SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३६ हो जैनहितैषी। [भाग १५ इस टीकाकी जो पूरी प्रशस्ति दी है ® चरित्र' 'सन्मति चरित' या 'महावीर उसमें उक्त वाक्य निम्न प्रकारले दिया चरित्र' नामका एक संस्कृत काव्य ग्रंथ है। हुआ है-- पं० खूबचंदजी शास्त्रीने उसका हिन्दी श्रीमद्विक्रम भूपतेः परिमिते अनुवाद किया है और वह तीन वर्ष हुए, - वर्षे शते षोडशे। ... सूरतसे प्रकाशित भी हो चुका है। परन्तु माघे मासि दशावह्निसहिते मूल संस्कृत ग्रंथ, जहाँ तक हमें मालूम ख्याते दशम्यां तिथौ। है, अभी तक छपा नहीं है। इसकी दो श्रीमच्छीमहिसार सार नगरे प्रतियाँ पाराके जैनसिद्धान्त भवनमें चैत्यालये श्रीगुरोः ताडपत्रों पर मौजूद हैं, जिनमेंसे एक आदि-अन्त दोनों ओरसे खंडित है और श्रीमच्छीशुभचंद्रदेवविहिता दूसरीमें सिर्फ पहला सर्ग नहीं है। टीका सदानन्दतु ॥६॥ बम्बईके मंदिर में भी इस ग्रंथकी एक प्रति और इससे यह साफ़ मालूम होता है है और उली परसे हिन्दी अनुवाद किया कि यह टीका वि० सं० १६१३ के माघ- गया है। श्राराकी प्रतिमें इस अन्तिम* मासकी दशमीको बनकर समाप्त हुई ग्रंथका भाग इस प्रकारसे दिया हुमा हैहै। जान पड़ता है, सेठजीको टीकाकी जो "कृतं महीवार चरित्रमेतन्मया प्रति देखनेको मिली है, उसमें लेखक परस्व प्रतिबोधनार्थ । महाराजकी कृपासे इस पद्यके मध्यके दो - सप्ताधिकं त्रिंशभवप्रबंधं चरण लिखनेसे छूट गये हैं और सेठ पुरूरवाद्यन्तिम वीरनाथं ।। जीने मादि अन्तके दो चरणोंको ही पूरा पच समझकर उसे प्रमाणमें उद्धृत वर्धमानचरित्रं यः कर दिया है । अतः सर्वसाधारणको प्रव्याख्याति श्रुणोति च । अब यह समझ लेना चाहिए कि इस तस्येह परलोकेऽपि टीकाका रचनाकाल वि० सं० १६०० सौख्यं संजायते तराम् ॥ नहीं, बल्कि १६१३ है। और इसलिये यह संवत्सरे दशनवोत्तरवर्षयुक्ते टीका पाण्डव पुराणकी रचनासे पहलेकी भावादिकीर्तिमुनिनायकपादमूले । नहीं किन्तु बादकी बनी हुई है । लेखकों की मौद्गल्यपर्वतनिवासव्रतस्थसंपकृपासे कैसा कैसा उलटफेर हो जाता है सच्छावकप्रजनिते सति निर्ममत्वे ॥१०५॥ इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। विद्या मया प्रपठितेत्यसगाह्वकेन ह-असगकृत वर्धमानचरित्रकी श्रीनाथराज्यमखिलं जनतोपकारि।। दो विभिन्न प्रशस्तियाँ। प्रापे च चौडविषये वरलान यो 'असग' कविका बनाया हुआ 'वर्धमान ग्रंथाष्टकं च समकारि जिनोपदिष्टं ॥१०६।। - इत्यसगकृते वर्द्धमानचरिते महाकाव्ये • देखो रायल एशियाटिक सोसायटी बम्बई ब्रांचके ___ महापुराणोपनिषदि भगवनिर्वाणगमनोअर्नलका ऐक्स्टरा (Extra) नम्बर, सन् १८६४ का छपा हुआ। नामाष्टादशः सर्गः ॥" +आराके जैनसिद्धान्त भवनकी प्रतिसे भी यही • यह भाग हमें भवनके पुस्तकाध्यक्ष पं० शांतिराज मालूम होता है। जीके द्वारा प्राप्त हुआ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522893
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy