिद्धान्त भास्कर' की ४ थी किरणमें. पाण्डव पुराणके कर्ता श्रीशुभचंद्राचार्यका परिचय देते हुए, लिखा था कि उन्होंने यह टीका वि० सं० १६०० में बनाई है और इसकी पुष्टिमें टीकाकी प्रशस्तिका निम्न वाक्य प्रमाण रूपसे उधृत किया था
श्रीमद्विक्रम भूपतेः परिमिते वर्षे शते षोडशे । श्रीमच्छ्रीशुभ चंद्र देवरचिता
टीका सदानन्दतु ॥
साथ ही, यह नतीजा भी निकाला था कि यह टीका पाण्डव पुराणकी रचनासे आठ वर्ष पहलेकी बनी हुई है; क्योंकि उक्त पुराण वि० सं० १६०८ में बनकर समाप्त हुआ है । इस परसे बहुत से लोग उस वक्त से यही समझ रहे होंगे कि स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी इस टीकाका रचनाकाल वि० सं० १६०० है । परन्तु बात ऐसी नहीं है। प्रोफेसर पिटर्सन साहबने, अपनी ४ थी रिपोर्ट में,
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