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________________ जैनहितैषी। [भाग १५ सर्वथा असमर्थ हैं। किन्तु स्पष्ट है कि उन्होंने अपने गणितशानका अच्छा परिसाधारणतया जब सूर्य और चन्द्रमा चय संसारको दे डाला है। उनकी उपर्युक्त एक सीधमें नहीं हैं, तब चन्द्रमाके टिप्पणी में छोटी छोटी भूलोंके अतिरिक्त प्रकाशित भागेका कुछ भी अंश न देख दो बहुत बड़ी भूलें हैं । पहली तो यह कि सकनेका कोई उपयुक्त कारण नहीं है। उन्होंने समझ लिया कि सौर जगत्में __ चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है, चन्द्रमा गर्भित होने के कारण चन्द्रमा इस विषयमें कुछ गणित सम्बन्धी शंका- पृथ्वीकी परिक्रमा सौर जगत्के वेग ४ एँ की गई हैं। लिखा है कि "आधुनिक मील प्रति सैंकड़े के वेगसे करता है। मतके अनुसार चन्द्रमा पृथ्वीसे २४०००० अर्थात् सौर जगत्में की किसी वस्तुका मील की दूरी पर है। अतः उसे पृथ्वीको वेग ४ मील प्रति सेकण्डसे कम या परिक्रमा करनेमें १५३३७१५ मील चलना अधिक हो ही नहीं सकता। हमारी रेलहोगा। सौर जगत् प्रति सेकंड ४ मील गाड़ी भी सौर जगत्में गर्भित है। अतः चलता है। और सौर जगत्में चन्द्रमा वह भी ४ मील प्रति सेकण्ड अर्थात् २४० भी गर्मित है। अतः उसका वेग भी ४ मील प्रति मिनट या १४४०० मील प्रति मील प्रति सेकंड हुआ। इस हिसाबसे घण्टेके वेगसे ही चल सकती है ! कम साढ़े तीन दिनके करीब चन्द्रमा पृथ्वीकी हरगिज़ नहीं चल सकती ! यही क्यों, एक परिक्रमा कर सकेगा। अर्थात् १२ सौर जगत् आखिर किसी निश्चित दिशामें घंटे में वह माधी पृथ्वी पर प्रकाश न कर तो चलता होगा। रेलगाड़ी भी उसी केवल साढ़े तीन हज़ार मोल परिधिमें दिशामें उतने वेगसे चलेगी। और तब प्रकाश कर सकता है। अथवा यो कहिये उसे अंजनकी भी कोई आवश्यकता नहीं। कि मस्त हो जानेके बाद हमें वह पौने किन्तु सौर जगत्के वेगको जाने दीजिये। दो दिन तक दिखलाई नहीं दे सकता। रेलगाड़ीमें मनुष्य बैठा है। रेल ४० मील सो विरोध प्रत्यक्ष प्राता है ।" । प्रति घण्टा चल । मनुष्य अपने इस सम्बन्धमें पहले तो यह सोचना कम्पार्टमेंटमें एक जगहसे उठकर दूसरी चाहिए था कि इतने सीधे गणितमें आधु- जगह जाना चाहता है। उसका वेग भी निक वैज्ञानिक लोग ग़लती कर जायँगे, यह उपर्युक्त न्यायके अनुसार ४० मील प्रति कहां तक संभव है। इतने इतने अद्भुत घण्टा ही होगा, और वह अपने अभीष्ट माविष्कार करनेवाले लोग जब केवल गुण स्थानपर उसी वेगसे अवश्य पहुँच भागके हिसाबमें गलती करने लगे तब तो जायगा। फिर चाहे कितनी ही भीड़ हो, महा अनर्थ हो जाय । इसका यह अर्थ नहीं चाहे वह कितना ही अशक्त हो, उसे कि ग़लती कभी हो ही नहीं सकती। किन्तु कुछ कोशिश करनी ही क्यों पड़े। उसका यह कि ऐसी अवस्थामै ग़लती बतलानेवा- वेग तो वह खड़ा ही रहे, तब भी४० मील लेकोबड़ी सावधानी रखनी चाहिए। कहीं प्रति घण्टा है। और यदि वह रेलके वेगऐसा न हो कि दूसरोकी गलती बतलाने से विपरीत दिशामें जाना चाहे तो में स्वयं ऐसी ग़लती कर बैठे कि सारा असंभव । यदि प्रकृतिका यह कायदा संसार हँसी उड़ावे। मुझे खेद है कि होता तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रस्तुत विषयमें मीमांसा लेखकने यह संसारमें आनन्द तो बहुत आता। किन्तु सावधानी नहीं की और इस कारण हमारे दुर्भाग्यवश हमें यह कौतुक देखने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522893
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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