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जैनहितैषी ।
सभा, खिताब, वकील और विद्यार्थियोंके किलोंमेंसे तो जो कुछ थोड़ा बहुत हमारे हाथ लगा, उससे हमारा काम चल गया, परन्तु इस विदेशी कपड़ेने तो हमारा रास्ता ही रोक रखा है। इस किलेको हम जब तक मिट्टी में नहीं मिला सकते तबतक हम स्वराज्यकी श्राशा नहीं रख सकते। उसके समूल नाश पर ही स्वराज्य सम्भवनीय है । इसलिए, चाहे एक मास लगे या अनेक, विदेशी कपड़े की चट्टानके टुकड़े किये बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते । दूसरी चट्टानोंमेंसे तो हम छेद करके भी पार हो सके हैं।
स्वराज्य तो ऐसी वस्तु है जिसका अनुभव हमें अनुभवसे हो सकता है। रोगीका रोग दूर हुआ या नहीं, इसका अन्तिम निर्णय तो स्वयं रोगी ही कर सकता है । जो रोगो बिछौनेपर ही पड़ा रहता था, जो उठ बैठ ही नहीं सकता था, उसके चेहरेपर सुर्खी छिटने लगे चरबी बढ़ जाय और वैद्य कह दे कि हाँ अब तो तुम चंगे हो गये तो भी रोगी इस बातको नहीं मान सकता । इस बातका साक्षी कि स्वराज्य मिला है या नहीं, तो प्रत्येक मनुष्य स्वयं ही अपने लिए हो सकता है। इससे जो यह सिद्ध हो कि चरखे से धुनकने से करघे से और खादी से लोगोंका जी ऊब उठा है तो उसका अर्थ मैं यह करता हूँ कि लोगोंको स्वराज्यकी ज़रूरत ही नहीं है । जो रोज लंघन करता है अथवा चावल को छोड़कर भूसी खाता है, उसे हम कहते हैं कि यह तो आत्मघात करना चाहता है । उसी प्रकार जो स्वदेशीका लंघन करता है उसके विषय में कहा जा सकता है कि इसे स्वराज्यकी इच्छा नहीं है ।
क्या कार्यकर्त्ता धोने और उनके कुटुम्बियने पूरी तरह स्वदेशीका श्रंगी.
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[ भाग १५
कार कर लिया है जो वे अब उससे उता उठे हैं ? जबतक एक भी सहयोगी स्वयं तथा उसके परिवार के लोग स्वदेशी मय नहीं हो गये हैं, तबतक उन्हें थक जानेका या निराश होनेका कोई कारण नहीं है और जिस दिन तमाम असहयोगी अपना कर्तव्य समझकर सच्चे स्वदेशी हो जायँगे उस दिन मुझे विश्वास है कि सारा हिन्दुस्तान स्वदेशी हो जायगा । श्राजकी हमारी थकावट तो बालकोंकी थकावट जैसी है । बालकको जो सवाल कठिम मालूम होता है, उसको वह छोड़ देता है और कहता है-दूसरा सवाल दीजिए। जो शिक्षक इस प्रकार बालकको थकने और हारने देता है वह उसका शत्रु है । दिया हुआ सवाल लगाने पर ही बालकका छुटकारा हो सकता है । उसी प्रकार स्वदेशीका जो यज्ञ हमने आरम्भ किया है, उसके पूर्ण करनेपर ही काम चल सकता है। हमारी यह थकावट अपनी अपूर्णता और अज्ञानके कारण है। हम स्वराज्य की कीमत जानते नहीं हैं और अगर जानते हैं तो उतनी देना नहीं चाहते। हमारा खिलाफत सम्बन्धी प्रेम सभायें करने और चन्दा देने में ही समझा जाता है। अगर ऐसी ही स्थिति रहे तो स्वराज्य कभी नहीं मिल सकता । स्वराज्य प्राप्त करने के लिए पहले हमको उद्योगी बनना होगा, सभाओं का, जुलूसोंका, व्याख्यानोंका शौक हमें छोड़ना होगा; या यदि ऐसा मालूम होता हो कि अभी हमें खेल-तमाशों की ज़रूर 1 है तो कुबूल करना होगा कि अभी स्वराज्य दूर है ।
( नवजीवन)
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