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________________ अङ्क ११] मेरी भावनाकी लोक-प्रियता। ३५५ एक हजार कापियोंके फिरसे छपा देनेके कापियाँ वितरण करनेवालोका नाम, लिए लिखा था और कई पत्रों द्वारा बहुत वितरणकी उस सूचनाके साथ, पुस्तकमें कुछ ज़रूरत जाहिर की थी। परन्तु हिन्दी छपादिया जायगा। एक हजार कापियोंकी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय बम्बई में भी लागतका तख़मीना तीससे चालीस कापियोंके समाप्त हो जाने और प्रेससे रुपये तक होगा-अर्थात् थोड़ी (५-७ नियत समय पर छाप देने का वादा न हज़ारकी) संख्यामें छपने पर ४०) मिलने की वजहसे हम उनकी उस इच्छाको रुपये के करीब और अधिक संख्यामें पूरा नहीं कर सके। इसी तरह और भी छपने पर ३०) रुपये के करीब लागत कितने ही भाइयोंकी इच्छाको हम पूरा बैठेगी। बहुत से भाई पीछेसे अधिक नहीं कर सके। हाथमें थोड़ा स्टाक होनेकी कापियों के लिए लिखा करते हैं । उन्हें वजहसे पुस्तके बहुत संकोचके साथ चाहिए कि वे अब अपने यहाँ अथवा वितरण की जाती हैं । प्रायः सभी जगहों दूसरी जगह मेले ठेले आदिमें वितरण पर अभी तक इस पुस्तककी कापियाँ करने के लिए जितनी कापियों की ज़रूरत यथेष्ट संख्यामें नहीं पहुँच सकी हैं और समझे, उनसे दिल खोलकर सूचित करें। बहुत सी जगहें ऐसी भी हैं जहाँके एक नगर या ग्रामके कई भाई मिलकर भाइयोंको इस पुस्तकका परिचय तक भी अपने नगर तथा ग्रामका नाम नहीं मिला। अजैनों में तो अभी तक पुस्तक वितरणकर्ताकी जगह छपवा इसका प्रचार नहींके बराबर हुआ है। सकते हैं। पुस्तकके छप छपाकर तय्यार घे लोग जब कभी इसे पाते हैं, तो बड़े होने में भी कई महीने लग जायँगे। इसलिए • प्रेमके साथ पढ़ते हैं। कितनोंहीने इस जिन भाइयोंका जितनी कापियों के लिए पर अपने बड़े उत्तम विचार भी प्रकट उत्साह हो, उन्हें उससे शीघ्र सूचित करना किये हैं। उनमें इस पस्तकके अधिक प्रकाशित प्रचारकी बहुत बड़ी ज़रूरत बतलाई है। की जाती है। हमारी रायमें इस पुस्तककी कमसे कम 'मेरी भावना' के सम्बन्ध प्राप्त एक लाख नहीं तो पचास हजार कापियाँ हुए जनताके पत्रोंमेसे कुछका सारभाग ज़रूर वितरण होनी चाहिएँ । अभी सिर्फ इस प्रकार है१५ हज़ार कापियाँ ही वितरण हुई हैं। १-श्रीयुत जुगमंदरदासजी, नजीबा. इसलिए हम चाहते हैं कि अबकी बार बाद । यह पुस्तक आधक सख्याम छपाइजाय "सत्पुरुषोचित भावोंको शिक्षिका यह भावना प्रत्येक . और हिन्दी जाननेवाली संपूर्ण जैन स्त्रीपुरुषके कण्ठमें ही नहीं किन्तु हृदयमन्दिर में विराजे, भजैन जनतामें इसका, निःसंकोच और वे सब नित्य ही, सामायिक पाठा देके साथ, इसका भावसे, प्रचार किया जाय। जो परोपकारी पाठ करते हुए तदनुकूल अपने भावों तथा चरित्रको भाई पुस्तककी उपयोगिताको समझकर बनानेकी चेष्टा किया करें, यही मेरी भावना है।" अपनी ओरसे जितनी संख्यामें इसकी २-श्रीयुत मुनि तिलकविजयजी पंजाबी। . कापियाँ वितरण करना चाहे, उन्हें शीघ्र ..."मेरी भावना, आपने अद्वितीय पुस्तक रची है। उससे सूचित करना चाहिए, ताकि उनके मेरी राय है कि इस पुस्तकका स्त्री-पुरुष प्रतिदिन दो लिए उतनी कापियोंका प्रबंध कर दिया दफा पाठ किया करें तो उनके जीवनमें बहुत कुछ सुधार जाय । एक हजार और उससे अधिक हो सकता है। मेरी भावनाको मैं प्रेमपूर्वक स्वीकार करता यह सूचना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522893
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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