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________________ Le ला० हो गया और इसलिए मुनीजीने जिस श्रावकको रकम देने के लिए तय्यार किया था, उसकी वह रकम उन्होंने किसी दूसरी पुस्तक के प्रकाशित कराने में लगानी पड़ी। इसी विलम्बके कारण लोगोंकी माँग से तंग आकर कुमार देवेंद्रप्रसाद - जीने सन १६२० में, इस पुस्तककी दो हज़ार कापियाँ क़ाशीके 'ज्ञानमंडल यंत्रालय में' तय्यार कराईं, और उन्हें कुछ मूल्यसे और कुछ बिना मूल्य वितरण किया। उधर बम्बई में भी एक हज़ार कापियाँ आत्मानंद जैन ट्रैकृ सोसायटीकी ओोरसे, एक हज़ार ला० चिम्मनलाल कागजी व महावीरप्रसाद ठेकेदार देह लीकी तरफ से, और एक हज़ार कापियाँ उम्मेदसिंह मुसद्दीलालजी की ओरसे छुपकर तय्यार हो गई, और उनका वितरण प्रारंभ हुआ। साथ ही तीन हज़ार के करीब कापियाँ हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कर्यालय ने अपने लिए छपाई । इसके बाद बिना मूल्य वितरण करनेके लिए गणदेवीके भाई मगनलाल हरजीवनशाहने एक हजार, बम्बई के ला मंगतरावजीने एक हज़ार और जयपुर के भाई संघई मोतीलालजी मास्टर शिवपोल स्कूलने दो हज़ार कापियोंके छपाने की मंजूरी माँगी, जो उन्हें दी गई। इनमें से ला० मंगतरायजीकी बाबत खं० जैनहितेच्छुसे, जिसमें पुस्तकको 'प्रातःकाल पाठ करनेके लिए श्रतीव उपयोगी' बतलाया गया है, हमें यह मालूम हुआ है कि उन्होंने एक हज़ार कापियाँ छपाकर वितरण की हैं। शेषकी बाबत अभी तक कुछ मालूम नहीं हो सका। इसी अर्से में रावलपिंडीके 'जैन सुमति मित्रमंडल' की प्रेरणा से इस पुस्तक. का एक उर्दू संस्करण भी निकाला गया, , जिसमें फुट नोटके तौर पर हिन्दी के जैनहितैषी । Jain Education International [ भाग १५ ख़ास ख़ास शब्दोंका उर्दूमें अर्थ दिया गया है । इस संस्करणकी संपूर्ण कापियाँ मेसर्स काकुशाह ऐंड सन्स रावलपिंडी की श्रोरसे बिना मूल्य बाँटी गई हैं। इस तरह पुस्तिका के सात आठ ( कविताके १० - ११) संस्करण हो चुके हैं और लगभग पंद्रह हज़ार कापियाँ उसकी वितरण की जा चुकी हैं। इस वर्ष यह भावना 'वीर पुष्पांजलि' में भी प्रकाशित हुई हैं और मिस्टर चम्पतराय साहब बैरिस्टर हरदोईने इसे अंग्रजी अनुवाद सहित अपनी एक नई अंग्रेजी पुस्तकर्मे भी लगाना पसंद किया है । इस भावनाकी प्रशंसा और पुस्तिकाकी उपयोगिता के सम्बंधर्मे हमारे पास सैंकड़ों भाइयोंने पत्र भेजने की कृपा की है, जिनमें से कुछ पत्रका सारभाग, हितैषीके पाठकों के अवलोकनार्थ, नीचे दिया जाता है। भाई देवेंद्रप्रसादजीने कितने ही पत्रोंको भी यह पुस्तक समालोचनार्थ भेजी थी और उनमें इसकी अच्छी समालोचना हुई है; परन्तु उनकी फाइलें हमारे सामने नहीं हैं । अस्तु | इस सब कथन अथवा संक्षिप्त इतिहास के साथ नीचेके विचारावतर लौको पढ़नेसे पाठक इस भावनाकी 'लोकप्रियता' का अच्छा अनुभव कर सकते हैं और इस बात को जान सकते हैं कि यह भावना जनताको कितनी रुचिकर हुई तथा कितनी पसंद आई है; श्रौर इसने लोकमें अपनी उपयोगिताको कहाँ तक सिद्ध किया है । इस समय इस पुस्तक के सभी संस्करणोंकी प्रायः संपूर्ण कापियाँ समाप्त हो चुकी हैं-थोड़ीसी हमारे पास बाक़ी हैं और माँगें बराबर आ रही हैं। पिछले श्रावण मासमें देहलीके भाई दलीपसिंहजी कागज़ीने ५००-७०० कापियोंके मँगा देने अथवा आधे भादों तक उनकी भोरसे For Personal & Private Use Only By www.jainelibrary.org
SR No.522893
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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