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________________ जैनहितैषी । ३४४ श्रद्धा को देखकर ही यह पुराण रचा गया है । जैनहितैषीपर विद्वानोंके विचार | ( गतांक से आगे । ) १३- श्रीयुत बाबू निहालकरणजी सेठी, एम. एस-सी, बनारस सिटी । ता० ११-१०-२१ "इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि जैनहितैषी उन उच्च कोटिके मालिक पत्रों मेसे है जिनके द्वारा सत्यका निर्णय और प्रचार करने में संसारको सहायता मिलती है। अन्य जैन पत्रोंकी भाँति उसमें संकी ता और पक्षपात नहीं देख पड़ता और वैज्ञानिक दृष्टिसे सत्यकी खोजमें जिस स्वतन्त्रता और निर्भीकताकी श्रावश्यकता है, वह इस पत्रके संचालनमें यथेष्ट मात्रामें पाई जाती है । प्रचलित लोक- रूढ़ि के विरुद्ध मतका प्रकाश करना बड़े साहसका काम है और ऐसा करनेमें पत्र-संचा कोंको अपमान के अतिरिक्त बहुत आर्थिक हानि भी उठानी पड़ती है। किन्तु जैनसमाजके और समस्त सत्यमें भी संसारके लिए गौरव की बात है कि जैनहितैषी में वह साहस है । इसके लेख बड़े गवेषणापूर्ण होते हैं और जैन समाजका उपकार और उन्नति स्पष्ट रीतिले उनका उद्देश्य रहता है । जैनशास्त्रोंमेंसे कूड़ा करकट निकालकर उनका यथार्थ स्वरूप प्रकट करनेका जो प्रशंसनीय प्रयत्न जैनहितैषी कर रहा है, उससे विश्वास है कि कभी जैनधर्मकी वास्तविक पवित्रता संसार में प्रकाशित हो जायगी और उसपर जो मिथ्या दोष लगाये जाते हैं, उनसे वह मुक्तिलाभ कर लेगा। यह बड़े दुःखको 1 Jain Education International [ भाग १५ बात है कि इसके लेखों का विरोध करनेवाले अपने पांडित्य से काम न लेकर बहिकार आदि दुष्ट उपायोंका अवलम्बन करते हैं । यदि वे भी इतनी ही खोजपूर्वक अपने मतकी पुष्टि करते तो कितना अच्छा होता । जो हो, समाज-सुधार, धर्मप्रचार, सत्य-निर्णय, इतिहास श्रादि किसी भी दृष्टि से देखिये, जैनहितैषी वास्तव में हमारे गर्वकी वस्तु है और इसके लिए उसके संचालक अवश्य ही प्रशंसा के पात्र हैं । १४ – श्रीयुत मुनिविजयजी, सम्पा दक 'महावीर', पूना । महावीर श्रंक १२७, आश्विन शु० १ "इस पत्रको प्रकाशित होते हुए १५ वर्ष पूरे हो गये। कई वर्षतक इसका संपादन श्रीयुत पण्डित नाथूरामजी प्रेमी करते रहे और उन्हींके अनुरोधसे गत वर्ष से यह काम श्रीयुत बाबू जुगुल किशोरजीने अपने हाथमें लिया है। प्रेमीजीके सम्पादकत्वमें जितना सहकार बाबूजीका था, उतना ही सहकार प्रेमीजीका अब बाबूजीके सम्पादकत्व में है । अर्थात् पिछले कई वर्षोंले यह पत्र इन दोनोंकी समान सहकारितासे संचालित होता चला आ रहा है । यह पत्र, जैसा कि इसके मुखपृष्ठ पर लिखा रहता है, लममुच ही “किसी स्वार्थबुद्धि से प्रेरित होकर निजी लाभके लिए नहीं निकाला जाता है। इसके लिए समय, शक्ति और धनका जो व्यय किया जाता है, वह केवल निष्पक्ष और ऊँचे विचारोंके प्रचार के लिए ।" जैनसमाजमें यह एक ही ऐसा हिन्दी मालिक पत्र है जो भाव और भाषा दोनोंकी दृष्टिसे प्रतिष्ठित गिना जाता है। इस पत्र की नीति हमेशा उदार और उच्च प्रकारकी रही है । इसके लेख संस्कारी और मध्यस्थ भाव से भरे होते For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522893
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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