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________________ ३५६ जैनहितैषी। [भाग १५ हूँ। इतना ही नहीं किन्तु सदैव पास रखकर प्रति दिन -श्रीयुत मुनि जिनविजयजी, पूना। पाठ करता हूँ। इस बनाके लिए मैं आपको अन्तःकरण- 'मेरी भावना' ने मेरे हृदयमें बड़ा ऊँचा स्थान से धन्यवाद देता हूँ और इच्छता हूँ कि मेरी भावनाका पाया है। मैं आज उसकी एक प्रति म० गान्धीजोके नित्य पाठके समान घर घर स्त्री-पुरुष प्रति दिन सुबह सत्याग्रह आश्रममें भेजता हूँ । वहाँपर इसको बड़ा आदर शाम मनन करें" । "ता०३१-८-१६. 'मिलेगा। आप इसकी २५-५० कापियाँ म० गान्धीजीके ... "आपकी भावनाका यहाँपर (पनारमें) बड़ा ही प्रभाव नामपर अहमदाबाद सत्याग्रह आश्रममें अवश्य भिजपड़ा है। प्रति दिन पाठ करनेके कारण तो कण्ठप्राय हो वाइये । मेरे पास भी १०-१२ कापियाँ यदि सुलभ हों तो गई है । इस भावनाको सुनकर और पढ़कर विद्वान् लोग और भिजवाइये।" मुक्तकण्ठसे प्रशंसा करते हैं। इतना ही नहीं किन्तु मेरी श्रीयत मनि वल्लभविजयजीप्रादि भावनाने कितने एक मनुष्योंके कण्टकाकीण हृदयको पाँच साध सादडी। सरल बनाया है, इसके लिए हम आपको जितना धन्य "दो प्रतियें मिलीं, योग्य सदुपयोग किया गया है। वाद दें,थोड़ा है।" ता०११-१०-१६ श्रापकी भावनानसार ही आचरण होना सम्भव कर .".."यहाँ (पनार) से मेरी मावनाकी दो चार कापी आनन्द प्राप्त होता है। यदि एक सौ प्रतिये और श्रा पूना भेजी गई थीं। आप जानते हैं, पूना विद्याका जावे तो कुछ साधु साध्वियोंको दी जावें, कुछ योग्य केन्द्र स्थल है। वहाँपर मेरी भावनाकी बड़ी ही कदर हुई . गृहस्थियों को दी जावें और शेष एक एक प्रति आजू बाजू. है। मेरे मित्र चारों तरफसे मुझे ही लिखते हैं। आपने के गाँवों में श्रीजिनमन्दिरमें स्थापन कर दी जावें ताकि मेरी भावनामें विचित्र जादू भरा है।" पूजा दर्शनार्थ आनेवाले श्रावक श्राविकाओंके भी उप ता० १६-१०-१६ योगमें आवें। यदि आप भेजनी मुनासिब समझे तो निम्न पुस्तककी द्वितीयावृत्तिमें छपने के लिखित पते पर वी० पी० मेज देवें या अपनी तरफसे भेंट लिए 'मेरा विश्वास' नामसे जो विचार डाक महसूलका बी० पी० करके भेज देवें ।" . आपने भेजा था, वह इस प्रकार है-] ७-श्रीयुत पं० दुर्गादत्तजी शास्त्री "सच्चे हृदयसे लिखी हुई यह छोटी सी भावना . न्यायतीर्थ व व्याकरणाचार्य, हिन्द बोर्डिंग. मनुष्यके चरित्रको उन्नत और उदार बनानेके लिए बड़े हाउस, लाहौर। ही कामकी चीज है । इसके अधिक प्रचार पर मानव ___ "आपकी किताब बड़ी शिक्षाप्रद है। उसके पढ़नेसे समाजका अधिक हित अवलम्बित है. ऐसा मेरा दृढ विश्वास दिलमें अत्यन्त भक्तिका उदय होता है। हिन्दी संसारमें है। अतः भारतके प्रत्येक स्त्री-पुरुषको दिनकृत्यके समान ऐसी पुस्तकोंकी अत्यन्त आवश्यकता है। आपने इस सुबह शाम इसका अध्ययन और मनन करते हुए जीवन पुस्तकको बनाकर लोगोंके हृदयको परमात्माकी भक्तिका को पवित्र बनानेका यत्न करना चाहिए।" ता०६-२-२१ सीधा रास्ता बता दिया ।" - E-बाबा भगीरथजी वर्णी । ३-श्रीयुत मुनि विचक्षणविजयजी ___ "आपको श्रीजी चिरंजीवी करें, आपकी कविता मनोलुधियाना। हर सार भरी है। एक प्रति ज्ञानानन्दजीको, एक ठाकुर"भापकी भावना तो भावना ही है साक्षात् हृदया. दास वर्णीको भेट कर दई, तोन मेरे पास हैं। मेज सको न्धकारको दूर करनेके लिए 'भा' प्रकाश 'वना' हुआ तो औरोंको भी आनन्द आवेगा प्रति २०।" है। तिमिराच्छादित बहुत से जनोंके हृदयमें इसे प्राप्त -श्रीयुत राजवैद्य शीतलप्रसादजी, करनेकी इच्छा हुई है। अगर इन लोगोंकी इच्छा देहली। पूर्ण करनेकी भावना हो तो २५ कापी, और भेजनेकी "मेरी भावना अति कृपाकर तकलीफ लें, खर्च की वी० पी० कर दें।" जो तुमने भिजवाई है। ४-श्रीयुत मुनि तरुणविजयजी। पढ़कर चित्त प्रसन्न हुआ इम जिम निर्धन निधि पाई है। (कुछ कापियोंके पूना भेजनेकी प्रेरणा कविता सरस ललित मित अक्षर करते हुए लिखते हैं अद्भुतता दर्शाई. है । मेरी भावनाको मैं डेली (प्रति दिन) नित्य स्मरण इन शुभ भावनसह चिरजीवो स्तोत्रके साथ पढ़ता हूँ।" - शीतल देत बधाई है ॥१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522893
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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