________________
अङ्क ११ ]
स पुराणमिदं व्यधत्त शांते रसगः साधुजनप्रमोहशांत्यै ॥ २४८ ॥ इत्यगकृतौ शांतिपुराणे भगवतो निर्वाणगमनो नाम षोडशः सर्गः । "
पुरानी बातोंकी खोज ।
जयपुर की जिस प्रतिपरसे यह प्रशस्ति उतारी गई है, वह भाषाढ़ सुदी ११ भौमवार संवत् १५६१ की ( क़रीब चार सौ वर्षकी लिखी हुई है, ऐसा मित्र महाशय सूचित करते हैं । अस्तु; इस प्रशस्तिका वर्धमान चरित्रको ऊपर उद्घृत की हुई प्रशस्तियों के साथ मिलान करने से मालूम होता है कि इसका कोई पद्य आरा श्रादिकी प्रतियोवाली प्रशस्तिके साथ नहीं मिलता । प्रत्युत् इसके प्रशस्तिके पहले चार पद्य वही हैं जो पिटर्सन साहबकी रिपोर्टवाली प्रशस्तिके शुरूमें पाये जाते हैं। और एह ही ग्रंथकर्ताकी दो कृतियोंमें ऐसा अक्सर हुआ करता है। उदाहरण के लिये पं० श्राशाधर जीके ग्रन्थोंमें उनकी प्रशस्तियोंको देखना चाहिए जिनके शुरू में कितने ही पद्य समान रूपले पाये जाते हैं। इस प्रशस्तिके अन्तिम पद्यसे वह भी मालूम होता है कि वर्धमानचरित्र ( सन्मतिचरित) 'को रचने के बाद ही कविने इस शांति नाथ पुराणकी रचना की है। और वर्धमान चरित्र की रचना के इस उल्लेख से ऐसा ध्वनित होता है कि शायद वर्धमान चरित्र ही उनकी पहली ख़ास कृति है । यदि उससे पहले भी उन्होंने किसी दूसरे उल्लेख योग्य ग्रंथका निर्माण किया होता तो वे इसी तरह उसका भी यहाँ तथा पिटर्सन लाइबकी रिपोर्टवाली प्रशस्ति में जरूर उल्लेख करते जैसा कि पं० आशाधर ने अपने ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोमै उस उस ग्रन्थसे पूर्व पूर्वके रचे हुए प्रन्थोंका उल्लेख किया है । परन्तु
Jain Education International
३४३
ऐसा नहीं किया गया; इसलिये धारा श्रादिकी प्रतियोंवाली प्रशस्तिमें आठ ग्रंथोके रचे जानेकी जो बात है, वह वर्धमान चरित्रके रचे जानेके वक्त तककी नहीं बल्कि उससे बहुत पीछेकी मालूम होती है उस वक्तकी जब कि शांतिनाथ पुराणके बाद संभवतः छः ग्रन्थोंकी रचना और हो चुकी थी और इसलिये श्रारा श्रादिकी प्रतियोवाली प्रशस्ति बहुत कुछ आपत्तिजनक जान पड़ती है। शांतिनाथ पुराणकी इस प्रशस्ति से हमारा विचार तो अब यही दृढ़ होता है कि वर्धमानचरित्रकी वास्तविक प्रशस्ति वही है, और श्रारा श्रादिकी प्रतियोंवाली प्रशस्ति किसी ऐसी ही घटनाका परिणाम है जिसकी संभावनाका हमने ऊपर नं० ३ में उल्लेख किया है। और यदि यह साबित हो जाय कि विक्रमकी १० वीं शताब्दी में 'नागनंदी' और 'आनंदी' नामके कोई आचार्य नहीं हुए हैं, तो उस समय शायद हमें यह कहने में भी कुछ आपत्ति नहीं होगी कि आरा आदिकी प्रतियों के वे अन्तिम दो पद्य 'अलग' नामके किसी दूसरे ही कविले सम्बन्ध रखते हैं और किसी तरह पर वर्धमानचरित्रकी किसी प्रतिमें प्रक्षिप्त हो गये हैं। और उसी प्रति परसे श्रागेकी प्रतियों में फिर उनका सिलसिला चल निकला है। खोज होने पर यह सब कुछ पता चल जाने की संभावना है।
शांतिनाथ पुराणकी इस प्रशस्तिसे. एक बात और भी मालूम होती है; और वह यह कि अलग कविके एक सेव्य मित्रका नाम 'जिनाप्य' था, जो जातिसे ब्राह्मण होने पर भी जैनधर्मानुयायी था, पक्षपात रहित था, बहादुर था और साथ ही परलोक भीरु था । उसकी व्याख्यानशीलता और पुराण
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org