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________________ जैनहितैषी। [ भाग १५ बात देखने में आई है और कितनी ही बार ग्रन्थकी भूमिकामें प्रकाशित की जायगी। हमने उसका हितैषी में नोट भी किया है प्रशस्तियों की ऐसी हालत होते हुए, कि लेखक लोग अक्सर प्रशस्तियाँ सम्भव है कि पिटर्सन साहबकी रिपोर्ट. उतारना छोड़ जाते हैं, चाहे उनका यह वाली प्रशस्ति ऐसी ही किसी वजहसे छोड़ना अपनी रायके मुताबिक अनुप- किसी प्रतिमें छूट गई हो या न उतारी योगी समझकर हो, प्रमादसे हो और गई हो और जिस विद्वान्के अधिकारमें या समझकी किसी गलती तथा भूलके वह प्रति हो; उसे असग कविका कहींसे कारण हो। कितने ही शास्त्रबंडल, गुटके वह परिचय मिला हो जो श्रारा आदिकी तथा पोथे ऐसे पाये जाते हैं जिनमें एक प्रतियों में पाया जाता है और उसने उसे एकमें कई कई ग्रन्थ लगातार लिखे हुए उपयोगी समझकर अपनी प्रतिमें लिख • हैं और किसी किसी ग्रन्थमें ग्रंथकी लिया हो। बादको जब उस प्रतिपरसे समाप्ति लिख देने के बाद प्रशस्ति लगी दूसरी प्रतियाँ हुई हो तब वह परिचय हुई होती है । लेखक लोग बहुधा उस ग्रन्थका ही एक अङ्ग बन गया हो और समाप्ति परसे ग्रंथका होना वहीं तक उसने प्रशस्तिका रूप धारण किया हो । समझकर उसी हद तक उसकी कापी अथवा यह भी सम्मव है कि असग कर देते हैं और आगे प्रशस्तिको पढ़कर कवि ने, पहले इस ग्रन्थकी कोई प्रशस्ति देखनेका कष्ट नहीं उठाते-यह समझ ही न लिखी हो, सिर्फ ग्रन्थकी समाप्ति लेते हैं कि अब इसके आगे दूसरा आदिके सूचक वे दो पद्य (कृत महावीर 'प्रन्थ है। इस तरह पर बहुत कुछ चरित्रमित्यादि) लिखे हो जो पारा प्रशस्तियाँ छूट जाया करती हैं और यही आदि की प्रतियों में पाये जाते हैं। साथ वजह है कि एक ही ग्रन्थकी कुछ प्रतियों में ही, ग्रन्थकर्ताने अपनी प्रतिमें याददाश्तके उसकी प्रशस्ति पाई जाती है और तौरपर उन दो पद्योंको भी लिख रक्खा कुछमें वह बिलकुल ही देखनेको नहीं हो जिसमें उन्होंने अपने विद्याध्ययन और मिलती। उदाहरण के लिये श्रारा जैन- वरला नगरी में ग्रन्थाष्टकके रचने का ज़िकर सिद्धान्त-भवनकी श्रुति मुनिकृत 'भाव- किया है । उस वक्त पाठकों की माँगकी संग्रह' की एक ताड़पत्रांकित प्रतिको वजहसे जो प्रतियाँ हुई हो उनमें वे चारों लीजिये । इसमें अन्तिम गाथा 'इदिगुण' ही पद्य ग्रन्थके एक अङ्ग रूपसे नकल हो के बाद “इति भावसंग्रहः समाप्तः" यह गये हो। बादको ग्रन्थकर्ताने इस ग्रन्थकी प्रन्धकी समाप्तिसूचक वाक्य देकर सात वह प्रशस्ति लिखी हो जो पिटर्सन गाथाओं में ग्रन्थकी प्रशस्ति दी है और साहबकी रिपोर्ट में पाई जाती है और उसके बाद फिर वही समाप्तिका वाक्य उसके लिखे जाने पर फिर उन दों पद्योंकी दिया गया है । ग्रन्थकी यह प्रशस्ति और कोई ज़रूरत न समझी गई हो जो पहले कितनी ही प्रतियों में नहीं पाई जाती। समाप्ति आदिके सूचक लिने थे और इसहाल में यह ग्रन्थ माणिकचन्द ग्रन्थमाला• लिए उन्हें ग्रन्थकर्ताने स्वयं निकाल दिया में भी बिना प्रशस्तिके ही छपा है, यह हो । और तबसे जो प्रतियाँ प्रन्थकर्ताकी खबर पाकर हमने इस प्रन्थकी प्रशस्ति • अपने जीवन में हर एक ग्रन्थकत को अपने ग्रन्थ के को ग्रन्थमालाके मन्त्री साहबके पास घटाने बढ़ानेका अधिकार रहता है, और इससे भी ग्रन्थों में भेजा है और इसलिये अब वह शायद पाठभेद हो जाया करते है। Jain Education International For Personal & Private Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.522893
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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