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________________ अङ्क ११] पुरानी बातोंकी खोज। ३३७ बम्बईकी प्रतिमें भी अन्तिम भाग अब हम अपने पाठकों के सामने इसी . प्रायः वही है, सिर्फ दो एक जगह उसमें ग्रंथकी एक दूसरी प्रशस्ति रखते हैं जो कुछ अशुद्धियाँ पाई जाती हैं तथा पाठभेद पिटर्सन साहबकी चौथी रिपोर्ट में प्रकाउपलब्ध होते हैं। जैसे कि १०५ वें पद्यमें शित हुई है * और वह इस प्रकार है'व्रतस्थ' की जगह 'वनस्थ', सच्छावक की मुनिचरणरजोभिः सर्वदा भूतधात्र्यां जगह 'सच्छाविका' और, निर्ममत्वे के स्थानमें 'वा ममत्वे लिखा है। और १०६ प्रणतिसमयलग्नः पावनीभूतमूर्धा । ठे पद्म में 'प्रापे च' की जगह 'प्राय्यैव' और उपशम इव मूर्तः शुद्धसम्यक्त्वयुक्तः 'वरला' के स्थानमें 'विरला' पाठ दिया पटुमतिरिति नाम्ना विश्रुतः श्रावकोऽभूत् ॥१॥ है। इस प्रकारकी अशुद्धियों तथा पाठ- तनुमपि तनुतां यः सर्वपर्वोपवासैभेदोंके सिवाय उसमें पहले पद्य पर नं० __ स्तनुमनुपमधीः स प्रापयन्संचिनोति । १०२, दूसरे पर १०३ और शेष दोनों सततमपि विभूतिं भूयसीमन्नदानपधों पर नं० १०४ डाला है। अस्तु । इस अन्तिम भागमें पहले दो पद्य तो ग्रंथकी प्रभृतिभिरुपपुण्यं कुंदशुभ्रं यशश्च ॥२॥ समाप्ति और उसके कथन श्रवणके फल- भक्तिं परामविरतां समपक्षपातासूचक हैं। शेष दो पद्य ऐसे हैं जिन्हें मातन्वती मुनिनिकाय चतुष्टयेऽपि । . ग्रंथकी प्रशस्ति कहा जाता है। इन दोनो वेरित्तिरित्यनुपमा भुवि तस्य भायों पद्यों में ग्रंथकर्ता कवि असग अपना सम्यक्त्वशुद्धिरिव मूर्तिमती सदाभूत् ।।३।। परिचय इस प्रकार देते हैं कि मैंने संवत् ११० में भावकीर्ति' मुनिनायकके चरणोंके पुत्रस्तयोरसग इत्यवदात कीयो. समीप, मौद्गल्य पर्वतपर रहकर और रासीन्मनीषिनिवहप्रमुखस्य शिष्यः श्रावकीय व्रतोके अनुष्ठानपूर्वक सत्- चंद्रांशुशुभ्रयशसो भुवि नागनंद्याश्रावक बनकर तथा निर्ममत्व होकर चार्यस्य शब्दसमयार्णवपारगस्य ॥४॥ विद्याका अध्ययन किया है; बादको चौड (चोल ?) देशमें जनताका उपकार करने- सद्वृत्तं दधता स्वभावमृदुना निःश्रेय• वाले श्रीनाथके राज्यको प्राप्त हुआ हूँ सप्रार्थिना । साधूनां हृदयोपमेन शुचिना और वहाँ 'वरला' नगरीमें रहकर मैंने संप्रेरितः प्रेयसा। जिनोपदिष्ट ग्रंथाष्टककी रचना की है। ___एतत्सादरमार्यनंदिगुरुणा सिद्ध्यैइस परिचयसे इतना मालूम होता है कि असग कवि भावकीर्ति मुनिके शिष्य । ___ व्यधत्तासगः कीयुत्कीर्तनमात्र चारु चरितं थे। उन्होंने मौद्गल्य पर्वतपर रहनेके श्रीसन्मतेः सन्मते ॥५॥ बाद कुछ अर्से तक चौड देशकी वरला इति वर्धमानचरित्रं समाप्तम् ।” नगरीमें निवास किया है, ग्रंथाष्टककी इस प्रशस्तिके पहले और "कल्पाः (आठ ग्रंथोंकी) रचना की है और उनका कल्याणमुच्चैः सपदि जिनपदे पंचमं तस्य मस्तित्व समय विक्रमकी १०वीं शताब्दी है। --- *देखो रायल एशियाटिक सोमायटी बम्बई प्रांचके - इस प्रतिका अन्तिम भाग हमें श्रीयुत पं० नाथूराम ' जर्नलका ऐक्स्ट्रा (Extra) नम्बर सन १८६४ का नी प्रेमीके द्वारा प्राप्त हुआ है। छपा हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522893
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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